रोग की प्रकृति
यह अति घातक शीघ्रता से फैलने वाली छूतदार / संक्रामक बीमारी है। इस रोग में पशुओं के मुंह, पैरों तथा थनों पर छाले पाए जाते हैं। यह रोग विश्व के अधिकांश देशों में पाया जाता है।
रोग के कारण
यह एक विषाणु जनित रोग है। जो “ए” ,”ओ” तथा “सी”प्रकार की प्रजातियों द्वारा उत्पन्न होता है। यह तीनों प्रजाति अलग-अलग होती है। यदि पशु प्रथम प्रकार की प्रजाति द्वारा बीमार हुआ है तो फिर दोबारा दूसरी और तीसरी प्रजाति से रोग ग्रस्त हो सकता है। इस प्रकार पशु पर लगभग 3 बार आक्रमण होने की संभावना हो सकती है। यूरोपियन देशों में ए, ओ, सी जातियों द्वारा यह रोग फैलता है इसके अतिरिक्त दक्षिण अफ्रीका में इसी प्रकार के अन्य विषाणु की प्रजातियौं जैसे SAT1,SAT2,SAT3 द्वारा यह रोग फैलता है। खुर पका रोग का विषाणु सबसे छोटा होता है। यह शरीर से स्वास क्रिया तथा पाचन प्रणाली में प्रवेश पाती हैं और फिर रक्त में मिल जाती हैं ।विषाणु की सबसे अधिक संख्या छालो के पानी तथा छाले की ऊपरी पतली झिल्ली में पाई जाती है।
शुष्क परिस्थितियों में तथा कम तापमान पर विषाणु आसानी से जीवित रहता है। यह पशुओं के बालों में 4 हफ्ते तक, चारे में तथा पशुशाला में कई महीनों तक जीवित बना रह सकता है।
रोग ग्रहणशील पशु
यह रोग अधिकतर गाय, भैंस और भेड़ बकरियों में होता है। घोड़ों में यह रोग नहीं होता है। यह रोग अन्य जुगाली करने वाले पशुओं में भी होता हैl
वयस्क पशुओं में मृत्यु दर केवल 1 से 5 प्रतिशत परंतु बछड़ों, मेमनों एवं पिग्लेट्स मैं मृत्यु दर 20% तक हो सकती है। इस रोग की संक्रमण दर अर्थात मोरबिडिटी रेट 100% है, इसीलिए इसे अति संक्रामक बीमारी की श्रेणी में रखा गया है।
रोग फैलने की विधियां
सभी छूतदार बीमारियां आसानी से फैलती है। जब स्वस्थ पशु रोग ग्रस्त पशु के संपर्क में आ जाता है तो उसको भी यह रोग हो जाता है। इसके अतिरिक्त अन्य वस्तुएं जैसे पशुओं का खाना प्रयोग होने वाले बर्तन देखरेख करने वाले मनुष्य भी रोग को फैलाने में सहायक होते हैं ।दूसरे पशु झुंड से आया पशु भी इस रोग के विषाणु ले आता है।
लक्षण प्रकट होने का समय
गाय भैंस में 2 से 7 दिन तक एवं सुअरों में 24 से 48 घंटे है।
रोग ग्रस्त भाग के लक्षण
रोग प्रकट होने के समय के बाद मुंह, खुर तथा अयन या थन पर बड़े-बड़े छाले बन जाते हैं। तत्पश्चात यह छाले फूट जाते हैं और गड्ढेदार घाव बना देते हैं। 2 से 3 हफ्ते में पशु ठीक हो जाता है। विभिन्न पशुओं में अलग-अलग लक्षण देखे जा सकते हैं।
रोग के लक्षण
पशु को सर्दी के साथ बुखार आता है। शरीर का तापमान 104 से 105 डिग्री फारेनहाइट और इससे अधिक भी हो सकता है। पशु चारा खाना कम कर देता है और दूध देना भी कम कर देता है। मुंह से लार बहने लगती है। होठों से चपचपाहट की आवाज होने लगती है। यह छाले अलग-अलग अंगों पर होते हैं।
1. मुंह के छालों की पहचान
गाय में छाले जीभ, होंठ, तथा तलुवे की श्लेषमिक झिल्ली पर तथा नथुनों पर मिलते हैं। छालों में भूरे रंग का तरल पदार्थ भरा रहता है। पशु मुंह से लार गिराना शुरू कर देता है। यह लार तार के समान मुंह से निकलती रहती है। पशु का मुंह चपचपाहट के साथ खुलता है। जीभ के ऊपर बड़े-बड़े छाले पाए जाते हैं। छाले फूट जाने के बाद लाल सा घाव बन जाता है, और इस अवस्था में लार बहुत अधिक मात्रा में गिरती है। यह घाव लाल रंग के हो जाते हैं। और इन घावों के ऊपर एपिथीलियम झिल्ली बन जाती है।
2. खुरों पर रोग के लक्षण
इस रोग में एक अथवा एक से अधिक पैर में रोग का प्रभाव होता है। पशु बहुत लंगड़ाता है और यदि अन्य पैरों में इसका असर हो जाता है तो पशु बैठ जाता है। छाले कोरोनेट पर मिलते हैं। यह छाले फूटने पर बादामी छिलके बनाते हैं। कभी-कभी पैरों में मवाद पड़ने पर पशु का खुर अलग हो जाता है। पशु पैरों को पटकता है।
3. अयन पर रोग के लक्षण
कभी-कभी छाले दूध देने वाले पशुओं के अयन व थन पर भी पाए जाते हैं। यह लाल रंग के दर्द देने वाले होते हैं। कभी-कभी इस रोग से थनैला रोग भी उत्पन्न हो जाता है। गरभित गाय में बच्चा फेंकने की संभावना अधिक होती है।
मृत्यु दर
बड़े पशुओं की मृत्यु दर 2 से 3% प्रतिशत होती है। बच्चों में मृत्यु दर बहुत अधिक होती है। पशु 2 से 3 सप्ताह में पहली अवस्था में आ जाता है। चारा न खाने के कारण पशु कमजोरी से मर भी सकता है।
रोग की पहचान या निदान
रोग की पहचान उपरोक्त लक्षणों को देखकर की जा सकती है। यदि संदेह होता है तो छालों के तंतुओं को अथवा तरल पदार्थों को सफेद चूहों में इंजेक्शन द्वारा दिया जाता है। यदि चूहों में रोग उत्पन्न हो जाता है तो खुर पका रोग माना जा सकता है।
प्राथमिक चिकित्सा
पशु को पूर्ण आराम देना चाहिए। जब केवल मुंह ही रोग ग्रस्त हुआ हो तो इसे कीटाणु नाशक औषधियों के घोल से धोना चाहिए। मुंह धोने के लिए 2% फिटकरी का घोल ठीक रहता है। इसके समान ही कॉपर सल्फेट अर्थात नीला थोथा अथवा एक्रीफ्लेविन लोशन अथवा पोटेशियम परमैंगनेट अथवा बोरिक एसिड लोशन भी लाभप्रद होते हैं। इसके बाद सुहागा एक भाग तथा शहद अथवा शीरा 4 भाग मिलाकर मुंह के छालों पर लगाना चाहिए।
यदि पैरों में छाले हैं तो इन्हें 1% कॉपर सल्फेट अर्थात तूतिया तथा फिनाइल लोशन से धोना चाहिए। इसके बाद मलहम लगा देना चाहिए या मार्केट में उपलब्ध स्प्रे जैसे टॉपिक्योर प्लस,उनड हील, स्किन हील, लोरिकसेन मैं से किसी भी स्प्रे का उपयोग करना चाहिए। यदि घाव बन गए हैं तो डस्टिंग पाउडर जैसे जिंक ऑक्साइड या बोरिक एसिड लगा देना चाहिए। पशु खुरों को चाटे नहीं इसके बचाव के लिए खुरों को पट्टी से बांध देना चाहिए। यदि पैर में कीड़े पड़ गए हो तो, तारपीन का तेल भरने के बाद फिनाइल लगाना चाहिए। कीड़े मरने के पश्चात घाव को फिनाइल एवं सरसों के तेल की बराबर मात्रा को मिलाकर उसमें थोड़ा सा कपूर डालकर एक घोल तैयार कर लेते हैं। और इस घोल को दिन में तीन से चार बार लगाना चाहिए।
इस बीमारी में द्वितीयक संक्रमण रोकने के लिए ब्रॉड स्पेक्ट्रम प्रतिजैविक औषधियां तथा दर्द निवारक औषधियां एवं विटामिन सी इत्यादि पशुओं को शीघ्र स्वस्थ करने के लिए योग्य पशु चिकित्सक के परामर्श से से दी जानी चाहिए।
रोग से बचाव
रोगी पशुओं और स्वस्थ पशुओं का पृथककीकरण अर्थात आइसोलेशन करना चाहिए। क्योंकि यह बीमारी बहुत ही छूतदार अर्थात अति संक्रामक होती है।
जब यह रोग संपूर्ण गांव या पूरे फार्म के पशुओं में फैल गया हो तो सब पशुओं को फुटबाथ अर्थात पैर डुबकी से होकर निकालना चाहिए।
फुटबाथ
बीमारी को रोकने के लिए हर गांव में फुटबाथ बनवाना जरूरी होगा। फुटबाथ की लंबाई 12 फुट चौड़ाई 3 फुट गहराई 1 फुट तथा दोनों और 3-3 फुट का ढलान होना चाहिए। फुटबाथ में फिनायल अथवा तूतिया का 1% घोल भर देना चाहिए। सुबह शाम पशुओं को इसमें से होकर निकलना चाहिए इस तरह उनके खुरों को दवा लग जाती है।
यदि सावधानीपूर्वक पशु का उपचार किया जाता है तो 4 से 5 दिन में रोग ठीक हो जाता है। पशुओं को मुलायम हरी घास खाने को देनी चाहिए तथा दलिया या चावल का मांड खिलाना चाहिए।
इस रोग से बचाव के लिए खुर पका मुंह पका वैक्सीन का प्रयोग प्रत्येक छह माह पर करना चाहिए।
भारत सरकार ने राष्ट्रीय रोग नियंत्रण कार्यक्रम के अंतर्गत खुरपका मुंहपका रोग का टीकाकरण पशु स्वामी के द्वार पर पशुपालन विभाग द्वारा निशुल्क लगाया जाता है।
सरकार का लक्ष्य है कि 2025 तक इस बीमारी पर पूर्ण नियंत्रण करते हुए सन 2030 तक खुरपका मुंहपका बीमारी का देश के समूल उन्मूलन करना है।
उपरोक्त टीका 4 माह से कम उम्र के बच्चों में एवं आठ माह से अधिक गरभित पशुओं में नहीं लगवाना चाहिए। 4 से 5 माह के बच्चों में प्रथम टीकाकरण के 1 माह पश्चात दोबारा टीकाकरण अर्थात बूस्टर डोज देना चाहिए।पशुपालकों से अनुरोध है कि उपरोक्त टीके को अवश्य लगवाएं।
स्वस्थ पशुओं को दूसरे गांव अथवा फार्म के संक्रमित पशु झुंड से नहीं मिलने देना चाहिए। बीमार पशु को न तो बाजार से खरीदना चाहिए और न ही बेचना
चाहिए, अर्थात संक्रमित पशु का बाहरी आवागमन तत्काल रोक देना चाहिए।
इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए। |
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