जीवाणु व विषाणु जनित शूकर के जूनोटिक रोग

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शूकर पालन भारत के ग्रामीण क्षेत्रो में किया जाने वाला व्यवसाय है। शूकर पालन विशेषतया जनजातीय समूहों के द्वारा किया जाता है। यह निर्धन तबके के लिए भोजन व आय का प्रमुख साधन है। जूनोटिक रोग वो रोग होते हैं जो पशुओ से मनुष्यो तथा मनुष्यो से पशुओ में फैलते हैं। शूकर में होने वाले प्रमुख जूनोटिक रोगो का वर्णन इस प्रकार है-

जीवाणु जनित जूनोटिक रोग

1. शूकर एरिसिपैलास रोग

यह एक जीवाणु जनित रोग है। यह एरिसिपेलोथ्रिक्स रुसिओपैथी नामक जीवाणु द्वारा फैलता है। भारत में यह रोग आन्ध्र प्रदेश और पंजाब राज्यों से रिपोर्ट किया गया है। शूकरो में यह रोग मुख्यता संक्रमित फिश मील (मछली से बना भोजन) ग्रहण करने से फैलता है। इसके अतिरिक्त संक्रामक पानी, बिस्तर और मिट्टी के संपर्क में आने से भी इस रोग का प्रसार होता है। कुछ काटने वाली मक्खियाँ तथा किलनी भी इस रोग के फैलाव का कारण बनती हैं। संक्रमित पशुओ के सम्पर्क में आने, उनसे प्राप्त वाले उत्पाद जैसे – माँस, हड्डियाँ, मछली के शल्क और पशुओ द्वारा संक्रमित मैदान और मिट्टी के सम्पर्क में आने से यह रोग मनुष्यो में फैलता है।

रोग के लक्षण

यह रोग 4 स्वरूपों में देखने को मिलता है।

  1. सेप्टीसीमिआ (रक्त संक्रमण) – इसमें तेज बुखार, भूख न लगना, प्यास, कभी कभार उल्टी लगना आदि लक्षण देखने को मिलते हैं।
  2. पित्ती उभरना (चकत्ते पड़ना) – इस रूप में शूकर की त्वचा पर चकत्ते पड़ जाते है। यह चकत्ते डायमंड के आकार के होते हैं और पीठ, नितम्भों और शरीर के दोनों तरफ पाए जाते हैं।
  3. दीर्घकालिक अथवा हृदय स्वरुप – इस अवस्था में शूकर के हृदय में गोभी के आकार के संरचनात्मक परिवर्तन हो जाते है। इस कारण शूकर की मृत्यु भी हो सकती है।
  4. गठिया स्वरुप – जोड़ो में सूजन आ जाती है और पशु चल नहीं पाता।

मनुष्य में इस रोग के लक्षण दो रूपों में मिलते है। पहली अवस्था में त्वचा में चकत्ते पड़ जाते हैं जिनमे खुजली व जलन होती है। जोड़ो में दर्द होता है और 10 प्रतिशत केसो में लसिका ग्रंथियों में सूजन आ जाती है। दूसरी अवस्था में रक्त में संक्रमण फैलने के कारण हल्का बुखार, कमजोरी जैसे लक्षण आते है। बाद में तेज बुखार, मांसपेशियों में दर्द, भूख न लगना, तिल्ली बढ़ना जोड़ो का दर्द आदि लक्षण आते हैं। लगभग 75 प्रतिशत केस में हृदय में परेशानी भी होती है।

उपचार

एन्टीबायटिक दवाएँ जैसे – पेनिसिलिन, टेट्रासाइक्लिन, टाइलोसिन, इरिथ्रोमाइसिन आदि दी जाती हैं।

रोकथाम

शूकरो को संक्रमित खाना व पानी नहीं देना चाहिए। स्वस्थ जानवरो को बीमार जानवरो से अलग रखना चाहिए। शूकरो का टीकाकरण कराये। मनुष्यो के लिए यद्यपि कोई टीका उपलब्ध नहीं है किन्तु वे पशुओ की देखभाल करते समय हमेशा दस्ताने पहने ताकि जीवाणु किसी भी चोट से शरीर में न घुस सके।

2. लेप्टोस्पाइरोसिस/ छूतकारी पीलिया/ शूकर समूह रोग

यह रोग ‘लेप्टोस्पाइरा इंटेरोगेंस‘ नामक जीवाणु से फैलता है। इसके लगभग 65 सीरोवार रोग फैलाते हैं। शूकर में यह रोग ‘लेप्टोस्पाइरा टारासोवी‘ और ‘लेप्टोस्पाइरा पोमोना‘ नामक सीरोवारो से होता है। भारत में यह रोग दक्षिण भारत के राज्यों से रिपोर्ट किया गया है। इस रोग के संक्रमण में चूहा मुख्य भूमिका निभाता है। चूहे के मूत्र के संक्रमण में आने से इस रोग का जीवाणु आँख की श्लेष्मा, जननांगो, नासा तंत्र, पाचन तंत्र द्वारा शूकर के शरीर में प्रवेश कर जाता है। प्लेसेन्टा या अपरा के द्वारा भी इसका संक्रमण फैलता है। यौनाचार, संक्रमित वीर्य से गर्भाधान, संक्रमित जननांगो के द्वारा यह रोग संक्रमित पशु से स्वस्थ पशु में हो जाता है। जब संक्रमित मां बच्चे को दूध पिलाती है तब भी इस रोग का प्रसार बच्चे में माँ के अयन से हो सकता है। कुछ परजीवी जैसे – मच्छर, किल्ली, मक्खियाँ, खटमल आदि भी रोग के प्रसार में भूमिका निभाते हैं। यह रोग मुख्यता चावल व गन्ने के खेत में काम करने वाले मनुष्यो में होता है। जब मनुष्य चूहे के मूत्र से संक्रमित खाद्य पदार्थो को ग्रहण कर लेता है तो यह रोग मनुष्यो में फैल जाता है। पानी से भरे हुए खेतो में नंगे पैर कार्य करने से इस रोग क जीवाणु शरीर में प्रवेश कर जाता है।

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रोग के लक्षण

शूकर: भूख न लगना, बुखार, दस्त, गर्भपात अथवा कमजोर शिशु पैदा होना इत्यादि।

मनुष्य: मनुष्य में यह रोग दो अवस्थाओं में होता है। पहली अवस्था को ‘लेप्टोस्पाइरीमिक अवस्था‘ कहा जाता है। इसमें फ्लू जैसे लक्षण आते है जैसे – अचानक  तेज बुखार, कंपकपी, सिर दर्द, उल्टी, माँसपेशियों में दर्द, आँख आना (कंजक्टीवाइटिस) आदि। दूसरी अवस्था को ‘वील सिंड्रोम‘ कहा जाता है। इसमें यकृत व वृक्क खराब हो जाते है। पीलिया हो जाता है। यह अवस्था घातक होती है। इसमें ‘लाल आँख‘ होना  एक महत्वपूर्ण लक्षण है।

उपचार

शूकर में डाईहाइड्रोस्ट्रेप्टोमाइसिन एन्टीबायटिक 25 मिग्रा प्रति किग्रा के हिसाब से दी जाती है। इसके अतिरिक्त 400 – 800 मिग्रा प्रति शूकर टेट्रासाइक्लिन भी दी जा सकती है। मनुष्य में बीमारी के चैथे दिन से ही पेनिसिलिन ळ (2 – 10 मेगा यूनिट प्रति दिन) देनी चाहिए।

रोकथाम

चूहों का 2ः जिंक फॉस्फाइड जैसी दवा के उपयोग से नियंत्रण किया जाना चाहिए। आसपास पानी न जमने दे व सफाई रखे। सोडियम हाइपोक्लोराइट का प्रयोग करके जानवरो के रहने के स्थान को धुले। संक्रमित बिस्तर, गर्भपात हुए भ्रूण, अपरा को जला दे। समय – समय पर शूकर समूह की टेस्टिंग करानी चाहिए। शूकरो का हर 6 महीने में टीकाकरण कराए। उबला हुआ अथवा क्लोरीनेटेड पानी पिएँ। पाश्चुराइज्ड दूध का सेवन करे। चूहे के मूत्र से संक्रमित तालाबों व स्विमिंग पूल में न नहाएं।फर्श सफाई के लिए डिसइंफेक्टेंट का प्रयोग करे। जानवरो के सम्पर्क में आते समय हमेशा गम बूट्स और दस्ताने पहने। संभव हो तो टीका लगवाएँ ।

3. ब्रूसेल्लोसिस अथवा संक्रमित या छूतकारी गर्भपात

शूकर में यह रोग ‘ब्रूसेल्ला सुइस‘ नामक जीवाणु द्वारा होता है। भारत में यह रोग लगभग सभी राज्यों में पाया जाता है। शूकर में यह रोग मुख्यता संक्रमित खाद्य पदार्थो के सेवन से होता है। यह नर, मादा व बधिया सभी प्रकार के शूकरो में होता है। संक्रमित पशु के साथ यौनाचार  माध्यम से भी यह रोग फैलता है। मनुष्य में यह रोग प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से संक्रमित  सम्पर्क में आने से होता है। संक्रमित खाद्य पदार्थो का सेवन, सांस लेने व अक्षुण्ण त्वचा से भी इस रोग का जीवाणु मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर जाता है। जब कभी मनुष्य का सम्पर्क पशु के ब्याहने के दौरान संक्रमित भ्रूण से हो जाता है तब भी इस रोग का प्रसार होता है।

रोग के लक्षण

शूकर: शरीर में फोड़े, पिछले हिस्से में लकवा मारना, लंगड़ापन, तीसरी तिमाही में मादा पशुओ में गर्भपात आदि।

मनुष्य: मनुष्यो में बुखार, भूख मर जाना, नींद न आना, सिर दर्द, मांसपेशियों में दर्द, कमजोरी व थकान जैसे लक्षण देखने को मिलते हैं। रात में भीगा हुआ पसीना आना इस रोग का प्रमुख लक्षण है। बुखार का एक निश्चित पैटर्न न होने के कारण इस रोग को ‘तरंगित बुखार‘ (नदकनसंदज मिअमत) भी कहा जाता है।

उपचार

शूकर में इसका उपचार संभव नहीं है। मनुष्य में रिफाम्पिसिन और डॉक्सीसाइक्लिन दवाओं द्वारा इसका इलाज किया जाता है।

रोकथाम

शूकर में रोकथाम ही इस रोग से बचने का एकमात्र उपाय है। संक्रमित शूकरो को दया मृत्यु देकर व साफ सफाई का विशेषकर ध्यान रखकर इस रोग से शूकरो को बचाया जा सकता है। ‘ब्रूसेल्ला सुइस स्ट्रेन 2‘ टीके का परोग भी किया जा सकता है किन्तु यह इतना प्रभावकारी नहीं है।

मनुष्य में बचाव जागरूकता अभियान चलाकर और साफ सफाई का ध्यान रखकर किया जा सकता है।

4. तपेदिक अथवा क्षय रोग

यह रोग ‘माइकोबैक्टेरियम‘ नामक जीवाणु द्वारा फैलता है। मनुष्य में इसे ‘सफेद प्लेग‘ के नाम से जाना जाता है। यह मनुष्य व पशुओ में होने वाला प्रमुख जूनोटिक रोग है। रोग मुख्यता साँस के द्वारा फैलता है। संक्रमित माँ जब बच्चे को दूध पिलाती है तब भी इस रोग का संक्रमण हो जाता है। मनुष्य में यह रोग संक्रमित पशु के सम्पर्क में आने और संक्रमित खाद्य पदार्थो जैसे दूध, पनीर आदि का सेवन करने से फैलता है।

रोग के लक्षण

शूकर: वजन कम होना, निमोनिआ, दस्त, आदि।

मनुष्य: वजन कम होना, खाँसी आना, थकान व कमजोरी, सीने में दर्द, रात को पसीना आना, खाँसी में खून आना आदि।

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उपचार

शूकर में कोई उपचार उपलब्ध नहीं है। मनुष्य में विभिन्न एंटीबाओटिक दवाएं जैसे रिफाम्पिसिन, आइसोनिएजिड, इथाम्बुटोल, स्ट्रेप्टोमाइसिन आदि  दी जाती हैं।

रोकथाम

टीकाकरण करे। साफ सफाई का ध्यान रखे। शूकर की नियमित जाँच कराएँ। मनुष्यो का पाश्चुराइज्ड खाद्य पदार्थो का ही सेवन करना चाहिए। बीसीजी .का टीका लगवाना चाहिए।

विषाणु जनित जूनोटिक रोग

1. शूकर इन्फ्लुएंजा

यह रोग ‘इन्फ्लुएंजा ए‘ वाइरस (विषाणु) द्वारा फैलता है। यह रोग शीत ऋतु में अधिक होता है। यह बहुत अधिक संक्रामक रोग है क्योकि एक पशु में होने पर यह पशुओ के पूरे झुण्ड में फैल जाता है। शूकर में इस रोग का प्रसार मुख्यता नाक स्त्राव से होता है। जब कभी किसी संक्रमित पशु को असंक्रमित जानवरों के झुण्ड में पहुँचा दिया जाता है तब भी इस रोग का प्रसार होता है। मनुष्य में भी इस रोग का प्रसार नाक के स्त्रावण से होता है।

रोग के लक्षण

यह रोग श्वसन तंत्र को प्रभावित करता है। मनुष्य व शूकर दोनों में ही लगभग समान प्रकार के लक्षण आते हैं। सामान्यतः बुखार, भूख न लगना, नाक से स्त्राव, छींक आना, साँस तेज चलना, खाँसी आदि इस रोग के प्रमुख लक्षण है।

उपचार व रोकथाम

विषाणु जनित रोग होने के कारण इसका कोई उपचार उपलब्ध नहीं है। अतः इस से बचाव के लिए संक्रमित व असंक्रमित पशुओ को अलग-अलग रखें। शूकर फार्म की सफाई किसी अच्छे निस्संक्रामक (कपेपदमिबजंदज) से करें। मनुष्य बचाव के लिए  मुँह ढककर रखे। अपने हाथों से मुँह को न छुएं तथा बार बार हाथो को साबुन से धोते रहे।

जापानी दिमागी बुखार

जापानी दिमागी बुखार एक वायरस जनित रोग है जो मच्छर द्वारा फैलता है। यह फ्लावि विरिडी परिवार के फ्लावि वायरस से होता है, जो की डेंगू, पीला बुखार, वेस्ट नील वायरस से सम्बंधित है। यदि भारत की बात की जाये तो  1500 से 4000 तक केस प्रतिवर्ष रिपोर्ट किये जाते है। यह रोग मुख्यता बच्चो में होता है। यह संक्रमण उन स्थानों में अधिक होता है जो गरम होते है तथा जहाँ चावल की खेती की जाती है, क्योकि वहाँ पानी का जमाव होने के कारण मच्छर पैदा होते है। यह एक जूनोटिक (पशुओ तथा मनुष्यो दोनों में होने वाला) रोग है। इसका जीवन चक्र कशेरुकी जीव जैसे शूकर, घोडा, चिड़िया तथा अकशेरुकी जीव जैसे क्यूलेक्स मच्छर के बीच चलता है, जिसमे मनुष्य आकस्मिक रूप से सम्मिलित हो जाता है। इसका कारण  यह है की मनुष्य के रक्त में वायरस की मात्रा कम होती है इसलिए काटने पर भी मच्छर संक्रमित नहीं हो पाते। जब क्यूलेक्स मच्छर विषाणु संक्रमित किसी कशेरुकी जीव (शूकर, चिड़िया, घोडा) को काटता है तो यह वायरस मच्छर के अंदर चला जाता है। जब यही मच्छर किसी दुसरे जीव या मनुष्य को काटता है तब मनुष्य और वह जीव भी संक्रमित हो जाता है। यहाँ शूकर प्रवर्धक (एम्पलीफायर) की तरह कार्य करता है।

रोग के लक्षण

शूकर: गर्भपात की दर बढ़ना, नवजातों की मृत्यु, बांझपन आदि।

मनुष्य: यह रोग बच्चो में अधिक होता है। प्रमुख लक्षण इस प्रकार है- तीव्र बुखार, उलटी आना, सर दर्द, दौरे आना, कोमा व मृत्यु।

उपचार

वायरस जनित होने के कारण इसका कोई उपचार मौजूद नहीं है , किन्तु लक्षणों के आधार पर दवाये दी जाती है। डाईइथाइल कारबामेट, मेनिटोल जैसी दवाये लाभदायक सिद्ध होती है।

रोकथाम

जापानीज इन्सेफेलाइटिस से बचाव के ३ प्रमुख बिंदु है-

  1. मच्छरों का नियंत्रण- मच्छरनाशक दवाइयों का प्रयोग करे जैसे डीट, पिकारिदिन, पारा मीथेन डाइऑल आदि। पूरी बाह के कपडे पहने। सोते समय मच्छरदानी का प्रयोग करे।
  2. टीकाकरण- बचाव के लिए टीके लगाए जाते हैं
  3. चावल की खेती में पानी का प्रबंधन- चावल के खेतो में पानी को नहीं रूकने देना चाहिए, ताकि मच्छरों के प्रजनन की दर कम हो सके।

इसके अतिरिक्त एंटी वायरल दवाओं तथा जागरूकता अभियान चलाकर भी जापानी दिमागी बुखार का नियंत्रण किया जा सकता है।

निपाह वाइरस रोग या बार्किंग शूकर सिंड्रोम

यह एक उभरता हुआ जूनोटिक रोग है। इसका सबसे पहला केस मलेशिया में मिला था। भारत में इसके कुल 3 आउटब्रेक हुए हैं। पहले दो पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी (2001) व नादिया (2007) जिलों में तथा तीसरा केरल (2018) में हुआ था।

रोग का प्रसार

फ्रूट बैट (फलों का सेवन करने वाली चमगादड़) इस रोग के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। फ्रूट बैट की लार से इस रोग का संक्रमण फैलता है। स्वस्थ शूकर जब संक्रमित शूकरो के शारीरिक द्रव्यों जैसे नासिका स्त्राव, मूत्र व मल के सम्पर्क में आता है तो यह संक्रमण उनमे भी फैल जाता है। मनुष्य में यह रोग संक्रमित शूकरो के सम्पर्क में आने और फ्रूट बैट की लार द्वारा संक्रमित किए गए फलो को खाने से होता है।

और देखें :  रेबीज: एक जानलेवा बीमारी

रोग के लक्षण

शूकर: 1 से 6 माह तक के शूकर में साँस लेने में कठिनाई, कुक्कुर खाँसी, मुँह खोलकर सांस लेना, पैरो में कमजोरी आदि लक्षण दिखाई देते हैं। वयस्क शूकरो में साँस लेने में कठिनाई, नाक से स्त्राव, मादा शूकर में पहली तिमाही में गर्भपात और मानसिक लक्षण दिखाई पड़ते हैं।

मनुष्य: उल्टी, दस्त, बुखार, थकान व कमजोरी, मानसिक कमजोरी, चक्कर आना आदि।

उपचार व रोकथाम

इस रोग का अभी तक कोई उपचार उपलब्ध नहीं है। अभी तक इसका कोई टीका भी विकसित नहीं हुआ। संक्रमित पशु को आइसोलेशन द्वारा, मनुष्य को संक्रमित शूकर के प्रत्यक्ष सम्पर्क से बचाकर इस रोग की रोकथाम की जा सकती है।

इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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