पशुओं में दुग्ध ज्वर: मिल्क फीवर

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परिचय

यह एक विकार है जिसके लिए उच्च उत्पादन वाली गायें/भैंसें अधिक संवेदनशील होती हैं। यह बीमारी मुख्य रूप से संकर तथा विदेशी नस्ल की गायों में अधिकतर देखी गई है जो ज्यादा मात्रा में दूध देती हैं। गाय-भैंसों के अलावा भेंड-बकरियों की दुधारू नस्लें जिनका दूध उत्पादन अधिक है और उन्हें खूँटे से बांधकर पालते हैं उनमें यह रोग होने की संभावना होती है। यह एक चयापचय संबंधी रोग है जो ब्याने के कुछ समय पूर्व अथवा बाद में होता है। यह रोग आमतौर पर बयान्त के बाद ही होता है क्योंकि उस समय दूध देने के कारण पशु के शरीर में कैल्सियम की कमी हो जाती है। दुग्ध उत्पादन के शुरुआती समय में जब कोलस्टरम और दूध उत्पादन के लिए कैल्सियम की मांग और शरीर की कैल्सियम जुटाने की क्षमता अधिक हो जाती है तब यह बीमारी पशुओं में होती है। इस बीमारी में पशु शारीरिक रूप से कमजोर हो जाता है जिसके कारण बुखार भी आ जाता है। इसे प्रसवकालीन ज्वर, दूध का बुखार तथा प्रसवकालीन रक्त मूर्दा के नाम से भी जाना जाता है। इसमें मुख्यतः मांसपेशियाँ कमजोर हो जाती हैं और शरीर में रक्त संचार काफी कम व धीमी गति से होने लगता है जिससे पशु सुस्त और बेहोश हो कर निढाल पड़ जाता है। इसमें पशु एक तरफ पेट और गर्दन मोड़ कर बैठा रहता है और पशु के शरीर का तापमान समान्य के कम होता है तथा शरीर ठंडा पड़ जता है।

सामान्य रूप से गाय-भैंस में सीरम कैल्शियम स्तर 10 मिलीग्राम प्रति 100 ml होता है। जब रक्त में कैल्शियम का स्तर 7 मिलीग्राम प्रति 100 ml से कम हो जाता है तब पशुओं में दुग्ध ज्वर के लक्षण प्रकट होने लगते हैं।

दुग्ध ज्वर के कारण

ब्यांत के समय मुख्यतः निम्न कारणों से रक्त में कैल्शियम की कमी होती है-

  • व्यौने के बाद कोलेस्ट्रम के साथ बहुत सारा कैल्शियम (12-13 गुना) शरीर से बाहर आ जाता है, क्योंकि दूध और कोलोस्ट्रम उत्पादन रक्त से कैल्शियम (और अन्य पदार्थ) निकालते हैं, और कुछ गाय कैल्शियम को तेजी से हड्डियों से रक्त में लाने में असमर्थ होती हैं।
  • बूढ़ी गायों में पांचवें या छठी बार ब्याने तक दुग्ध ज्वर की संवेदनशीलता बढ़ जाती है क्योंकि वे अधिक दूध का उत्पादन करते हैं और रक्त कैल्शियम को जल्दी से बदलने में सक्षम नहीं होते।
  • आहार में कैल्शियम की मात्रा आवश्यकता से अधिक होती है, तो आंत से कैल्शियम को अवशोषित करने की क्षमता और कंकाल से कैल्शियम को स्थानांतरित करने की दक्षता दोनों बहुत कम हो जाती हैं और दूध के बुखार की संभावना बहुत बढ़ जाती है।
  • ब्याने के कुछ दिनों से लेकर गायों को जितना संभव हो उतना कैल्शियम तथा फलीदार चारा देना चाहिए जो घास टिटैनि (grass tetany) के साथ-साथ दुधारू बुखार को रोकने में मदद करेंगे।
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दुग्ध ज्वर के लक्षण

दुग्ध ज्वर के लक्षणों को मुख्यतः तीन अवस्थाओं में बाँटा गया है-

  • प्रथम अवस्था – रोग का प्रारम्भिक लक्षण बच्चा देने के बाद 12 से 72 घण्टे के अन्दर दिखाई देता है। इस अवस्था में पशु के शरीर का तापमान समान्य से थोड़ा बढ़ा हुआ होता है। पशु उत्तेजित सा प्रतीत होता है और उसकी आँखें डरावनी सी लगती हैं। इसके अलावा शरीर में कंपन, सिर हिलाना, अपनी पूँछ ऐंठना, जीभ बाहर निकालना और दांत किटकिटाना आदि लक्षण दिखाई देते हैं। आशिंक लकवा, शरीर और पिछले पैरों में अकड़न के कारण पशु गिर जाता है। पशु चारा-दाना खाना बन्द कर देता है।
  • द्वितीय अवस्था – इसे उरास्थी पर बैठी हुई अवस्था भी कहते हैं। रोग की इस अवस्था में पशु खड़ा नहीं हो पाता है और अपना सिर या तो मोड़कर छाती पर रख लेता है या आगे की ओर खींचकर भूमि पर रख देता है। शरीर का तापमान सामान्य से कम हो जाता है। जिससे शरीर ठंडा पड़ जाता है। पशु खाना-पीना बन्द कर देता है और उसका मुंह शुष्क हो जाता है। आँखें शुष्क और भीतरी झिल्ली लाल हो जाती है और पलक झपकना भी बंद हो जाती है। इस अवस्था में हृदय ध्वनि धीमी, नाड़ी कमजोर, रक्त चाप कम और हृदय की गति बढ़ जाती है।
  • तृतीय अवस्था – इस अवस्था में पशु बेहोश होकर सांसें भरता हुआ एक करवट लेटा रहता है। शरीर का तापमान बहुत ज्यादा कम हो जाता है जिससे उसका पूरा शरीर ठण्डा पड़ जाता है। कान नीचे की ओर झुक जाते हैं, नाड़ी गई अनुभव नहीं होती तथा हृदय ध्वनि भी सुनवाई नहीं पड़ती और हृदय गति बढ़कर 120 प्रति मिनट तक पहुँच जाती है। पशु के एक करवट बैठे रहने की वजह से अफारा भी हो जाता है और कभी-कभी मुंह से पाचित चारा-दाना भी निकलने लगता है।
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दुग्ध ज्वर का उपचार

बीमार पशु के लक्षण देखकर तुरंत पशु-चिकित्सक से संपर्क करें। सही समय पर इलाज से यह बीमारी ठीक हो जाती है और दूध उत्पादन में भी कमी नहीं होती। समय रहते यदि पशुओं का इलाज नहीं किया गया तो पशुओं की मांशपेशियों में लकवा भी हो सकता है। चूंकि यह बीमारी रक्त में कैल्शियम की कमी के कारण होती है तो कैल्शियम की पूर्ति के लिए कैल्शियम बोरोग्लूकोनेट का इन्जेक्शन नस में अथवा चमड़ी के नीचे (sub-cutaneous) दिया जाता है। इसके अलावा पशु में हो रहे अन्य लक्षणों की भी दवाई देते हैं।

दुग्ध ज्वर का बचाव एवं रोकथाम

 जैसा कि कहा जाता है ‘उपचार से परहेज अच्छा है’ को ध्यान में रखते हुए दुधारू पशुओं को संतुलित आहार खिलना चाहिए। उपापचयी बीमारियाँ जैसे दुग्ध ज्वर, केटोसिस आदि असंतुलित आहार, कुपोषण तथा उचित रख-रखाव की कमी के कारण होती हैं। जिसका सही समय पर इलाज करने से पशु ठीक हो जाता है। इलाज में मे देरी होने से पशु का दूध उत्पादन घट जाता है और दुधारू पशु की मृत्यु भी हो सकती है। आहार प्रबंधन दुधारू बुखार को रोकने में मूल्यवान है। दूध देने वाली पशुओं को कम कैल्शियम आहार पर रखना चाहिए। यह हड्डियों से कैल्शियम को रक्त में लाकर कैल्शियम के स्तर को सामान्य रखने की नियमित प्रणाली को उत्तेजित करता है। इसके अलावा दुग्ध ज्वर से बचाव के लिए निम्न बातों को ध्यान रखना चाहिए-

  • दुधारू पशुओं का बयान्त के डेढ़ से दो महीने पहले दूध निकालना बंद कर देना चाहिए।
  • गर्भावस्था के दौरान पशु को अच्छी गुणवत्ता के खनिज लवण देना चाहिए, जिसमें कैल्शियम की मात्रा 100 ग्राम प्रति दिन से ज्यादा नहीं होनी चाहिए।
  • बयाने के 3-4 सप्ताह पूर्व से पशु को कम कैल्शियम खिलाना चाहिए। गर्भावस्था के अंतिम महीने में फॉसफोरस ज्यादा तथा कैल्शियम कम मात्रा में पशु के लिए अच्छा होता है।
  • पशु के ब्याने के तीन दिनों तक पूरा खीस नहीं निकालना चाहिए।
  • बीमार पशु के ठीक होने के बाद विटामिन-डी का इन्जेक्शन लगाने से दोबारा बीमारी होने का खतरा कम होता है।
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इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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