भैंस पालन में बाधक कारक और उनका निवारण

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भारत एक कृषि प्रधान राष्ट्र है जिसका पशुपालन एक अभिन्न अंग है। हालांकि, भारत में गायों की संख्या अधिक है फिर भी अधिकांश राज्यों खासतौर से हरियाणा राज्य में भैंस के दूध के सेवन को अधिक पसंद किया जाता है। वर्ष 2019-20 में भारतीय डेयरी उद्योग के 198.4 मिलियन टन (GOI 2020) कुल दुग्ध उत्पादन में 49 प्रतिशत योगदान भैंसों का रहा है (ET 2021)। डेयरी व्यवसाय की सफलता डेयरी पशुओं की उत्पादकता और कुशल प्रजनन क्षमता पर निर्भर करती है। हालांकि, पिछले एक दशक में भैंसों की दुग्ध उत्पादन क्षमता में कुछ बढ़ोतरी हुई है लेकिन उनकी उत्पादन और प्रजनन स्थिति आदर्श स्तर से काफी कम है जो पशुपालकों के साथ-साथ पशुपालन विभाग के लिए भी एक बहुत ही गंभीर आर्थिक समस्या है। ऐसे परिदृश्य में, पशुपालकों का पशुपालन से संबंधित ज्ञान और प्रबंधन के तरीकों में सुधार उच्च उत्पादन और प्रजनन क्षमता प्राप्त करने में मदद कर सकता है।

भैंस पालन

 

प्रजनन क्षमता को प्रभावित करने वाले कारक

  1. भैंसें मौसमी प्रजनक हैं अर्थात उनमें मद मुख्य रूप से अक्टूबर से दिसंबर माह के दौरान होता है और गर्भकाल दस महीने से थोड़ा अधिक होता है, इसलिए अगस्त, सितंबर और अक्टूबर के महीनों में प्रसव होता है।
  2. भैंसों में ऊष्मा विनियमन तंत्र अच्छी तरह विकसित नहीं होता है। अतः उन्हें ग्रीष्म और शीत ऋतुओं में क्रमशः भीषण गर्मी और सर्दी से बचाना चाहिए।
  3. विदेशी या संकर नस्ल की गायों की तुलना में भैंसों की परिपक्व आयु अधिक है। आमतौर पर उनमें तीन वर्ष के बाद ही परिपक्वता आती है।
  4. भैंसों में जनवरी से जून-जुलाई के महीनों में कम प्रजनन दर होती है।

भैंसों में प्रजनन संबंधी समस्याएं

देरी से परिपक्वता (लेट मेचुरिटी)

प्रथम प्रजनन के समय पशु की आयु उसके उत्पादन काल के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। यह आयु भारतीय गायों में तीन वर्ष, संकर नस्ल की गायों में दो वर्ष और भैंसों में 3½ वर्ष है। हालांकि, प्रथम प्रसव के दौरान अधिक आयु होने की स्थिति में पहले ब्यांत में तो अधिक दुग्ध उत्पादन मिलता है लेकिन उनका जीवन काल का उत्पादन कम हो जाता है। इसके विपरीत, यदि प्रथम प्रसव आयु कम होती है तो पैदा होने वाले बच्चे कमजोर, मुश्किल स्तनपान और कम दुग्ध उत्पादन होता है।

दो ब्यांत के बीच लंबी अवधि (लॉन्ग इंटरकाविंग पीरियड)

गायों में प्रति वर्ष और भैंसों में प्रसवोपरांत 13-14 माह में बच्चे को जन्म देना अधिक लाभदायक है। यदि दो ब्यांत के बीच अधिक अंतराल होता है तो मादा की प्रसव संख्या कम हो जाती है और उसके जीवन का दुग्ध उत्पादन भी कम हो जाता है। आमतौर पर भैंसों में दो ब्यांत के बीच की अवधि 1½ से 2 वर्ष होने के कारण उनके जीवन काल में कम दुग्ध उत्पादन को बढ़ावा देती है।

लंबी गर्भधारण अवधि (लॉन्ग सर्विस पीरियड)

प्रसव के बाद सफल गर्भाधान की तिथियों के बीच की अवधि को गर्भधारण अवधि कहते हैं। 60 से 90 दिन की इष्टतम गर्भधारण अवधि मादा को प्रसव के बाद तनाव से उबरने में मदद करती है और प्रजनन अंगों को वापस सामान्य स्थिति में लाने सहायक होती है। यदि यह अवधि बहुत अधिक लंबी होती है तो दो ब्यांत के बीच की अवधि भी बढ़ जाती है जिससे प्रसव संख्या कम होने से उनका उत्पादक जीवन काल कम हो जाता है। यदि यह अवधि कम होती है तो मादा कमजोर रहती है और उसका दुग्ध उत्पादन भी कम होता है।

कम गर्भधारण दर

गायों की तुलना में भैंसों में कम गर्भधारण पाया जाता है।

बार-बार मद में आना

बार-बार मद (एस्ट्रस साइकिल) वांछित समय पर गर्भ न ठहरना पशुपालकों और पशु चिकित्सकों के लिए एक चुनौतिपूर्ण समस्या है जिसका समय पर निवारण होना अतिआवश्यक है।

प्रसवोतर मदहीनत

आमतौर ब्याने के बाद भैंसों में पोषक तत्वों की कमी, जननांगों में समस्या और संक्रमक रोगों के कारण उनमें मद के लक्षणों में पायी जाती है।

मूक मद

जिन भैंसों में मद के लक्षण साफ दिखायी देते हैं तो उनमें गर्भधारण करने में परेशानी नहीं आती है लेकिन समय परिवर्तन के साथ-साथ अब उनमें मौनावस्था में मद लक्षण होने के कारण पशुपालकों को परेशानी का सामना करना पड़ता है।

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भैंसों में कम प्रजनन क्षमता के लिए मुख्य कारक

  • शारीरिक कारक (असामान्य मद)
  • अमदकाल – मदचक्र की अनुपस्थिति
  • मूक मद – मद के दिखाई देने वाले लक्षणों का प्रदर्शन नहीं करना
  • अनियमित मद (इर्रेगूलर एस्ट्रस) – निम्फोमानिया
  • विकृति विज्ञान संबंधी कारक
  • विषाणु जनित रोग – वल्वोवेजिनाइटिस
  • जीवाणु जनित रोग – ब्रुसेलोसिस
  • प्रोटोजोआ जनित रोग – ट्राइकोमोनिएसिस
  • गैर-विशिष्ट रोग – थनैला, पूयगर्भाशयता (पायोमेट्रा)
  • पोषण संबंधी कारक
  • ऊर्जा- आहार प्रोटीन आहार में प्रोटीन की कम मात्रा
  • खनिज तत्वों की कमी
  • विटामिनों की कमी
  • पर्यावरणीय कारक
  • निम्न और अच्छी गुणवत्ता वाले हरे और सूखे चारे की उपलब्धता
  • उच्च पर्यावरणीय तापमान और उच्च आर्द्रता
  • अत्यधिक सर्दी
  • सौर विकिरण

दुधारू पशुओं की प्रतिस्थापन संख्या बढ़ाना

भैंसों की उत्पादकता कटड़ियों के पालन-पोषण पर निर्भर करती है। उनकी कम उम्र के दौरान अच्छी तरह से देखभाल करने से बीमारियों के प्रति प्राकृतिक रक्षा तंत्र को मजबूती प्रदान करती है और जिससे मृत्यु दर में कमी होने से स्वस्थ पशुओं की संख्या में बढ़ोतरी होती है। उचित भोजन, नियमित व्यायाम, कृमिरहितकरण, बाह्य परजीवियों से सुरक्षा, दस्त और पेचिश के लिए सही उपचार इस संबंध में उचित हैं।

ओसर (हिफर्ज) झोटीयों का प्रबंधन

अधिकतम विकास-वृद्धि के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले चारे और 0.5 से 1.0 किलोग्राम दाना-मिश्रण खिलाने से ओसर झोटीयों को पाला जा सकता है। यदि पशुओं को चरागाह में चराया जाता है तो गर्मियों और सर्दियों के मौसम में ओसर झोटीयों को व्यक्तिगत रूप अर्थात एक-एक को घर पर अतिरिक्त आहार भी खिलाना चाहिए। 18 माह की आयु होने पर उनको अच्छी गुणवत्ता वाला हरा और सूखा चारा खिलाना चाहिए। झोटीयों को उचित आकार और शारीरिक भार अर्थात 275 से 300 किलोग्राम शारीरिक भार होने पर ही प्रजनन कराना चाहिए। झोटीयों को 2 से 2½ वर्ष की आयु पर मद के लक्षणों को अच्छी तरह जांचना चाहिए।

ग्याभिन पशुओं का प्रबंधन

गर्भ में पल रहे भ्रूण के कुल विकास का लगभग दो-तिहाई विकास गर्भावस्था के अंतिम तीन महीनों के दौरान होता है। इस अवधि के दौरान गर्भवती भैंसों को ठीक से खिलाया और प्रबंधन किया जाना चाहिए। ग्याभिन भैंसों के उचित प्रबंधन के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिएः

  • ग्याभिन भैंसों का दुग्धोहन प्रसव से लगभग 6 से 8 सप्ताह पहले बंद कर देना चाहिए।
  • असामान्य योनि स्त्राव वाली मादाओं की जांच करके उनका उचित इलाज करवाना चाहिए।
  • ग्याभिन पशुओं को गर्भपात हुए पशुओं से अलग रखें।
  • ग्याभिन भैंसों को लंबी दूरी न चलाएं और न ही उनको दौड़ाएं।
  • ग्याभिन पशुओं की प्रसवपूर्व अच्छी आहार व्यवस्था का प्रबंध करना चाहिए।
  • उनकी खुरली में नमक की ईंटें भी उपलब्ध करवानी चाहिए।
  • प्रसव से दो सप्ताह पूर्व उनको प्रसव कक्ष में स्थानांतरित कर देना चाहिए।
  • प्रसव कक्ष में उनके नीचे नरम सामग्री का बिछावन प्रदान करें।
  • प्रसव कक्ष की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें।

गर्भावस्था की अंतिम तिमाही में ऊर्जा (स्टीमिंग अप)

गर्भावस्था के अंतिम तिमाही में भैंस के उचित पोषण-प्रबंधन को ‘स्टीमिंग अप’ कहा जाता है। इस दौरान लेवटी का उचित विकास होता है और भैंस को ऊर्जा संतुलन की स्थिति में रखता है। यह बढ़ते भ्रूण के लिए पोषक तत्वों के शारीरिक संचय को बढ़ाता है। यह प्रसवोपरांत दुग्धावधि, दुग्ध वसा में वृद्धि, प्रसव की समस्याओं को कम करता है, जेर रूकने की संभावना को कम करता है, और चपापचयी समस्याओं से बचाता है।

  • भैंसों के पाचन तंत्र को अच्छी स्थिति में रखने के लिए दस्तावार और आसानी से पचने योग्य आहार खिलाया जाना चाहिए।
  • उनको प्रतिदिन अच्छी गुणवत्ता वाले हरे चारे के साथ 2 से 2½ किलो सांद्र-दाना मिश्रण प्रदान करना चाहिए।
  • दुग्ध ज्वर की समस्या से बचाने के लिए उनको पूरक मिश्रण अच्छी गुणवत्ता वाले खनिज मिश्रण के साथ मिलाकर देना चाहिए। यह उनमें जेर रूकना और प्रजनन समस्याओं की घटनाओं को कम करने में सहायक होता है।
  • गर्भावस्था के अंतिम चरण के दौरान पशु चिकित्सक की सलाह अनुसार करवाना चाहिए।

भैंसों का प्रजनन प्रबंधन

किसी भी डेयरी फार्म की प्रगति डेयरी पशुओं के नियमित और कुशल प्रजनन पर निर्भर करती है। एक आदर्श भैंस प्रसव के बाद 13-14 माह में एक स्वस्थ्य बच्चा पैदा करती है। निम्नलिखित लक्ष्यों को प्राप्त करके समग्र प्रजनन में सुधार किया जा सकता हैः

  • गर्भधारण अवधि (सर्विस पीरियड): भैंसों में प्रसव के बाद 60 से 90 दिन तक गर्भधारण कर लेना सबसे अच्छा पाया गया है। गर्भधारण अवधि का सीधा प्रभाव प्रसव अंतराल पर होता है। यह अवधि बढ़ने पर प्रसव अंतराल भी बढ़ता है जिससे पशुपालकों को आर्थिक रूप से हानि होती है।
  • गर्भाधान संख्या प्रति गर्भ धारण (सर्विस पर कॉन्सेप्शन): यह मादा की गर्भ धारण करने की वह संख्या है जिसमें यह गणना की जाती है कि वह कितने मद संख्या में गर्भ धारण करती है। भैंसों में यह संख्या दो से कम होनी चाहिए।
  • गर्भ दर: गर्भ दर वह गणना है जिसमें कुल मादाओं की प्रतिशत गर्भधारण क्षमता को ज्ञात किया जाता है। भैंसों में गर्भ दर 60 प्रतिशत से अधिक होनी चाहिए।
  • दुग्धोत्पादन काल: किसी भी दूध देने वाली भैंस की यह वह अवधि जिसमें वह ब्याने के बाद दुग्ध उत्पादन करती है। भैंसों में यह अवधि 300 दिन की है। इससे कम दिन दूध देने वाली भैंस को आर्थिक रूप से अच्छा नहीं माना जाता है। इस अवधि के दौरान उसमें उसकी नस्ल विशेष के अनुसार निर्धारित लक्ष्य का दुग्ध उत्पादन करना चाहिए।
  • प्रसव अंतराल: दो प्रसवों के बीच की अवधि 13 से 14 महिने। प्रसव अंतराल को नियंत्रित करने के लिए किसी भी पशुपालक के लिए भैंसों में मद के लक्षणों का सही ज्ञान, समय पर उनका गर्भधारण करवाना आवश्यक है। प्रसव अंतराल बढ़ने का सीधा संबंध भैंसों के उत्पादन काल में कमी से होता है।
  • शुष्क अवधि: दुग्धोपादन के बाद कम शुष्क अवधि वाले पशु को आर्थिक रूप से पालना लाभदायक माना जाता है। भैंसों में यह अवधि 100 से 120 दिन की उचित मानी जाती है।
  • प्रजनन संबंधी समस्याएं: किसी भी प्रकार की प्रजनन संबंधी समस्याओं के कारण भैंसों के उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। भैंसों में प्रजनन संबंधी समस्याएं किसी भी हालत में पांच प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए।
  • पशु स्वास्थ्य स्थिति: प्रजनन के लिए भैंसों का सही स्वास्थ्य होना अनिवार्य है। सही स्वास्थ्य रखने के लिए उनका सही पालन-पोषण होना चाहिए। उनसे उचित लाभ लेने के लिए समय-समय पर पशु चिकित्सक से उनका निरीक्षण करवाना चाहिए। संक्रामक रोगों के निवारण हेतु उनका समय पर योग्य पशु चिकित्सक से उपचार करवाना चाहिए।
  • मद के लक्षणों की पहचान दक्षता: गायों की तरह भैंसों में मद के लक्षण साफ दिखायी नहीं देते हैं। अतः उचित लाभ लेने के लिए मद के लक्षणों का सही ज्ञान होना आवश्यक है। भैंस पालकों में यह दक्षता 90 प्रतिशत से भी अधिक होनी चाहिए। इन लक्षणों का सही ज्ञान न होने के कारण भैंसों की गर्भधारण अवधि और प्रसव अंतराल दोनों बढ़ने से पशुपालकों को आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ता है।
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प्रभावी मद के लक्षणों की पहचान

  • प्रत्येक पशु का सही रिकॉर्ड रखना।
  • मद के लक्षणों की सही पहचान होना।
  • प्रत्येक भैंस के मद के लक्षणों की संभावित तिथि लिख कर रखना।
  • मद के लक्षणों की पहचान के लिए यंत्रों की सहायता लेना।
  • गर्भाधान के लिए प्राथमिक मापदंड के रूप में स्थिर मद (स्टैंडिंग एस्ट्रस) का उपयोग।
  • शारीरिक भार बढ़ने या कम होने की प्रवृत्ति पर ध्यान दें। भैंसें मद में तब आती हैं जब वे विशेष रूप से प्रारंभिक दुग्धोहन में शरीर का भार कम करना बंद कर देती हैं।
  • अगले 21 दिन में मद में आने वाली संभावित भैंसों की सूची बनाएं और उनको ध्यानपूर्वक नित्यप्रति दिन देखें।
  • भैंसों में मद के लक्षणों की पहचान के लिए सबसे अच्छे व्यक्ति को जिम्मेदारी सौंपें।
  • भैंसों में मद की पहचान करने वाले व्यक्ति को मद के लक्षणों खासतौर से खड़े मद के लक्षणों के बारे में सही जानकारी होनी चाहिए।

स्टैंडिंग एस्ट्रस, भैंसों में मद के लक्षणों की वह समयावधि है जिसमें गर्भधारण करवाने वाली भैंस आराम से खड़ी रहती है।

भैंस में मद के लक्षण

लक्षण मद का प्रथम चरण मद का द्वितीय चरण मद का तृतीय चरण
समयावधि 0 से 12 घण्टे 12 से 20 घण्टे 20 से 24 घण्टे
उत्तेजना शुरू होती है बढ़ जाती है शांत हो जाती है
रंभाना कभी-कभी ज्यादा चुप हो जाती है
दुग्धोत्पादन कम कम सामान्य
भूख लगना सामान्य कम सामान्य
शरीर की गर्मी थोड़ी अधिक ज्यादा सामान्य
व्यवहार बेचैन, दूसरी भैंसों से अलग पशुओं में जाना चुप होना
दूसरे पशुओं से मेल सामान्य ज्यादा कभी-कभी
मूत्रावृत्ति बार-बार बार-बार सामान्य
साँड में मेलजोल कम होती है पूरी होती है कम होती है
योनी द्वार सूजन व थोड़ा खुला सूजन ज्यादा व पूरा खूला सूजन कम व सख्त हो जाता है
योनि द्वार के बाल कम सीधे खड़े लगभग सीधे खड़े कम सीधे खड़े
योनि स्राव पानी की तरह साफ, पारदर्शी, पूंछ व कूल्हों पर चिपका हुआ गाढ़ा, रस्सी की तरह लंबा और जाले की भांति मरोड़ीदार कम ही ​दिखाई देती है

 

बच्चेदानी सख्त व कठोर पूरी कठोर कठोरता कम हो जाती है

सही पालन-पोषण होने के बावजूद भी मादा गाय/भैंस का गर्भधारण न हो पाना पशुपालकों के लिए आर्थिक नुकसान का कारण बनता है। गर्भाधान करवाने के बाद यदि मादा गर्भ धारण नहीं होता है तो पशुपालकों को प्रतिदिन कम से कम 50 से 60 रूपये का नुकसान होता है। इस नुकसान से बचने के लिए पशुपालक गाय/भैंस में मद के सही लक्षणों की पहचान करके दूर कर सकते हैं। अतः मादा पशुओं में मद के सही लक्षणों को जानने के लिए पशु पालकों को सवेरे-शाम, पशु-शाला का चक्कर अवश्य लगाना चाहिए और मद में आई मादाओं की पहचान करके उनका गर्भधारण करवाना चाहिए।

गर्मी में आने के मेरे हैं लक्षण तीन-चार।
बेचैनी, तार, रम्भाना, मूत्र बार-बार।।
गर्मी को ठीक से परखो कृत्रिम गर्भाधान करवाओ।
उत्तम नस्ल के सांड की बेहतर सन्तान पाओ।।

सारांश

पशुपालन में पशओं का स्वास्थ्य ठीक रहना ही सफलता की कुंजी है। सही भैंस पालन के लिए पशुपालकों को पशु प्रजनन का उचित ज्ञान, पशु स्वास्थ्य देखभाल, संक्रामक रोगों के प्रति सचेत रहना, मद के लक्षणों का सही ज्ञान, समय पर गर्भाधान करवाना आर्थिक रूप से संपनता का प्रतीक है। पशुपालक समय-समय पर नजदीकी पशु चिकित्सक से ज्ञान अर्जित करना न भूलें।

संदर्भ

  1. ET, Economic Survey: Milk production rises by five percent to 198.4 million tonnes in 2019-20. The Economic times, January 29, 2021. Assessed on April 15, 2021. [Web Reference]
  2. GOI, Annual Report 2019-20. Department of Animal Husbandry and Dairying, Ministry of Fisheries, Animal Husbandry and Dairying, Government of India. [Web Reference]

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