परंपरागत पशु औषधी विज्ञान की ऐतिहासिक यात्रा

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परंपरागत औषधी विज्ञान, उतना ही पुराना है जितनी मानव सभ्यता है। मानव ने अपनी आवश्यकतानुसार पशुओं को पालना शुरू किया और उनका उपचार भी मनुष्य द्वारा उनके पालने के साथ ही सहस्राब्धियों पुराना ही है। प्राचीन भारतीय साहित्य पशुओं की देखभाल, स्वास्थ्य प्रबंधन और बीमारियों के इलाज के बारे में जानकारी से भरा हुआ है जिसका विवरण आदिम मानव की गुफाओं में पुरुषों और पशुओं के चित्रों में दर्शाया गया है। सिंधु घाटी से बरामद मोहरों पर बैल, भैंस, बकरी, हाथी, आइबेक्स और कई अन्य जानवरों का ज्ञान मिलता है। इन मुहरों पर लिपि अब तक पूरी तरह से विखंडित नहीं हुई है।

भारत में वैदिक समाज पर ‘गाय संस्कृति’ का प्रभुत्व था और वैदिक लोग गाय को मानते थे और इसे अपने सौभाग्य, खुशी और अच्छे स्वास्थ्य का स्रोत मानते थे। गाय के प्रति भारतीय संस्कार-जन्य-श्रद्धा का अंकुर ऋग्वेद के प्रसिद्ध गौ-सुक्ति में खोजा जा सकता है (Verma 2008)।

आ गावो अग्मन्नुत भद्रमक्रन्त्सीदन्तु गोष्ठे रणयन्त्वस्मे।
प्रजावतीः पुरुरूपा इह स्युरिन्द्राय पूर्वीरुषसो दुहानाः ॥
(ऋग्वेद 6.28.1)

गायें हमारे घर आयें, हमारा मंगल साधन करें। वे हमारे गोष्ठ (गोशाला) में विराजें। हमें आनन्द दें। वे प्रजावती हों। विविध सुन्दर वर्णवाली गायें ऊषा काल में इन्द्र (परमात्मा) के लिए दुग्ध प्रदान करें।

यह माना जाता है कि धार्मिक पुजारी, जिनके पास पशुओं को बचाए रखने की जिम्मेदारी थी, पहले पशु चिकित्सक थे। कई वैदिक भजन जड़ी बूटियों के औषधीय मूल्यों को दर्शाते हैं तथा यह संभावना व्यक्त की जाती है कि ये पुजारी इसके लिए उपयुक्त थे और पशुओं को बीमारियों से मुक्त रखने के लिए उनके चिकित्सा ज्ञान का उपयोग किया जाता था। अथर्ववेद में जड़ी बूटियों और औषधियों के बारे में उल्लेख है। आयुर्वेद (जीवन विज्ञान) वैदिक संतों के पास मौजूद चिकित्सा के ज्ञान से संबंधित है (Somvanshi 2006)।

उत्तर वैदिक काल

उत्तर वैदिक काल को लौह काल भी कहा जाता है जिसमें दो महाकाव्य- रामायण (2000 ईसा पूर्व) और महाभारत (1400 ईसा पूर्व) सम्मिलित हैं, वैदिक काल के बाद के आर्यों के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन को चित्रित करता है। उत्तर वैदिक काल में औषधीय जड़ी-बूटियों और शल्य चिकित्सा की प्रक्रियाओं का उपयोग कर विभिन्न रोगों के उपचार के बारे में विस्तार से बताया गया है। परिरक्षक और उपचार के रूप में तेल के विभिन्न उपयोगों का उल्लेख किया गया है। शल्यचिकित्सा प्रक्रियाएं जैसे कि बच्चेदानी का आपरेशन, बच्चेदानी को निकालना आदि को प्रशिक्षित वैद्यों या चिकित्सकों द्वारा किया जाता था। इस काल में अर्जुन, कुटज, कदम्ब, नीम, अशोक, इत्यादि अनेक पेड़-पौधों का उपयोग मनुष्य एवं पशुओं के इलाज के लिए जाता था।

मौर्य काल

मौर्य काल (322-232 ईसा पूर्व) में पशुपालन ने काफी प्रगति की। मौर्य काल से पहले बुद्ध और महावीर की अवधि थी, जिन्होंने पशुओं के प्रति अहिंसा का प्रचार किया। सबसे प्राचीन बौद्ध ग्रन्थ “सुत्तनिपाता” पशुओं को भोजन, सौंदर्य, और खुशी के दाता के रूप में वर्णित करता है और इसलिए यह संरक्षित किए जाने के हकदार हैं। मौर्य काल में पशु चिकित्सा आवश्यक सेवाएं थीं।

सम्राट अशोक का काल

सम्राट अशोक (लगभग 300 ईसा पूर्व) के काल में पशु चिकित्सा सर्वश्रेष्ठ थी और इसी से प्रेरित होकर भारत में वर्तमान पशु चिकित्सा परिषद ने सम्राट अशोक के काल से एक बैल की मूर्ति और एक पत्थर के शिलालेख को सम्मानचिन्ह के रूप में अपनाया है (Singh 2002)। सम्राट अशोक ने पशु चिकित्सा विज्ञान को भारत में एक नया मोड़ दिया। यह वर्णित है कि सम्राट अशोक के शासन में भारत का पहला पशु चिकित्सा अस्पताल मौजूद था (Schwabe 1978)। माना जाता है कि सूरती का ‘वट अस्पताल’ उनमें से एक है, जिसमें ऊँची दीवारों से घिरी हुई भूमि का एक बड़ा हिस्सा शामिल था। उसमें रोगी पशुओं को रखने का प्रावधान किया गया था।

सुश्रुत

धन्वंतरी के शिष्य सुश्रुत (600 ईसा पूर्व) द्वारा लिखित सुश्रुत संहिता, शल्य चिकित्सा से संबंधित सबसे पहला ज्ञात कार्य है। सुश्रुत ने सर्जरी की सामान्य तकनीकों में बहुत सुधार किया और कई नए और बड़े ऑपरेशन किए।

शालिहोत्र

दुनिया के पहले ज्ञात पशु चिकित्सक, शालिहोत्र, घोड़े के पालन और चिकित्सा में एक विशेषज्ञ थे और उन्होंने ‘हया आयुर्वेद’ की रचना की और शालिहोत्र निस्संदेह पूर्व-ऐतिहासिक काल के पहले पशु चिकित्सक प्रतीत होते हैं। शालिहोत्र भारतीय पशु चिकित्सा विज्ञान के जनक कहे जाते हैं।

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परंपरागत पशु औषधी विज्ञान की ऐतिहासिक यात्रा

ऋषि पालकप्य

ऋषि पालकप्य हाथियों से निपटने वाले एक विशेषज्ञ थे और उन्होंने एक ग्रंथ ‘गज आयुर्वेद’ की रचना की जिसको उसने चार भागों – 1. प्रमुख रोग, 2. क्षुद्र रोग, 3. शल्य चिकित्सा, और 4. आहार एवं स्वच्छता इत्यादि में वर्णित किया है। उन्होंने हाथियों की विभिन्न बीमारियों को शारीरिक, आकस्मिक, मानसिक और त्रिदोष विकारों में वर्गीकृत किया है।

सर्प विष एक मूल्यवान औषधि के रूप में

प्राचीन भारत को तक्षशिला में विषाक्त और हर्बल अनुसंधान का उन्नत केंद्र होने का गौरव प्राप्त था। भारतीय इतिहास के अनुसार, जैसा कि रस ग्रंथ में वर्णित है औषधी के रूप में सांप के विष के उपयोग में भारतीय अग्रणी थे। प्राचीन काल के दौरान, यह लोकप्रिय रूप से जाना जाता था कि बहुत कम मात्रा में, मुख मार्ग द्वारा दिया गया सांप का विष सबसे शक्तिशाली उत्तेजकों में से एक था और यदि सांप का विष पशुओं के पित्त के साथ मिलाया जाता है, तो इसकी गतिविधि पूरी तरह से भिन्न हो जाती है। सांप के विष से तैयार की जाने वाली औषधियां इस प्रकार थीः

सुचिकाभरण

पारा, सल्फर, सीसा और कुचला (एकोनिटम) को बराबर भागों में मिलाकर रोहू मछली/जंगली सूअर/मोर/भैंस/बकरी के पित्तरस में भिगोया जाता था और फिर इसको एक ठंडी जगह में रखकर सुखाया जाता था और फिर इसका पाउडर बनाया जाता था। इसको थोड़ी सी खुराक में (“सुई की नोक” बराबर) दिया जाता था, यह प्लेग, बुखार, मुर्छा, तपेदिक, आदि जैसे कई रोगों में प्रभावी था।

अर्धनारीश्वर रस

पारा, सल्फर, कुचला की जड़ और सोहागा (बोरेक्स) के प्रत्येक एक-एक भाग को मिलाकर महीन चुर्ण बनाया जाता था। फिर इस मिश्रण को काले कोबरा सांप के मुँह में डाला जाता था और मुँह को कीचड़ से बंद कर दिया जाता था और इसको हल्की तपिश में लगातार 12 घंटे तक पकाया जाता था। तैयार औषधी को महीन चूर्ण में पीस लिया जाता था जिसे असाध्य बुखार में सुंघाया जाता था।

इसी प्रकार, अन्य औषधियां, जैसे कि, बृहत् सुचिकाभरण, अघोरीनृसिंहरण, और कालानल रस भी अलग-अलग साँपों के विष से तैयार किए गए थे। वर्तमान में भी, होमियोपैथी चिकित्सा प्रणाली में, सांप के विष से कुछ उत्कृष्ट दवाएं जैसे कि लाचेसिस, सेन्क्रिस कॉन्टोर्टिक्स, टॉक्सिकोफिस, बोथ्रोप्स लान्सियोलेट्स और लाचेसिस लान्सियोलेट्स भी तैयार की जाती हैं (Srivastava 2002)।

चरक संहिता

परजीवी, उनके संचरण और नियंत्रण के बारे में चरक संहिता 1000 ईसा पूर्व लिखा एक प्रमाणिक दस्तावेज है। इसके अतिरिक्त, चरक संहिता में अगड़ा योग के माध्यम से विष एवं इसके प्रबंधन के बारे में बताया गया है (Sutherland 1919, Aravind et al. 2017)।

परंपरागत-पशु चिकित्सा

चिकित्सा की आधुनिक एलोपैथिक प्रणाली के आगमन से पहले, यह संभव लगता है कि भारत सहित पूरी दुनिया में मानव एवं पशु चिकित्सा कला लगभग समान थी (Ramdas & Ghotge 2004)। भारतीय चिकित्सा पद्धति का 5000 वर्ष पूर्व का इतिहास 1. संहिताबद्ध पद्दति एवं 2. गैर-संहिताबद्ध – मौखिक या लोक स्वास्थ्य परंपराएं, में निहित है।

संहिताबद्ध पद्दति में प्रमाणीकृत शारीरिक कार्यप्रणाली के सिद्धांत एवं रोग हेतुविज्ञान और नैदानिक पद्दतियों पर आधारित है। जबकि गैर-संहिताबद्ध पद्दति मानव की तरह पुरानी है और इसका संहिताबद्ध पद्दति के साथ प्रतीकात्मक संबंध है। यह समयानुसार गतिशील, परिवर्तनात्मक एवं विकाशील है। यह पूरे भारत में विभिन्न जातीय समुदायों में फैली हुई है। यह स्थान और जातीय समुदाय, विशिष्ट स्वास्थ्य संबंधी प्रथाओं, जीवन शैली, भोजन की आदतें, क्षेत्र, विश्वास पर आधारित है। हर जगह पर पारंपरिक पशु चिकित्सा स्वास्थ्य पद्दति के जानकार एवं अनुभवी स्थानीय आरोग्यसाधक पशुओं के इलाज के लिए मिलते हैं, जिनको आमतौर पर पशु वैद्य या कारिंदे कहा जाता है। गैर-संहिताबद्ध पद्दति स्व-स्थायी, बिना किसी एजेंसी या संस्था के मौखिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रसारित होती रहती है।

परंपरागत पशु औषधी विज्ञान की ऐतिहासिक यात्रा

कुछ क्षेत्रों में यह भी पाया गया है कि घरेलू उपचार से संबंधित ज्ञान 100 से अधिक पौधों की प्रजातियों का गठन करता है और उस क्षेत्र की प्रमुख प्रजातियों को शामिल करता है। अनार का उपयोग एसिडिटी, दस्त, कृमि, रक्ताल्पतता, मॉर्निंग सिकनेस को ठीक करने में किया जाता है। काली मिर्च क्षुधावर्धक है जो बुखार, सर्दी, खांसी को ठीक करती है। मघपीपली भी क्षुधावर्धक है जो खांसी, पेट की गड़बड़ी, बुखार, सर्दी को ठीक करती है। इसी प्रकार गुढ़हल का उपयोग बुखार, मासिक धर्म संबंधी विकार, मधुमेह, बालों का समय से पहले सफ़ेद होना इत्यादि को ठीक करता है।

और देखें :  पशुपालन में स्थानीय औषधीय पौधों का महत्व एवं प्रयोग

परंपरागत पशु औषधी विज्ञान की ऐतिहासिक यात्रा

घरेलू स्तर पर कई प्राथमिक स्वास्थ्य समस्याओं को पारंपरिक औषधीय व्यंजनों का उपयोग करके प्रबंधित किया जाता है। इन व्यंजनों को स्थानीय संसाधनों का उपयोग करके बनाया जाता है और इनको प्राथमिक चिकित्सा उपचार के रूप में उपयोग किया जा सकता है। एथनोवेटरीनरी चिकित्सा प्रणालियाँ पारिस्थितिकी तंत्र और जातीय-समुदाय विशेष के लिए विशिष्ट होती हैं और इसलिए, विशेषताओं, श्रेष्ठता, और इन प्रणालियों की सामर्थ व्यक्ति विशेष, समाज, और क्षेत्रों में काफी अलग-अलग देखने को मिलती हैं।

पशुओं को स्वस्थ्य बनाए रखने के लिए, मैककॉर्कले, मानवविज्ञानी, और एवलिन मैथियस मुंडी, पशु चिकित्सक, ने उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में उस स्थानीय ज्ञान की ओर ध्यान दिलाने के लिए 15 वर्षों तक पशु रोग उपचार से संबंधित कार्य किया है और आज ज्ञान के इसी स्वरूप को आमतौर पर एथनोवेटनरी मेडिसिन के रूप में जाना जाता है (Andrews et al. 2004)। एथनोवेटरीनरी मेडीसिन में पशुओं के स्वास्थ्य के लिए स्वदेशी पद्दतियों का उपयोग किया जाता है। विभिन्न स्थानीय स्तर पर उपलब्ध सामग्रियों का उपयोग करके पशुधन की विभिन्न प्रजातियों में मामूली स्वास्थ्य समस्याओं / रोगों के उपचार के संबंध में स्थानीय लोगों के ज्ञान और प्रथाओं के अनुसार उपचार किया जाता है (Das & Tripathi 2009)। विकासशील देशों में कई सामाजिक वैज्ञानिक, पशु चिकित्सक, पशुपालक और क्षेत्र के श्रमिक औषधीय पौधों और पशुधन की देखभाल में उनके चिकित्सीय उपयोग में रुचि रखते हैं।

परंपरागत वानस्पतिक संसाधन

स्थानीय स्वास्थ्य परंपरा में लगभग 6500 पौधे, और 50,000 हर्बल सूत्रों को प्राकृतिक संसाधन के रूप में प्रयुक्त किया जा रहा है। एथनोमेडीसिन में 33 प्रतिशत वृक्ष, 32 प्रतिशत जड़ी-बूटी, 20 प्रतिशत झाड़ीय पौधों, 12 प्रतिशत लताओं और 3 प्रतिशत अन्य संसाधनों का उपयोग किया जा रहा है।

परंपरागत पशु औषधी विज्ञान की ऐतिहासिक यात्रा

परंपरागत चिकित्सा पद्दति में औषधीय पौधों की 29 प्रतिशत जड़ों, 4 प्रतिशत कंदों, 16 प्रतिशत संपूर्ण पौधों, 14 प्रतिशत पौधों की छाल, 3 प्रतिशत लकड़ी, 6 प्रतिशत तनों, 7 प्रतिशत बीजों, 10 प्रतिशत फलों, 5 प्रतिशत फूलों एवं 6 प्रतिशत पत्तों का उपयोग किया जाता है।

आधुनिक चिकित्सा पद्दति में वानस्पतिक उपयोग

आज आधुनिक चिकित्सा पद्दति में भी 120 से ज्यादा रसायनों को पौधों से निकालकर विश्वभर में औषधी के रूप में बेचा जा जाता है जिनमें एसीटाइलडीजोक्सिन को डीजीटेलीस लनाटा व एडोनीसाइड को एडोनीस वर्नालीस से तैयार करके हृदयशक्तिर्द्धक औषधियों के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इनके अतिरिक्त एटरोपीन, बरबेरिन, बेटुलिनिक एसीड, कैम्फर, कोडीन, कुर्कुमीन, डीजिटेलिन, डीजिटोक्सीन, एमेटिन, एफेड्रिन, जीटालिन, मेंथोल, नियोएंड्रोगरैफोलाइड, निकोटिन, पैपेन, पैपावेरिन, फाइजोस्टीग्मिन, कुनीन, रेजरपीन, रयूटीन, सीलिमेरिन, स्ट्रीक्निन, थियोब्रोमिन, विनक्रीस्टीन, योहीम्बीन इत्यादि अनेक बहुत सी औषधियां पौधों से तैयार की जाती हैं (Taylor 2000)।

आधुनिक दौर में परंपरागत पशु चिकित्सा

आधुनिक विज्ञान ने समय के साथ-साथ बहुत उन्नति की है ओर असाध्य रोगों पर भी विजय प्राप्त की है लेकिन पशुओं सहित मनुष्यों में बहुत सी आधुनिक औषधियां बेअसर भी हो रही हैं। एंटीबायोटिक्स का अंधाधुंध और अतिप्रयोग बहुत बड़े स्तर पर किया जा रहा है जिससे रोगाणुओं में रोगप्रतिरोधक क्षमता भी व्यापक स्तर पर बढ़ रही है। इसी प्रकार नाॅन स्टेरायडल एंटी-इन्फलामेट्री ड्रग्स का उपयोग भी आवश्यकता से अधिक हो रहा है। आधुनिक औषधियों के अतिप्रयोग से न केवल पशुओं, मनुष्यों बल्कि इनसे पर्यावरण को भी नुकसान हो रहा है। परंपरागत पशु चिकित्सा के उपयोग से इन समस्याओं को कम किया जा सकता है।

परंपरागत पशु औषधी विज्ञान की ऐतिहासिक यात्रा

पशुओं में थनैला रोग होने पर ऐलो वेरा (250 ग्राम), हल्दी (एक मुट्ठी) और चूना (10 ग्राम) की पेस्ट के दसवें भाग को 150 – 200 मि.ली. पानी में मिलाकर दुग्ध ग्रंथि पर दिन में 8-10 बार लगाया जाता है। शाम के समय इस पेस्ट में पानी मिलाने की जगह सरसों का तेल मिलाया जाता है। इसी के साथ पीड़ित पशु को दो नींबू काटकर नमक लगाकर खिलाने से थनैला रोग 7 – 8 दिन में ठीक हो जाता है। थनैला रोग से के दौरान थन में से खून आने पर प्रतिदिन दो मुट्ठी कढ़ी पत्ता पशु को दिया जाता है। थन बंद होने की स्थिति में नीम की पत्ती के ठंडल पर मक्खन और हल्दी की पेस्ट लगाकर, थन में 6-7 दिन लगाने से ठीक होता है। लेवटी में शोफ (इडिमा) होने पर सरसों के तेल में लहसुन (2 कलियां) , हल्दी पाउडर (एक मुट्ठी) और तुलसी के पत्तों (एक मुट्ठी) को उबालकर और छान कर इस तेल को लेवटी पर दिन में तीन बार तीन दिन लगाने से लाभ मिलता है।

और देखें :  वेटरनरी होम्योपैथी का पशु चिकित्सा मैं विशिष्ट योगदान

सारांश

परंपरागत औषधीय पौधे जैसे कि जीरा, हल्दी, लहसुन, अदरक, पपीता, अमरूद, नींबू, संतरा, केला, कीवी, और बहुत सारे पौधे, प्रत्येक मनुष्य द्वारा उपयोग किया जाते हैं जो खाने में स्वादिष्ट, नवयौवन प्रदान करने वाले, उर्जावान, स्वास्थ्यवर्धक, संक्रामक विरोधी और  जीवन को बढ़ाने वाले हैं। इस प्रकार देखा तो पारंपरिक दवाएं सस्ती, सामाजिक रूप से तर्क संगत और आसानी से उपलब्ध होनी वाली हैं जिनमें कई सामाजिक वैज्ञानिक, पशु चिकित्सक, पशुपालक और क्षेत्रीय कार्यकर्ता औषधीय पौधों में रुचि रखते हैं और पशुधन की देखभाल में उनके चिकित्सीय उपयोग करते हैं। भारत में प्राकृतिक संसाधन के रूप में एक समृद्ध परंपरागत-पशु चिकित्सा स्वास्थ्य परंपरा मौजूद है।

संदर्भ

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इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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