नेजल सिस्टोसोमोसिस रोग- एक परिचय

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नेजल सिस्टोसोमोसिस एक चपटा कृमि-जनित रोग है जो सिस्टोसोमा नेजेली नामक खूनी फ्लूक कृमि के बैल, गाय, भैंस, भेड़, बकरी एवं घोड़ा के नाक की शिरा मे उपस्थित रहने के कारण होता हैं। इसे नेजल ग्रेनुलोमा या स्नोरिंग रोग या नकरा रोग से भी लोग जानते हैं। भारत में इस रोग का प्रकोप लगभग सभी राज्यों में है एवं इसके कारण पशुओं की उत्पादक क्षमता में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से अत्याधिक कमी हो जाती है।

रोग का कारण

नेजल सिसटोसोमोसिस या नेजल ग्रेनुलोमा या नकरा रोग, सिस्टोसोमा नेजेली नामक चपटा कृमि के कारण होता है। इस कृमि को खूनी फ्लूक भी कहा जाता हैं क्योंकि सिस्टोसोमा नेजेली कृमि प्रभावित पशुओं की नाक की शिरा में रहता है। इस रोग का प्रकोप गाय एवं बैल में, भैंस की अपेक्षा अधिक होता है। घर पर ही आहार ग्रहण करने के कारण इस रोग का संक्रमण कम उम्र के पशुओं (बछड़ों) में प्रायः कम देखने को मिलता है। सिस्टोसोमा नेजेली फ्लूक कृमि का पहचान सर्वप्रथम महाराजा अनंत नारायणन राव ने 1933 ईस्वी में मद्रास पशु चिकित्सा महाविद्यालय, तमिलनाडु में किए थे।

सिस्टोसोमा नेजेली फ्लूक की आकृति

नर एवं मादा सिस्टोसोमा फ्लूक अलग-अलग होते हैं। मादा फ्लूक बेलनाकार एवं नर फ्लूक से लंबा होती है जबकि नर फ्लूक बेलनाकार एवं मादा फ्लूक से मोटा होता है। मादा फ्लूक संभोग के दौरान नर फ्लूक के शरीर में मौजूद गायनोफोरिक नली में रहती है।

जीवन-चक्र

सिस्टोसोमा नेजेली खूनी फ्लूक के जीवन-चक्र में बैल, गाय, भैंस, भेड़, बकरी एवं घोड़ें अन्तिम पोषक का कार्य करते हैं, जबकि जलीय घोंघा के प्रजाति इन्डोप्लेनोरबिस इक्जूसटस मध्यस्थ पोषक का कार्य करते हैं। प्रभावित पशु की नाक में विकृति एवं नाक से स्राव के साथ फ्लूक का अण्डा बाहर निकलता है। अंडें से मिरासिडिया लार्वा पानी के सम्पर्क में आने सें निकलता है। मिरासिडिया लार्वा  इन्डोप्लेनोरबिस इक्जूसटस घोंघा में प्रवेश कर, क्रमशः स्पोरोसिस्ट, डाउटर स्पोरोसिस्ट एवं सरकेरिया लार्वा में परिवर्तित हो जाता हैं। फिर सरकेरिया लार्वा संक्रमित घोंघा से निकलकर पानी मे तैरता रहता है। जब अन्तिम पोषक जैसे. बैल, गाय, भैंस, भेड़, बकरी एवं घोड़ा जलीय घोंघा संक्रमित तालाब मे पानी पीने या स्नान करने के लिए प्रवेश करती है, तो सरकेरिया लार्वा पशु के चमड़े को छेद कर शिरा में प्रवेश करके, सिस्टोसोमुला (अवस्यक फ्लूक) में परिवर्तित हो जाते है। अवस्यक फ्लूक नाक की शिरा में पहुँच कर वयस्क फ्लूक में विकसित होकर मादा सिसटोसोमा नेजेली फ्लूक अण्डें देना शुरू करती हैं। फिर अंडें नाक से स्राव के साथ बाहर निकलता है।

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रोगजनकता

सिस्टोसोमा नेजेली फ्लूक के कारण नाक की श्लेष्मा में पहले ग्रन्थिकार सूजन हो जाता हैं, जो बाद में फूलगोभी के आकार ग्रेनुलोमा का रूप धारण कर लेता है। नेजल सिस्टोसोमोसिस रोग एक वर्ष के नीचे की उम्र बछड़ों में बहुत कम होता है। घर पर ही बछड़ों का पालन-पोषण होने के चलते सामान्यतः एक वर्ष के नीचे की उम्र बछड़ों में इस रोग का प्रकोप बहुत कम होता है। सबसे ज्यादा नेजल सिसटोसोमोसिस रोग का संक्रमण तीन वर्ष के ऊपर के गाय-बैल में होता है। भैंस की अपेक्षा गाय में नेजल सिस्टोसोमोसिस रोग के लक्षण एवं विकृति अधिक स्पष्ट होते हैं।

रोग का लक्षण

नेजल सिस्टोसोमोसिस रोग के कारण प्रभावित पशु में सर्दी-जुकाम, नाक से उजला-पीला स्राव का निकलना, लगातार छींक आना, श्लेष्मा में सूजन, फूलगोभी के आकार ग्रेनुलोमा विकृति के कारण प्रभावित पशु को साँस लेने मे कठिनाई होता है जिसके चलते संक्रमित पशु नाक से जोर-जोर से आवाज करता है, इसलिए इस रोग को स्नोरिंग रोग भी कहते हैं।

इस रोग के कारण प्रभावित पशु के शरीर भार में कमी, दुधारू पशुओं के दुग्ध-उत्पादन एवं प्रजनन क्षमता में कमी तथा कार्य करने वाले पशुओं (बैंल एवं भैंसा) की कार्य क्षमता मे कमी हो जाती है।

रोग की पहचान

नेजल सिस्टोसोमेासिस रोग के निदान लक्षणों एवं नाक में फूलगोभी के आकार ग्रेनुलोमा के मौजूद रहने के आधार पर किया जा सकता है।

सूक्ष्मदर्शी के द्वारा नाक के स्राव का परीक्षण करने पर नेपोलियन के टोपी या बुमरेंग या पलाक्यून के आकार के सिस्टोसोमा नेजेली फ्लूक के अंडे दिखाई पड़ते हैं।

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प्रभावित नाक में मौजूद फूलगोभी के आकार के घाव को स्काल्पेल की सहायता के सहारें खरोंचकर, खरोचें गये पदार्थ को एक परखनली में एकत्रित करके 10 प्रतिशत पोटैशियम हाइड्रोक्साइड के घोल में मिलाकर उबालते है। ऐसा करने पर खरोचें गये पदार्थ में उपस्थित म्यूकस एवं ऊतक घुल जाते हैं। फिर परखनली में नीचे के जमे घोल की बूँदों को स्लाइड पर लेकर सूक्ष्म-दर्शी के द्वारा परीक्षण करने पर नेपोलियन के टोपी या बुमरेंग या पलाक्यून के आकार के अंडे दिखाई पड़ते हैं।

इन्डोप्लेनोरबिस घोंघा
नेजल सिस्टोसोमोसिस से संक्रमित गाय
नाक के स्राव में उपस्थित नेपोलियन के टोपी के आकार का अंडा

रोग का उपचार

नेजल सिस्टोसोमोसिस रोग के उपचार में ऑक्सीक्लोजानाइड कृमिनाशक दवा की 10 मिलिग्राम प्रति किलोग्राम पशु शरीर भार पर एक-एक सप्ताह के अन्तराल पर तीन सप्ताह तक देने पर फायदेमंद साबित होता है। इसके अलावा, लिथियम एन्टिमोनी थायोमेलेट औषधि 20 मिलिलिटर मात्रा की सुई के द्वारा माँस में  एक सप्ताह के अन्तराल पर तीन सप्ताह तक देने पर लाभदायक सिद्ध होता है, लेकिन लिथियम एन्टिमोनी थायोमेलेट दवा से यह रोग पूरी तरह ठीक नहीं होता है। पुनः दो महीनों के बाद

नेजल सिसटोसोमियोसिस रोग प्रकट हो जाता है। इसके अलावे सोडियम एन्टीमनी टारटरेट या प्राजीक्यूनटल या आइवरमेक्टिन दवा का उपयोग ईलाज में करना भी फायदेमंद होता है। कृमिनाशक औषधि का प्रयोग पशुचिकित्सक के सलाह के अनुसार करनी चाहिए।

बचाव

  1. नेजल सिस्टोसोमोसिस रोग से बचाव हेतु जलीय घोंघों से संक्रमित तालाबों में पशुओं को स्नान नही कराना एवं पानी भी नही पिलाना चाहिए।
  2. घोंघों को पनपने नही देने के लिए चारागाह के आस-पास जल का जमाव नहीं होने देना चाहिए।
  3. मछली पकड़ने वाले जाल के द्वारा जलीय घोंघों  को तालाबों से हटाते रहना चाहिए और घोंघा संक्रमित तालाबों मे बत्तखें पालना चाहिए, क्योंकि बत्तख घोंघा को खाता है।
  4. जलीय घोंघों से संक्रमित स्थानों के आस-पास पशुओं को नहीं चराना चाहिए।
  5. घोंघा संक्रमित जलीय स्थानों पर घोंघा नाशक रसायन जैसे- कॉपर सल्फेट 22.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से बालू के साथ मिलाकर अधिक धूप वाले दिन में  घोंघा मौजूद जलीय स्थानों पर छिड़काव करना चाहिए।
  6. तालाबों के चारों ओर घोंघानाशक पौधें जैसे-नीम, सोप बेरी, यूकलिप्टस आदि को लगाना चाहिए क्योकि इन पौधों के पत्ते घोंघानाशक होने के चलते घोंघा संक्रमित तालाब के पानी मे गिरकर घोंघा को नष्ट करने का काम करते हैं।
  7. तालाबों में घोंघों को खाने वाली मछलियों जैसे- पेनगेसियस पेनगेसियस एवं ओस्फोरोमीनस गोउरामि पालकर भी घोंघों की संख्या को नियंत्रित किया जा सकता है।
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The content of the articles are accurate and true to the best of the author’s knowledge. It is not meant to substitute for diagnosis, prognosis, treatment, prescription, or formal and individualized advice from a veterinary medical professional. Animals exhibiting signs and symptoms of distress should be seen by a veterinarian immediately.

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