वेटरनरी होम्योपैथी का पशु चिकित्सा मैं विशिष्ट योगदान

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ग्रामीण क्षेत्रों में पशुपालक अपने पशुओं के उपचार के लिए एलोपैथिक औषधियों एवं आयुर्वेदिक घरेलू उपचार पर निर्भर रहते हैं। वर्तमान में लोकप्रिय होम्योपैथी चिकित्सा पद्धति के जनक जर्मनी के प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. हैनीमैन थे, जिनका जन्म 10 अप्रैल 1755 को जर्मनी के माईसेन नगर में हुआ था। एलोपैथी चिकित्सा पद्धति में एम.डी.करने के पश्चात उन्होंने 10 वर्ष तक इसी पद्धति से चिकित्सा कार्य किया परंतु इससे संतुष्ट नहीं हुए और एलोपैथी से चिकित्सा करना छोड़ अन्य वैज्ञानिक पुस्तकों का अध्ययन करने लगे। इसी दौरान उन्होंने एक ग्रंथ में पड़ा कि सिनकोना से मनुष्य में बुखार का खात्मा होता है तब उनके मस्तिष्क में सवाल उठा कि जरूर सिनकोना बुखार पैदा करता होगा तभी बुखार नाशक है। इसके लिए उन्होंने खुद के शरीर पर सिनकोना का प्रयोग किया और इस नतीजे पर पहुंचे कि वास्तव में सिनकोना बुखार उत्पन्न कर सकता है। इसके बाद उन्होंने सोचा कि शिनकोना की तरह अन्य औषधियों में भी रोग नाश करने वाली तथा रोग उत्पन्न करने वाली दोनों प्रकार की शक्ति रहती है। इस प्रकार वे निरंतर प्रयोग करते रहे और उस समय की प्रसिद्ध पत्रिकाओं में उनके लेख प्रकाशित होते रहे। सन 1805 में उन्होंने 27 औषधियों के बारे में एक पुस्तक प्रकाशित की जो कि पहली “होम्योपैथिक मैटेरिया मेडिका” थी।

  • भारत में होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धति की शुरुआत डॉ. बेरीनी ने की।
  • होम्योपैथिक का सिद्धांत प्राकृतिक सिद्धांत है। लेटिन भाषा में इस सिद्धांत को “सिमिलिया सिमिलीबस क्यूरेनटयूर”, कहते हैं अर्थात “लाइक इज क्योर्ड बाई लाइक” अर्थात “जहर ही जहर की दवा” है।
  • होम्योपैथिक के सिद्धांत के अनुसार किसी दवा को लेने से स्वस्थ शरीर में जो लक्षण प्रकट होते हैं किसी भी रोग में यदि वे लक्षण पाए जाएं तो वही दवा उन लक्षणों को समाप्त कर शरीर को स्वस्थ कर देगी।
  • होम्योपैथिक चिकित्सा विज्ञान प्रकृति के नियमों पर आधारित है अर्थात आणविक सिद्धांत पर आधारित है जो कभी निष्फल नहीं जाती है। इसमें लक्षणों के आधार पर बीमारी का इलाज किया जाता है।

वेटरनरी होम्योपैथी का पशु चिकित्सा मैं विशिष्ट योगदान

होम्योपैथी से उपचार हेतु कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

  • किसी भी बीमारी का उपचार करते समय बीमारी के विभिन्न लक्षणों के साथ जिस दवा के लक्षणों का अधिक मिलान होता हो उसी दवा का उस रोग में पहली बार प्रयोग करना चाहिए। उपचार के लिए औषधि की मात्रा जहां तक हो सके कम रखें। मात्रा जितनी कम होगी लाभ उतना अधिक होगा और प्रभाव भी अधिक दिनों तक रहेगा।
  • पुराने रोग में दवा दिन में कम बार जबकि नए रोग में अधिक बार दी जाती है। दवा देने के 1 घंटे पहले व 1 घंटे बाद तक रोगी को कुछ भी खिलाना पिलाना नहीं चाहिए।
  • पुराने रोग में औषधि की, उचित मात्रा देने पर सप्ताह भर तक औषधि के असर की प्रतीक्षा करनी चाहिए यदि लाभ न हो तो दवा की दूसरी पोटेंसी का प्रयोग करें। यदि 6 से 7 खुराक औषधि लेने के बाद भी कोई फायदा नहीं हो, तो कोई दूसरी दवा का चयन करें या पहली औषधि की पोटेंसी बदल दें। केवल एक ही दवा से पुराने जटिल रोगों का उपचार संभव नहीं है।
  • यदि दो-तीन बार औषधि लेने से रोग के लक्षण कम हो यानी उस औषधि के उपयोग से स्पष्ट लाभ दिखाई देता रहे तो उस दवा की दूसरी मात्रा का प्रयोग नहीं करें और नहीं दूसरी दवा का चयन करें।
  • यदि किसी दवा से रोग के लक्षण बढ़ जाएं तो यह नहीं समझे की दवा चुनने में कोई भूल हो गई है ऐसी परिस्थिति में दो-चार दिन तक दवा बंद कर देने से बढ़े हुए लक्षण स्वयं ही कम हो जाते हैं और कुछ दिनों मैं मूल रोग के लक्षण भी समाप्त हो जाते हैं।
  • किसी औषधि के सेवन से यदि किसी पुराने रोग के सारे लक्षण अचानक लुप्त हो जाएं तो यह समझे कि दवा का चुनाव सही नहीं हुआ है। इस ढंग से जो रोग घटते हैं यह अस्थाई लाभ होता है।
  • एक रोग के उपचार में एक बार में एक ही दवा का प्रयोग करें, दूसरी बार दूसरी तथा तीसरी बार तीसरी दवा का प्रयोग कतई न करें। ऐसा करने से एक औषधि दूसरी औषधि के कार्य में बाधा पहुंचाती है।
  • पुराने रोग में दवा की पोटेंसी 1000 (1M) या इसके ऊपर रखें। इसमें जितनी अधिक पोटेंसी होगी उतने ही रोग के जड़ से खत्म होने की संभावना बढ़ेगी। पुराने रोगों में 6, 30 या 200 पोटेंसी से कोई लाभ नहीं होगा ।
  • 100 (C), 500 (D),1000 (M), 10000 (CM) पोटेंसी दर्शाते हैं।
  • जब विशेष रुप से चुनी हुई औषधि से लाभ ना हो तो उस समय एकाएक औषध को न बदल कर उस दवा की पोटेंसी को बदलने से ही लाभ हो जाता है। जैसे पहले अधिक पोटेंसी का प्रयोग किया और लाभ नहीं हुआ तो दूसरी बार मीडियम पोटेंसी और फिर अंत में कम पोटेंसी की दवा का प्रयोग करें।
  • मनुष्य में दवा सेवन करते समय सुगंधित चीजें, सड़े और जल्द पचने वाले पदार्थ, गरम मसाले, प्याज, लहसुन कपूर, शराब, एवं अन्य नशीले पदार्थ, धूम्रपान अधिक फल फूल, चाय, कॉफी आदि उत्तेजक पदार्थों का प्रयोग नहीं करना चाहिए परंतु यह सभी चीजें पशु प्रयोग में नहीं लेता है इसलिए होम्योपैथी दवाइयों का असर पशुओं में बहुत अच्छा होता है।
  • यदि कोई औषधि पानी में मिलाकर बनाई गई हो तो सुबह सेवन करते समय औषधि की सीसी का पेंदा हाथ के ऊपर 5 से 6 बार जोर से ठोक ले इससे औषधि की पोटेंसी में कुछ परिवर्तन होने से अधिक लाभ होने की संभावना रहती है।
और देखें :  परंपरागत पशु औषधी विज्ञान की ऐतिहासिक यात्रा

पशु चिकित्सा में होम्योपैथी से लाभ

  • होम्योपैथी में औषधि की बहुत कम मात्रा की आवश्यकता होती है । एक छोटा कुत्ता हो या बड़ी गाय या मनुष्य सभी को बहुत कम मात्रा में औषधि की आवश्यकता पड़ती है। विभिन्न प्रजाति के पशुओं के शरीर के छोटे बड़े आकार के बावजूद औषधि की मात्रा एक सी रहती है। होम्योपैथी के सिद्धांत के अनुसार क्योंकि रोग के लक्षणों के अनुसार दवा दी जाती है इसलिए रोगी भाग को स्वस्थ करने तथा सिर्फ रोगी लक्षणों को मिटाने में कम मात्रा देना ही उचित है ताकि शरीर का स्वस्थ भाग प्रभावित न हो।
  • होम्योपैथी शरीर में सिर्फ रोग ग्रस्त भाग पर ही असर करती है और कम समय में रोग से छुटकारा मिलता है।
  • एलोपैथी में दवाएं रोगी भाग के, अतिरिक्त शरीर के अन्य कई स्वस्थ भागों की कार्यप्रणाली को भी प्रभावित करती हैं।
  • होम्योपैथी औषधि का कोई साइड इफेक्ट नहीं होता है। जबकि कई एलोपैथिक औषधियों के ही इतने अधिक गंभीर साइड इफेक्ट होते हैं जिससे जन्मजात विकार उत्पन्न हो जाते है या दूसरा अंग पूरी तरह कमजोर हो जाता है। कई प्रकार के हार्मोनस, कार्टिकोस्टेरॉयड, तथा प्रतिजैविक औषधियों के घातक परिणाम भी देखने को मिलते हैं।
  • होम्योपैथी में अधिकतर एक रोग के इलाज में एक ही प्रकार की औषधि का प्रयोग किया जाता है ऐसे में औषधि के असर का पता भी चल जाता है। यदि रोग के लक्षण कम होते नजर आते हैं तो औषधि जारी रखी जाती है और यदि दवा का असर नजर नहीं आता तो दवा बदलने का फैसला लेने में आसानी रहती है। *एलोपैथी में एक ही साथ कई प्रकार की दवाएं प्रयोग में ली जाती है जिससे उनके असर का सही आकलन लगाना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में कौन सी दवा बंद करनी है या कौन सी नई दवा जोड़नी है यह फैसला करना मुश्किल हो जाता है।
  • क्योंकि होम्योपैथी में औषधि की बहुत कम मात्रा की जरूरत होती है तथा रोग से मुक्ति भी जल्दी मिलती है इसलिए उपचार का खर्च भी बहुत कम होता है। इस पद्धति में सिर्फ लाभ ही होता है कोई दूसरा कुप्रभाव भी नहीं होता है। जबकि एलोपैथी में समय और पैसा दोनों अधिक खर्च होते हैं।
  • पशुओं के बड़े आकार के अनुसार एलोपैथिक दवाइयों की मात्रा अधिक देनी पड़ती है जिससे उपचार का खर्च बढ़ जाता है। जबकि होम्योपैथी में छोटे व बड़े सभी पशुओं में एक समान कम मात्रा की जरूरत पड़ती है जिससे इलाज का खर्च भी कम हो जाता है।
  • होम्योपैथी में बहुत कम मात्रा में दवा देनी पड़ती है इसलिए पशुओं के इलाज में इससे काफी राहत मिल जाती है अधिक मात्रा में दवा इंजेक्शन के रूप में देना तथा मुंह से पिलाना एक कठिन काम होता है। अधिक मात्रा में एलोपैथिक दवाएं पिलाते समय दवा पेट की बजाय फेफड़ों में जाने का खतरा बना रहता है जिससे ड्रेंचिग निमोनिया, होने का खतरा बढ़ जाता है और समय पर उपयुक्त उपचार न मिलने की स्थिति में पशु की मृत्यु भी हो सकती है। होम्योपैथिक औषधि बहुत कम मात्रा में बहुत आसानी से पशु को जल्दी ही दी जा सकती है।
  • होम्योपैथिक और एलोपैथिक दवाइयां साथ साथ दी जा सकती हैं। होम्योपैथी के साथ एलोपैथिक टॉनिक, दर्द निवारक औषधियां, विटामिंस इत्यादि दे सकते हैं। कई गंभीर बीमारियों में एलोपैथी के साथ-साथ होम्योपैथिक दवाइयों का काफी अच्छा असर होता है। वैसे कोई भी पद्धति अपने आप में परिपूर्ण नहीं होती है। इसलिए एलोपैथी के साथ होम्योपैथी कई बार काफी लाभदायक सिद्ध होती है। जैसे किसी गंभीर अवस्था में फ्लूड थेरेपी, व अन्य एलोपैथिक दवाइयों से रोगी को बचाकर बाद में लक्षणों के आधार पर होम्योपैथिक उपचार करना चाहिए।
  • एलोपैथिक दवाइयों, वैक्सीन, रेडिएशन आदि के साइड इफेक्ट को होम्योपैथिक दवाओं से समाप्त किया जा सकता है। एलोपैथी में वैक्सीन लगाने से कई साइड इफेक्ट्स भी होते हैं जिन्हें होम्योपैथिक थूजा व नोसोडस, से सही किया जा सकता है।
  • होम्योपैथी का उपचार अधिक समय तक चलता है परंतु इससे पशुओं में बीमारी समूल नष्ट हो जाती है। जिस तरह मनुष्यों में होम्योपैथिक दवा कारगर है उसी तरह से होम्योपैथिक दवा पशुओं पर भी सफलतापूर्वक पूर्ण उपचार हेतु उपयोग में ली जा रही है। पशुओं में बुखार, पेट खराब होने, प्रसव के दौरान समस्या, शरीर के किसी अंग से रक्त निकलना, मूत्राशय की पथरी जैसी अनेक बीमारियों में होम्योपैथिक औषधि शीघ्र सफलता देती है।
  • हमारे कार्य क्षेत्र  में काफी संख्या में पशुपालक होम्योपैथी औषधियों द्वारा पशुओं का उपचार करा रहे हैं।
  • होम्योपैथिक औषधियों के बारे में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है की पशुओं पर इसका कोई दुष्प्रभाव या साइड इफेक्ट नहीं होता है एवं पशु के दूध पर भी कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है।
  • भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान इज्जतनगर बरेली में भी लगातार होम्योपैथिक औषधियों पर शोध कार्य हो रहा है।
  • होम्योपैथिक दवा की कीमत काफी कम होती है और इसका पशु पर कोई दुष्प्रभाव भी नहीं पड़ता है। पशुओं में होने वाले थनैला रोग गांठ मस्से, बच्चेदानी का बाहर निकलना अर्थात बच्चा देने से पूर्व सर्वाइकोवेजाइनल  एवं ब्याने के बाद यूटेराइन प्रोलेप्स जैसी बीमारियों में होम्योपैथिक दवाएं काफी असरदार होती हैं।
और देखें :  पशुपालन में स्थानीय औषधीय पौधों का महत्व एवं प्रयोग

वेटरनरी होम्योपैथी द्वारा कुछ मुख्य बीमारियों के सफल उपचार निम्नलिखित है

1. थनैला रोग

थनैला रोग दुधारू पशुओं को होने वाला एक खतरनाक रोग है। थनैला रोग से प्रभावित पशुओं को रोग के प्रारंभ में थन एवं अयन गर्म हो जाता है तथा उस में दर्द एवं सूजन हो जाती है। शरीर का तापमान भी बढ़ जाता है। उपरोक्त लक्षण प्रकट होते ही दूध की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। दूध में छीछडे, रक्त एवं मवाद की बहुतायत हो जाती है। पशु चारा दाना भी बहुत कम खाता है एवं अरुचि से ग्रसित हो जाता है। यह बीमारी मुख्य रूप से गाय, भैंस, बकरी एवं शूकर समेत कई अन्य पशुओं में भी पाई जाती है जो अपने बच्चों को दूध पिलाती है। थनैला बीमारी पशुओं में कई प्रकार के जीवाणु, विषाणु, फफूंद एवं यीस्ट तथा मोल्ड के संक्रमण के कारण होता है। इसके अतिरिक्त चोट तथा मौसमी प्रतिकूलताओ के कारण भी थनैला रोग उत्पन्न हो जाता है।

होम्योपैथिक औषधि फाइटो लक्का-1000 की पांच बूंद सुबह 15 दिन तक देने पर  यह खतरनाक थनैला रोग ठीक हो जाता है। थनैला रोग में थनों में गांठ पड़ने, अर्थात फाइब्रोसिस होने पर कोई कारगर एलोपैथिक उपचार नहीं है ऐसी स्थिति में होम्योपैथिक “टीटासूल फाइब्रोकिट गोल्ड” द्वारा उपचार काफी प्रभावी होता है। इससे गांठे काफी हद तक सही हो जाती है, एवं पशु सामान्य दूध पर आ जाता है और पशुपालन को उपचार कम कीमत में मिल जाता है।

बचाव

  1. पशुओं के बांधे जाने वाले स्थान या बैठने के स्थान एवं दूध निकालने के स्थान की सफाई का विशेष ध्यान रखें।
  2. दूध दुहने की तकनीक सही होनी चाहिए जिससे थन को किसी प्रकार की चोट न पहुंचे।
  3. ठंड में किसी प्रकार की चोट जैसे हल्की खरोंच का भी उचित उपचार तत्काल कराएं।
  4. थन का उपचार दूध निकालने से पहले एवं बाद में 1:1000 पोटेशियम परमैंगनेट या क्लोरहेक्सिडीन 0.5 प्रतिशत से धोकर करें।
  5. दूध की धार कभी भी जमीन पर ना मारे।
  6. समय-समय पर दूध की जांच काले बर्तन पर धार देकर या प्रयोगशाला में करवाते रहें।
  7. शुष्क पशु का उपचार भी ब्याने के बाद थनैला रोग होने की संभावना लगभग समाप्त कर देता है। इसके लिए पशु चिकित्सक से संपर्क करें।
  8. रोगी पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग रखें तथा उन्हें दुहने वाले भी अलग हो। अगर ऐसा संभव नहीं हो तो रोगी पशु को सबसे अंत में दुहे।

2. अमदकाल/ गर्मी में न आना

उपरोक्त समस्या पशु को  कृमि नाशक औषधि देने के 3 दिन बाद में फर्टीसूल टेबलेट का 21 दिन, के कोर्स से आशातीत लाभ प्राप्त होता है। इसमें 5 टेबलेट प्रतिदिन लगातार रैपर पर लिखे दिन के अनुसार 21 दिन तक दी जाती है यदि पशु बीच में गर्मी में आ जाता है तो उसको कृत्रिम गर्भाधान करा कर कोर्स को पूरा होने दिया जाता है। एक प्रयोग के दौरान 80 पशुओं में 52 पशुओं में सफलता प्राप्त हुई। इस उपचार से लगभग 65% पशुओं में सफलता पाई गई है।

और देखें :  कोविड-19 लॉक डाउन के दौरान पशुओं के सामान्य रोग एवं उनका प्राथमिक/घरेलू उपचार

3. पुनरावृत्ति प्रजनन की समस्या

इस समस्या में पशु को क्रमी नाशक औषधि देने के 3 दिन पश्चात फर्टिसूल की 5 गोली सुबह प्रतिदिन  रैपर पर लिखें  दिन के अनुसार 21 दिन तक दे, तथा यूटेरोजन घोल से 5ml औषधि रोटी पर लगाकर प्रतिदिन सायं लगातार 21 दिन तक दे। एक प्रयोग में हमने इस समस्या से ग्रसित 120 मादा पशुओं में उपरोक्त औषधियों का प्रयोग कराया है जिसमें से 70 मादा पशुओं में लगभग 58.33 प्रतिशत  सफलता प्राप्त हुई है।

4. यकृत संबंधी विकार

यकृत संबंधी विकारों में, पशु को  कृमि नाशक  औषधि देने के उपरांत हम्बल लिव 10ml सुबह दोपहर शाम को दिन में तीन बार देने से यकृत संबंधी विकार दूर होते हैं और पशु चारे पर आ जाता है। लगभग 90 पशुओं को इस उपचार को देने के पश्चात 70 पशुओं में आशातीत लाभ हुआ है। इस उपचार से लगभग 77.77% पशुओं में अच्छी सफलता प्राप्त की गई है।

5. मेट्राइटिस /गर्भाशय शोथ

उपरोक्त समस्या पशु को कृमि नाशक औषधि देने के पश्चात सेप्टीगो सिरप को 10- 10ml सुबह शाम 10 दिन तक देने से आशातीत लाभ होता है। उपरोक्त औषधि के साथ-साथ यदि प्रतिजैविक औषधि उपयोग करते हैं तो अति शीघ्र लाभ होता है। एक प्रयोग के दौरान 50 पशुओं में से लगभग 30 पशुओं में मेट्राइटिस की समस्या से छुटकारा मिल गया अर्थात 60% पशुओं में सफलता पाई गई है।

एक प्रयोग में 20 पशुओं में सेपटीगो के साथ-साथ सेफ्टीऑफर सोडियम 1 ग्राम इंजेक्शन 3 से 5 दिन देने पर 20 पशुओं में से 18 पशुओं, मैं पूर्ण लाभ देखा गया है, अर्थात पशुओं में गर्भाशय शोथ/ मेट्राइटिस ठीक होने से उनका दुग्ध उत्पादन बढ़ गया तथा पाचन क्रिया भी सामान्य हो गई। इस प्रयोग मैं होम्योपैथी  एवं एलोपैथिक विधियों के सम्मिलित उपचार के द्वारा  लगभग 90% पशुओं में सफलता प्राप्त की गई है।

इस प्रकार उपरोक्त प्रयोगों से यह सिद्ध होता है कि होम्योपैथिक औषधियों से पशुओं की कई बीमारियों का उपचार कम खर्च में सरलता पूर्वक किया जा सकता है। जिससे गरीब पशुपालक भी कम खर्च पर अपने पशुओं का समुचित और सुरक्षित उपचार करा सकते हैं और अपनी आमदनी में आशातीत वृद्धि कर सकते हैं।

इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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