पशुओं में जल का महत्व

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कहते है जल है तो कल है, हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध कवि रहीम ने कहा था रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून, यह कहावत एवं दोहा जल की अनिवार्यता बताने के लिए काफी है। पौधों में लगभग 10 से 90 प्रतिशत तक तथा पशुओं के शरीर में 55 से 75 प्रतिशत तक जल होता है। शरीर को पानी की आपूर्ति मुख्यतः तीन तरह से होती है। शरीर के लिए पानी का पहला स्त्रोत है, प्यास लगने के बाद पीया जाने वाला पानी। दूसरा स्त्रोत है भोजन के अन्दर मौजूद पानी और तीसरा स्त्रोत है मेटाबोलिक वाटर। मेटाबोलिक वाटर शरीर के अन्दर पैदा होता है विभिन्न शारीरिक क्रियाओं के दौरान। मूलतः जब फैट बर्न होता है तो पानी पैदा होता है। सर्दियों के दौरान पानी की आवश्यकता अपेक्षाकृत कम होती है मगर गर्मियों के दौरान पसीना अधिक निकने से प्यास ज्यादा लगती है। खैर आप लोग तो फ्रिज या घडे़ का पानी पीकर अपनी प्यास शांत कर लेते हैं।

पशुओं में जल का महत्व

हम बात करना चाह रहे हैं पालतू पशुओं की जिनसे हमारे किसान भाई आशा करते हैं कि रोज बाल्टी भरकर दूध दे। दूध तो वह तभी देगी जब आप उसे पर्याप्त मात्रा में पानी पिलायेगें। पानी भी ऐसा जिसे आप खुद पी सकें। अक्सर देखा यह गया है कि किसान भाई अपने पशुओं को किसी भी तरह का पानी पिलाते रहते हैं। रुका हुआ, गंदगी युक्त पानी पिलाने से पशुओं को भांति-भांति के रोग लग सकते हैं। पिलाये जाने वाले पानी का तापमान अगर शरीर के तापमान से बहुत कम या बहुत ज्यादा है तो भी यह नुकसान करता है। इसलिए कोशिश करें कि पशुओं को फ्रिज या घड़े का नहीं तो कम से कम ऐसा पानी पिलाएं जिसका तापमान सामान्य हो। बहुत ज्यादा समय तक धूप में रहने से गर्म हो गया पानी बिल्कुल ना पिलाएं। दूध में 87 प्रतिशत पानी होता है। इसलिए पानी की कमी होने का सबसे पहला प्रभाव दूध की पैदावार पर ही पड़ता है। अब ऐसा भी मत सोचने लगना कि ज्यादा पानी पिलाने से दूध ज्यादा पैदा होगा या गाय को दोष देने भी मत बैठ जाना कि ज्यादा पानी पिलाने से दूध पतला हो गया। पानी पीकर गाय पतला दूध नहीं देगी। पतला तो दूधिया खुद करता है पानी मिलाकर। नाम गाय के लगा देता है। और हां मेटाबोलिक वाटर की महत्ता है ऊंट में। उसकी पीठ के कूबड़ में जमा चर्बी का ऑक्सीडेसन होने पर पानी बनता है और यही पानी उसे कई-कई दिनों तक प्यास नहीं लगने देता। इसके अलावा कुदरत ने ऊंट को क्या हर जीवधारी को यह ताकत दी है कि वह पानी कम उपलब्ध होने की दशा में शरीर के अंदर मौजूद पेशाब में से फिर से पानी अवशोषित कर लेता है और उससे भी शरीर कुछ हद तक अपना काम चलाने की कोशिश करता है। और इस कोशिश के बाद पेशाब कम आता है और अधिक पीला आता है। यह एक किस्म का अड़पटेशन है बॉडी का। मगर यह एक आध दिन के लिए तो ठीक है मगर रोज रोज यही नाटक चलने से आपकी किडनी नाटक करने लगेगी। पत्थर बाज हो जाएगी वह। इसलिए गर्मी के इस मौसम में खुद भी पानी पीएं और औरों को भी पिलाएं। घर से निकलते समय पानी की बोतल लेकर निकलें।

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रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।।
पानी गए ना उबरे, मोती मानस चून।।

भावार्थ यह है: रहीमदास जी कह रहे हैं कि घर से निकलते समय अपने पास पानी जरूर रखिये क्योंकि अगर आपके पास पानी नहीं होगा तो आपको पानी के लिये कोई नहीं पूछेगा। इसलिए मोती की तरह साफ पानी मनुष्यों को चुन चुन कर पिलाते चलिए। पशुओं तथा पौधों दोनों में आयु बढ़ने पर जल की मात्रा कम होती जाती है। जल के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती, क्योंकि शरीर के लिए आवश्यक तत्वों, यथा जल, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा खनिज लवण तथा विटामिन्स में जल सबसे महत्वपूर्ण है। यदि शरीर से पूर्ण वसा या आधी प्रोटीन का हृास हो जाए तब भी शरीर जीवित रह सकता है लेकिन यदि शरीर के कुल जल का दसवां हिस्सा हृास हो जाए तो मृत्यु हो जाती है। प्रयोगों द्वारा ज्ञात हुआ है कि पशु कार्बनिक भोजन के बिना 100 से भी अधिक दिन तक जीवित रह सकता है परन्तु पानी के बिना 5 से 10 दिन में ही पशु की मृत्यु हो जाती है। ऊंट इसका अपवाद है, क्योंकि वह एक सप्ताह तक बिना पानी के सामान्य जीवन व्यतीत कर सकता है तथा यदि इसे रसीले हरे चारे उपलब्ध रहे तो यह बिना किसी तरल पदार्थ का सेवन किए कई महीनों तक जीवित रह सकता है।

शरीर में जल की थोड़ी सी कमी होने पर प्यास महसूस होती है। पानी की कमी मूत्र द्वारा शरीर से पानी निकलने पर, दस्त आने पर, पसीना निकलने पर या रक्तस्त्राव होने पर होती है। इससे खून में पानी की कमी हो जाती है और प्यास लगने लगती है। ऐसे में पशु पानी पीकर शरीर के जल संतुलन को नियंत्रित रखते हैं।

शरीर में जल के कार्य

यह कोशिकाओं को निश्चित आकार देकर अपरोक्ष रूप में शरीर को आकार तथा शक्ल प्रदान करता है। यह एक अच्छा घोलक है तथा शरीर में होने वाली सभी रासायनिक क्रियाओं में महत्वपूर्ण योगदान करता है। जल भोजन का मिश्रण बना कर उसे पचाने में तथा पचे हुए पोषक तत्वों के वाहक का कार्य करता है। पानी शरीर की उष्मा को सोखकर उसका वितरण एवं निवारण करके शरीर के तापमान को संतुलित रखता है। जल शरीर के जोड़ों को चिकना बनाकर उन्हें घर्षण से बचाने, कानों में ध्वनि संचारण, आंखों में दृष्टि के अतिरिक्त दूध उत्पादन, मांस तथा प्रजनन कार्यों के लिए भी अति आवश्यक है।

शरीर में जल की कमी से हानियां

जल की कमी से जानवर की चारा खाने तथा पचाने की क्षमता घट जाती है तथा पचे हुए पोषक तत्वों का शरीर में ठीक से उपयोग भी नहीं हो पाता है। साथ ही साथ अनावश्यक पदार्थों का शरीर से मल-मूत्र के रूप में निकलना भी प्रभावित होता है जिससे उनकी बढ़वार, उत्पादन तथा प्रजनन क्षमता पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अधिक समय तक पानी प्राप्त नही होने से खून गाढ़ा हो जाता है तथा शरीर का तापमान बढ़ जाता है और पशु सुस्त हो जाता है। बछडे़-बछड़ियों में आरम्भिक आयु में जल की कमी होने से पेचिस हो जाती है और मृत्यु भी हो सकती है।

विभिन्न पशुओं में जल की आवश्यकता

पशुओं की पानी की आवश्यकता उनकी उम्र, चारे की मात्रा एवं गुण तथा उत्पादन आदि पर निर्भर रहती है तथा इस पर वातावरण के तापमान का भी प्रभाव पड़ता है। कुछ पशुओं के लिए अनुमानित पानी की आवश्यकता निम्न प्रकार है।

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गाय/भैंस

गाय-भैंस को औसत पोषण पर लगभग 27-28 ली. पानी की आवश्यकता जीवन निर्वाह हेतु अनिवार्य तथा प्रति कि.ग्रा दुग्ध उत्पादन के लिए लगभग 3.0 ली. पानी की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त पशुषाला की सफाई एवं बर्तनों आदि की धुलाई के लिए प्रति पशु लगभग 45-70 ली. पानी की आवश्यकता होती है। इस प्रकार कुल मिलाकर एक पशु पर प्रतिदिन लगभग 110 ली. पानी की आवश्यकता पड़ती है।

ऊँट

प्रतिदिन 18-36 ली. तक पीने के पानी की आवश्यकता होती है। लेकिन यदि पानी कई दिन बाद मिला हो तो यह 90 ली. तक पी लेता है। ऊँट की एक दिन की कुल पानी की आवश्यकता 70 से 90 ली. तक मानी जाती है। जबकि घोड़ा भी लगभग 36 ली. प्रतिदिन पानी पीता है तथा इतनाा ही पानी सफाई हेतु उपयोग होता है।

भेंड़/बकरी

इनकी जल की आवश्यकता गाय-भैंस से कम होती है इनको एक किलोग्राम शुष्क पदार्थ खाने पर लगभग 2 कि.ग्रा. जल की आवश्यकता होती है इनके लिए लगभग 18 ली. पानी प्रति पशु प्रतिदिन पीने एवं सफाई हेतु उपयोग में आता है।

कुत्ते, बिल्ली, मुर्गी

कुत्ते व बिल्लियों को प्रतिदिन पीने एवं सफाई हेतु लगभग 14 लीटर जल की आवश्यकता होती है। मुर्गियों में पानी को शरीर में रोकने की क्षमता कम होने के कारण अधिक बार पानी पीना पडता है। एक मुर्गी औसतन 250 ग्राम पानी पी लेती है। इस प्रकार 100 मुर्गियों के प्रतिदिन 20 से 30 ली. पानी की आवश्यकता होती है।

जल की आवश्यकता को प्रभावित करने वाले कारक

  • चारे की मात्रा एवं गुण: पशुओं को एक किलोग्राम शुष्क पदार्थ वाले भोजन के साथ 3-4 किलोग्राम पानी की आवश्यकता होती है, परन्तु यदि आहार में प्रोटीन तथा खनिज लवणों की मात्रा अधिक हो तो जल की आवश्यकता बढ़ जाती है क्योंकि मूत्र के रूप में जल का ह्रास अधिक होता है।
  • तापमान: वातावरण का तापमान बढ़ने पर पानी की आवश्यकता भी बढ़ती है। सामान्यता 75 फारेनाईट तापमान तक जल की आवश्यकता में वृद्धि नहीं होती, परन्तु तापमान इससे अधिक बढ़ने पर जल की आवश्यकता में तीव्र वृद्धि होती है तथा यह प्रति कि. ग्रा आहार के शुष्क पदार्थ की 5 से 5.0 गुना तक हो जाती है।
  • उत्पादन: एक किलोग्राम दूध पैदा करने हेतु लगभग तीन लीटर पानी की आवश्यकता होती है इसलिए अधिक दूध देने वाले पशु की पानी की आवश्यकता कम दूध देने वाले पशु से सदैव अधिक होती है। इसी प्रकार कार्यरत तथा गर्भित पशुओं को सामान्य पशुओं से अधिक जल की आवश्यकता होती है।
  • नस्ल: विदेशी नस्ल के पशु भारतीय नस्लों की तुलना में अधिक जल पीते हैं।

पशुओं हेतु जल के स्त्रोत

पशुओं को निम्न तीन स्त्रातों से जल की प्राप्ति होती है।

  • पीने का पानीः पशु अपनी आवश्यकता का अधिकांश भाग पानी पीकर पूर्ण करते है। अन्य स्त्रातों से प्राप्त जल के बाद जो आवश्यकता शेष बच जाती है उसे पशु पीने के पानी से पूरा करते हैं।
  • आहार द्वाराः पशुओं को जब रसदार हरे चारे पर्याप्त मात्रा में खिलाए जाते है तो वह अपनी आवश्यकता का अधिकांश जल चारों द्वारा प्राप्त कर लेते है। शुष्क पशु यदि वर्षा ऋतु में हरी घासों पर निर्भर रहता है तो इसकी पानी की अधिकांश आवश्यकता पूर्ण हो जाती है और यह बहुत कम पानी पीता है।
  • उपापचयी जलः शरीर में पानी की कुछ पूर्ति (पोषक तत्वों के उपापचय से कार्बन डाइआक्साइड तथा जल बनते है) उपापचयी जल से भी हो जाती है। शर्कराओं के उपापचय से उनके भार का 60 प्रतिशत, प्रोटीन से 42 प्रतिशत तथा वसा से 100 प्रतिशत से भी अधिक जल उत्पन्न होता है। इसी प्रकार प्रोटीन, वसा तथा शर्कराओं के शरीर में संष्लेषण से भी उपापचयी जल बनता है। एक व्यक्ति जो 2400 कैलोरी ऊर्जा पैदा करता है, उसके शरीर में लगभग 300 मि.लि. उपापचयी जल उत्पन्न होताहै। अधिकांश पालतू पशुओं में उनकी आवश्यकता का 5-10 प्रतिशत तक जल उपापचय द्वारा प्राप्त होता हैं।
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पीने का पानी साफ, शुद्ध, विषैले पदार्थों, बीमारी पैदा करने वाले जीवाणुओं तथा विभिन्न प्रकार के परजीवियों के अण्डों के मुक्त होना चाहिए। अशुद्ध जल पिलाने से पशुओं में बीमारियां फैलने की संभावना रहती है। प्रदूषित जल पीने से पशुओं में एंथ्रेक्स, गलाघोटू, लंगडी, अपच तथा विषाक्ता आदि बीमारियां फैलती है। पानी पशु को हर समय उपलब्ध रहना चाहिए यदि यह संभव न हो तो जाडों में कम से कम दो बार तथा गर्मियों में तीन बार पशुओं को पानी पिलाना चाहिए। इस प्रकार पशुओं के उत्पादन एवं वृद्धि पर जल की कमी से पडने वाले प्रभावों का रोका जा सकता है तथा पशुओं से अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।

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