पशुओं में अनुउत्पादकता एवं कम उत्पादकता के कारण एवं निवारण

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पशुओं में अनु उत्पादकता एवं कम उत्पादकता के लिए निम्नलिखित कारक मुख्य रूप से जिम्मेदार होते हैं: –

  1. संरचनात्मक विकार
  2. रोगों के कारण उत्पन्न विकार
  3. हार्मोनल विकार
  4. पोषण से संबंधित विकार
  5. आकस्मिक कारण
  6. मनोवैज्ञानिक विकार
  7. पर्यावरण का प्रभाव

1. संरचनात्मक विकार

संरचनात्मक विकारों में मुख्य रूप से निम्नलिखित विकार पशुओं में पाए जा सकते हैं:-

  1. जनन इंद्रियों की अनुपस्थित या उनकी विकृति
  2. अंडाशय का बहुत छोटा हो जाना
  3. गर्भाशय का अविकसित होना
  4. एक हारन का गर्भाशय
  5. दो गर्भाशय का होना
  6. हायमैन का न टूटना
  7. अविकसित या अल्पविकसित योनि

2. रोगों के कारण उत्पन्न विकार

इनमें मुख्यता ब्रूसेलोसिस, कैंपाइलोबैक्टीरियोसिस, ट्राईकोमोनीऐसिस, लिस्टेरियोसिस, लेप्टोंस्पायरोसिस, माइकोटिक अबॉर्शन( एस्पेरजिलस फयूमीगेटस) तथा विषाणु के संक्रमण आदि से उत्पन्न दोषों का वर्णन किया जाता है।

ब्रूसेलोसिस या संक्रामक गर्भपात

इसकी उत्पत्ति ब्रूसेला अबारटस, नामक अंत: कोशिकीय  जीवाणु , द्वारा होती है जो ग्राम नेगेटिव स्माल रॉड्स के रूप में पाया जाता है। यह जीवाणु गाय, भैंस, भेड़, बकरी, तथा सुकरी में गर्भपात रोग एवं सॉडों में ऑर्काइटिस/ वृषण शोथ, एवं मनुष्यों में अनडुलेंट फीवर या माल्टा फीवर उत्पन्न करता है। अर्थात यह एक पशुजन्य/जूनोटिक बीमारी है। जीवाणु से दूषित पदार्थों के खाने पीने से आंख की स्लेष्मा द्वारा तथा सॉडों के वीर्य द्वारा एवं मनुष्य में संक्रमित दूध के सेवन से यह रोग फैलता है और इसकी उत्पत्ति में लगभग 21 दिन का समय लग सकता है।

लक्षण: पशु का अंतिम त्रैमास में अर्थात 6से 9 माह का गर्भ गिर जाना जेरी में पीली धारियां, कोटलीडनस  पुलेपुले अर्थात फ्लैक्सिड तथा पीली क्रीम की भांति हो जाना, जेरी का कई दिनों तक न गिरना।

रोग निदान: रोग का निदान लक्षणों कोटलीडानस से ली गई, इसमियर, की जांच रक्त का सिरम, सीमन का सिरम तथा वीर्य की एगलूटीनेशन टेस्ट द्वारा जांच आदि से भली-भांति किया जा सकता है।

बचाव: ब्रूसेला अबारटस, स्ट्रेन- 19 वैक्सीन सबक्यूटेनियस विधि से बछियों एवं कटियो़ं मैं 4 से 8 माह की उम्र में प्रयोग की जाती हैं।

उपचार: चिकित्सा लक्षणों  के अनुसार की जानी चाहिए। स्ट्रैप्टोपेनिसिलिन, का इंटरमस्कुलर विधि से कई दिनों तक प्रयोग करना लाभदायक हो सकता है। परंतु इस रोग का समुचित उपचार संभव नहीं है। दो या तीन बार गर्भपात हो जाने के पश्चात गाय इस रोग से इम्यून हो जाती है तथा सामान्य रूप में गर्भधारण करना प्रारंभ कर देती है। परंतु वाहक के रूप में संक्रमण फैलाती रहती है।

कैंपाइलोबैक्टीरियोसिस

यह रोग कैंपाइलोबेक्टर फिटस, के द्वारा उत्पन्न होता है। संभोग या दूषित उपकरणों के प्रयोग से यह रोग फैलता है। इस रोग में 4 माह के पूर्व ही गर्भपात हो जाता है।गर्भाशय ग्रीवा के स्राव का एगलूटिनेशन टेस्ट द्वारा जांच करने पर इसके निदान की पुष्टि होती है।

चिकित्सा: 5 से 10 लाख पेनिसिलिन जी सोडियम तथा 1 ग्राम  स्ट्रैप्टोमायसिन, 10 मिली लीटर आसुत जल में मिलाकर इंट्रायूटेराइन विधि से कई दिन तक प्रयोग किया जाए। कृत्रिम गर्भाधान के 4 से 6 घंटे के उपरांत उपरोक्त औषधि का प्रयोग करने से आशातीत लाभ प्राप्त होता है।

ट्राइकोंमोनिएसिस

यह रोग ट्राईकोमोनास फीटस नामक प्रोटोजोआ द्वारा उत्पन्न होता है। इसका प्रसार संभोग या उपकरणों द्वारा होता है। यह अंडे, जाइगोट, तथा भ्रूण को भी नष्ट कर देता है। इसमें 3 से 5 माह का गर्भ गिर जाता है अथवा बच्चा मेसीरेट होकर अंदर ही अवशोषित हो जाता है। गर्भाशय में मवाद भर जाता है और पशु अस्थाई रूप से बांझ हो जाता है मादा के स्राव मे ट्राइकोंमोनास  फीट्स की उपस्थिति इस रोग की पुष्टि करती है।

चिकित्सा: पायोमेट्रा, अर्थात गर्भाशय में मवाद को 2 से 3% लुगोलस आयोडीन से, धुलाई करें तथा पशु चिकित्सक से इसका उपचार मेट्राइटिस की चिकित्सा के आधार पर कराएं।

3. हार्मोनल विकार

हार्मोनल विकार शरीर क्रियात्मक कारण से होते हैं। एंटीरियर पिट्यूटरी द्वारा फॉलिकल स्टिमुलेटिंग हार्मोन, लुटेनाइजिंग हॉरमोन, तथा प्रोलैक्टिन हार्मोन स्रावित होते हैं। पोस्टीरियर पिट्यूटरी द्वारा ऑक्सीटॉसिन और गोनैडस द्वारा, एस्ट्रोजन प्रोजेस्ट्रोन और एंड्रोजन स्रावित होते हैं। इन हारमोंस के असंतुलित मात्रा में श्रवित होने से, जनन इंद्रियों से संबंधित विकार उत्पन्न होते हैं और पशु अनु उत्पादक हो जाता है।

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अमदकाल/ एनस्टरस: इसमें डिंबकोष आकार में बहुत छोटी, चिकनी, गोल तथा कड़ी हो जाती हैं। इस अवस्था के उत्पन्न होने में कई एक परिस्थितियां सहायक होती हैं जैसे स्थाई पीतकाय, पशु का अधिक दुधारू होना, खनिज लवण तत्वों की कमी (विशेष रूप से कैल्शियम फास्फोरस कॉपर तथा आयोडीन इत्यादि) अंडाशय के चारों ओर वसा का जमा होना तथा असंतुलित आहार इत्यादि।

चिकित्सा: संतुलित आहार तथा खनिज लवणों का उचित मात्रा में उपयोग, गुदा मार्ग से डिंब की मालिश तथा गर्भाशय का मसाज करना, डिंबकोषों के विकास तथा फॉलिकल की, परिपक्वता हेतु एफ एस एच हार्मोन इंट्रा मस्कुलर विधि से देना, स्थाई पीतकाय के कारणों को प्रोस्टाग्लैंडइन इंट्रा मस्कुलर इंजेक्शन द्वारा, उपचारित  करना।

नोट: वर्तमान समय में स्थाई पीतकाय को, हाथ से नहीं तोड़ना चाहिए क्योंकि इससे ओवरोंबरसल एडहेसन होने का खतरा होता है जिससे पशु स्थाई रूप से बांझ भी हो सकता है। प्रजना या जनोवा कैप्सूल गाय और भैंस को 3 कैप्सूल प्रतिदिन 2 दिन तक देना चाहिए। जबकि भेड़ बकरियों को 2 कैप्सूल प्रतिदिन 2 दिन तक देना चाहिए।

सिस्टिक ओवरीज या सिस्टिक ओवेरियन डिजनरेशन

फॉलिकुलर सिस्ट: फॉलिकुलर  सिस्ट की स्थिति में एक या एक से अधिक सिस्ट एक या दोनों अंडाशयों पर बन जाते हैं।इस स्थिति में पशु ऋतु में आता है परंतु गर्भधारण नहीं करता तथा पशु हर समय ऋतु में रहता हुआ प्रतीत होता है। ऋतु चक्र अनियमित हो जाता है। गाय 10 से 15 दिन के अंतराल पर तीव्र  गर्मी में आती है। होल्सटीन फ्रीजियन गायों में तथा अन्य  अधिक दूध उत्पादन  करने वाली गायों में सिस्टिक ओवरी बहुतायत में पाई जाती है।

लुटीयल सिस्ट: लूटीएल सिस्ट में , पशु लंबे समय तक गर्मी में नहीं आता है। यह सिस्ट एकल होती है परंतु इसकी दीवार मोटी होती है तथा इसकी कंसिस्टेंसी यकृत के तरह की होती है।

चिकित्सा: सिस्ट को कभी भी हाथ से नहीं तोड़ना चाहिए।

फॉलिकुलर सिस्ट के उपचार हेतु लुटेनाइजिंग हॉरमोन तथा गोनेडोटरोपिन जैसे गायनारिच अथवा अोवुलांटा अथवा कोरुलान इंजेक्शन इंट्रा मस्कुलर विधि से देना चाहिए। यदि यह कन्फर्म न हो सिस्ट पारसियली लूटीनिज्ड या लुटियल सिस्ट है तो जीएनआरएच के इंजेक्शन के 10 दिन के पश्चात प्रोस्टाग्लैंडइन f2 अल्फा जैसे क्लोप्रोस्टेनोल सोडियम 500 माइक्रोग्राम या लुटालाइज 5ml अर्थात 25 मिलीग्राम इंट्रा मस्कुलर विधि से देना चाहिए। लुटियल सिस्ट के उपचार हेतु प्रोस्टाग्लैंडइन अल्फा जैसे क्लोप्रोस्टेनोल सोडियम 500 माइक्रोग्राम इंट्रा मस्कुलर विधि से देना चाहिए।

अंडछरण ना होना: यह दशा भैंसों में अधिक पाई जाती है। इसका कारण खनिज लवणों की कमी, पशु का अधिक दुधारू होना तथा एफ एस एच एवं एलएच हार्मोन का असंतुलन होना है।

चिकित्सा: संतुलित आहार उचित मात्रा में खनिज लवण तथा जौ, एवं मूंगफली की खली को प्रचुर मात्रा में खिलाना चाहिए। गोनेडोटरोपिन हार्मोन अथवा लुटेनाइजिंग हॉरमोन को पशु चिकित्सक की सलाह के अनुसार इंट्रा मस्कुलर विधि से देना चाहिए।

रिपीट ब्रीडर/ फिरावट की समस्या: इस अवस्था में जाइगोट अपनी आयु के, प्रथम 14 दिन के अंदर ही मृत्यु को प्राप्त होता है अथवा  प्रारंभिक भ्रमण  की मृत्यु हो जाती है। इसका  मुख्य कारण प्रोजेस्टेरोन हार्मोन तथा विटामिन सी की कमी होना है।

चिकित्सा: प्रोजेस्ट्रोन हार्मोन 50 से 100 मिलीग्राम तथा  विटामिन सी इंट्रा मस्कुलर तरीके से 5 दिन तक देना चाहिए। पेनिसिलिन जी सोडियम 500000 से 1000000 यूनिट एवं स्ट्रैप्टोमायसीन 1 ग्राम 15 से 20 एम एल आसुत जल में मिलाकर इसे कृत्रिम गर्भाधान के 12 से  24 घंटे पश्चात गर्भाशय में  प्रयोग करें। सालपिनजाइटिस, हाइड्रो सालपिनजाइटिस या पायो सालपिनजाइटिस एवं क्रॉनिक इंटरस्टिशल सालपिनजाइटिस को ऑपरेशन तथा प्रतिजैविक औषधि के प्रयोग से कुछ हद तक ठीक किया जा सकता है।

गर्भाशय के संक्रमण: गर्भाशय के संक्रमण जैसे मेट्राइटिस, पायोमेट्रा, म्यूकोमेटरा इत्यादि।

चिकित्सा: एक्रीफ्लेविन या पोटेशियम परमैंगनेट अथवा लूगोल आयोडीन के 2 से 4% घोल से, गर्भाशय की सफाई करने के पश्चात प्रतिजैविक औषधियां संक्रमण की तीव्रता के अनुसार गर्भाशय में प्रयोग करें। इंजेक्शन सेफ्टीऑफर सोडियम गाय में 500 मिलीग्राम तथा भैंस में 1 ग्राम इंट्रा मस्कुलर विध से , 3 से 5 दिन तक प्रयोग करें। प्रोस्टाग्लैंडइन F2 अल्फा 500 माइक्रोग्राम इंट्रा मस्कुलर विध से प्रयोग करें। आवश्यकता पड़ने पर 11 वे दिन इस इंजेक्शन को रिपीट कर सकते हैं।

और देखें :  कृत्रिम गर्भाधान के नये आयाम

सरविक्स या गर्भाशय ग्रीवा: सर्विसाइटिस अर्थात गर्भाशय ग्रीवा में सूजन के लिए एंटीसेप्टिक डूस तथा इंट्रा मस्कुलर विधि से प्रतिजैविक औषधि जैसे स्ट्रैप्टोपेनिसिलिन अथवा ऑक्सीटेटरासाइक्लिन का, कम से कम 5 दिन तक प्रयोग करें।

4. पोषण से संबंधित विकार

पशु को संतुलित आहार न मिलने तथा खनिज लवणों एवं विटामिंस के अभाव के कारण यह दोष उत्पन्न होते हैं। इसके निराकरण हेतु पशु को संतुलित आहार देने के साथ-साथ कॉपर, फास्फोरस, आयरन, आयोडीन, कैल्शियम एवं अन्य खनिज लवण तथा विटामिन ए, डी, सी, और ई, को पशु चिकित्सा अधिकारी के निर्देशानुसार विधिवत खिलाया जाए। पशु आहार में फास्फोरस की कमी से प्रायः अंडोत्सर्ग कम होता है। पशु आहार में प्रोटीन फास्फोरस की कमी अथवा कैल्शियम फास्फोरस का अनुपात शरीर में बिगड़ जाने के कारण अंडोत्सर्ग के समय में वृद्धि हो जाती है। इस प्रकार के पशुओं को बिनोले की खल और ऐसे दाने और चारे जिन में प्रोटीन तथा खनिज लवण अधिक मात्रा में हो देने से पशु की दशा सुधर जाती है और लगभग 50% गाय या भैंस बच्चा देने के दो माह के बाद फिर से गर्वित हो जाती है।

पशु आहार में कैल्शियम की कमी के कारण अंडाणु का निषेचन कठिन होता है। कैल्शियम कार्बोनेट देने से उक्त विकार से छुटकारा पाया जा सकता है। प्रोटीन की कमी पशु के प्रजनन पर प्रभाव डालती है। प्रजनन में प्रोटीन की प्रकार एवं उसमें पाए जाने वाले अमीनो अम्ल की मात्रा एवं गुणवत्ता के कारण ही प्रभाव डालती है। विटामिन ए की कमी जनन पर बहुत महत्वपूर्ण प्रभाव डालती है। इसकी कमी से भ्रूण नष्ट हो सकता है। सॉड के अंदर इस विटामिन की कमी के कारण अक्रियाशील शुक्राणु उत्पन्न होते हैं। वृषण का भार घटने लगता है। कुछ शोधों से यह ज्ञात हुआ है कि विटामिन की भोजन में कमी इसी प्रकार की बाधाएं उत्पन्न करके पशु को अस्थाई अथवा स्थाई रूप से बांझ बना सकती हैं। विटामिंस की कमी को ऐसे आहार देने से जिनमें यह विटामिन अधिक मात्रा में पाया जाता है से दूर की जा सकती है। विटामिन ए की कमी को पूरा करने के लिए गेहूं के अंकुर का तेल अति उत्तम होता है।

5. मनोवैज्ञानिक कारण

फार्म के पशुओं में मनोवैज्ञानिक प्रभाव के कारण बांझपन बहुत कम होता है। परंतु यह देखा गया है कि प्रजनन के समय गाय का हताश होना उसकी बच्चा पैदा करने की क्षमता पर काफी विपरीत प्रभाव डालता है। यह अवस्था अक्सर ऑक्सीटॉसिन तथा एपीनेफरिन हार्मोन के उत्पन्न होने के कारण होती है। सांडो मैं उनको ठीक काम में ना लाने पर छेडाछाड़ी से उन पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है।

6. पर्यावरण का प्रभाव

वातावरण का प्रभाव पशु की प्रजनन क्षमता पर विपरीत प्रभाव डालते हैं। यह मौसम तापमान प्रकाश आदि हैं। यह प्रायः प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पशुओं के शरीर में हार्मोन के संतुलन में हेरफेर बनाए रखते हैं।

अक्सर यह देखा गया है कि सबसे अधिक बच्चा उत्पन्न करने की शक्ति बसंत और शरद ऋतु में तथा मध्यम पतझड़ के मौसम में और सबसे कम गर्मियों में रहती है। पशु को बुखार या फिर वृषणकोस पर बाल अथवा उन होने के कारण अस्थाई बांझपन उत्पन्न हो जाता है । प्रकाश का भी पशुओं के गर्वित रहने पर अधिक प्रभाव देखा गया है। यदि भेड़ों  को अधिक प्रकाश दिया जाए तो वे शीघ्र गर्मी में आती हैं और यदि अंधेरे में रखा जाए तो देर से गर्भित होती हैं। उपर्युक्त वातावरण के प्रभाव के अतिरिक्त पशुओं की उचित देखरेख भी उनके प्रजनन पर अत्यधिक प्रभाव डालती है। यदि पशुओं की ठीक प्रकार से देखरेख नहीं की जाती है तो उसमें बांझपन उत्पन्न हो जाता है। यह पशुपालन की असावधानियों के कारण होता है। इसमें मुख्य सावधानियां निम्न प्रकार से हैं –

  1. गाय के गर्मी में आने का पता ना रखना।
  2. प्रजनन के गलत तरीके अपनाना।
  3. समय से गर्भ परीक्षण न करना।
  4. जीवाणु रहित यंत्रों का प्रयोग ना करना।
  5. रोगों से बचाव ना करना।
  6. संतुलित आहार न देना।
और देखें :  स्वच्छ दूध का उत्पादन

पशुओं में उत्तम जनन योग्यता स्थिर रखने के लिए निम्नलिखित मुख्य बातों का ध्यान रखना चाहिए:

  1. पशुओं को उनके भार के हिसाब से संतुलित आहार देना चाहिए।
  2. गाय से प्रतिवर्ष एक बच्चा एवं भैंस से 13 महीने में एक बच्चा अवश्य प्राप्त करना चाहिए। 2 वर्षीय बच्चा देने वाली गाय एवं भैंस का समुचित परीक्षण, के उपरांत उसका समुचित उपचार करना चाहिए।
  3. गाय को सामान्य रूप से बच्चा पैदा करने के बाद 2 महीने तक एवं कठिन प्रशव के बाद में 3 महीने से पूर्व गर्वित नहीं कराना चाहिए।
  4. गाय कब गर्मी में आती है उसका पता होना चाहिए और उन्हें गर्मी की मध्य से अंतिम अवस्था में गर्भाधान कराना चाहिए।
  5. रोगों से पूर्ण बचाव करना चाहिए और समय-समय पर रोगों के टीके लगवाना चाहिए।
  6. गर्भ परीक्षण तथा अन्य असामान्यताओं की समय समय पर परीक्षण कराते रहना चाहिए।
  7. जिस सांड पर संशय हो उससे गर्भाधान नहीं कराना चाहिए।
  8. डेयरी फार्म पर स्वच्छता का विशेष ध्यान रखना चाहिए।

संदर्भ:

  1. वेटनरी आबस्ट्रैट्रिक्स एंड जेनाइटल डिसीजैज़ द्वारा एस जे रॉबर्ट्स
  2. ट्रेनिंग ऑन इनफर्टिलिटी मैनेजमेंट मैनुअल द्वारा मादा पशु रोग एवं प्रसूति विज्ञान विभाग, दुवासु ,मथुरा उत्तर प्रदेश
इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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