पशुओं में बाह्य परजीवी रोगों का उपचार एवं रोकथाम

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भारत देश दुग्ध उत्पादन में विगत कई वर्षों से विश्व में प्रथम स्थान पर है परंतु हमारे देश में प्रति पशु उत्पादकता अत्याधिक न्यून है। किसी भी पशु की उत्पादकता को कायम रखने के लिए उसका स्वस्थ होना अपरिहार्य है। पशुओं के स्वास्थ्य एवं उत्पादकता पर जीवाणु जनित,विषाणु जनित, एवं कवक जनित रोगों के अतिरिक्त परजीवी जनित रोगों का भी अत्याधिक प्रभाव पड़ता है। यह बाहय परजीवी पशुओं को कमजोर कर देते हैं एवं कई प्रकार की  हीमो प्रोटोजोआ से होने वाली बीमारियों को पशु में प्रवेश करा देते हैं जिससे कि उनकी उत्पादकता काफी कम हो जाती है और यदि समय रहते इनका समुचित उपचार न किया जाए तो पशुओं की मृत्यु भी हो सकती है।

बॉहय परजीवी

इन परजीविओं, का यदि समय रहते उपचार न किया जाए तो पशुपालकों को बहुत अधिक आर्थिक हानि उठानी पड़ सकती है। किंतु यदि इन बीमारियों से बचाव के समुचित उपचार समय रहते कर लिए जाएं तो पशुपालक आर्थिक हानियों से बच सकते हैं।

पशुओं में बॉहय परजीवियों द्वारा, उत्पन्न होने वाले रोग मुख्यता 4  प्रकार के हैं।

1. कलीली / किलनी

छोटे बड़े पशुओं के शरीर पर पाए जाने वाले बाहरी परजीवी में चींचड़े(Ticks) सबसे अधिक नुकसानदायक होते हैं। यह शरीर की कई जगहों पर गोल, अंडाकार, चपटे कई तरह के टिक्स चिपके रहते हैं l

इनके अंतर्गत आने वाले परजीवी मुख्यत: ऑटोबियस, एक्सोडिस, डरमोकैंटर, हिमोफाइलसेलिस इत्यादि है। यह चमड़ी की ऊपरी सतह से शरीर के अंदर अनेक प्रकार की बीमारियां फैलाते हैं और अधिक समय तक रहने पर शरीर से खून चूसते रहते हैं, तथा यह त्वचा पर चिपके रहकर घाव बनाते हैं जिससे द्वितीयक जीवाणु संक्रमण भी हो सकता है। एक अध्ययन के अनुसार एक मादा कलीली, लगभग 0. 5 से 2.0 मिली लीटर रक्त 1 दिन में चूस लेती है जिसके परिणाम स्वरूप पशु शीघ्र ही, रक्ताल्पता  के कारण कमजोर और अनुपयोगी हो जाता है। यह परजीवी अन्य संक्रामक रोगों जैसे विषाणु जनित, जीवाणु जनित रिकेट्सियल व प्रोटोजोअल रोग फैलाने में अत्यंत सहायक होते हैं। इन रोगों के लक्षण सामान्यता खुजली, बेचैनी एवं रक्ताल्पता हैं। त्वचा को बार-बार काटने व जलन से डर्मेटाइटिस हो जाती है। टिक्स द्वारा छोड़े गए टॉक्सिन से पशु को पिछले पैरों का लकवा हो जाता है। त्वचा को जगह-जगह काटने से पशु चमड़े की गुणवत्ता खराब हो जाती है।

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2. माइट

इसके अंतर्गत आने वाले परजीवी मुख्यत: सार्कोपटिस ,डेमोडेक्स इत्यादि होते हैं। इनका आकार बहुत छोटा होता है जो आधा मिली मीटर से भी छोटे होते हैं लेकिन कुछ रक्त चूसने वाले माइट रक्त चूस कर कई मिलीमीटर बड़े हो जाते हैं। त्वचा की गहराई में सुरंगे बनाकर अंदर रहने वाले यह माइट चर्म रोगों के अलावा कई अन्य परेशानियां पैदा कर देते हैं यह मुख्य रूप से खाज(Manze) के लिए जिम्मेदार होते हैं। यह मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं  पहले वह  जो त्वचा पर सुरंगे बनाकर  रहने वाले  होते हैं और दूसरे  वह जो त्वचा  के ऊपरी सतह पर रहने वाले होते हैं। लक्षण सामान्यता कान पर, मुंह पर, पैरों पर, और पूंछ पर पाए जाते हैं। इनके कारण शरीर के उपरोक्त भागों में खुजली, बेचैनी, लाल चकत्ते और बाल झड़ने की समस्या पशुओं मैं हो जाती है। इन परजीवियों के कारण , पशु पूर्ण रूप से कमजोर हो जाता है और उस की उत्पादन क्षमता घट जाती है। बहुत अधिक समय तक बीमारी के रह जाने से उसकी मृत्यु हो जाती है।

कलीली और माइट से बचाव के उपाय/ उपचार: 

  1. आईवरमेकटिन 0.2 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम शरीर भार के हिसाब से अंत: चमड़ी के द्वारा दिया जाना चाहिए।
  2. प्रतिजैविक औषधि भी साथ में देना चाहिए।
  3. कैलोमेल और बीटाडीन लोशन को समान मात्रा में मिलाकर प्रभावित स्थान पर दिन में दो से तीन बार लगाना चाहिए।
  4. साइपरमैथरीन या डेल्टामथ्रीन एक से दो एम एल औषधि को 1 लीटर पानी में घोलकर पशु को नहलाये तथा 5ml दवा 1 लीटर पानी में घोलकर बाड़े के फर्श पर एवं दीवारों पर छिड़काव करें।
  5. अमित राज 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर कर त्वचा पर लगाएं।
  6. बैटीकॉल (पोर-आन) :1 मिलीलीटर औषधि प्रति 10 किलो भार पर पशु के सिर से पूछ तक बूंद बूंद कर रीढ़ की हड्डी पर टपकायें।
  7. आईवरमेकटिन, 1 मिलीलीटर प्रति 50 किलोग्राम शरीर भार पर सुई के द्वारा त्वचा के नीचे लगाएं। अथवा 100 मिलीग्राम की आईवरमेकटिन टेबलेट 300 किलोग्राम भार तक के पशु को मुंह द्वारा खिलाएं।

3. जुएं एवं लीख

पशुओं की त्वचा पर अन्य बड़े परिजीवियों के अलावा छोटी- बड़ी जुएं भी बहुत पाई जाती हैं। यह पशुओं का खून व लिंफ  चूसती हैं।

इसके अंतर्गत बोवीकोला कैप्री, लाइनोगनैथस, इत्यादि आते हैं। इनके लक्षणों में सामान्यता खुजली, लाल चकत्ते और खून की कमी होना है।

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बचाव/उपचार:

  1. आइवरमैकटिन का इंजेक्शन चमड़ी के द्वारा0.2 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम वजन के हिसाब से देना चाहिए।
  2. डेल्टामेथरिन औषधि की 2-3ml को 1 लीटर पानी में घोल बनाकर लगभग 15 से 30 मिनट तक पशु के शरीर पर लगाकर छोड़ देना चाहिए उसके पश्चात पशु को स्वच्छ पानी से नहला देना चाहिए।

4. मक्खी एवं उनके लारवा:

इसके अंतर्गत मुख्यता न्यूसिलिया और कैलीफोरा नामक मक्खियां आती है जिन्हें ग्रीन बोटल फ्लाई और ब्लू बॉटल फ्लाई के नाम से भी जाना जाता है। बीमारी मुख्यता मक्खियों के लारवा से होती है जो चमड़ी में घाव कर देती है। इनके लक्षण भी खुजली एवं घाव हैं, जिसमें कभी-कभी कीड़े भी पड़ जाते हैं और पशु के दुग्ध उत्पादन में भी कमी आ जाती है।

उपचार:

तारपीन के तेल को घाव में भर देना चाहिए और कुछ समय बाद कीड़ों अर्थात मैगट्स को चिमटी की सहायता से निकाल देना चाहिए। इसके उपरांत कोई भी घाव सुखाने वाला स्प्रे जैसे स्किनहील, लोरिकसेन, चर्मिल अथवा अलुष्प्रे इत्यादि का उपयोग करना चाहिए।

पशुओं को बाहय परजीविओं से बचाव हेतु कुछ सामान्य उपाय

वाहय परजीविओं, से होने वाले नुकसान से बचने के लिए यह अति आवश्यक है कि रोग उत्पन्न होने से पूर्व ही बचाव किया जाए।

  1. पशुओं के बाड़े की प्रतिदिन सुबह-शाम सफाई करनी चाहिए।
  2. सप्ताह में एक से दो बार सफेदी का छिड़काव पशुओं के बाडे में करना चाहिए।
  3. पशुओं को स्वच्छ पौष्टिक और खनिज युक्त आहार देना चाहिए।
  4. एक ही स्थान पर अत्याधिक पशुओं को नहीं रखना चाहिए।
  5. पशुओं के बच्चों को उनकी माताओं से शीघ्र ही अलग कर देना चाहिए क्योंकि कम उम्र के बच्चों में संक्रमण की संभावना अधिक रहती है।
  6. औषधि लगाने के लिए ऐसा समय चुनें जिस वक्त गर्मी अधिक ना हो जैसे सुबह या फिर शाम के समय।
  7. औषधि लगाने के पश्चात पशु को धूप में न बांधें।
  8. सभी पशुओं को सर्वप्रथम पेट भर स्वच्छ पानी पिलाएं तत्पश्चात पशुओं को अच्छी तरह नहला कर साफ करें पशु के शरीर पर लगे हुए कीचड़ व गोबर को पूर्णत: साफ करें।
  9. औषधि का उचित घोल बनाकर जैसे डेल्टामेथरिन अथवा एकटोमिन 2-3 मिलीलीटर प्रति लीटर स्वच्छ पानी में घोल कर, पशु के पूरे शरीर पर लगाएं विशेषकर पूछ के नीचे तथा पिछले पैरों व अएन के बीच में विशेष रुप से लगाएं।
  10. पशु आवास की सफाई कर फर्श व दीवारों पर भी औषध का छिड़काव अवश्य करें।
  11. 1 सप्ताह के अंतराल पर कम से कम तीन बार औषधि लगाएं।
और देखें :  पशुओं में होनें वाले लंगड़िया रोग एवं उससे बचाव

संदर्भ: संजय कुमार मिश्र एवं सर्वजीत यादव, पशुओं में परजीवी रोग एवं उनकी रोकथाम, पशुधन प्रकाश  11 वां अंक पृष्ठ संख्या 95-97

इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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