परिचय
भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ अधिकतर जनसंख्या खेती आधारित व्यवसाय करती है। मिश्रित खेती के रूप में खेती के साथ-साथ पशुपालन भी करते है। परन्तु पशुओं को साल भर हरा चारा नहीं मिल पाता है। इस स्थिति में किसान भाईयों द्वारा पशुओं को सबुह और शाम को धान का पुलाव व अपौष्टिक सुखा चारा डालना पडता है और चरने के लिए खुले में छोड दिये जाता है। दुधारू पशुओं के लिए कम से कम दो किलो प्रतिदिन दाने की आवश्यकता होती है। शहरों के निकट रहने वाले डेयरी कृषक अपने दुधारू पशुओं को धान की पैरा कुट्टी और गेंहूँ का भूसा के साथ दाना-खल्ली देते है। धान की पैरा कुट्टी व गेंहूँ का भूसा 1-2 रु. प्रतिकिलो तथा दाना-खल्ली 10-15 रु. प्रतिकिलो दर से बाजार से लाना पडता है। अधिक महँगा चारा दाना होने से दुधारू पशुओं पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल पाता है। इस कारण से दुधारू पशुओं कुपोषण के शिकार हो रहे है और इस कारण से आज हमारे यहाँ प्रति पशु प्रतिदिन का दुध उत्पादन एक लीटर या इससे भी कम हो गया है जिससे दुध उत्पादन एक प्रकार से घाटे का व्यवसाय होता जा रहा है। जिसे कारण से किसान भाईयों का डेयरी व्यवसाय से मोह भंग हो रहा है।
पशुआहार के एक विकल्पिक रूप में अदभुत फर्न अजोला एक उपयोगी हरा चारा हो सकता हैं। दुध की बढती मांग की पूर्ति के लिए आवश्यक है कि पशुपालन व्यवसाय को अधिक लाभकारी बनाया जाए। इसके लिए आवश्यक है की पशुपालन में दाने-चारे में आने वाली लागत को घटाना होगा। इसमें प्रकृति प्रदत्त अजोला की हरे चारे के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। सर्वविदित है कि दुधारू पशुओं के संतुलित आहार में हरे चारों की अहम भूमिका रहती है। जबकि हमारे यहाँ पशुओं के लिए हरे चारे की कमी लगातार परिलक्षित हो रही है। जगलों तथा पारंपरिक चारागाहों का क्षेत्रफल लगातार घटता चला जा रहा है। कृषि के आधुनिकीकरण के कारण फसल प्रति-उत्पाद (भूसा, कड़वी, पैरा कुट्टी आदि) में भी कमी आ रही है जो कि पशुआहार के रूप में उपयोग किया जाता रहा है। हरे चारे या सुपोष्टिक आहार की आपूर्ति बाजार के महँगे व गुणवत्ता विहीन पशुआहार से की जा रही है। यही कारण है जिसकी वजह से दुग्ध उत्पादन लागत में वृद्धि व पशुपालन व्यवसाय एक प्रकार से घाटे का सौदा होता जा रहा है। इस समस्या के समाधान पाने के लिए अजोला एक प्रकार से वरदान बन सकता है। जिसे घर में खल्ली या गड्ढा खोद कर वर्षभर हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है। देश के विभिन्न क्षेत्रों में अजोला उत्पादन के बेहतर परिणाम सामने आ रहे है।
अजोला चारा/भोजन
यह प्रोटीन, आवश्यक अमीनो एसिड, विटामिन (विटामिन ए, विटामिन बी-12 तथा बीटा-कैरोटीन), विकासवर्धक सहायक तत्वों एवं कैल्सियम, फॉस्फोरस, पोटेशियम, फैरस, कॉपर, मैगनेशियम से भरपूर तथा शुष्क वजन के आधार पर, उसमें 25-35 प्रतिशत प्रोटीन, 10-15 प्रतिशत खनिज एवं 7-10 प्रतिशत अमीनो एसिड, बायो-एक्टिव पदार्थ तथा बायो-पॉलीमर होते हैं। इसके उच्च प्रोटीन एवं निम्न लिग्निन तत्वों के कारण मवेशी इसे आसानी से पचा लेते हैं। अजोला सान्द्र के साथ 1:1 में मिश्रित किया जा सकता है या सीधे मवेशी को दिया जा सकता है। कुक्कुट, भेड़, बकरियों, सूअर तथा खरगोश को भी दिया जा सकता है।
अजोला का उत्पादन
पहले क्षेत्र की जमीन से खरपतवार को निकाल कर समतल किया जाता है। ईटों को क्षैतिजिय, आयताकार तरीके से पंक्तिबद्ध किया जाता है। 2 x 2 मीटर आकार की एक यू स्थायीकृत सिल्पोलिन शीट को ईटों पर एक समान तरीके से इस तरह से फैलाया जाता है कि ईटों द्वारा बनाये गये आयताकार रचना के किनारे -सजयंक जाएं। सिल्पोलिन के गड्ढे पर 10-15 किलो छनी मिट्टी फैला दी जाती है। 10 लिटर पानी में मिश्रित 2 किलो गोबर एवं 30 ग्राम सुपर फॉस्फेट से बना घोल, -शीट पर डाला जाता है। जलस्तर को लगभग 10 सेमी तक करने के लिए और पानी मिलाया जाता है। अजोला क्यारी में मिट्टी तथा पानी के हल्के से हिलाने के बाद लगभग 0.5 से 1 किलो शुद्ध मातृ अजोला कल्चर बीज सामाग्री पानी पर एक समान फैला दी जाती है। संचारण के तुरंत बाद अजोला के पौधों को सीधा करने के लिए अजोला पर ताजा पानी छिड़का जाना चाहिए। एक हफ्ते के अन्दर, अजोला पूरी क्यारी में फैल जाती है एवं एक मोटी चादर जैसा बन जाती है। अजोला की तेज वृद्धि तथा 50 ग्राम दैनिक पैदावार के लिए, 5 दिनों में एक बार 20 ग्राम सुपर फॉस्फेट तथा लगभग 1 किलो गाय का गोबर मिलाया जाना चाहिए। अजोला में खनिज की मात्रा बढाने के लिए एक-एक हफ्ते के अंतराल पर मैगनेशियम, आयरन, कॉपर, सल्फर आदि से युक्त एक सूक्ष्म पोषक भी मिलाया जा सकता है। नाइट्रोजन की मात्रा बढने तथा सूक्ष्म पोषक की कमी को रोकने के लिए, 30 दिनों में एक बार लगभग 5 किलो क्यारी की मिट्टी को नई मिट्टी से बदलनी चाहिए। क्यारी में नाइट्रोजन की मात्रा बढने से रोकने के लिए, प्रति 10 दिनो में एक बार, 25 से 30 प्रतिशत पानी भी ताजे पानी से बदला जाना आवश्यक होता है। प्रति छह महीनों में क्यारी को साफ किया जाना चाहिए, पानी तथा मिट्टी को बदला जाना चाहिए एवं नए अजोला का संचारण किया जाना चाहिए। कीटों तथा बीमारियों से संक्रमित होने पर अजोला के शुद्ध कल्चर से एक नयी क्यारी तैयार तथा संचारण किया जाना चाहिए।
कटाई
तेजी से बढकर 10-15 दिनों में गड्ढे को भर देगा। उसके बाद से 500-600 ग्राम अजोला प्रतिदिन काटा जा सकता है। प्लास्टिक की छलनी या ऐसी ट्रे जिसके निचले भाग में छेद हो, की सहायता से, 15वें दिन के बाद से प्रतिदिन किया जा सकता है। कटा हुए अजोला से, गाय के गोबर की गन्ध हटाने के लिए ताजे पानी से धोया जाना चाहिए।
वैकल्पिक आगत
ताजी बायोगैस का घोल भी इस्तेमाल किया जा सकता है बाथरूम तथा पशुशाला का गन्दा पानी भी गड्ढा भरने में इस्तेमाल किया जा सकता है उन क्षेत्रों में, जहां ताजे पानी की उपलब्धता की समस्या हो, वहां कपड़े धोने के बाद बचा हुआ पानी भी (दूसरी बार खंगालने के बाद) इस्तेमाल किया जा सकता है।
बढोत्तरी के लिए पर्यावरणीय कारक
क्र.स. | कारक | सीमा |
1. | तापमान | 20ᵒC – 28ᵒC |
2. | प्रकाश | सूर्य के तेज प्रकाश का 50 प्रतिशत |
3. | सापेक्षिक आर्द्रता | 65-80 प्रतिशत |
4. | पानी (टैंक में स्थिर) | 5 – 12 सेमी |
5. | पी.एच मान | 5.5-7.5 |
अजोला के उत्पादन के दौरान नोट किये जाने वाले बिन्दु
इसे एक जाली में धोना उपयोगी होगा क्योंकि इससे छोटे-छोटे पौधे बाहर निकल पाएंगे जो वापस क्यारी में डाले जा सकते हैं। तापमान 25ᵒC से नीचे बनाए रखने का ध्यान रखना चाहिए। प्रकाश की तीव्रता कम करने के लिए छांव करने की जाली को उपयोग किया जा सकता है। अजोला बायोमास अत्यधिक मात्रा में एकत्र होने से बचाने के लिए उस प्रतिदिन हटाया जाना चाहिए।
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