पशुओं में होनें वाले न्यूमोनिया रोग और उससे बचाव

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न्यूमोनिया फेफड़ों का शोध होता है जिसमें श्वास गति बढ़ जाती है, सांस लेने में कठिनाई होती है, पशु लम्बी सांस लेता है तथा खांसी आती है। इसका प्रकोप या ता धीरे-धीरे होकर कुछ ही खंडों को प्रभावित करता है अथवा तीब्र होकर लगातार बढ़ता चला जाता है। गौ पशुओं का यह प्रमुख रोग है।

कारण

  1. संक्रमण: अनेक जीवाणु तथा विषाणु के संक्रमण से यह रोग उत्पन्न होता है। यह अधिकतर संक्रामक रोगों में पाया जाता है जैसे कि गला घोंटू । कभी कभी फेफड़े के वायुकोष में परजीवी के प्रवेष के कारण भी निमोनिया विकसित हो सकता है।
  2. ठंड लगना: सर्दी के मौसम में यदि पशु को दिन रात बाहर ही रखा जाए तो ठंड लगने से यह रोग हो सकता है। गर्म होने के बाद षीघ्र ही ठंड लग जाने, जाड़ो की बरसात में बाहर खड़े रहने, परिवहन के दौरान ठंड लग जाने तथा ठंडी रातों में चारगाह पर छूट जाने वाले पशुओं में प्रायः निमोनिया बहुत षीघ्र हो जाता है। ठंड का महत्व मुख्य रूप से युवा पशुओं में अधिक होता है। ठंड में यदि बच्चों का रखरखाव ठीक से नही किया जाता है तब भी यह स्थिति उत्पन्न होती है। गौवत्सों का यदि पैदा होने के बाद पहली रात  में ही बाहर छोड़ किया जाए तो निश्चित रूप से वह निमानिया से ग्रसित हो ताजे हैं। अतः निमोनिया रूप से वह निमोनिया से ग्रसित हो जाते हैं। अतः निमोनिया के उपचार तथा निवारण दोनों के लिए ठंड के प्रभाव पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है।
  3. गलत तरीके से नाल द्वारा दवा पिलाने से भी यह रोग होता है। यदि पशु को दवा पिलाते समय मुंह को ज्यादा ऊपर किया जाता है या किसी भी प्रकार की असावधानी की जाए तो दवा पाचननली में ना जाकर सीधे फेफड़ो में चली जाती है जिससे निमोनिया हो जाता है। कभी कभी निगलने में रूकावट पड़ने पर कुछ लोग पशु का गला चिकना करने के लिए तेल पिला देते हैं। ऐसा करने से प्रायः घातक निमोनिया होकर पशु की मृत्यु हो जाती है।
  4. पशु का लम्बे समय तक किसी भी हानिकार गैस के सम्पर्क में रहना भी इस रोग को जन्म देता है।
और देखें :  पशुओं में होनें वाले बिस्सी रोग (फैष्योलोसिस या लिवर फ्लूक रोग) और उससे बचाव

लक्षण

इस रोग से ग्रसित पशुओं की नाक बहती रहती है। पशु सही से सांस नहीं ले पाता तथा हाॅफता रहता है। वह लम्बी सांस खींचता है तथा सांस लेते समय घड़घड़ाहत की आवाज आती है। पशु खाना कम कर देता है तथा अधिक गंभीर स्थिति में खाना छोड़ देता है। पशु सुस्त व दुर्बल होता रहता हैं अधिकतर पशुओं में खांसी भी रहती है। ज्वर रहता है। शरीर का तापमान 104-105° F तक जाता है। दुग्ध उत्पादन भी कम हो जाता है।

उपचार

पशुओं को बड़े हवादार कमरे में रखना चाहिए जहां उसे शुद्ध हवा मिल सके। यदि पशु को ठंड लगी हो तो उसे बढिया से ढक कर रखना चाहिए। यदि पशु में बुखार रहता है तो उसमें एन्टीबायोटिक देनी चाहिए। इसे दिन में दो बार कम से कम 3 दिनों तक या फिर जब तक बुखार बना रहे तब तक देना चाहिए। साथ ही में सूजन कम तथा यकृत मजबूत करने के लिए दवाई देनी चाहिए। पशु को निकटतम पशु चिकित्सक से तुरन्त सम्पर्क करना चाहिए।

और देखें :  कॉन्टेजियस बोवाइन प्लयूरो निमोनिया: (सीं.बी.पी.पी.)

दवा पिलाने में सावधानी

  1. दवा पिलाते समय पशु के सिर को अधिक ऊूंचा नहीं रखना चाहिए।
  2. दवा से भरी हुई बोतन या बांस की नाल को मुहँ के आगे से डालने के बजाय एक तरफ से डालें।
  3. जीभ को पकड़ कर बाहर नहीं निकालें, बल्कि उसे अन्दर स्वतंत्र रखें, ताकि दवा पिलाते समय जीभ दवा को अन्दर निगल सके। यदि जीभ बाहर निकाल दिया जाए तो दवा बाहर गिरेगी और पेट की बजाय फेफड़ों में चली जाएगी।
  4. दवा के घोल को एकाएक मुहँ के अन्दर खाली नहीं करें, बल्कि पशु के निगलते रहने के साथ-साथ दवा धीरे-धीरे मुहँ में डालें।
और देखें :  पशुओं में पूयगर्भाशयता (पायोमेट्रा): कारण एवं निवारण
इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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