फाइटोबायोटिक्स: 21वीं सदी के प्राकृतिक आहारीय पूरक

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21वीं सदी के इस आधुनिक दौर में परंपरागत रूप से उपयोग एंटीबायोटिक्स, दर्द निवारक, ज्वर नाशी और कई अन्य प्रकार की औषधियों के बारे में आमजन भी बखूबी जानता है। जीवित जीवों खासतौर से पादपीय फफूंदों से तैयार एंटीबायोटिक्स ऐसे विशिष्ट पदार्थ हैं जो संक्रामक रोगाणुओं के प्रति कार्य करते हैं। लगभग प्रत्येक मरीज द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्न से हर चिकित्सक अवश्य ही परिचित हैं कि डाक्टर जी यह दवाई गर्म तो नहीं है। बेशक, परंपरागत एलोपैथिक औषधियों ने जीवन को संवारा है, लेकिन ऐसा प्रश्न इसलिए पूछा जाता है कि अब आमजन भी इस बात से परिचित है कि परंपरागत एलोपैथिक औषधियों के शरीर पर हानिकारक प्रभाव भी हैं। लगभग 80 प्रतिशत से भी अधिक एलोपैथिक औषधियों का निर्माण पादप जगत से ही किया जाता है। 2012 के एक शोधपत्र के अनुसार रोगाणुरोधी औषधियों खासतौर से एंटीबायोटिक्स की औसत खपत मनुष्यों एवं पशुओं में क्रमशः 116.4 और 144.0 मि.ग्रा. प्रति किलोग्राम अनुमानित थी जिसमें 2030 तक 67 प्रतिशत की बढ़ोतरी होने की संभावना है (Lhermie et al. 2017)। पशु खाद्य उत्पादों (दूध एवं चिकन माँस) में रोगाणुरोधी औषधियों के अवशेषों की उपस्थिति व्यापक एंटीबायोटिक रेजिस्टेंट अर्थात रोगाणुरोधी प्रतिरोध की ओर संकेत करती हैं। अतः एंटीबायोटिक्स के तर्कसंगत उपयोग के बारे में पशु स्वास्थ्य सेवा कर्मियों और पशुपालकों के बीच जागरूकता उत्पन्न होनी चाहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी कहा है कि एंटीबायोटिक्स का उपयोग पंजीकृत चिकित्सक की देखरेख में ही होना चाहिए।

फाइटोबायोटिक्स और उनके प्रकार

2004-2005 में, यूरोपीय संघ में पशु आहार से संबंधित एक नया विचार विकसित हुआ था, जो रोगाणुरोधी वृद्धि प्रवर्तकों (एंटीबायोटिक ग्रोथ प्रोमोटर्ज) के उपयोग को रोकता है और फाइटोबायोटिक्स के उपयोग की कल्पना करता है (Bagno et al. 2018)। फाइटोबायोटिक्स पौधों से व्युत्पन्न उत्पाद हैं जिन्हें पशुओं की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए आहार में दिया जाता है। भारत में कोरोनावायरस के संक्रमण से बचने के लिए हल्दी मिश्रित स्वर्ण दूध, काली मिर्च, तुलसी, दालचीनी, सौंठ और मुनक्का से बने काढ़ों का सेवन सत्य प्रमाणित हुआ है। बेशक, प्राचीन काल से यह सभी पदार्थ आयुर्वेद के अंतर्गत वर्णित किये जाते रहे हैं लेकिन आधुनिक युग में ऐसे सभी स्वास्थ्यकारी पदार्थों को फाइटोबायोटिक्स कहा जाता है। फाइटोबायोटिक्स को जैविक उत्पत्ति, रासायनिक संरचना और अन्य विशेषताओं के आधार पर निम्नलिखित समूहों में विभाजित किया गया है:

  1. जड़ी-बूटीः जड़ी-बूटी लवणीय या सुगंधित गुणों वाले सख्त तनारहित अल्पकालिक पौधे हैं जिनका उपयोग भोजन को स्वादिष्ट बनाने और सजावट करने, औषधीय प्रयोजनों, या सुगंध के लिए किया जाता है; गौण खाद्य तत्त्वों जैसे कि वसा, प्रोटीन एवं शर्करा और अन्य पौधों को छोड़कर। जड़ी-बूटियों का साग-सब्जी, औषधीय और कुछ मामलों में आध्यात्मिक सहित कई प्रकार के उपयोग हैं। ‘जड़ी बूटी’ शब्द का सामान्य उपयोग साग-सब्जी और औषधीय जड़ी बूटियों के बीच भिन्न होता है; औषधीय या आध्यात्मिक उपयोग में, पौधे के किसी भी हिस्से को ‘जड़ी-बूटियों’ के रूप में माना जा सकता है, जिसमें पत्ते, जड़, फूल, बीज, जड़ की छाल, आंतरिक छाल (और कैम्बियम), राल (रेसिन) और फली (पेरिकारप) शामिल हैं।
  2. मसालेः वनस्पति मूल के तीखे या सुगंधित पदार्थ जैसे कि काली मिर्च, दालचीनी, लौंग इत्यादि जिनका मसालों, सरंक्षकों आदि के रूप में उपयोग किया जाता है। मुख्य रूप से मसालों का उपयोग भोजन को स्वादिष्ट बनाने या रंगने के लिए उपयोग किया जाता है।

रसोई में उपयोग के आधार पर मसालों और जड़ी-बूटियों को श्रेणीबद्ध किया जाता है। जड़ी-बूटी आमतौर पर किसी भी पौधे के ताजे या सूखे पत्तेदार या फूलों वाले भागों को संदर्भित करती हैं जबकि आमतौर पर मसालों में पौधों के सुखाये हुए अन्य भाग जैसे कि बीज, छाल, जड़ और फलों को शामिल किया जाता है।

  1. सुगंधित तेलः तेल पौधों से प्राप्त होने वाला वाष्पशील (आसानी से सामान्य तापमान पर सुखाया जाने वाला) रासायनिक यौगिकों वाला एक जल-भीती (हाइड्रोफोबिक) तरल है। सुगंधित तेलों को आवश्यक तेल, वाष्पशील तेल, ईथर का तेल, ऑथरोलिया या साधारण तेल के रूप में जाना जाता है जैसे कि लौंग का तेल। यहां पर आवश्यक तेल इस अर्थ में ‘आवश्यक’ है कि इसमें पौधे की सुगंध ‘सार’ शामिल है अर्थात पौधे की विशिष्ट सुगंध जिसमें से यह प्राप्त होता है। यहाँ प्रयुक्त ‘आवश्यक’ शब्द का अर्थ मानव या पशु शरीर द्वारा अपरिहार्य या प्रयोग करने योग्य नहीं है, जैसा कि आवश्यक अमीनो एसिड या आवश्यक फैटी एसिड की शर्तों के साथ है, जो कि तथाकथित हैं, क्योंकि उन्हें किसी दिए गए पोषण से देने की आवश्यकता होती है (Reeds 2000)। सुगंधित तेलों को शीतल अर्थात कम दबाव, भाप या आसवन विधि द्वारा प्राप्त किया जाता है।animal
  2. रालः राल (रेसिन) का स्राव पौधों की विशेष गुहाओं में या पौधों की कई प्रजातियों में एक ठोस या अत्यधिक चिपचिपा पदार्थ होता है जो पेड़ों की छाल से बाहर निकलने के बाद वायु के संपर्क में आने के बाद कठोर या अर्द्ध ठोस हो जाता है। राल आमतौर पर यौगिकों का मिश्रण होता है जो विशेष संरचनाओं में बनता है जिन्हें मार्ग नलिका कहा जाता है। लाख के अपवाद के साथ, जो लाख कीट (केरिया लक्का) द्वारा निर्मित होता है, अन्य सभी प्राकृतिक राल पौधों से उत्पन्न होते हैं। रोसिन, डमर, कोपल, सैंडार्क, एम्बर और मनीला इत्यादि ऐसे प्राकृतिक रेसिन हैं जिनका उपयोग पेंट, वार्निश, भोजन, फार्मास्यूटिकल्स, चिपकने वाले, लाख, सौंदर्य प्रसाधन आदि में किया जाता है। आघात होने की स्थिति में पौधे अपने सुरक्षात्मक हित के लिए राल का स्राव करते हैं। राल पौधे को कीड़ों और रोगजनकों से बचाता है। राल पौधों को खाने वाले शाकाहारियों, कीड़ों और रोगजनकों की एक बड़ी श्रृंखला को भ्रमित करते हैं, जबकि वाष्पशील फेनोलिक यौगिक मित्र परजीवियों को आकर्षित कर उनकी रक्षा करते हैं। राल पानी में अघुलनशील लेकिन एल्कोहल, ईथर और तारपीन में घुलनशील होते हैं। राल भंगुर, अनाकार और पारदर्शी या अर्ध-पारदर्शी होता है। उसमें एक विशेष चमक होती है, आमतौर गलनीय, प्रज्वलित होने पर धुएँ की तरह जलने वाली होती है।
  3. गोंद: प्राकृतिक गोंद पादप जनित उत्पादों का पॉलिमरिक पदार्थ हैं जो मुख्य रूप से पौधों की कोशिकाओं में सेलूलोज के विघटन के कारण बनता है। इनको गाढ़ा या गाढ़ा प्रभाव देने के लिए पानी में घोल कर उपयोग किया जाता है। गोंद उत्पन्न करने वाले महत्वपूर्ण पेड़ बबूल (एकेसिया निलोटिका), खैर (एकेसिया कटेचु), कुलु (स्टरुकुलिया यूरेनस), धौरा (एनोगेयस लैटिफोलिया), पलास (ब्यूटिया मोनोसपर्मा), सेमल (बोहिनिया रेटुसा), मोहिन (लन्नेया कोरोमेनिया) और नीम (अज़डिरक्टा इंडिका) हैं। गौंद को कुछ पौधों जैसे ग्वार, इमली, चक्रमर्द (कैसिया तोरा) आदि से भी निकाला जाता है। ग्वार गम प्रमुख बीज आधारित प्राकृतिक गोंद है। विभिन्न प्रकार के गोंद पॉलीसेकेराइड या उनके डेरिवेटिव से मिलकर बनते हैं। हालांकि, गोंद एल्कोहल और अन्य कार्बनिक सॉल्वैंट्स में अघुलनशील हैं लेकिन गोंद पानी में घुलनशील हैं या पानी के साथ मिश्रित होने पर कम से कम नरम और फैल जाते हैं। वे पिघले बिना ही गर्म करने पर विघटित हो जाते हैं और जल जाते हैं। अधिकांश गोंद़े एक तरल रूप में पौधों से निकलते हैं जो वायु के संपर्क आने पर पारभासी, अनाकार, आंसू के आकार के पिंड या गुच्छे में सूख जाते हैं। प्राकृतिक गोंद का उपयोग भोजन में किया जाता है। इनका उपयोग पोषण में गाढ़ा (थिकेनिंग) व जैल (जैलिंग), स्थिरक (स्टेबीलाइजर) और पायसीकारक (इम्लसीफायर) एजेंट के रूप में किया जाता है।
  4. प्राकृतिक गोंद-रेजिन: यह गोंद और राल, दोनों का मिश्रण हैं और इनमें दोनों समूहों के गुणों पाए जाते हैं। इनमें आवश्यक तेलों के अंश भी विद्यमान होते हैं। ये आमतौर पर शुष्क और बंजर क्षेत्रों में उगने वाले पौधों से प्राप्त होते हैं। आमतौर पर उपयोग होने वाले कुछ गोंद-राल हींग, लोहबान, सलाई, गुग्गुल आदि हैं। इनका उपयोग फ़ार्मास्यूटिकल, मसाले, इत्र, सौंदर्य प्रसाधन, धूप आदि में किया जाता है।
और देखें :  पशुओं में विटामिन A का महत्त्व

फाइटोबायोटिक्स के लाभ

वर्तमान में फाइटोजेनिक अर्थात पादप जनित उत्पादों को पालतु पशुओं के आहार में फीड एडिटिव्स अर्थात पूरक तत्त्वों के रूप में उपयोग किया जा रहा है। हालांकि, यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि पादप उत्पादित पदार्थों पर अनुसंधान का एक अनिश्चित क्षेत्र है लेकिन विश्व स्तर पर 2018 में, फाइटोजेनिक फीड एडिटिव्स का 636.5 मिलियन अमेरिकी डालर का व्यापार था जिसके 2024 तक 1.04 बिलियन होने की संभावना है (CN 2020)। फाइटोबायोटिक्स के निम्नलिखित लाभ हैं:

  1. पर्यावरण हितैषी: वर्तमान में, फाइटोजेनिक फीड एडिटिव्स के उत्कृष्ट औषधीय, सरंक्षक और सुगंधित गुणों के कारण पालतू पशुओं के आहार में प्रयुक्त किये जाते हैं। इस समय बाजार में उपलब्ध कृत्रिम फीड एडिटिव्स की तुलना में इनकी आगे निकलने की प्रबल संभावना है क्योंकि फाइटोजेनिक फीड एडिटिव्स पर्यावरण हितैषी होने के साथ-साथ कृत्रिम फीड एडिटिव्स के समान ही गुण हैं जिनका कोई प्रतिकूल दुष्प्रभाव नहीं होता है।
  2. आहारीय स्वादिष्टता: विभिन्न प्रकार के पादप जनित पदार्थों जैसे कि धनिया, तुलसी, अदरक, लहसुन को आहारीय स्वाद बढ़ाने के लिए उपयोग किया जाता है। इनके उपयोग से आहारीय सेवन की क्षमता बढ़ने के साथ-साथ अन्य गुणकारी औषधीय लाभ भी प्राप्त होते हैं। पशुओं को यह पदार्थ खिलाने से उनके उत्पादित पदार्थों में स्वाद बढ़ जाता है।
  3. आर्थिक रूप से सस्ते: फाइटोबायेटिक्स ऐसे पदार्थ हैं जो आसानी घर में उपलब्ध होने वाले वे खाद्य तत्त्व हैं जिनका उपयोग दैनिक जीवन में शाक-सब्जियों के रूप में या इनके साथ किया जाता है। यह सभी पदार्थ (जैसे कि लहसुन, हल्दी, अदरक) बाजार में उपलब्ध फाइटोबायोटिक्स की तुलना में बहुत सस्ते होते हैं।
  4. प्रतिक्रियाओं की कम संभावना: फाइटोबायोटिक्स पादप जनित पदार्थ हैं जिनका उपयोग घर में खाद्य सामग्री के रूप में किया जाता है। अतः इनके सेवन से एलर्जी जैसी प्रतिक्रियाएं होने की संभावनाएं कम होती हैं।
  5. व्यापक चिकित्सीय प्रभाव: ऐसे बहुत से शोधों से यह सिद्ध हो चुका है कि ऐलो वेरा, हल्दी, चूना और नींबू के उपयोग से थनैला रोग, बरगद से योनिभ्रंश, बैंगन से दस्त, मूली से रूकी हुई जेर का सफल घरेलु इलाज किया जा सकता है। इस प्रकार बहुत से ऐसे औषधीय उपचार हैं जिनका उपयोग भारत सहित विश्व में स्थानीय तकनीकी ज्ञान के रूप में किया जाता रहा है। स्थानीय तकनीकी ज्ञान का विस्तृत शोध इस दिशा में अच्छी भूमिका निभाने में वांछनीय होने के साथ-साथ जनहितकारी भी है।
  6. दक्षता और सुरक्षापूर्वक उपयोग: भारत सहित, विश्व के विभिन्न भागों में स्थानीय तकनीकी ज्ञान के रूप में सामान्य जन भी घरेलु स्तर पर उपलब्ध पादप जनित औषधियों का उपयोग सदियों से करता रहा है। अतः आधुनिक युग में यह ज्ञान फाइटोबायोटिक्स के उपयोग को बढ़ाने में पूर्ण भूमिका निभाने में सक्षम है।

फाइटोबायोटिक्स के प्रभाव

फाइटोबायोटिक्स के रूप में पौधों का उपयोग प्राचीनकाल से संवेदनाहारी (एनेस्थेटिक), दर्दहारी (एनाल्जेसिक), एलर्जीरोधी, कैंसररोधी, एंटीसेप्टिक, एंटीबायोटिक, उद्वेष्टरोधी (एंटीस्पास्मोडिक्स), कषाय (एस्ट्रिंजेंट) किया जाता रहा है (Reeds 2000)। पादप जनित फाइटोबायोटिक्स के मानवीय शरीर एवं पशुओं में निम्नलिखित प्रभाव होते हैं:

  1. प्रीबायोटिक प्रभाव: फाइटोबायोटिक्स के प्रभाव को आंत के सूक्ष्मजीवों द्वारा उत्पन्न मेटाबोलाइट्स द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से मध्यस्थ किया जाता है। ये सूक्ष्मजीव अपने स्वयं के चयापचय के लिए बायोएक्टिव यौगिकों का उपयोग करते हैं (Kamel 2001)। शोधों में यह पाया गया है कि प्रीबायोटिक ऑलिगोसेकेराइड्स और कुछ पौधों के अर्क आंतों में पाये जाने वाले सहभोजी सूक्ष्मजीवों के लिए विशिष्ट सब्सट्रेट की निरंतर आपूर्ति प्रदान करते हैं या अवसरवादी रोगाणुओं की संख्या के विकास के जोखिम को कम करते हैं (Mul and Perry 1994; Lan et al. 2005)। अब यह सिद्ध हो चुका है कि प्रीबायोटिक्स उचित उदरीय पर्यावरण उत्पन्न कर शरीर में रोगाणुओं की संख्या कम करने और लाभप्रद सूक्ष्मजीवों की संख्या बढ़ाकर पशुओं पशुधन की सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
  2. प्रोबायोटिक्स और फाइटोबायोटिक्स के सहक्रियाशीलता प्रभाव: प्रोबायोटिक्स के बारे में, कई शोधों ने स्वास्थ्य को बढ़ावा देने वाले प्रभावों को प्रस्तुत किया है जो आंत माइक्रोबायोटा पर संशोधनों के साथ जुड़े हैं। बेसिलस, यीस्ट और लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया आमतौर पर पशु पोषण में प्रोबायोटिक्स के रूप में उपयोग किए जाते हैं। लैक्टिक एसिड उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं में, आंतों में पाये जाने वाले लैक्टोबैसिली लाभदायक जीवाणु हैं जिन्हें ‘आमतौर पर सुरक्षित’ माना जाता है। अध्ययनों के अनुसार आंतों की जीवाणु संरचना और कुक्कुटों में उनकी चयापचय गतिविधि पर प्रोबायोटिक्स और फाइटोबायोटिक्स लाभकारी सहक्रियात्मक प्रभाव दिखाते हैं। संभावित समस्याग्रस्त जीवाणुओं का कम अस्तित्व, जैसे विस्तारित-स्पेक्ट्रम बीटा-लैक्टामेज उत्पन्न करने वाले ई. कोलाई संकेत करते हैं कि प्रोबायोटिक्स और फाइटोबायोटिक्स के संयोजन उनके व्यक्तिगत पूरकता की तुलना में अधिक बढ़ी हुई कार्यक्षमता का कारण बन सकते हैं (Ren et al. 2019)।
  3. जीवाणु-संबंधी आसंजन की प्रतिस्पर्धी अवरूद्ध: आंत म्यूकोसल उपकला की सफाई क्षेत्र (Brush border) के लिए रोगजनकों के आसंजन (Adhesions) में लेक्टिन-कार्बोहाइड्रेट संग्राहक पारस्परिक क्रिया (Lectin–carbohydrate receptor interactions) का मुख्य तंत्र हैं। कई प्रीबायोटिक और फाइटोजेनिक बायोएक्टिव पदार्थों का कुछ रोगजनक जीवाणुओं पर प्रत्यक्ष प्रभाव हो सकता है, जो आंत के श्लैष्मिक परत पर रोगजनकों के आसंजन को अवरुद्ध करके लेक्टिन-रिसेप्टर तंत्र (एग्लूटिनेशन) के माध्यम से रोगजनकों के विशिष्ट आसंजन द्वारा होता है (Pusztai et al. 1990)। पेक्टिन, ग्वार गम और ओट गम जैसे कुछ प्रीबायोटिक यौगिक, जो आंत की श्लैष्मिक परत में एक सुरक्षात्मक कार्य करते हैं, रोगजनक जीवाणुओं के उपनिवेशण (Colonization) को रोककर कार्य करते हैं (Bengmark 1998)।
  4. प्रतिरक्षा उत्तेजक प्रभाव: अब शोधों से यह सिद्ध हो गया है कि कुछ पौधे पॉलीसेकेराइड प्रतिरक्षा उत्तेजक (सहायक प्रभाव) पदार्थों के रूप में कार्य करते हैं। आंत से जुड़े लिम्फोइड ऊतक (जीएएलटी) पशुओं में प्रतिरक्षा बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कई पशु मॉडल के डेटा स्पष्ट रूप से संकेत देते हैं कि प्रीबायोटिक यौगिक जीएएलटी प्रतिक्रियाओं को सीधे (प्रणालीगत और स्थानीय प्रतिरक्षात्मक प्रभाव) बढ़ाकर या अप्रत्यक्ष रूप से ब्यूटाइरेट और लैक्टिक एसिड उत्पादक जीवाणु जैसे शॉर्ट चेन फैटी एसिड की मध्यस्थता से लाभकारी प्रभाव डाल सकते हैं (Vidanarachchi et al. 2005)।
  5. पाचन एंजाइमों को बढ़ाना: घरेलू पशुओं के विकास प्रदर्शन पर फाइटोजेनिक बायोएक्टिव यौगिकों की संभावित क्रिया पाचन एंजाइमों की गतिविधियों पर सकारात्मक रूप से प्रभावी हो सकती है। शोधों में फ्रक्टो-ओलिगोसेकेराइड्ज की आहारीय पूरकता एमाइलेज और प्रोटीएज की गतिविधियों में वृद्धि करके कुक्कुटों के दैनिक शारीरिक भार में सुधार पाया गया। एक अध्ययन में लैक्टिक एसिड के संयोजन में आवश्यक तेलों के एक वाणिज्यिक मिश्रण वाले आहार को खिलाने से कुक्कुटों के अग्न्याशय (पैनक्रियाज) और आंतों की श्लेष्मा के पाचन एंजाइमों की गतिविधियों में उल्लेखनीय वृद्धि पायी गई, जिससे शारीरिक विकास में उल्लेखनीय वृद्धि पायी गई (Xu et al. 2003, Lee et al. 2003, Jang et al. 2004)।
  6. विकास एवं स्वास्थ्य प्रोत्साहक: आहार में हर्बल सप्लीमेंट का व्यावहारिक उपयोग कई कारकों जैसे कि पशु प्रजाति, आयु और उत्पादन इत्यादि पर निर्भर करता है। प्रत्येक पौधें में अलग-अलग जैविक पदार्थ होते हैं, जो एक अलग तंत्र के कारण एक अलग प्रभाव पैदा करते हैं। फाइटोजेनिक फीड एडिटिव्स का सबसे महत्वपूर्ण तंत्र संभावित रोगजनकों को नियंत्रित करने के माध्यम से आंत माइक्रोफ्लोरा के पारिस्थितिकी तंत्र को लाभकारी रूप से प्रभावित करने से उत्पन्न होता है। छोटी आंत में बेहतर पाचन क्षमता को जठरांत्र में माइक्रोबियल सहजीवन को स्थिर करने वाले फाइटोजेनिक का अप्रत्यक्ष प्रभाव माना जा सकता है। फलस्वरूप, फाइटोजेनिक मेजबान पशुओं को अवशोषण के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की आंत की उपलब्धता बढ़ाने के लिए महत्वपूर्ण परिस्थितियों में प्रतिरक्षा तनाव से राहत देता है, जिससे पशुओं को उनकी आनुवंशिक क्षमता की बनावट के अंदर ही अच्छे से बढ़ने में मदद मिलती है (Hashemi & Davoodi 2011)। कुछ हर्बल पौधे जैसे कि कमरकश (साल्विया ऑफिसनैलिस), जंगली अजवायन (थाइमस वल्गेरिस), रोजमेरी (रोजमेरीनस ऑॅफिसनैलिस), और कार्वाक्रोल, सिनमैलडिहाइड और कैप्सैसिन के मिश्रण के अर्क से कुक्कुटों की आहारीय पाचनशक्ति में सुधार होता है (Hernandez et al. 2004)।
  7. रोगाणुरोधी कार्य: फाइटोबायोटिक्स विशेष रूप से मसाले और जड़ी-बूटियां कुछ प्रमुख रोगजनकों सहित अच्छी तरह से ज्ञात रोगाणुरोधी गतिविधि को बढ़ाती हैं। फाइटोबायोटिक्स में, कुछ जटिल सक्रिय अणु होते हैं जो विकास की वृद्धि को बढ़ाने के साथ-साथ रोगाणुरोधी गुणों के कारण शरीर में सहक्रियात्मक प्रभाव प्रदर्शित करते हैं (Cowan 1999, Gopi et al. 2014)। पौधों में मौजूद टैनिक एसिड जीवाणुरोधी के रूप में कार्य करता है। एल्कलोयड डीएनए, अन्तर्वेशक (इंटरकलेटर) या डीएनए अवरोधक के रूप में कार्य करते हैं (Karou et al. 2006)। सैपोनिन एक अन्य फाइटोकेमिकल यौगिक है, जो सूक्ष्मजीवों की कोशिका झिल्ली में मौजूद स्टेरोल्स के साथ कॉम्प्लेक्स बनाने की क्षमता के माध्यम से रोगाणुरोधी गुणों से संपन्न है, यह रोगाणुओं की कोशिका झिल्ली को क्षति पहुंचाता है और उनके पतन का कारण बनता है (Morrissey & Osbourn 1999)। आवश्यक तेलों में से कुछ तेल जैसे कि टरपीनॉयड्ज और फेनाइलप्रोपेनॉड्ज लिपोलाइटिक गुण होते हैं जो बैक्टीरिया की झिल्ली में प्रवेश कर उसे हानि पहुंचाते हैं। फाइटोबायोटिक्स में मौजूद आवश्यक तेल में जलविरोधी क्षमता होने के कारण जीवाणुओं की कोशिका झिल्ली में जबरदस्ती प्रवेश करने की क्षमता होती है जिस कारण जीवाणुओं से विभिन्न प्रकार के आयनों का रिसाव होता है। उनकी यह क्रिया जीवाणुओं की सरंनात्मक झिल्ली के विघटन का बनती है (Helander et al. 1998)।
  8. खाद्य पदार्थों का अचल जीवन: सूक्ष्जीवरोधी गुणों के कारण विभिन्न प्रकार की खाद्य सामग्री खासतौर से मांस की स्वच्छता को बनाए रखने के लिए फाइटोबायोटिक्स अच्छी भूमिका निभाती हैं। ओरिगैनो (अजवायन की पत्ती) जैसे फाइटोबायोटिक यौगिक में रोगाणुरोधी गुण होते हैं जो मांस में रोगाणुओं को विशेष रूप से साल्मोनेला और कुल व्यवहार्य जीवाणुओं को कम करता है (Chouliara et al. 2007)।
और देखें :  नवजात शिशु (बछड़े) का संतुलित आहार

मत्स्य पालन में फाइटोबायोटिक्स का उपयोग

मछली उत्पादन में कमी का मुख्य कारण विभिन्न रोगजनकों द्वारा होने वाली बीमारियां हैं। इस क्षेत्र के लिए संवर्धित रोग प्रतिरोधक क्षमता, आहारीय दक्षता और संवर्धित जीवों की वृद्धि का प्रदर्शन आवश्यक है जिसके लिए एंटिबायोटिक्स का उपयोग रोगों के उपचार एवं रोकथाम के लिए किया जाता है और विकास वृद्धि बढ़ाने के लिए हारमोन प्रयोग किये जाते हैं। एंटीबायोटिक्स और हारमोन के उपयोग से जहां लागत बढ़ती है तो एंटिबायोटिक्स रेजीस्टेंट भी व्यापक स्तर पर चिंता विषय है। अतः मछली उत्पादन में नये आयाम खोजने की आवश्यकता है जिन में से फाइटोबायोटिक्स एक ऐसा आहारीय तत्त्व है जिसके उपयोग से मछलियों की विभिन्न प्रजातियों में विभिन्न जीवाणुओं विशेष रूप से एरोमोनास हाइड्रोफिला के संक्रमण लिए जन्मजात प्रतिरक्षा प्रणाली में सुधार करता है (Cristea et al. 2012)।

कृषि में फाइटोबायोटिक्स का उपयोग

बढ़ती आबादी की चुनौतिपूर्ण खाद्यान्नपूर्ति के लिए कृषि उत्पादन बढ़ाने पर लगातार बल दिया जा रहा है लेकिन आधुनिक खेती में बढ़ते रासायनों के उपयोग से फसलों की रोग व कीट प्रतिरोधक क्षमता व उत्पादकता में गंभीर कमी तो देखी जा रही है इसके साथ ही पर्यावरण को भी नुकसान पहुंच रहा है। जैसे-जैसे खाद्य सुरक्षा में हम आत्मनिर्भता की अग्रसर होते गये तो इसके साथ-साथ हमारी जन-स्वास्थ्य समस्याएं भी लगातार बढ़ी हैं (Pandey and Singh 2004)। ऐसा लगता है जैसे कि आत्मर्निभरता व इन जन-स्वास्थ्य समस्याओं का चोली-दामन का साथ हो। विश्व स्तर पर हुए शोधों से पता चलता है कि कृषि में उपयोग किये जाने वाले रासायनों का जन-स्वास्थ्य समस्याओं को उत्पन्न करने में विशेष योगदान रहा है। बढ़ती हुई इन जन-स्वास्थ्य समस्याओं में से  कैंसर (Kaur and Sinha 2013, Misra 2008) एक प्रमुख जानलेवा रोग है। कैंसर के कई कारणों में कृषि से उत्पादित प्रदूषित खाद्य-आहार श्रृंखला भी एक है।

जनवरी 1996 में छपे एक शोधपत्र के अनुसार उत्तरी मध्य अमेरीका में कृषि व्यवसाय में करने वाले श्रमिकों में खरपतवारनाशक, कीटनाशकों व धुआंरी (Fumigant) के कारण लसीकार्बुद (Lymphoma) कैंसर का सम्बन्ध पाया गया (Garry et al. 1996)। भारत के केरल राज्य में काजू की खेती करने वाले श्रमिकों व ग्रामीणों की सैंकड़ों मौतों और अन्य विकारों को काजू के पेड़ों के ऊपर एंडोसल्फान के स्प्रे से जोड़कर देखा गया है (THANAL 2001)। कासरगोड जिले में, जहां कम से कम 15 वर्षों में एन्डोसल्फान का हवाई छिड़का हुआ, एन्डोसल्फान के अवशेषों का स्तर खतरनाक उच्च स्तर का पाया गया है जिससे गांव वालों के रक्त और माताओं के दूध में एन्डोसल्फान के अवशेष और कैंसर बहुत आम हैं (Joshi 2001)। पंजाब राज्य के भटिंडा एवं रूपनगर में किये गये एक शोध के अनुसार कृषि में उपयोग किये जाने वाले कीटनाशकों का सम्बन्ध स्तन, गर्भाशय / गर्भाशय ग्रीवा, अंडाशय, रक्त एवं लसीका तंत्र, आहारनली और हड्डियों के कैंसर के रूप में पाया गया है जिससे इन मरीजों में मृत्यु देखने को मिली है (Thakur et al. 2008)। कई शोध पत्रों ने कीटनाशकों से दूषित भू-जल के कारण डीएनए क्षति की बात का खुलासा किया। डीएनए क्षति से कैंसर का खतरा बढ़ जाता है (Misra 2008)। चीन में कैंसर के खतरे का आकलन करने के लिए 2005 और 2007 के बीच संचालित किये गये अनेकों मॉडलिंग अनुकरणीय अध्ययनों से पता चलता है कि लिंडेन के उपयोग से गामा-हेक्साक्लोरो-साइक्लोहेक्सेन (γ-HCH, γ-hexachlorocyclohexane) के उत्सर्जन होने से पश्चिमी चीन में कैंसर के खतरे को बढ़ावा मिला है (Xu et al. 2013)।

कृषि में रसायनों के अंधाधुध उपयोग से न केवल मानवीय जीवन में कष्ट पैदा हुए हैं बल्कि इनसे पर्यावरण को भी लगातार हानि पहुंच रही है। वन्य प्राणी जगत के कई जीव खासतौर से चिड़ियां और गिद्ध विलुप्ती के कगार पर हैं। यदि समय रहते इन समस्याओं की ओर ध्यान नहीं दिया गया तो वैश्विक तापमान वृद्धि सहित बहुत सी समस्याओं का मानव सहित प्राणी जगत को करना पड़ेगा।

जैविक खेती, जीरो बजट प्राकृतिक खेती व अन्य कई कृषि पद्दतियां हैं जो खाद्यान्नपूर्ति एवं टिकाऊ खेती के आसान साधन परिलक्षित कर रही हैं। यह सभी पद्दतियां वृक्षायुर्वेद से सीधा संबंध रखती हैं। सुरपाल द्वारा रचित वृक्षायुर्वेद पादप विज्ञान से संबंधित क्रियाओं तथा जानकारी का विशाल संग्रह है जिसमें पौधों की बीमारियों का वर्गीकरण तथा लक्षणों  व कारकों का वर्ण है। वृक्षायुर्वेद का उपयोग आज की आधुनिक खेती (जिसे अब परंपरागत खेती कहा जाता है) में होने लगा है। इसका अधिकारिक उदाहरण नीम कोटेड यूरिया है जिसके उत्पादन से प्रतिवर्ष लगभग 40 हजार करोड़ रूपये की बचत होती है (DEE 2017)। इसके अतिरिक्त गोबर, गौमूत्र, मिट्टी, दूध, दही, छाछ, नीम, हल्दी, लहसुन, अदरक, कनेर, अमरूद इत्यादि का उपयोग कृषि में आयुर्वेदिक उपचार के रूप में किया जा रहा है बल्कि इनका उपयोग मानव और पर्यावरण के लिए भी हितकारी है।

दंत चिकित्सा में फाइटोबायोटिक्स का उपयोग

आज प्रतिस्पर्धा के इस आधुनिक युग में जड़ी-बूटियों की वापसी हो रही है और हर्बल ‘पुनर्जागरण’ दुनिया भर में हो रहा है। आज हर्बल उत्पाद, मानव और पर्यावरण के लिए ‘असुरक्षित माने जाने वाले सिंथेटिक्स’ के विपरीत, सुरक्षा का प्रतीक हैं। औषधीय गुणों वाली जड़ी-बूटियाँ विभिन्न रोग प्रक्रियाओं के लिए एक उपयोगी और उपचार का प्रभावी स्रोत हैं। हर्बल दवाओं का उपयोग दुनिया भर में तेजी से फैल रहा है। बहुत से व्यक्ति विभिन्न राष्ट्रीय स्वास्थ्य देखभाल सेटिंग्स में अपने स्वास्थ्य की देखभाल के लिए अब हर्बल दवाएं या हर्बल उत्पाद लेते हैं। दांतों की सफाई और एंटिमाइक्रोबियल प्लेक एजेंटों के रूप में दंत चिकित्सा में हर्बल अर्क का सफलतापूर्वक उपयोग किया गया है। विभिन्न प्रकार के हर्बल अर्कों का उपयेाग दांतों की सफाई, एंटिमाइक्रोबियल प्लेक एजेंट, एंटीसेप्टिक्स, एंटीऑक्सिडेंट, एंटीमाइक्रोबियल, एंटीफंगल, एंटीबैक्टीरियल, एंटीवायरल और एनाल्जेसिक के रूप में, सूजन एवं हिस्टामिन को कम करने के लिए दंत चिकित्सा में हर्बल अर्क का उपयोग किया जाता है (Kumar et al. 2013)।

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संक्षेप

इसमें कोई संदेह नहीं है कि आधुनिक पद्दति से मानव जगत ने बहुत उन्नति की है लेकिन आधुनिक औषधियों के बढ़ते अंधाधुध अत्यधिक उपयोग से जीवनशैली भी दूषित हुई है जिसके परिणाम भी सामने आ दिखायी दे रहे हैं। अतः इस आधुनिक युग में आधुनिक औषधियों का विवेकपूर्वक उपयोग अत्यंत आवश्यक है। यह विधित होना चाहिए कि 80 प्रतिशत से भी अधिक आधुनिक औषधियों का निर्माण पौधों से किया जाता है। विभिन्न शोधों में यह दर्शाया गया है कि सदियों से उपयोग किये जाने वाले पादप जनित औषधियों जिन्हें 21वीं सदी के फाइटोबायोटिक्स अर्थात प्राकृतिक आहारीय पूरक भी कहा जाता है, से न केवल मानव जगत सुखी जीवन व्यतीत कर सकता है बल्कि विभिन्न रोगों पर भी विजय पायी जा सकती है।

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