खुरपका-मुँहपका रोग तथा दुग्ध एवं मांस उद्योग पर इसका दुष्प्रभाव: संक्षिप्त अंतर्दृष्टि तथा नियंत्रण व निवारण

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सार

खुरपका-मुँहपका एक विषाणु जनित संक्रामक रोग है, जो पशुओं के विभिन्न प्रकार जैसे गाय, भैंस, भेड़, बकरी और शूकर में फैलता है। यह रोग पशुओं के संक्रमण दर तक पहुंच सकता है और बछड़ों में 20% तक मृत्यु की दर हो सकती है। उत्पादन में कमी, उपचार का खर्च और पशुजन्य उत्त्पादों के व्यापार में गिरावट जैसे कारक किसानो की आय को बहुत ही अधिक हानि पहुँचाते हैं। सही समय पर टीकाकरण व नियंत्रण ही इस रोग से बचाव हेतु मुख्य उपाए है।

संकेत शब्द: खुरपका-मुँहपका रोग, उत्पादन में कमी, टीकाकरण

परिचय

खुरपका- मुँहपका रोग, विभाजित खुर वाले पशुओं में तीव्र गति से फैलने वाला, एक विषाणु जनित संक्रामक रोग है। हालांकि यह रोग गाय, भैंस, भेड़, बकरी एवं शूकर जैसी सभी पालतू पशुओं की प्रजातियों में होता है, परन्तु गाय एवं शूकर गंभीर रूप से ग्रसित होते हैं। रोग में संक्रमण दर शत प्रतिशत तक होती है। यद्यपि वयस्क पशु में मृत्यु दर 2 प्रतिशत होती है, किन्तु बछड़ों में मृत्यु दर 20 प्रतिशत तक हो सकती है। महामारी की स्थिति में शूकरों एवं बछड़ों में मृत्यु दर 50 प्रतिशत तक पहुँच जाती है। भारतवर्ष में, खुरपका- मुँहपका रोग की रोकथाम हेतु, केन्द्र सरकार ने सन् 2003 से एफ एम डी-सी पी प्रोग्राम के अन्तरगर्त पशुओं में निशुल्क टीकाकरण की योजना प्रारम्भ की। इस अभियान में इंडियन इम्यूनोलाजीकल लिमिटिड कम्पनी के द्वारा निर्मित रक्क्षा औवेक वैक्सीन से निशुल्क टीकाकरण किया जाता रहा है। एम डी-सी पी प्रोग्राम के कार्यान्वयन से खुरपका मुंहपका रोग के प्रकोपों ​​की संख्या में भारी गिरावट आई है। सितंबर, 2019 में, खुरपका- मुँहपका रोग एवं अन्य मुख्य रोगों के रोकथाम हेतु, एक प्रमुख योजना राष्ट्रीय पशु रोग नियंत्रण कार्यक्रम (एनएडीसीपी) शुरू की गई है, जिसके अंतर्गत 12 हजार करोड़ रूपये से ज्यादा की धनराशि, केन्द्र सरकार द्वारा दी गयी है जिसका मुख्य लक्ष्य 2024 तक खुरपका मुँहपका बिमारी को सीमित करना है।

खुरपका- मुँहपका रोग से दूध की उपज में कमी, विकास दर में कमी, बांझपन, बैलों में काम करने की क्षमता में कमी आती है एवं अंतरराष्ट्रीय बाजार में व्यापार भी प्रतिबंध होता है। इसके अलावा, दूध और दुग्ध उत्पाद, मांस और खाल रोग मुक्त आयातक देशों द्वारा स्वीकार नहीं किए जाते हैं, जिससे पशुधन उद्योग की निर्यात क्षमता में कमी आती है, जिसकी वजह से, यह रोग पशुपालकों की आर्थिकी को बहुत प्रभावित करता है। अतः आर्थिक महत्व के इस रोग पर नियंत्रण आवश्यक है।

और देखें :  खुरपका मुंहपका रोग: पशुओं का संक्रामक रोग

खुरपका- मुँहपका रोग: कारण, प्रसरण, लक्षण, एवं उपचार

कारण: खुरपका-मुँहपका रोग पिकोर्ना क्षेणी में पाये जाने वाले एफ्थस विषाणु द्वारा होता है। यह विषाणु सात- ओ, ए, सी, एशिया-1, एस.ए.टी.-एक, एस.ए.टी.-दो एवं एस.ए.टी.-तीन प्रकार के होते है। भारतवर्ष में खुरपका-मुँहपका रोग ओ, ए, सी, एवम् एशिया-1 प्रकार के एफ्थस विषाणु द्वारा होता है। परन्तु 1995 से देश में सी प्रकार के विषाणु द्वारा रोग होने की सूचना नहीं मिली है। भारत में ओ सबसे आम और प्रमुख प्रकार रहा है, इसके बाद एशिया1 और है।

प्रसरण: रोगी पशु की लार, नासिका स्राव, गोबर, मू़त्र, जनन पदार्थ, दुग्ध, निःश्वास वायु, योनि स्राव, एंव मांस आदि में रोग के विषाणु विद्यमान रहते है। मांस और उप-उत्पाद जिनमें पीएच 6.0  से ऊपर रहा हो, उनमें, यह विषाणु जीवित पाया जाता है। इन पदार्थों या इनके सम्पर्क में आने वाले वातावरण द्वारा विषाणु अन्य स्वस्थ पशुओं में भी रोग प्रसरण करता है। अन्य प्रजातियों की तुलना में, संक्रमित सूअर प्रति दिन सौ मिलियन से अधिक संक्रामक वायरस कणों के साथ भारी मात्रा में वायरस पैदा करते हैं। नतीजतन, सूअरों को अक्सर खुरपका-मुँहपका रोग के “एम्पलीफायर होस्ट” के रूप में जाना जाता है।

लक्षणः खुरपका-मुँहपका रोग के लक्षण अलग-अलग प्रजातियों में अलग-अलग पाए जाते हैं जो इस प्रकार हैं:

  1. गाय एवं भैंस: पशु सुस्त हो जाता है, खाना व जुगाली करना बन्द कर देता है। पशु को तेज ज्वर (104 से 106° फारनहाईट) होता है। शरीर में कपंकपाहट होती है। दुधारू पशुओं की दुग्ध उत्पादन क्षमता कम हो जाती है। इसी समय पशु के मुख में पीड़ादायक सूजन होती है। मुख से अधिक मात्रा में लार गिरती है। जीभ एंव मसूड़ों पर छाले पड़ जाते है। खुरों के बीच एवं ऊपर के स्थान पर भी छाले पड़तें है एवं पशु का ताप सामान्य होने लगता है। मुँह में छाले होने के कारण पशु चारा खाना बन्द कर देता है। मुँह से धागे की तरह लार गिराना प्रारम्भ हो जाती है। पशु अपना मुँह बार-बार खोलता एवं बन्द करता है जिस कारण उसके मुँह से एक विशिष्ट तरह की चपचपाहट की आवाज सुनाई देती है। मुख में छाले पड़ने के 24 घंटों के बाद ही छाले फुटना शुरू हो जाते है और उनके स्थान पर लाल धब्बे की तरह घाव बन जाते है। जो कि बाद मे किसी अन्य संक्रमण की अनुपरिस्थत में लगभग 6 दिनों में भर जाते हैं। पैर में छाले पड़े होने के कारण सूजन आ जाती है जिससे पशु न तो ठीक तरह से खड़ा रह पाता है और न ही चल पाता है। खुरों के बीच में छाले फूटने पर उचित देखभाल न होने पर कीड़े पड़ जाने की सम्भावना बनी रहती है। दुधारू पशुओं के स्तन पर भी छाले पड़ जाते है जोकि पशु की दुग्ध उत्पादन क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव डालते है। गर्भित पशुओं में गर्भपात की सम्भवना बढ़ जाती है। बोझ ढ़ोने वाले पशुओं की कार्यक्षमता कम हो जाती हे। रोगोपरान्त स्वस्थ हुए पशुओं में भी श्वसन सम्बन्धी तकलीफ, धूप में हाफना, गर्मी सहने की क्षमता में कमी, खुरों का बाहर निकल जाना, मधुमेह, शरीर पर बालों का अप्रत्याशित रूप में बढ़ना, हृदये सम्बन्धी परेशानिया, रक्तहीनता, नर पशुओं के वीर्य की गुणवत्ता में कमी आदि समस्यायें पैदा हो जाती है।
  2. भेंड़ एवं बकरीः भेड़ एवं बकरी में रोग के लक्षणों की गम्भीरता गाय एवं भैंस की तुलना में कम होती है। इस प्रजाति के पशुओं के खुरों के बीच में छालें पड़ जातें है जो कि दो या तीन दिन के भीतर फूटने लगते है। जिससे पशु लगंडाकर चलता है। कभी-कभी पशु के खुरों की ऊपरी सतह भी बाहर निकल जाती है। पशु के मुँह में छाले पड़ते है जो मुख्यतः जीभ एवं ऊपरी तालु पर दिखयी देते है।
  3. शूकरः शूकरों मे यह रोग सर्वाधिक घातक रूप में प्रकट होता है। पशु के थूथन एवं पैरों पर अत्याधिक पीड़ादायक घाव बनते है। पैरों में खुर अलग हो जातें है तथा द्वितीयक जीवाणओं के संक्रमण के कारण मवाद पड़ जाता है। मादा शूकरों के थानों पर भी छाले पड़ जाते है। सूअर के बच्चों में हृदये की मांसपेशियों के संक्रमण एवं उल्टी दस्त के कारण उच्च मृत्यु दर देखी गई है।

उपचारः खुरपका-मुँहपका रोग एक विषाणु जनित रोग है, इसलिए इसका कोई विशिष्ट उपचार नहीं है। परन्तु निम्न तरह से द्वितीयक संक्रमण को रोक तथा रोग के लक्षणों की तीव्रता को कम किया जा सकता है।

  1. पूतिरोधी/कीटाणु नाशक धुलाई- मुख एवं खुर के घावों को लाल दवा (पोटैशियम परमैगनेट) के हल्के घोल से दिन में दो बार धोएं।
  2. धोने के बाद छालों एवं घावों पर सोडियम बाइकार्बोनेट या बोरोग्लिसरीन का लेप करना लाभदायक होता है।
  3. पशु को प्रतिजैविक, बहु विटामिन के इंजेक्शन लगाएं।
  4. इस समयकाल में पशु को मुलायम आहार ही दें।
  5. कीड़े पड़े घावों पर तारपीन का तेल डालें।
  6. पशु के लिए नर्म बिछावन का प्रबन्ध करें।
और देखें :  पशुओं में होनें वाले संक्रामक रोगों से बचाव

खुरपका- मुँहपका रोग: दुग्ध एवं मांस व्यवसाय पर इसके प्रभाव

खुरपका-मुँहपका रोग का दुग्ध एवं मांस उद्योग पर विनाशकारी प्रभाव हो सकता है, क्योंकि इससे उत्पादन स्तर कम हो सकता है, किसानों की आय में कमी आ सकती है, और पशुओं की मृत्यु और अन्य रोग नियंत्रण उपायों के कारण वित्तीय नुकसान हो सकता है। दुग्ध एवं मांस व्यवसाय पर इसके प्रभाव, निम्न प्रकार से हैं:

  1. उत्पादन में कमी: खुरपका-मुँहपका रोग से पशुओं की पैदावार एवं उनसे उत्पादित दूध एवं मांस की गुणवत्ता कम हो सकती है। रोग के प्रकोप से संक्रमित जानवरों की मौत हो सकती है, जो दूध एवं मांस की आपूर्ति को भी कम करता है।
  2. प्रतिबंधित व्यापार: रोग के प्रकोप के परिणामस्वरूप, व्यापार प्रतिबंध हो सकते हैं, क्योंकि कई देश रोग के प्रसार को रोकने के लिए संक्रमित देशों से जीवित पशुओं और पशु उत्पादों के आयात पर व्यापार प्रतिबंध लगा सकते हैं। यह पशुजन्य उत्त्पादों के साथ-साथ अन्य कृषि उत्पादों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है। इसके अतिरिक्त, रोग का का प्रकोप प्रभावित देश या क्षेत्र की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा सकता है, जिससे उपभोक्ता का विश्वास टूट सकता है और निर्यात में कमी आ सकती है। मांस उद्योग पर इसका स्थायी प्रभाव हो सकता है, क्योंकि सकारात्मक प्रतिष्ठा के पुनर्निर्माण में वर्षों लग सकते हैं।
  3. उद्योग में अनिश्चितता: रोग के प्रकोप से बाजार में घबराहट और अनिश्चितता पैदा हो सकती है, जिससे दूध एवं मांस उत्पादों की उपभोक्ता मांग में गिरावट और कीमतों में कमी आ सकती है। यह किसानों और पूरे मांस उद्योग की वित्तीय स्थिरता पर एक बड़ा प्रभाव डाल सकता है।

अतः खुरपका और मुंहपका रोग, उत्पादन में कमी, चिकित्स्य खर्चा, पशुओं की मौत, संगरोध और परिवहन प्रतिबंध, मांग में कमी और व्यापार प्रतिबंध के कारण, किसानों की आय पर सीधा प्रभाव डालता है।

खुरपका- मुँहपका रोग: नियंत्रण व निवारण

 खुरपका-मुँहपका रोग की रोकथाम और नियंत्रण के लिए जिम्मेदार लागत का पचहत्तर प्रतिशत, कम आय और निम्न-मध्यम आय वाले देशों द्वारा वहन किया जाता है। इसकी रोकथाम प्रारंभिक पहचान और चेतावनी प्रणालियों की उपस्थिति और अन्य उपायों के बीच प्रभावी निगरानी के कार्यान्वयन पर आधारित है एवं निम्न प्रकार से की जा सकती है:

  1. पशुओं का समय पर टीकाकरण करवाना ही इस रोग से बचाव का एकमात्र उपाय है। 6 माह से अधिक आयु के सभी पशुओं को वर्ष में दो बार, पहले मार्च-अप्रैल तथा दूसरी बार अक्टूबर-नवम्बर के महीने में टीकाकरण किया जाता है। टीकाकृत किये हुए पशु लगभग 6 माह तक रोग से सुरक्षित रहते है। खुरपका-मुँहपका रोग का नियंत्रण नियमित अंतराल पर बार-बार अतिसंवेदनशील पशुओं के बड़े पैमाने पर टीकाकरण द्वारा प्राप्त किया जा सकता है जब तक कि बीमारी की घटना न हो जाए।
  2. पशु बाड़ों की स्वच्छता का विशिष्ट ध्यान रखें। इस रोग के विषाणु सामन्यता दैनिक क्रिया कलापों में प्रयुक्त होने वाले कीटाणुनाशक रसायनिक पदार्थों के लिए असंवेदनशील होता है। परन्तु 4 प्रतिशत सोडियम कार्बोनेट का घोल इस विषाणु को शीघ्र नष्ट कर देता है। अतः इस के उपयोग से रोग ग्रस्त क्षेत्रों के पशु बाडों की सफाई कर बाड़े को विषाणु मुक्त किया जा सकता है।
  3. झुंड में नये पशु को लेने से पहले उसके सीरम का परीक्षण करवा ले। नये पशुओं को पहले दो से तीन सप्ताह तक अलग रखकर ही समूह में प्रविष्ट करायें।
  4. रोग क्षेत्र में पशु तथा वाहनों के आवागमन को नियंत्रित करे।
  5. रोग के लक्षण की सूचना निकटतम पशु चिकित्सालय पर अतिशीघ्र दें।
  6. रोगी पशुओं को पृथक्कृत कर अलग बाड़े में रखें। बेहतर होगा जो रोगी एवं स्वास्थ पशु की देखभाल अलग अलग व्यक्ति करें।
  7. रोग से मृत हुए पशु एवं सम्पर्क में आई वस्तुओं का भली भांति निस्तारण करें।
  8. पशु बाड़े के प्रवेश द्वार पर विषाणुनाशक घोल से गुजारकर पशुओं को बाड़े में प्रविष्ट कराऐं।
और देखें :  उद्यान विषय से संबंधित एक दिवसीय प्रशिक्षण

सारांश

खुरपका मुंहपका रोग पशुधन का विषाणु जनित रोग है जिससे भारत में प्रतिवर्ष 200 बिलियन अमेरिकी डॉलर का आर्थिक नुकसान होता है। रोग मुख्य रूप से विभाजित खुर वाले पशुओं को प्रभावित करता है। पशुओं में तेज बुखार आना तथा मुख्य रूप से मुंह और खुरों पर छाले पड़ना इस रोग के मुख्य लक्षण हैं। यह रोग आमतौर पर वयस्क पशुओं में घातक नहीं होता है, किन्तु कई युवा जानवरों की मृत्यु हो सकती है। यह पशुपालकों की आमदनी को सीधेतौर पर बहुत प्रभाभित करता है। इस रोग का कोई निश्चित उपचार नहीं है सिर्फ लक्षणों के आधार पर पशु का उपचार किया जाता है। इस रोग से बचाव का एकमात्र उपाय, पशुओं में समय पर टीकाकरण करवाना है।

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