पशुओं में गर्भपातः कारण एवं निवारण

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भारत एक कृषि प्रधान देश है। जिसने कृषि के साथ-साथ पशुपालन को एक संलग्न व्यवसाय के रूप में अपना रखा है। पशुपालकों के अथक प्रयास से भारत देश लगभग 188 मिलियन टन दुग्ध उत्पादन कर विश्व में प्रथम स्थान पर विराजमान है और लगातार सर्वाधिक दुग्ध उत्पादन कर रहा है। आज हमारे देश में गर्भपात के कारण होने वाली प्रमुख आर्थिक हानियों में एक अनुत्पादित गर्भ का नुकसान, गर्भपात के पश्चात् होने वाली बच्चेदानी की बीमारियाँ और उनसे संबंधित प्रजननहीनता तथा गर्भपात कराने वाले संक्रामक कारकों का अन्य पशुओं पर होने वाला प्रभाव शामिल है।

गर्भपात प्रतिशत
मृत अथवा 24 घंटे से कम समय तक जीवित भ्रूण का गर्भकाल पूर्ण होने के पूर्व गर्भाशय से बाहर निकलना गर्भपात कहलाता है। गर्भपात गर्भकाल के किसी भी समय विभिन्न कारकों के कारण हो सकता है। यद्यपि भैंसों मे गर्भपात की औसत (2-3 प्रतिशत) गायों (4.72 प्रतिशत) की अपेक्षा कम पाई गयी है, पर यह भैंसों में प्रजननहीनता का एक प्रमुख कारण हो सकता है तथा पशुपालकों के आर्थिक पक्ष पर गंभीर प्रभाव डाल सकता है।

गर्भपात निम्न लिखित कारणों से हो सकता है:

  1. संक्रामक कारक
  2. असंक्रामक कारक

संक्रामक कारक

गर्भपात कराने वाले वास्तविक कारक का पता लगाना एक कठिन कार्य है। इसका प्रमुख कारण गर्भपात होने के पूर्व ही भ्रूण तथा अपरा का गर्भाशय में स्वलयन होना तथा सड़ जाना है जिसके कारण सही नमूने नैदानिक प्रयोगशाला में नही पहुँच पाते हैं। नवीनतम सूचना के अनुसार कुछ वर्षों में फ्लोरसेंट एंटीबाडी टैक्नीक के द्वारा गर्भपात के संक्रामक कारकों की पहचान में काफी प्रगति हुई है। गर्भपात कराने वाले संक्रामक कारकों में 2.9 प्रतिशत गर्भपात ब्रूसेला एर्बोर्टस नामक जीवाणु से होते हैं। यह गाय एवं भैंसों में गर्भपात कराने वाला सबसे घातक कारक है जिससे गर्भावस्था के आखिरी त्रैमास में गर्भपात होता है। इस जीवाणु का संचरण संक्रमित भैंसों के जननांगों के स्राव तथा दूध से होता है। इस रोग की पहचान भ्रूण तथा अपरा से लिए गये नमूने में जीवाणु की उपस्थिति तथा दूध, रक्त आदि के परीक्षण, समूह परीक्षण तथा अन्य सीरमीय परीक्षणों के द्वारा की जा सकती है। गर्भपात के बाद अनिर्गत अपरा इस रोग का प्रमुख सूचक हो सकती है।

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लेप्टोस्पाइरा पोमोना नामक स्पाइरोकीट भी गर्भापात के प्रमुख जीवाणु जनित कारकों में से एक है। इसमें तीव्र ज्वर के बाद अधिकतर गर्भावस्था के आखिरी त्रैमास में गर्भपात होता है। लिस्टीरियोसिस नामक बीमारी में भी ज्वर के बाद या बिना किसी लक्षण के गर्भपात हो जाता है। यह उन पशुओं में अधिक पाया गया है जिनके पोषण में मुख्यतः साइलेज का प्रयोग किया जाता है। इन बिमारियों का निदान समूह परीक्षण के द्वारा किया जा सकता है। अन्य जीवाणु जैसे कि विब्रीयोसिस, यक्ष्मा रोग, कोराइनीवैक्टेरियम पायोजेनिस, पास्टुरेला मल्टोसिडा, सालमोनेला पैराटाइफी इत्यादि भी भैंसों में गर्भपात का कारण हो सकते हैं।

विभिन्न विषाणु जनित कारक भी पशुओं में गर्भपात करा सकते हैं जिनमें बोवाइन बाइरल राइनोट्रेकिआइटिस, गोपशु गर्भपात महामारी, बोवाइन बाइरल डायरिया प्रमुख हैं। संक्रामक बोवाइन राइनोट्रेकिआइटिस जनित गर्भपात प्रायः गर्भकाल के प्रथम त्रैमास में होते हैं तथा इनमें अपरा अनिर्गत रहती है। जबकि गोपशु गर्भपात महामारी (ऐपीजूटिक बोवाइन एवार्सन) से 6-8 माह के बीच गर्भपात होता है।

कवक जनित कारक जैसे कि ऐस्पर्जिलस एवं म्यूकरेल्स की प्रजातियाँ 5-7 माह के बीच गर्भपात कराते हैं। इनमें प्रायः भ्रूण की गर्भाशय में ही मृत्यु हो जाती है अथवा निर्बल शिशु पैदा होता है जो कि शीघ्र ही मर जाता है।

इसके अलावा कई प्रोटोजोआ समूह के कारक जैसे कि ट्राइकोमोनिएसिस भी गर्भपात का एक प्रमुख कारक है यह प्रोटोजोआ संक्रमित सांड द्वारा गर्भाधान कराने अथवा कृत्रिम गर्भाधान से पशुओं में फैलता है। इससे गर्भाकाल के प्रथम 2-3 माह के भीतर ही गर्भपात हो जाता है। प्रायः यह भी देखने में आया है कि उच्च ज्वर, चाहे वह किसी भी कारण से हुआ हो, पशुओं में गर्भपात का कारण होता है।

असंक्रामक कारक

विभिन्न असंक्रामक कारक जैसे कि रासायनिक अथवा जहरीले पदार्थ, कुपोषण, अनुवांषिक कारक, भौतिक कारक गर्भपात कराने में समर्थ हैं।

विभिन्न रासायनों तथा जहरीले पदार्थों का किसी भी रूप में सेवन अथवा प्रयोग गर्भपात का कारण हो सकता है। इसके अलावा शरीर में विभिन्न हार्मोन का संतुलन बिगड़ जाने से भी गर्भपात हो सकता है। एलर्जी, शारीरिक बीमारी तथा अनुवांशिक विकृतियाँ भी गर्भपात करा सकती हैं। गर्भावस्था के दौरान विभिन्न भौतिक कारक जैसे कि गाभिन पशुओं का कृत्रिम गर्भाधान, लड़ना, दौड़ना, असामान्य वातावरण, लम्बी यात्रा कराना इत्यादि भी गर्भपात के कारण हो सकते हैं।

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पोषण की कमी: विटामिन ए की कमी से गर्भपात, कमजोर या मृत बछड़ों का जन्म और जेर रुकने की समस्या हो जाती है। इसकी कमी को हरा चारा देकर दूर किया जाता है। फास्फोंरस, कैल्सियम तथा मैग्नीशियम की कमी से पशु यौवन में देर से आता है तथा मरे हुए बच्चे पैदा होते है। गर्भधारण दर घट जाती है। आयोडीन की कमी से गर्भपात, मृत बछडों का जन्म आदि की समस्या रहती है।

गर्भपात से बचाव

  1. नये खरीदे गये पशुओं को मूल पशुओं में शामिल करने से पहले क्वारेनटाइन (कम से कम 21 दिन) में रखें एवं पशु चिकित्सक से जांच कराने के बाद ही मूल पशुओं में शामिल करें। नये पशुओं को उसी डेरी फार्म से खरीदें जो पशुओं के समस्त अभिलेख रखता हो।
  2. कृत्रिम गर्भाधान के लिए निर्जमीकृत औजारों का प्रयोग किया जाना चाहिये।
  3. संक्रमित सांड को प्राकृतिक गर्भाधान के लिए प्रयोग में नहीं लाना चाहिए एवं संक्रमित पशुओं को प्रजनन से वंचित रखना चाहिए अथवा नष्ट कर देना चाहिए।
  4. डेरी फार्म का वातावरण स्वच्छ एवं निर्जमीकृत होना चाहिए।
  5. ब्रूसेलोसिस से बचाव के लिए ब्रूसेला ऐर्बोर्टस स्ट्रेन-19 का टीका लगाकर समूह को इस जीवाणु से होने वाले गर्भपात से बचाया जा सकता है।
  6. पशुओं के चारे में अचानक परिवर्तन नहीं करना चाहिए।
  7. खराब साइलेज का चारे के रूप में प्रयोग नहीं करना चाहिए।
  8. जिन पशुओं में गर्भपात हुआ हो उन्हें समूह के बाकी पशुओं से अलग कर देना चाहिए तथा भ्रूण एवं अपरा को किसी गड्ढे में चूना मिलाकर गाढ़ देना चाहिए।
  9. पशुओं में गर्भाधान कराने से पूर्व, उस सांड अथवा वीर्य का संक्रमित न होना सुनिष्चित कर लेना चाहिये।
  10. विटामिन ए की कमी को हरा चारा देकर गर्भपात से बचाया जा सकता है।

उपरोक्त कारणों पर उचित ध्यान देकर तथा उनके निवारण से ही अधिक से अधिक लाभ लिया जा सकता है।

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गर्भपात के पश्चात मृत भ्रूण

इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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