बाढ़ की विभीषिका के बाद पशुओं में होने वाले रोग एवं उनसे बचाव

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बाढ़ की विभीषिका अब प्रति वर्ष बिहार के लिए पर्याय बन गई है जो प्रति वर्ष बिहार के किसी न किसी हिस्से को तबाह कर रही है। इस वर्ष भी बाढ़ गंगा एवं अन्य नदियों के तटवर्ती बिहार के सभी जिलों में भयावह रूप लेकर आई है। तटवर्ती जिलों की आधी से अधिक आबादी और पशु बाढ़ से प्रभावित हैं। बाढ़ के समय पशुओं को बचाने के प्रयास किए गए हैं परन्तु बाढ़ के उपरान्त पशुओं में अनेक बिमारियों के होने की संभावना बनी रहती है। सबसे बड़ी समस्या तो पशुओं के चारे की होती है। खड़ी फसल एवं इक्कठा किया हुआ सूखा चारा पानी में डूब जाता है। किसान पानी में डूबने से सड़े चारे या भींगने से जिस चारे में फफूंद लग चुका होता है उसे ही खिलाने को विवश हो जाता है। साथ ही बाढ़ के कारण जल जमाव के कारण मच्छरों, मक्खियों, कीटों इत्यादि के द्वारा पशुओं में अनेकों बीमारियों का फैलाव भी शुरू हो जाती है। इसके अतिरिक्त जल जमाव एवं सूखे जगह की कमी के कारण पशुओं के पैर ज्यादातर समय कीचड़ में डूबे रहने एवं हमेशा खड़े रहने से तरह तरह की बीमारियों के प्रकोप में आ जाते हैं। ऐसे समय में यदि कुछ बातों का ध्यान रखा जाए तो पशुओं को बीमारियों से बचाया जा सकता है।

  • बाढ़ राहत शिविरों/ऊंचे बाहरी जगहों से पशुओं को तब ही गाँव-घरों में लाया जाए जब तक कि जमीन अच्छी तरह सूख जाए।
  • पशुओं के बाड़ों में नीचे का फर्श पर ईट खईजा या बालु बिछावन अच्छा होता है जिससे जल निकासी की भी व्यवस्था हो जाती है।
  • पशुओं को कभी भी सड़ा हुआ भूसा, पुआल, अनाज, या कोई अन्य चारा नहीं खिलाऐं अन्यथ पेट, लीवर या किडनी की बिमारी हो सकता है।
  • फफूंद लगा हुआ चारा/अनाज तो बिलकुल ही न खिलाए, क्योंकि फफूंद जनित टॉक्सिन लीवर, किडनी, फेफड़ों एवं आँतों के लिए अत्यन्त घातक होते है।
  • डूबा हुआ चारा खिलाने से पहले कड़ी धूप मे सुखा लें एवं सूँघ कर आश्वस्त हो लें कि इसमें कोई फफूंद तो नहीं लगी है, तब ही पशुओं को खिलाए साथ ही ऐसे चारों को सभी पशुओं को एक बार नहीं खिलाए, पहले एक-दो पशुओं को खिला कर 2-3 दिनों तक जांच लें तब ही अन्य पशुओं को खिलाए।
  • जहां तक हो सके पशुओं के खड़े होने वाले स्थानों पर किचड़ नहीं होने दें।
  • धूप तेज होने पर पशुओं को छायादार जगहों पर बांधे ज्यादा गर्मी से पशुओं में कई तरह की बीमारी होती है।
  • पशुओं को ताजा चापकाल/बोंरिंग का ही पानी दें, बाढ़ का जमा हुआ पानी तो बिलकुल ही न दें।
  • मच्छरों, मक्खियों, कीटों चिमोकन इत्यादि से बचाव के लिए कीटनाशक दवा, ब्लिंचिंग पाउडर, चूना इत्यादि का नियमित छिड़काव एवं प्रति दिन शाम मच्छरों को भगाने के लिए धुवाँ करना चाहिये।
  • फिर भी यदि पशुओं में बीमारियों के कोई भी लक्षण दिखाई दे तो तुरंत पशुचिकित्सक से सम्पर्क करें।

पशुओं में बाढ़ के बाद होने वाले प्रमुख बीमारियां इस प्रकार है:

लंगड़ी बुखार (Black Quarter): गो-वंशीय पशु विशेष रूप से जो 6 माह से 2 वर्ष के होते है उनमें यह बीमारी होती है। खासकर वहां, जहां जल जमाव की समस्या है। यह बीमारी गो-वंशीय के अतिरिक्त भेड़, बकरियों एवं सुअरों में भी हो जाती है। अचानक लंगड़ापन, अत्यधिक बुखार, जंघाओं एवं कंधों के भारी मांसपेशियों, छाती, पीठ, गलें इत्यादि प्रभावित होते हैं। अतः लक्षण दिखाई देते ही पशुचिकित्सक से तुरंत सम्पर्क करना चाहिये। इस बीमारी से बचाव के लिए टीकाकरण पूर्व में ही कर लेना चाहिए।

एन्थ्रेक्सः एन्थ्रेक्स होने की संभावना बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में अधिक रहती है। इसमें पशुओं में अचानक बुखार आता है एवं बिना कोई समय दिए ही पशु की मृत्यु हो जाती है। मृत्यु उपरान्त मुहं, नाक, कान, योनी या/और मलद्वार से रक्त स्त्राव होने लगता है जो जिसमें थक्का जमाव नहीं होता है। मृत्यु उपरांत पशुओं के शरीर में अकड़ (rigor mortis) नहीं पाई जाती है। यदि ऐसा लक्षण दिखाई दे तो तुरंत निकट के पशुचिकित्सक से सम्पर्क करें एवं मृत पशु को न छुऐ तथा पशुचिकित्सक के दिए निर्देशों का पालन करें। इस बीमारी का बचाव एन्थ्रेक्स के टीकाकरण द्वारा किया जा सकता है।

डायरिया: बाढ़ के उपरांत डायरिया एक सामान्य बीमारी है जो फफूंद जनित चारा, पुआल, भूसा इत्यादि खिलाने, प्रोटोजोआ या कृमि के संक्रमण से होता है। सर्वप्रथम कोई भी चारा खिलाने के पहले सूंघ कर अवश्य जांच लें तथा फफूंद वाला चारा न खिलाऐं तथा कृमिनाशक एवं प्रोटोजोआ नाशक दवा पशुचिकित्सक की सलाह पर ही खिलाऐं।

टिटेनस: यह बीमारी सामान्य रूप से यदि किसी पशु को बाढ़ के समय घाव रहे तो हो सकती है। बकरियों एवं घोड़ों में यह ज्यादा होती है। सबसे पहले जबड़ों में अकड़न आती है फिर पूरा शरीर अकड़ जाता है। टिटेनस का टीकाकरण हर बरसात के पहले घोड़ों में अवश्य करा लेना चाहिये।   लक्षण प्रकट होने पर पशुओं को बचाना कठिन हो जाता है। ऐसी स्थिति में पशुचिकित्सक से सम्पर्क कर तुरंत इलाज शुरू कराना चाहिये।

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फुट रॉट (पैरों का सड़ना): लगातार कीचड़-पानी इत्यादि के सम्पर्क में रहने पर गायों, भैंसों,  बकरियों तथा भेड़ों के खुरों के बीच और उपर के चमड़े काफी मुलायम हो जाते है। ऐसी स्थिति में खुरों में दर्द भरी सूजन आ जाती है, उसमें मक्खियों द्वारा संक्रमण और उसमें लार्वा उत्पन्न होने से घाव और भयावह हो जाता है। प्रतिदिन साफ सफाई, मरहम पट्टी एवं उचित देखभाल की आवश्यकता होती है। पूर्ण ईलाज के लिए पशुचिकित्सक से सम्पर्क किया जाना चाहिये। बचाव के लिए 4% कॉपर सल्फेट के घोल से यदि प्रतिदिन दो-तीन बार बाढ़ के समय पैरों-खुरों को धोया जाय तो इस रोग से बचाव हो सकता है।

थनैलाः बाढ़ के समय एवं उनके बाद दुधारू पशुओं में थनैला होने की संभावना काफी बढ़ जाती है। थनैला से बचने के लिए हल्के गर्म के साथ हल्के साबुन से धुलाई कर ही दूध दूहें और दूहने के पूर्व हाथों को अच्छी तरह धोकर साफ़ कर लेना चाहिये। पशुओं को दुहने के उपरांत साफ जगहों पर ही बांधे ताकि संक्रमण से बचाव हो सकें।

लीवर फ्लूक: गायों, भैसों, भेड़ों, बकरियों इत्यादि में बाढ़ के उपरान्त लीवर फ्लूक का संक्रमण बहुत ही ज्यादा होता है। जल जमाव के कारण घोंघों की संख्या बढ़ जाती है जिसमें लीवर फ्लुक के अंडे पनपते है, और वो घासों को संक्रमित कर देते है, जिससे पशुओं में लीवर फ्लूक फैल जाता है।      समय-समय पर पशुओं को फ्लुकीसाइड दवा बाढ़ प्रभावित जगहों पर देकर पशुओं को इस संक्रण से बचाया जा सकता है।

सर्रा (ट्रिपैनोसोमिऐसिस): मक्खियों, मच्छरों, चिमोकन इत्यादि के प्रकोप से यह बीमारी फैलती है। रक्त में पाये जाने वाले प्रोटोजोआ से पशुओं में सर्रा होती है। इस बीमारी का टीका अभी तक उपलब्ध नहीं है। मच्छरों, मक्खियों, चिमोकन इत्यादि के नियंत्रण से सर्रा से बचाव संभव है। इस बीमारी का लक्षण बहुत ही जटिल होता है इसकी पहचान पशुचिकित्सक द्वारा ही की जाती है। भैसों, गायों एवं घोड़ों में सर्रा बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में बहुत ही सामान्य है। इस बीमारी में बुखार अचानक आ जाता है। अतः कोई भी लक्षण प्रकट हो तो तुरंत पशुचिकित्सक से सलाह लें।

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लाल पेशाब (बबेसियोसिस): जैसा की नाम से स्पष्ट है इस बीमारी में तेज बुखार के साथ लाल पेशाब आना शुरू हो जाता है एवं भूख में कमी आ जाती है तथा पशुओं में खून की कमी हो जाती है। ऐसे लक्षण दिखाई देते ही निकट के पशुचिकित्सक से सलाह लेकर तुरन्त ईलाज कराना चाहिये।

इन सभी बिमारियों के अतिरिक्त पशुओं में सामान्य रूप से बाढ़ के समय या बाद में कृमि का प्रकोप बढ़ जाता है। इसके लिए तीन माह के अन्तराल पर कृमिनाशक दवा सभी पशुओं को नियमित रुप से देते रहना चाहिए।

The content of the articles are accurate and true to the best of the author’s knowledge. It is not meant to substitute for diagnosis, prognosis, treatment, prescription, or formal and individualized advice from a veterinary medical professional. Animals exhibiting signs and symptoms of distress should be seen by a veterinarian immediately.

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