श्वेत क्रांति के आने से गांव -गांव में शंकर गाय आम तौर पर देखी जा सकती हैं। इससे दुग्ध उत्पादन में भारत पूरे विश्व में प्रथम स्थान पर है परंतु प्रति पशु दुग्ध उत्पादन काफी कम है जिसे अभी और अधिक बढ़ाया जा सकता है। परंतु इसके साथ-साथ पशुपालकों को शंकर गायों की बहुत सी बीमारियों और मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। शंकर गाय देसी नस्ल की गाय की तुलना में पूरी तरह वातावरण के अनुसार अपने आप को नहीं ढाल पाई है जिससे उन में प्रजनन संबंधी कई विकार उत्पन्न हो जाते हैं। सबसे बड़ी समस्या है कई बार गर्भाधान कराने के बावजूद पशुओं का गर्भित ना होना अर्थात पुनरावृति प्रजनन। पशुपालक की यह आम शिकायत होती है कि विदेशी/ शंकर गाय दुग्ध उत्पादन मैं तो बहुत अच्छी होती हैं परंतु कई बार लंबे समय तक यह गर्भित नहीं हो पाती हैं। हमारे प्रदेश में बांझ पशुओं के बारे में कोई नीति नहीं है। अतः पशुपालक ऐसे बांझ पशुओं को निराश्रित छोड़ देते हैं जिससे निराश्रित गोवंश की समस्या में बढ़ोतरी हुई है। इन निराश्रित पशुओं के द्वारा आए दिन सड़क दुर्घटनाएं होती हैं एवं किसानों की फसलों का अत्याधिक नुकसान होता है।
अनेक वैज्ञानिक शोध से यह ज्ञात हुआ है कि पशुओं के बिना बच्चा दिए उनसे दूध लिया जा सकता है और यह इस समस्या का समाधान हो सकता है। यह उपचार उन गायों में कामयाब है जो कि कम से कम एक बार बच्चा दे चुकी हो जिससे उनका अयन पूरी तरह से विकसित हो। हार्मोन के इंजेक्शन लगाकर दूध लेने की यह प्रक्रिया केवल गाय में ही सफल है जबकि भैंसों में नहीं। हमेशा यह याद रखना चाहिए यह प्रक्रिया नैसर्गिक गर्भाधान का तोड़ नहीं है तथा इसे हमेशा अंतिम प्रयास के रूप में प्रयोग करना चाहिए। इस प्रक्रिया का उद्देश्य केवल बांझ पशु से दूध लेना है तथा पशुपालक का खर्च कम करने के अतिरिक्त निराश्रित गोवंश की समस्या का समाधान करना भी है।
पशु का चुनाव
इस प्रक्रिया को अपनाने के लिए पशु का चुनाव अत्यंत आवश्यक है तथा प्रत्येक बांझ पशु से इस प्रक्रिया द्वारा दुग्ध उत्पादन नहीं प्राप्त किया जा सकता है। पशु का चुनाव योग्य पशु चिकित्सक के निरीक्षण के बाद ही करना चाहिए और चिकित्सक के सुझाव पर अमल करना चाहिए। पशु बांझ हो परंतु उसका शारीरिक वजन तथा स्वास्थ्य ठीक हो तथा गर्भाशय में कोई खास बीमारी ना हो। पशु का अयन पूर्णरूपेण विकसित तथा स्वस्थ हो । अयन में कोई बीमारी ना हो, नहीं कोई थन मरा हो, नहीं तो उतना ही दूध कम उत्पादित होगा। यदि पशु एक बार बच्चा दे चुका है तो परिणाम अधिक अच्छे होते हैं । ऐसे पशु जिन्होंने पिछली व्यात में अधिक दूध दिया हो तथा अब वह बांझ है या गर्भित होने में अधिक मुश्किल आ रही हो उनके लिए यह विधि अति उत्तम है । यदि पशु ऋतु चक्र में आता हो तो यह टीके ऋतु चक्र में आने से कम से कम 7 दिन बाद शुरू करने चाहिए।
स्वस्थ अनुउर्वर मादा पशुओं को निम्न वैज्ञानिक उपचारों द्वारा दूध देने योग्य बनाया जा सकता है:
प्रथम 3 दिवस
मादा पशु को 2 मिलीलीटर बेटामेथासोन मांस पेशी में अर्थात इंट्रा मस्कुलर इंजेक्शन दें।
चौथे दिन से लेकर दसवें दिन तक
एस्ट्रोजन – प्रोजेस्ट्रोन के मिश्रित टीके को सुबह और शाम दे। 1 दिन की औषधि की मात्रा का हिसाब लगा ले। इसके बाद दवा को बराबर भागों में बांट लें। आधी मात्रा सुबह और आधी मात्रा शाम को दें। प्रत्येक पशु को प्रति किलोग्राम वजन पर 0.1 मिलीग्राम एस्ट्रोजन और 0.25 मिलीग्राम प्रोजेस्ट्रोन देना है। इसके अनुसार 7 दिन के लिए औषध की मात्रा का हिसाब लगा ले और एस्ट्रोजन एवं प्रोजेस्ट्रोन को लगभग 7 मिलीलीटर रीडिस्टिल्ड एल्कोहल अर्थात मीथेनाल मे ही घोलें। इसके पश्चात प्रतिदिन की आवश्यकता अनुसार औषधि की मात्रा इंजेक्शन द्वारा उप त्वचा अर्थात सबक्यूटेनियस विधि से लगा दें। इंजेक्शन लगाने के पश्चात उस स्थान की त्वचा की हल्की सी मालिश कर दें।
पशुपालकों को उपचार शुरू होने से चार-पांच दिन बाद सुबह शाम जैसे सामान्य दूध दुहने के समय बैठते हैं वैसे ही अयन तथा थनों को पसुराना चाहिए, धार मारनी चाहिए। पशु के लिए कृमि नाशक औषधि देने के बाद संतुलित आहार, हरा चारा और मिनरल मिक्चर का समुचित प्रबंध करना अत्यंत आवश्यक है। इस विधि से बांझ पशु ने पिछली व्यॉत में जितना दूध दिया था, उसका 60 से 70% दूध उत्पादन किया जा सकता है तथा पशु पूरी व्यॉत, दूध देता है। यह दूध आम ब्याए पशु के दूध की तरह ही होता है। इस उपचार के बाद लगभग 15 से 20% बांझ पशुओं में ऋतु चक्र सही हो जाता है तथा उपाय करने से पशु गर्भित भी हो सकता है।
11 दिन से लेकर 23 वे दिन तक
पशु में ऊपर दिए गए इंजेक्शन का प्रभाव देखें। उपचार के बाद पशु के अयन बढ़ने लगते हैं तथा थनों में दूध भरने लगता है। इस अवस्था तक दूध नहीं दुहना चाहिए।
24 दिन से लेकर 26 दिन तक
100 मिलीग्राम का लारजेकटिल इंजेक्शन मांस पेशी अर्थात इंटरामस्कुलर दें।
27 में दिन
पशु को दुहना आरंभ करें। कभी-कभी दूध थक्केदार होता है। अतः सलाह दी जाती है कि पहले 7 दिन का दूध प्रयोग ना करें क्योंकि, इस विधि में पशु को लगातार हार्मोन के टीके लगते हैं तथा यह हार्मोन दूध में भी आ जाते हैं ।हारमोंस के कारण इसका स्वाद भी अच्छा नहीं होता है। अतः दूध को उपचार शुरू होने से एक महीने बाद तक नहीं इस्तेमाल करना चाहिए। बल्कि इस दूध को किसी गड्ढे में दबा देना चाहिए। इस दूध को कोई पालतू कुत्ता या बिल्ली भी ना पिए। 1 महीने के बाद दूध में हार्मोन की मात्रा सामान्य दूध की तरह हो जाती है तथा इसका उपयोग किया जा सकता है। इस विधि से जब पशु को टीके लगते हैं तो शुरू शुरू में उस पशु में रितु काल के लक्षण तीव्र होते हैं तथा परिणाम स्वरूप पशु को चोट लगने का डर रहता है। ऐसे पशुओं की सही संभाल करें तथा इन्हें बाकी पशुओं से अलग रखें। कभी-कभी गर्भाशय ग्रीवा एवं योनि फूल के रूप में दिखाई पड़ती है, सुस्ती, कब्ज, भूख कम लगने, चलने फिरने में भी परेशानी हो सकती है। यह समस्याएं कुछ दिनों के बाद स्वयं ही ठीक हो जाती हैं तथा इसके लिए किसी तरह के उपचार की आवश्यकता नहीं होती है। यदि लापरवाही से किसी गर्भित पशु को यह इंजेक्शन लग जाए तो उस पशु में गर्भपात भी हो सकता है ।
इस प्रकार का दूध जो हार्मोन संबंधित उपचार के बाद प्राप्त होता है साधारण रूप से प्राप्त हुए दूध से बिल्कुल भी अलग नहीं होता है।
पशुओं को दिन में दो या तीन बार दुहना चाहिए। वैसे यह पशु की दुग्ध उत्पादन क्षमता पर भी निर्भर करता है। जैसे जैसे समय बढ़ता जाएगा दुग्ध उत्पादन क्षमता में भी बढ़ोतरी होती जाएगी। लगभग 50 दिन के अंदर पशु अधिकतम दुग्ध उत्पादन करने लगेगा। यदि पशु में कोई खराबी या बीमारी नहीं है तो वह 300 दिन की अवधि तक दूध देता रहेगा।उपरोक्त उपचार अपने नजदीकी योग्य पशु चिकित्सा अधिकारी के निर्देशन में ही करें।
इस उपचार से अधिकतम सफलता प्राप्त करने के लिए निम्न बातों का ध्यान रखें:
- योग्य पशु चिकित्सक की निगरानी में ही इस विधि का प्रयोग करें।
- ऐसे पशुओं का उपचार करें जो कि नियमित रूप से गर्भित होने हेतु गर्मी में आते हो परंतु कई बार गर्भाधान कराने पर भी किसी कारण से गर्भित ना होते हों।
- किसी भी अवस्था में पशु का उपचार बंद ना करें। हार्मोन संबंधित चिकित्सा करते समय औषध की सही मात्रा और औषधि देने के समय का पूरा पूरा पालन करें।
- हार्मोन के टीके स्वयं न लगाएं।
- उपचार काल के दौरान पूरे समय पशु को, कृमि नाशक औषध देने के पश्चात आवश्यकतानुसार संतुलित आहार ,चारा व दाना दें।
- उपचार प्रारंभ करने वाले दिन से ही पशु के अयन की , दिन में दो बार मालिश करें तथा हल्के गुनगुने पानी से धोएं। ऐसा करने से पशु का अयन बढ़ेगा। सर्दियों में पशु को गुनगुने पानी से तथा गर्मियों में ठंडे पानी से स्नान कराएं।
- चिकित्सा काल के दौरान पशु में गर्मी के लक्षण दिखाई देने पर भी गर्भाधान न कराएं।
- उपचार के 30 दिन बाद ही दूध का प्रयोग करें इससे पहले इस दूध को किसी गड्ढे में गाड़ दें तथा कोई कुत्ता बिल्ली भी इस दूध को न पीएं।
जिन पशुओं से इस विधि द्वारा दुग्ध उत्पादन किया गया है उनको 300 दिन तक दूध लेने के बाद 45 से 60 दिन तक आराम देकर एवं दूध सुखाकर फिर दोबारा इसी उपचार से दुग्ध उत्पादन लिया जा सकता है।
नोट:- उपरोक्त तकनीक का प्रयोग किसी कुशल पशु चिकित्सक के निर्देशन में ही करें।
इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए। |
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