परजीवियों के अन्तःसहजीवक (एंडोंसिमबायोन्ट): एक वैकल्पिक परजीवी नियंत्रण लक्ष्य

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भारत मुख्य रूप से एक कृषि प्रधान देश है जिसकी आबादी का लगभग 70 प्रतिशत कृषि और उसके संबद्ध क्षेत्र पर निर्भर है। भारत का पशुधन क्षेत्र, दुनिया में सबसे बड़ा है। परजीवी रोग, भारत सहित विश्वव्याापी समस्याएं हैं और इन्हें पशुओं के स्वास्थ और उत्पादकता में बड़ी बाधा माना जाता है। ये रोग, अंत परजीवी के कारण हो सकते है, जो शरीर के अंदर रहते हैं, या वाह्यपरजीवी जैसे कि किलनी (टिक), माइटस, जूँ, मक्खियाँ, पिस्सू, आदि जो जानवरों और मनुष्यों के शरीर पर हमला करते है।

विश्व स्तर पर संक्रामक रोगजनकों के वाहक (वेक्टर) के रूप में मच्छरों के बाद किलनियों का दूसरा स्थान है। परजीवियों के नियंत्रण हेतु बहुत सारे विघियों को अपनाया जाता है- परजीविनाशक औषघीयों के द्वारा, एथनो-पशुचिकित्सा औषघीय नियंत्रण, प्रतिरक्षा नियंत्रण, जैविक नियंत्रण, प्रबंघन नियंत्रण, मघ्यक पोषक या वेक्टर नियंत्रण, आनुवांशिक नियंत्रण आदि। इसके अलावे परजीवियों के अन्तःसहजीवक को  नियंत्रण कर, परजीवियों का नियंत्रण भी किया जा रहा है। अन्तःसहजीवक एक जीव है जो अन्य जीव के शरीर या कोशिकाओं में एंडोसिंबायोसिस संबंध के रूप मे रहता है और एक दूसरे का लाभ पहुँचाता है। रासायनिक परजीविनाशक औषधी जैसे-कृमिनाशक, एकेरिसाइड आदि का मुख्य रूप से उपयोग किया जाता है जिसका प्रयो धड़ल्ले से किया जा रहा है जिसके कारण कृमियों एवं किलनियों में क्रमशः कृमिनाशक तथा एकेरिसाइड प्रतिरोधक विकसित हो रहा है। इसके चलते आर्थिक रूप से हानिकारक कृमियों जैसे- हिमोंकनस कंटोरटस आदि पर कृमिनाशक औषघीयों का तथा किलनी पर प्रचलित एकेरिसाइड दवा का प्रभाव बहुत कम हो गया है। इसके अलावे रसायनिक कृमिनाशक, एकेरिसाइड आदि का दुष्प्रभाव जैसें- गर्भधारण किए हुए पशु में गर्भपात हो जाना, जकीटनाशक या एकेरिसाइड प्रायः जहरीला होता है जो मनुष्य एवं पशु के शरीर में प्रवेश कर अंगों पर विपरीत प्रभाव डालता हैं।

परजीवियों में पाये जाने वाले अन्तःसहजीवकों की सूचीः

क्र.सं.

परजीवियों का नाम

पाए जाने वाले अन्तःसहजीवक

1

डाइरोफायलेरिया इमिटिस वोल्बाचिया

2

ओनकोसरका आरमिलाटा वोल्बाचिया

3

वुचेरेरिआ बैंक्रोफ्टी वोल्बाचिया

4

मानसोनेल्ला परसटानस वोल्बाचिया

5

क्यूलेक्स, एनोफिलीज एवं एडीज मच्छर वोल्बाचिया

6

इकसोडीस स्केलपुरिस वोल्बाचिया

7

डेमोडेक्स माइट्स स्टेफायलोकोकस अल्बस, माइक्रोस्पोरान केनिस एवं बेसिलस ओलेरोनियस

8

सोरोप्टीस ओविस स्टेफायलोकोकस आरियस

9

अम्बिलोमा अमेरिकन काक्सिएला बर्नेटी

10

डरमासेन्टोर एंडरसोनि एवं इकसोडीस स्केलपुरिस रिकेट्सिया रिकेट्सि

11

सीसी  मक्खी विगल्सवर्थिया ग्लोसिनिडिया ब्रेविपलपिस

12

नेनेफाइटस सालमिनोकोला नोरिकेट्सिया हेलमिनथोशिया

13

सीनोर्हंब्डीटीज एलिगेंस बोरेलिया

14

रोडिनस प्रोलिक्सस रोडोकोकस रोडनी
  • बहुत सारे अन्तःसहजीवकों पाए जाते है जिसमें से सबसे प्रमुख वोल्बाचिया है क्योंकि यह अन्तः एवं वाहृय परजीवियों में एंडोसिंबायोसिस संबंध के रूप मे रहकर परजीवियों को प्रजनन, पोषण, पोषक के प्रतिरक्षा तंत्र से बचना आदि में मदद करते है।
  • बोल्बाचिया पृथ्वी पर सबसे आम प्राकृतिक रोगजनकों में से एक है जो कीटों की प्रजनन प्रणाली को बदल देते हैं। बोल्बाचिया मच्छर में जीका वायरस के प्रसार को रोकने की क्षमता है इसलिए जीका वायरस के प्रसार को रोकने के लिए बोल्बाचिया के उचित उपजाति युक्त मच्छरों को विकसित कर जीका वायरस को नियंत्रित किया जा सकता है।
  • बोल्बाचिया एक अत्यंत समान्य जीवाणु है जो 60 प्रतिशत कीट प्रजातियो में प्राकृतिक रूप से उपस्थित रहते है। वोल्बाचिया एक ग्राम नेगेटिव जीवाणु है।
  • बोल्बाचिया कीट के कोशिकाओं के अंदर रहते है और कीट के अंडें के द्वारा बोल्बाचिया कीट के एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में पहुँचता है। एडीस एजिप्टी मच्छर में प्राकृतिक रूप से मौजूद बोल्बाचिया डेंगू, जीका, चिकनगुनिया और पीला बुखार जैसे विषाणुओं का प्रजनन नही के बराकर होता है जिसके कारण एडीस एजिप्टी मच्छर द्वारा फैलने बारे विषाणुजनित रोगों (डेंगू, जीका, चिकनगुनिया और पीला बुखार ) का प्रसार नही हो पाता है।
  • एक शोध में देखा गया है कि बोल्बाचिया के संक्रमण से एनोफेलेजी स्टेफनी मच्छरों में मलेरिया के प्रति प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाता है। डब्लुएलबीबी बोल्बाचिया प्रजाति प्लाजमोडियम फाल्सीफेरम के जीवन-चक्र को मच्छर के अन्दर रोक देता है जिसके  परिणामस्वरूप प्लाजमोडियम फाल्सीफेरम जनित मलेरिया रोग का प्रसार नही हो पाता है।
  • गोल कृमि में पाए जाने वाले वोल्बाचिया, गोल कृमि को पशु या मनुष्य के प्रतिरक्षा तंत्र से बचाता है क्योंकि बोल्बाचिया केटालेज एंजाइम बनाता है जिसके कारण गोल कृमि पर पोषक का प्रतिरक्षा तंत्र का कार्य नही कर पाता है।
  • बोल्बाचिया में प्रजनन के फेरबदल करने के विशिष्ट गुण के कारण कई वैज्ञानिको  को कीट और रोगाणुओं को नियंत्रित करने के लिय बोल्बाचिया के संभावित उपयोग पर शोध करने के लिए प्रेरित कर रहा है।
  • बोल्बाचिया कोशिका के अंदर पाए जाने वाला जीवाणु है जो गोल कृमि के अंदर पारस्परिक संबंध के साथ रहता है। अध्ययनों में पाया गया है कि एंटीबायोटिक्स के उपयोग से बोल्बाचिया जीवाणु नष्ट हो जाते है जिसके परिणाम स्वरुप गोल कृमि के वृद्धि में कमी, कृमि के द्वारा प्रजनन न कर पाना एवं कृमि ज्यादा दिनों तक जिंदा नही रह पाता है।
  • डेमोडेक्स माइट्स में कोई उत्सर्जक गुदा नही होात है इसलिए माइट्स में पाए जाने वाले अन्तःसहजीवकों पाचन एवं उत्सर्जन में मदद करते हैं।
  • बोल्बाचिया अन्तःसहजीवक के रूप में डाइरोफायलेरिया इमिटिस गोल कृमि के सभी अवस्थाओं में मौजूद रहता है। यह मादा एवं नर कृमि के हाइपोडरमिस तथा मादा कृमि के प्रजनन अंगों में प्रचुर मात्रा में मौजूद रहता है। टेट्रासाइक्लिन (डाक्सीसाइक्लिन) बोल्बाचिया जीवाणु के विरूद्ध कारगर औषधी है। डाइरोफायलेरिया इमिटिस गोल कृमि के संक्रमण मे डाक्सीसाइक्लिन के उपयोग करने पर कृमि के भ्रूणजनन प्रक्रिया में कमी से परजीवी को नियंत्रित किया जा सकता है।
  • पूरी तरह मृत अन्तःसहजीवक या अन्तःसहजीवक के शुद्ध एंटीजन या पुनःसंयेाजक एंटीजन के द्वारा पशुओं को टीकाकरण कर उन्हें किलनी वेक्टर के प्रति प्रतिरक्षा प्रदान किया जा सकता है।
  • पोषक (वेक्टर) के एंटीजनों को लक्षित करने के बजाए अन्तःसहजीवक को लक्षित कर वेक्टर एवं सहजीवक के सहजीवी संबंध को नष्ट कर परजीवी को नियंत्रित किया जा सकता है।
  • परजीवी के विभिन्न नियंत्रण रणनीतियों में से फाइलेरियल गोल कृमि एवं आथ्र्रोपोड वेक्टर (मच्छर, सी-सी मक्खी, किलनी आदि) के साथ-साथ वेक्टर जनित रोगों को नियंत्रित करने लिए फाइलेरियल गोल कृमि एवं आथ्र्रोपोड वेक्टर में पाए जाने वाले अन्तःसहजीवकों की संख्या को नियंत्रित किया जा सकता है।
  • आथ्र्रोपोड मे बोल्बाचिया प्रजनन परजीवी की तरह व्यवहार करता है क्योंकि बोल्बाचिया आनुवांशिक नर कीट में स्त्रीगुण का विकास हो जाना, पार्थेजेनेसिस, नर कीट का मृत्यु हो जाना एवं साइटोप्लाज्मिक असंगति के लिए उत्प्रेरित करता है।
  • पृथ्वी पर हर पारिस्थितिक तंत्र में पाए जाने वाले जीवों में से गोल कृमि एक अत्याधिक सफल एवं प्रचुर संख्या में पाए जाने वाले जीव है। परन्तु सर्वव्यापकता और विविधता के होते हुए भी गोल कृमि में जीवाणु का वर्णन आथ्र्रोपोड्स एवं अमीबा की तुलना में कम मिलते है।
  • परजीवी या आथ्र्रोपोड्स के अन्दर कुछ महत्वपूर्ण कार्य क्षमता नही होता है लेकिन सहजीवकों में वह कार्यक्षमता मौजूद रहता है जिसका परजीवी या आथ्र्रोपोड्स उपयोग करके लाभावन्वित होता है।
  • बहुत सारे जीवाणु, विषाणु, रिकेटसिया एवं परजीवी जनित बिमारियों का फैलाव में मक्खी एवं किलनी आदि आथ्र्रोपोड्स वेक्टर का काम करते हैं। इन वेक्टर के अन्दर पाए जाने वाले सहजीवकों में आनुवांशिक परिवर्तन कर वेक्टर जनित बिमारियों के फैलाव को कम किया जा सकता है।
  • आथ्र्रोपोड्स वेक्टर के मध्य आँत मे पाए जाने वाले सहजीवक जीवाणु को आनुवांशिक इंजीनियर के द्वारा प्रभावकारी प्रोटीन का óावित किया जा सकता है, जो परजीवी के आक्रमण को रोकता है या मध्य आँत या हिमोलिम्फ या प्रजनन नली में मौजूद परजीवियों को मारता है।
  • जिस वेक्टर के अन्दर आनुवांशिक परिवर्तित सहजीवक रहता है, वैसे वेक्टर को पाराट्रांसजेनिक वेक्टर कहते है। पाराट्रांसजेनिक दृष्टिकोण को अपनाकर अफ्रीकी ट्रिपेनोसोमोसिस का नियंत्रण सी-सी मक्ख्ी के सहजीवक के द्वारा करने में सफलता मिली है। इस रणनीति के तहत वेक्टर के अन्दर सामान्य सहजीवक आबादी को आनुवांशिक रूप से संषोधित सहजीवकों के साथ बदला जा सकता है जिसके परिणामस्वरूप  आथ्र्रोपोड्स वेक्टर की आबादी विषेष वेक्टर जनित परजीवी/रोगजनक के लिए परिवर्तित हो जाएगा। इसी रणनीति को अपनाकर रोडेनियस प्रोलिक्सस सहजीवक के द्वारा ट्रिपेनोसोमा कु्रजी के संचरण को रोकने मे लाभदायक सिद्ध हुआ है।
और देखें :  पशुओं में पुछकटवा रोग या डेगनाला रोग

सहजीवकों के नियंन्नण से लाभ

  • सहजीवकों का नियंन्नण करना परजीवी के अपेक्षा आसान है।
  • सहजीवकों का उपचार परजीवी की तुलना में किफायती एवं कम अवधी का होता है। परजीविनाशक औषधि के अपेक्षा सहजीवकनाशक औषधि का दुष्प्रभाव परजीवी संक्रमित पशु पर बहुत कम पड़ता है।
  • सहजीवकों के द्वारा परजीवियों को नियंन्नण करने से रसायनिक कृमिनाशक एवं कीटनाशक पर निर्भरता कम हो जाएगा जिससे कृमिनाशक एवं कीटनाशक प्रतिरोधक समस्या कम हो पाएगा।
और देखें :  भेड़-बकरियों में फड़किया रोग (एंटरोटॉक्सिमिया)
इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।
और देखें :  पशुओं में होनें वाले मोतियाबिन्द एवं अन्धापन रोग और उससे बचाव

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