डेयरी व्यवसाय का महत्त्व

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मनुष्य और पशुओं का इतिहास सहसत्राब्धियों वर्ष पुराना है। पशुओं को पालने-पोसने का इतिहास सभ्यता के अवस्थांतर को दर्शाता है जहां मानव समुदाय शिकारी जीवन शैली से कृषि की ओर अग्रसर हुए। मनुष्य ने आवश्यकताओं के अनुसार पशुओं को पालना शुरू किया जैसे कि दूध की पूर्ति के लिए गाय, भैंस, भेड़ व बकरी, कृषि के लिए बैल, यातायात के लिए अश्व, माँस तथा ऊन के लिए भेड़-बकरियों एवं मुर्गियों को पालतू बनाकर मनुष्य ने उनके विकास पर अधिकाधिक ध्यान दिया। जब पशुओं का प्रजनन तथा जीवन अवस्थाएं मनुष्यों द्वारा संचालित की जाती हैं तो उनको पालतू पशु कहा जाता है और इस व्यवस्था को पशुपालन कहते हैं।

पशुपालन कृषि का एक अभिन्न अंग है जिसे पशुपालकों की आमदनी बढ़ाने का सबसे आशाजनक क्षेत्र माना जाता है। भारत में, पालतू पशुओं में दुग्ध उत्पादन करने वाले पशुओं का विशेष महत्व रहा है। आज दुग्ध उत्पादन (डेयरी) व्यवसाय एक डेयरी उद्योग के रूप में स्थापित हो चुका है। डेयरी व्यवसाय, आजीविका का एक परंपरागत स्रोत रहा है तथा इसका भारत की कृषि अर्थव्यवस्था के साथ घनिष्ठ संबंध है। डेयरी व्यवसाय कृषि सबंधित गतिविधियों का अभिन्न अंग है जो पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा है। दूध के सेवन को संपूर्ण आहार का दर्जा दिया गया है। इसके अतिरिक्त, प्रतिदिन सुबह-शाम दूध बेचकर आमदनी अर्जित की जाती है। पशुओं का उपयोग खेतों को जोतने के साथ-साथ उनके गोबर और मूत्र का उपयोग कृषि में किया जाता है। अतः पशु कृषि कार्यों में मदद करते हैं। भारत में खासतौर से श्वेत क्रांति तथा दुग्ध सहकारी संस्थाओं के विकास के पश्चात् दुग्ध उत्पादक देशों में भारत ने एक अग्रणी राष्ट्र के रूप में पहचान बनाई है।

दुग्ध उत्पादन करने वाले पशुओं को दूधारू पशु कहते हैं। आमतौर पर, विश्व में अधिकतर दुग्ध उत्पादन के लिए गायों और भैंसों को पाला जाता है लेकिन बकरियों, ऊँटों, भेड़ों से भी दुग्ध उत्पादन किया जाता है। पहाड़ी क्षेत्रों में याक और मिथुन को भी दुग्ध उत्पादन के लिए पाला जाता है। यहां तक घोड़ी और गधी से भी दुग्ध उत्पादन किया जाता है। विभिन्न प्रजाति के पशुओं से प्राप्त दूध का मानवीय जीवन में अपना-अपना महत्त्व है। भारत में 2018–19 में 187.75 मिलियन मीट्रिक टन दूध का उत्पादन हुआ और इसी के साथ भारत में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन दुग्ध उपलब्धता 394 मि.ली. है (PIB 2019)। भारत में लगभग 96 प्रतिशत दूध, गायों और भैंसों द्वारा उत्पादित किया जाता है (Rani et al. 2018)।

भारतीय डेयरी क्षेत्र की उपलब्धियाँ

  • भारत विश्व का सबसे बड़ा दुग्ध-उत्पादक राष्ट्र है। दूध भारत का सर्वाधिक मात्रा में उत्पादित होने वाला कृषि-उत्पाद भी है (1877 लाख टन)।
  • भारत भैंसों तथा गायों की सर्वाधिक संख्या (विश्व की कुल भैंसों के 50 प्रतिशत से अधिक तथा कुल गायों का 20 प्रतिशत) वाले प्रमुख देशों में से एक है।
  • भारत में दुग्ध उत्पादन से आजीविका अर्जित करने वाले लोगों में से 70 प्रतिशत महिलाएं हैं।
  • आधुनिक यांत्रिक युग में पशुओं का उपयोग कम होने से नर पशुओं के उपयोग का महत्त्व खेती-बाड़ी में कम होने से उनका महत्त्व कम हुआ है। साथ ही दूध की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए मादा पशुओं की मांग बढ़ी है जिसे पूरा करने के लिए भारत में मादा लिंग वर्गीकृत वीर्य की मांग बढ़ रही है। इस मांग को पूरा करने के लिए मादा लिंग वर्गीकृत वीर्य उत्पादन के लिए भारत में सयंत्र स्थापित हो चुके हैं।
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डेयरी का महत्व

  1. पेय पदार्थ: दूध एक अमृत-तुल्य पेय पदार्थ है जिसमें जीवन के लिए आवश्यक सभी तत्त्व मौजूद होते हैं। जन्म के बाद शिशु का मुख्य आहार उसकी माँ का दूध ही होता है उसी तरह अनाज के अभाव में दूध का सेवन जीवन रक्षक के रूप में भी किया जाता है। दूध के सेवन के बाद अन्य खाद्य पदार्थों के सेवन में कमी की जा सकती है। अतः दूध पोषण संबंधी कमियों को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  2. आजीविका: देश के लाखों लोग जिनके पास कृषि योग्य भूमि नहीं है वे मुख्यत: पशुपालन पर ही निर्भर हैं। देश के लगभग 70 प्रतिशत पशु, लघु व सीमांत खेतीहर मजदूरों के पास हैं तथा कुल दुग्ध उत्पादन का 76 प्रतिशत भाग इन्हीं के द्वारा पैदा किया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में हजारों लोग दूध के लिए गाय-भैंस पालकर एवं उनका दूध बेचकर ही अपनी आजीविका चलाते हैं। अतः डेयरी व्यवसाय भूमिहीन, सीमांत किसानों की आजीविका चलाने में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करता है।
  3. व्यवसाय: पशुधन विहिन परिवारों खासतौर से शहरों में रहने वाले लोगों को दूध एवं दूध से बने उत्पादों की प्राप्ति के लिए पशुपालकों पर निर्भर रहना पड़ता है। पशुपालक अतिरिक्त दूध को बेच कर आमदनी अर्जित करते हैं। दूध को आसानी से संसाधित करके अन्य उत्पादों जैसे कि दही, घी, लस्सी, पनीर, खोया, आईसक्रीम में परिवर्तित करके दूध में मूल्य वृद्धि की जा सकती है। दूध से बनी मिठाईयों में अन्य खाद्य तत्त्व मिलाकर इसके मूल्य में सवंर्धन किया जा सकता है।
  4. चलताफिरता बैंक: पशुधन प्रत्यक्षतौर पर या फसलों के माध्यम से हमारी वित्तीय सहायता करते हैं। पशुधन को हम चलता-फिरता बैंक भी कह सकते हैं, क्योंकि पशु किसी भी परिवार में बेचे जाने वाली सबसे बड़ी सम्पति है व जिसे बेचकर या गिरवी रखकर धन उधार लिया सकता है । आज के आधुनिक युग में भी जब किसी गरीब परिवार ने मकान बनाना है या बच्चों की शादी करनी है तो इसके लिए वह एक-दो वर्ष पूर्व ही बेचने लायक दुधारू पशु पालना शुरू कर देते हैं और उनके ब्याने के बाद उसे बेचकर अपनी धन आपूर्ति पूरा करते हैं।
  5. नियमित आय: डेयरी उद्योग नियमित आय का स्रोत उपलब्ध करवाता है जबकि कृषि से होने वाली आय अनियमित (मौसमी) होती है। इस प्रकार यह आय के जोखिम को कम करता है। कुछ संकेतों से ज्ञात होता है कि जिन क्षेत्रों में डेयरी उद्योग बेहतर विकसित हो चुका है वहां किसानों की आत्महत्या की घटनाएँ सबसे कम देखी गई हैं।
  6. ऊर्जा स्त्रोत: पशुधन हमें हमारे सुख के लिए यातायात व ऊर्जा के साधन हमें देते हैं। भाप की शक्ति से पहले, पशुधन गैर-मानव श्रम का एकमात्र उपलब्ध साधन था। सदियों से पशुओं को चक्राकार पथ पर चलाकर रहट, तेलघाणी, गन्ने का रस निकालने की चरखी आदि को चलाने में इस्तेमाल किया जाता रहा है। भारवाही पशु कर्षण, बीज बुवाई, अतः शस्य क्रियाओं, गहाई एवं ग्रामीण यातायात का महत्वपूर्ण साधन है। इन सभी ऋतु आधारित क्रियाओं को पूर्ण करने में 450 से 1500 घण्टे तक प्रतिवर्ष कार्य करना पड़ता है। वास्तव में पशुओं से 2400-2700 घण्टे प्रतिवर्ष तक कार्य सुगमतापूर्वक लिया जा सकता है। निश्चित रूप से इस उपलब्ध पशु ऊर्जा का समुचित दोहन किसान एवं देश दोनों के हित में है। उपलब्ध पशु ऊर्जा का उपयोग चारा काटने, छोटा थ्रेशर चलाने, आटा चक्की चलाने जैसे कार्यों में आसानी से किया जा सकता है। इस प्रकार हम भारवाही पशुओं की उपलब्ध क्षमता का समुचित उपयोग कर सकते हैं। आज के मशीनीयुग में पशु शक्ति ऐसे क्षेत्रों में खासतौर से पहाड़ी क्षेत्रों में, जहाँ पर ट्रेक्टर इत्यादि मशीनों का उपयोग करने में कठिनाई आती है और कई विकाशील देशों में बैलों और झोटों का इस्तेमाल ऊर्जा के स्त्रोत के रूप में किया जाता है।
  7. सामाजिक रुतबा: बेशक, आज सामाजिक रूतबे के मायने बदलने लगे हैं और इसका स्थान ईंधन चलित शक्ति से चलने वाले वाहन ले रहे हों लेकिन सदियों से पशुओं को एक सामाजिक रूतबे के रूप में पाला जाता रहा है। आज भी पशुओं खासतौर से घोड़ों को सामाजिक रूतबे के रूप में पालते हैं और शान से उनकी सवारी करते हैं। ग्रामीण आंचल में आज भी बहुत से किसान बैलों को केवल शान के लिए ही पालते हैं। अच्छे पशुओं का स्वामी बनकर हम समाज में एक अच्छा रूतबा हासिल कर सकते हैं। इसके विपरीत यदि हम अपने पशुओं की देखभाल सही नहीं करते हैं तो हम समाज में अपनी प्रतिष्ठा भी कम करते हैं।
  8. प्रेम संबंध: यह सभी को ज्ञात है कि कई बार अपने भी साथ छोड़ देते हैं लेकिन पशु खासतौर से कुत्ते इतने वफादार होते हैं कि वह कभी भी अपने मालिक रूपी साथी का साथ नहीं छोड़ते हैं। आज जब मनुष्य एकाकी जीवन जीने के लिए मजबूर हो जाता है तब यही पशु उनके जीने का सहारा बनते हैं। दोनों ही अपनी-अपनी धुन में एक-दूसरे के सहारे अपना जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसी बहुत सी गायें और भैंसें भी है जो अपने मालिक से प्रेम प्रकट करती दिखाई देती हैं।
  9. जहरमुक्त खेती: आधुनिक खेती में जहरीले रसायनों के बढ़ते उपयोग से खाद्य-सामग्री भी जहरीली होती जा रही है जिससे बचने में पशुओं का गोबर सकारात्मक भूमिका निभाने में सक्षम है। डेयरी पशुओं से सबसे अधिक गोबर प्राप्त होता है जिससे तैयार खाद का प्रयोग खेतों में डालकर फसल की पैदावार को बढ़ाने के लिए किया जाता है। एक गाय/भैंस से प्रतिदिन 10-20 किलो गोबर और पेशाब मिलता है। इस गोबर में पत्तियां, कूड़ा-करकट, खेत में बचे हुए डण्ठल आदि तथा मिट्टी डालकर कम्पोस्ट खाद तैयार की जाए तो एक दुधारू पशु/बैल से 300 टन खाद प्राप्त होती है, जिसमें 10 टन नाइट्रोजन एवं फास्फोरस होता है जो 145 एकड़ भूमि को उपजाऊ बनाने की क्षमता रखता है तथा जिससे रसायन-मुक्त कृषि उत्पादन भी बढ़ता है। अब बहुत से किसान परंपरागत खेती से विमुख होते जा रहे हैं और प्राचीन एवं प्राकृतिक कृषि की ओर लौट रहे हैं जिसमें पशुओं का विशेष योगदान है। पशुओं के गोबर एवं मूत्र का उपयोग अपने खेत पर ही देसी खाद जैसे कि बीजामृत, जीवामृत, घनजीवामृत, और कीटनाशक एवं रोगाणुरोधी दवाओं का उपयोग कर रहे हैं जिससे न केवल मंहगे रसायनों से मुक्ति मिल रही है बल्कि पैदावार पर खर्च भी कम होता है।
  10. भूमि प्रबन्धन: पशुओं की चराई को कभी-कभी खरपतवार तथा झाड़ियों के नियन्त्रण के रूप में प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए, उन क्षेत्रों में जहाँ जंगल में आग लगती है, पशुओं खासतौर से बकरियों तथा भेड़ों का प्रयोग सूखी पत्तियों को खाने के लिए किया जाता है जिससे जलने योग्य सामग्री कम हो जाती है तथा आग का खतरा भी कम हो जाता है।
  11. पारिस्थितिकी तंत्र: आधुनिक यांत्रिक युग में वृक्षों की अन्धाधुंध कटाई और चारागाह क्षेत्र में अनियत्रिंत चराई के कारण वन तथा चारागाह भूमि वनस्पति विहीन बनती जा रही है। जिसके फलस्वरूप पारिस्थितिकी तंत्र में असंतुलन तथा ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याएं हमारे सामने मुँह खोले खड़ी है। विश्व में अनेकों वानस्पतिक तथा जन्तु प्रजातियां लुप्त हो गयी है तथा अनेकों प्रजातियां दुर्लभता की श्रेणी में आ चुकी है। लेकिन हमें विधित होना चाहिए कि सदियों से पशुओं की ऐसी नस्लें विकसित हुई हैं जो स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र के लिए उपयुक्त हैं और स्थानीय अर्थव्यवस्था, संस्कृतियों, ज्ञान पद्दतियों एवं समाज के अनुसार अनुकूल रहीं हैं। इन स्थानीय नस्लों में जैविक तथा अजैविक प्रतिबलों को सहन करने के विशिष्ट गुण विकसित हुए हैं। बेशक, आधुनिक युग में बढ़ती जनसंख्या की दूध की मांग को पूरा करने के लिए, स्थानीय पशुओं का विदेशीमूल की उच्च दुग्धोत्पादक नस्लों के साथ संकरण कराया जाता है फिर भी आधुनिक नस्लें बहुत से क्षेत्रों में असफल रही हैं और स्थानीय पशु ही वहां के लोगों की आजीविका आधार रहे हैं और स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र को बचा रहे हैं।
  12. आर्थिक व्यवस्था में योगदान: अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी भी राष्ट्र की उन्नति उसके सकल घरेलू उत्पाद से आंकी जाती है। डेयरी व्यवसाय कृषिगत सकल घरेलू उत्पाद (ग्रोस डोमेस्टिक प्रोडक्ट) में एक बड़े भाग (4 प्रतिशत से भी अधिक) का योगदान प्रदान करता है।
  13. औषधी विज्ञान: दूध को सम्पूर्ण आहार का दर्जा दिया गया है। दूध में जीवन के लिए आवश्यक विभिन्न प्रकार के तत्त्व मौजूद होते हैं। दूध में मौजूद कैल्शियम, फास्फोरस, पोटाशियम, लोहा और विभिन्न प्रकार के विटामिन होते हैं। इसीलिए शरीर में इन तत्त्वों की कमी को पूरा करने के लिए चिकित्सक भी दूध का सेवन नियमित रूप करने की सलाह देते हैं। पशुओं के सींग तथा हड्डियां कारखानों में अस्थिचूर्ण तथा अन्य उत्पाद बनाने में प्रयुक्त होते हैं। अस्थिचूर्ण को खनिज पूरक के रूप में पशु आहार में मिलाया जाता है और खाद के रूप में भी प्रयोग होता है।
  14. वस्त्र उद्योग: पशुधन भेड़-बकरी से ऊन व मौहेर प्राप्त होती है, जिनसे वस्त्र बनाए जाते हैं। पशुओं के चमड़े से जूते, पर्स, जैकेट इत्यादि बनाए जाते है।
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राष्ट्र की अर्थ व्यवस्था में पशु पालन का योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। विश्व में भारत को न केवल बहुमूल्य पशु सम्पदा का स्वामित्व प्राप्त है अपितु दुग्ध उत्पादन में भी भारत का विश्व में प्रथम स्थान है। हमारे सामाजिक, आर्थिक एवं पर्यावरणीय जीवन में पशुधन का महत्त्व सदैव प्रमुख रहा है और भविष्य में भी रहेगा।

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