ग्याभिन गाय-भैंस की देखभाल

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जब एक व्यस्क मादा को कामोत्तेजना उपरांत गर्भधारण करवाया जाता है और उसमें उसके बाद कामोत्तेजना के लक्षण दिखायी नहीं देते हैं तो उसे गर्भित माना जाता है। फिर भी गर्भ को सुनिश्चित करने के लिए योग्य चिकित्सक से उसका गर्भ परीक्षण करवा लेना चाहिए। सभी गर्भवती पशुओं को वैज्ञानिक तरीके से खिलाएं और उनके साथ सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार करें। गर्भवती पशुओं को ब्याने से तीन माह पहले अन्य पशुओं से अलग रखें उनके रखरखाव व खानपान पर विशेष ध्यान देने की जरूरत होती है। इस अवस्था में बच्चे के उचित विकास के साथ-साथ मादा अधिक दूध देने के लिए स्वयं को तैयार करती है। हरा चारा 35-40 किलोग्राम, संतुलित 2 किलोग्राम दाना दें। गर्भावस्था के अंतिम 3 माह के दौरान गर्भ का सर्वाधिक विकास होता है। इन्हीं दिनों में गर्भवती पशु को सबसे अधिक देखभाल की आवश्यकता पड़ती है।

शांत एवं तनाव मुक्त वातावरण

गर्भित पशुओं को पूर्ण गर्भावस्था में शांत एवं तनाव मुक्त रखने से ही स्वस्थ बच्चे की प्राप्ति होती है। स्वस्थ बच्चा होने पर ही पशु अच्छी गुणवत्ता का दूध अधिक मात्रा में देता है। गर्भित पशुओं को अन्य पशुओं से अलग रखना चाहिए ताकि कोई संघर्ष या लड़ाई न हो। उनको डराना, धमकाना, दौड़ाना, मारना आ​दि क्रियाएं नहीं करनी चाहिए अन्यथा गर्भपात हो सकता है। प्रथम बार ब्याने वाली मादा को दो महीने पहले उसके शरीर में प्यार से खुजली/खरकरा (ग्रुमिंग) प्यार से करनी चाहिए ताकि ब्याने के बाद वह पसमाव में कोई समस्या न करे।

खराब मौसम

अत्यधिक खराब मौसम जैसे कि अधिक गर्मी व सर्दी से गर्भवती मादा पशुओं में गर्भपात हो सकता है। अत: ऐसे मौसम से उनको बचा कर रखना चाहिए। गर्मियों में गर्भवती मादाओं को दिन में 2 से 3 बार नहलाएं और सर्दियों में ठण्डी हवाओं से बचाना चाहिए।

आवासीय प्रबंधन

गर्भित पशु को ऊंची-नीची चरागाहों में चरने के लिए न भेजें और उनको फिसलन वाले स्थान पर भी जाने से रोकना चाहिए। पशुओं को खुले स्थान पर रखें जहाँ पर्याप्त हवा एवं उठने बैठने की जगह हो। ब्याने से 5-6 दिन पहले ही उनको ठोस फर्श की बजाय पराली बिछाए हुए स्थान पर रखना चाहिए ताकि उन्हें उठने-बैठने में कोई परेशानी न हो। गर्भवती खासतौर से योनिभ्रंश की समस्या पे पीड़ित मादाओं के बांधने की जगह अगले पैरों के नीची और पिछले पैरों की तरफ थोड़ी ऊँची होनी चाहिए।

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दूध सुखाना एवं आहार व्यवस्था

अधिक दूध देने वाले पशुओं का ब्याने के दो माह पहले दूध दुहना धीरे-धीरे बन्द कर दें, ताकि थनों को आराम मिल सके, वे अधिक मजबूत बन सकें। इसके अतिरिक्त इस दौरान मादा अपने शरीर की भरपाई तथा शारीरिक भार में वृद्धि करती है। यदि वह दूध दे रही है तो उसका दूध निकालना अचानक से बंद नहीं करना चाहिए। उसे सान्द्र दाना-मिश्रण खिलाना बंद कर देना चाहिए। उसका हरा चारा और पानी भी कुछ समय के लिए कम किया जा सकता है। लेकिन दूध सूखने के बाद पीने का पानी हर समय उपलब्ध होना चाहिए। दूध छोड़ने से पहले इस पशुओं का दाना बन्द कर दें तथा 4-5 दिन तक तूड़ी खिलाकर रखें। इस प्रकार पहले दिन, दो बार की बजाय एक बार ही दूध निकालें, फिर एक दिन छोड़कर, उसके बाद तीन दिन में एक बार तथा कुल 7-10 दिनों के बाद दूध निकालना बिल्कुल बन्द कर देना चाहिए।

कम दूध देने वाले पशुओं को ब्याने से 40 दिन पहले दूध निकालना बन्द करना चाहिए तथा दुबले-पतले एवं कमजोर गर्भवती पशुओं को कम से कम 80 दिन तक शुष्क रखना चाहिए। शुष्क कराने के तुरन्त बाद उसे प्रचुर मात्रा में हरा चारा एवं संतुलित दाना मिश्रण देना चाहिए।

य​दि प्रचुर मात्रा में हरा चारा उपलब्ध हो तो सान्द्र दाना-मिश्रण की अधिक आवश्यकता नहीं पड़ती है। इसके अलावा ‘साईलेज’ या ‘हे’ भी खिलाना अच्छा है। अगर कब्ज रहे तो आधा किलो अलसी का तेल नाल द्वारा पिलाया जा सकता है परन्तु इसे बार बार नहीं देना चाहिए।

चपाचपयी विकारों से बचाव

प्रसवपूर्व तीन सप्ताह से ही पशुओं को ऋणात्मक ऊर्जा संतुलन, दुग्ध-ज्वर एवं कीटोसिस आदि से बचाने के लिए पौष्टिक आहार देना चाहिए।

संक्रामक रोगाणुओं से बचाव

प्रसवकालिन मादाओं में रोगाणु रोधक क्षमता कम होती है जिसे उचित संतुलित आहार प्रबंधन से बढ़ाया जा सकता है। ऐसी बहुत सी मादाओं के थनों से दूध टपकने लगता है जिससे थनैला रोग की संभावना बढ़ जाती है। अतः उनके आवास को साफ-सुथरा रखना चाहिए तथा फर्श को फिनाईल के घोल से धोकर सुखाना चाहिए और उस पर तूड़ी या पराली बिछा देनी चाहिए। गर्भवती पशुओं को ऐसे पशुओं के साथ न रखें जिन्हें गर्भपात हो गया हो। गर्भपात होने की स्थिति में पशु चिकित्सक से पूर्ण उपचार करवाएँ।

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गर्भाधान का रिकॉर्ड रखना

गर्भाधान कराने की तिथि को रिकार्ड से देखकर प्रसवकाल की तिथि का अन्दाजा कर लें तथा उसी हिसाब सें पशु को बयाने से 5 ​दिन पहले अलग घर में स्थानान्तरित करना चाहिए।

प्रसवकाल के दौरान देखभाल

  • ब्यांने से पहले ही किसी पशु चिकित्सक से जाँच करवा लें ताकि गर्भस्थ बच्चे की स्थिति का अनुमान लगाया जा सके। यदि प्रसवकालिन मादा की रात के समय ब्याने की संभावना हो तो पशु चिकित्सक से पहले ही बात कर लें ताकि प्रसव के समय होने वाली संभावित कठिनाइयों से बचा जा सके।
  • प्रसव क्रिया शुरू होते ही पशु बेचैन हो जाता है और योनी द्वार से श्लेष्मा निकलना इसका मुख्य लक्षण है। इस समय पानी की थैली बाहर निकलती है जिसे अपने आप ही फटने दें और पशु को अनावश्यक न छेड़ें। बच्चा पहले सामने के पैरों पर सिर टिकी अवस्था में बाहर आता है।
  • यदि पशु को ब्याने में कठिनाई होने वाली हो तो पशु चिकित्सक की सहायता अवश्य लेनी चाहिए। यदि प्रसव दो-तीन घण्टे में न हो तो पशु चिकित्सक की सहायता लेनी चाहिए।
  • प्रसव के बाद योनी द्वार, पूंछ तथा आसपास के हिस्सों को गुनगुने पानी में तैयार पोटाशियम परमैंगनेट के घोल से साफ कर दें।
  • आमतौर पर जेर 7–8 घण्टे में बाहर निकल जाती है। य​दि जेर अपने-आप न निकले तो चिकित्सक की सहायता लेनी चाहिए। पशु को जेर न खाने दें, इससे पशु को अपच हो सकती है।
  • ब्याने के तुरन्त बाद पशु को गुड़ गुनगुने पानी में घोलकर पिलाना चाहिए तथा सरलता से पचने वाला दस्तावार चारा, दाना चार पांच दिनों तक खिलाएं। उसके बाद 8–10 दिनों में धीरे धीरे पशु को सामान्य आहार पर लाना चाहिए।
  • ब्याने के 20-30 दिन पहले गर्भवती पशुओं को दस्तावार आहार जैसे गेहूँ का चोकर, अलसी की खल 2: 1 अनुपात में 1-2 किलोग्राम देना उपयोगी होता है।
  • प्रसव के बाद पहली बार पशु के थन से पूरा दूध नहीं निकालना चाहिए क्योंकि पूरा दूध निकालने से विशेषकर अधिक दूध देने वाले पशुओं को दूग्ध ज्वर होने का भय रहता है।
और देखें :  दुधारू पशुओं में बाई-पास वसा आहार तकनीक एवं उससे लाभ

उपयोगी है।

इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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