हरी खाद का उपयोग से फसल की उत्पादकता में बढोतरी

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हमारे देश में मृदा उवर्रता एवं उत्पादकता बढाने में हरी खाद का उपयोग प्राचीनकाल से चला आ रहा है। भूमि पर लगातार फसल उत्पादन के कारण मिट्टी में नेत्रजन एवं कार्बनिक पदार्थ की कमी बनी रहती है साथ ही, हमारे देश की जलवायु गर्म होने के कारण मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ ईधन की तरह नष्ट होता रहता है साथ ही किसान भाई कम संख्या में पषु पालने लगे हैं जिससे मिट्टी में गोबर के रुप में कार्बनिक पदार्थो की मात्रा कम होती जा रही है जिसका विकल्प हरी खाद हो सकता है। इन मुख्य कारणो से हमारे देश के मिट्टियों में औसतन नेत्रजन 0.03 से 0.07 प्रतिशत तथा कार्बन 1.6 प्रतिशत तक ही पाया जाता है।

सीमित संसाधनों के समुचित उपयोग के लिए कृषक एक फसली और द्विफसली कार्यक्रम एवं विभिन्न फसलचक्र का प्रयोग करते है जिससे मिट्टी में उपस्थित पौधों की वृ्द्धि के लिए आवश्यक पोषक तत्व नष्ट होते जा रहे हैं। इसकी क्षतिपूर्ति के लिए कृषक विभिन्न तरह के उर्वरकों एवं खादों का उपयोग करते है जिससे मिट्टी में केवल नेत्रजन, फॉस्फोरस, पोटाष, जिंक आदि जैसे आवश्यक पोषक पत्वों की ही पूर्ति होती है, परंतु भूमि की संरचना, उसकी जल-धारण क्षमता एवं उसमें उपस्थित सूक्ष्म जीवाणुओं की रासायनिक क्रियाशीलता बढ़ाने में इसका कोई योगदान नहीं होता है।

देश में प्रयोग में लाये जाने वाले कार्बनिक पदार्थ जैसे गोबर आदि का, एक तो, ईधन के रुप में नष्ट किया जाता है। दूसरा, इसकी षेष मात्रा जो खाद के रुप में प्रयोग की जाती है इससे अधिकांश पोषक तत्व मिट्टी में उद्वीलन के द्वारा नष्ट हो जाते है। तीसरा, अधिकतर कृषक कम्पोस्ट खाद को तैयार करने की विधियों से अनभिज्ञ है। अतः वर्तमान समय में खेती में रासायनिक उर्वरको के असंतुलित प्रयोग और सीमित उपलब्धता, बढ़ते ऊर्जा संकट, उर्वरको के मूल्यों में वृद्धी तथा गोबर की खाद एवं अन्य कम्पोस्ट की सीमित आपूर्ति जैसे कारणो से हरी खाद का महत्व काफी बढ़ गया है। और तभी हम खेती की लागत को कम कर फसलों की प्रति एकड़ उपज को बढ़ा सकते है, साथ ही मिट्टी की उर्वराशक्ति को भी अगली पीढ़ी के लिए बरकरार रख सकते हैं। अतः हमें हरी खाद के यथासंभव उपयोग पर गंभीरता से विचारकर क्रियान्वयन करना चाहिए। इस प्रकार उपरोक्त तथ्यों के आधार पर हम यह कह सकते है कि खेती में हरी खाद, उस सहायक फसल को कहते है जिसकी खेती मुख्यतः भूमि में पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों को बढ़ाने तथा उसमें जैविक पदार्थो की पूर्ति करने के उद्देश्य से की जाती है।

हरी खाद के हेतु प्रयुक्त फसलें

विभिन्न मौसम में हरी खाद के लिए प्रयोग होने वाली मुख्य फसलें निम्नलिखित है।

खरीफ मौसम की फसलें

दलहनी फसलें:

खरीफ मौसम में हरी खाद के लिए प्रयोग में लायी जानेवाली मुख्य फसलें निम्नलिखित है।

  1. सनई: हमारे देश में हरी खाद के लिए प्रयोग की जाने वाली मुख्य फसल है। इसे मानसून के षुरु में वर्षा होने पर बोते है। इसे सभी प्रकार की मिट्टियों में उगा सकते हैं। खेत में जल निकास होना आवश्यक है।
  2. ढ़ैचा: देश में हरी खाद के लिए ढ़ैचा को सनई के बाद, दूसरा स्थान हैं। इसे सभी प्रकार की मिट्टियों में उगा सकते है और यह सभी प्रकार के जलवायु के प्रति सहिष्णु है। खेत में अंकुरण हेतु नमी आवश्यक है, बाद में नमी की कमी की स्थिति में स्वंय वृद्धि कर लेती है।
  3. सेसवेनिया स्पेसिओसाः यह ढ़ैचा से भी अधिक सूखा के प्रति सहनशील है।
  4. मूंग, उरद, मोढ आदि।
  5. अन्य फसलें – लोबिया, ग्वार, कुल्थी, सोयाबीन आदि।
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अदलहनी फसलें:

मक्का, ज्वार, भाँग, सूरजमुखी आदि मुख्य अदलहनी फसलें है।

रबी मौसम की फसलें

दलहनी फसलें:

रबी मौसम में हरी खाद के लिए उगायी जाने वाली मुख्य दलहनी फसलें – मेंथी, मसूर, खेसारी, सेंजी, मसूर, बरसीम आदि है। बरसीम की 3-4 कटाई के बाद, हरी खाद के रुप में प्रयोग कर लेते है।

अदलहनी फसलें:

रबी मौसम में मुख्य रुप से जई को अदलहनी हरी खाद की फसल के रुप में प्रयोग कर सकते है। इसके अलावा राई, सरसों, जौ, शलजम आदि भी हरी खाद की फसल के रूप मे प्रयोग कर सकते हैं।

उपरोक्त फसलों के अतिरिक्त भी कई फसलों का प्रयोग हरी खाद रुप में किया जाता है लेकिन जब हरी खाद की फसल किसी कारणवश उस खेत में उगाना सम्भव नहीं हो तब पेड़-पौधों एवं झाड़ियों की पत्तियों एवं कोमल टहनियों को भी हरी खाद के लिए प्रयोग किया जा सकता है परन्तु, उपरोक्त सभी फसलों में सनई एवं ढ़ैचा फसलें ही विशेष रुप से हरी खाद के लिए प्रयोग की जाती है।

हरी खाद के लाभ

हरी खाद के प्रयोग से मिट्टी में निम्नलिखित लाभ होते है-

  1. हरी खाद के प्रयोग से मिट्टी में न केवल नेत्रजन एवं कार्बनिक पदार्थ की मात्रा में बढ़ोतरी होती है बल्कि उससे मिट्टी में विभिन्न प्रकार कई अन्य पोषक तत्व की उपलब्ध होते है।
  2. हरी खाद के प्रयोग से मिट्टी में सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या एवं क्रियाशीलता बढ़ने के साथ-साथ मिट्टी की उर्वरता एवं उत्पादन क्षमता में भी बढ़ोतरी होती है।
  3. हरी खाद के प्रयोग से मिटी भुरभुरी, जलधारण क्षमता में बढ़ोतरी अच्छी वायुसंचार में वृद्धि, मृदा क्षरण मे कमी तथा भूमि की अम्लीयता/क्षारीयता दशा में भी सुधार होता है।
  4. अनुपलब्ध पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि होती है।
  5. खेत में खरपतवार का नियंत्रण में सहायक है।
  6. मुख्य फसल की उत्पादन क्षमता में वृद्धि होती है।
  7. रासायनिक उर्वरको की मा़त्रा में कमी के कारण खर्च में बचत होती हैं।

हरी खाद के लिए प्रयोग की फसलों के आवश्यक गुण

      एक अच्छी हरी खाद की फसल में निम्नलिखित गुणों का होना आवश्यक है।

  1. फसल कम समय में शीघ्र वृद्धि करने वाली हो।
  2. फसल की जड़े मिट्टी में गहराई तक जाने वाली हो जिससे वह गहराई तक जाकर पोषक तत्वों का अवशोषण कर सके जो बाद में मुख्य फसल को उपलब्ध होता है और उत्पादन में बढ़ोतरी होती है ।
  3. फसल कम नमी में भी वृद्धि करने वाली हो।
  4. फसलो की पोषक तत्वों की माँग भी कम हो।
  5. फसल विभिन्न प्रतिकूल परिस्थितियों जैसे सूखा, अधिक गर्मी, अतिवृष्टि और अनावृष्टि आदि सहन करने की क्षमतावाली हो ।
  6. फसल के पौधें की वनस्पतिक वृद्धि, तने, शाखाऐं एवं पत्तियाँ अधिक से अधिक हों।
  7. फसल के वानस्पतिक भाग मुलायम हो जिससे सड़न की प्रकिया यथाशीघ्र हो।
  8. फसल का बीज सस्ती दर पर एवं आसानी से उपलब्ध हो।
  9. फसल में बीज उत्पादन की क्षमता भी अधिक हो।
  10. फसल का उत्पादन खर्च कम से कम हो।
  11. फसल विभिन्न प्रकार की मिट्टियों में उगने वाली हो।
  12. फसल विभिन्न प्रकार के कीट-व्याधियों के प्रति सहनशील हो।
  13. फसल मिट्टी को अधिकतम मात्रा में नेत्रजन प्रदान करने वाली हो ।
  14. फसल कई उदेष्यों को पूरा करने वाली हो जैसे चारा,रेशा, हरी खाद, बीज उत्पादन आदि।
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हरी खाद की बुआई का समय एवं बीज दर

जैसा कि विदित है कि हमारे देश में विभिन्न प्रकार क ऋतुऐं हैं। इसीलिए देश में सभी क्षेत्रो के लिए हरी खाद की फसलों की बुआई के लिए एक समान समय निर्धारित नही किया जा सकता है फिर भी यह कहा जा सकता है कि अपने क्षेत्र विशेष के लिए अनुकूल हरी खाद के फसल का चुनाव करके उसके बुआई वर्षा प्रारम्भ होने के तुरन्त बाद कर देनी चाहिए वैसे यदि सिंचाई कि सुविधा उपलब्ध हो तो इसकी बोआई वर्षा प्रारंभ होने से पहले भी कि जा सकती है क्योंकि बुआई के समय मिट्टी में प्रर्याप्त नमी होना आवश्यक है। जहाँ तक बीज की मात्रा का सवाल है तो जिस हरी खाद की फसलों के बीज छोटे होते हैं उनकी बीज दर 25-30 किलों तथा बड़े आकार कि बीज वाली फसलों का बीज दर 40-50 किलों प्रति हेक्टेयर तक प्रर्याप्त होता है।

हरी खाद देने कि विधियाँ

हमारे देश में मिटी की किस्म एवं जलवायु के विभिन्नताओं के कारण अलग-अलग राज्यों में हरी खाद देने की भिन्न भिन्न तरीकें प्रयोग में लाये जाते है वैसे हरी खाद देने के लिए मुख्य रूप निन्मलिखित विधियाँ अपनाई जाती है।

  1. हरी खाद कि रासायनिक विधि- इस विधि में जिस खेत में हरी खाद की फसल उगाई जाती है उसी खेत में उसको पलट कर दबा दिया जाता है, इस विधि को वैसे क्षेत्रों में अपनाई जाती है जहा अच्छी वर्षा होती हैं अथवा समुचित सिंचाई का साधान उपलब्ध हो खेत में नमी के अभाव में फसल की सड़न भलीभाँति नहीं होती है जिसके कारण अगामी फसल की पैदावार प्रभावित होती है इस विधि में फूल आने से पहले ही वानस्पतिक वृद्धि काल 40 से 45 दिन में मिट्टी में 12 से 20 से.मी. गहराई में पलट दिया जाता है और यदि फसल को मिश्रित रूप बुआई की गई हो तो उसे उपयुक्त समय पर जुताई कर के खेत में दबा दिया जाता है ।
  2. हरी पतियों की हरी खाद- यह विधि वैसे क्षेत्रों में प्रयोग की जाती है जहा वर्षा कम होती है अथवा मिट्टी मे नमी का अभाव होती है इस विधि में एक क्षेत्र के पेड़ पौधों की हरी पत्तियों तोड़ कर या हरी खाद की फसल उगा कर दूसरे क्षेत्र के खेत में दबा दिया जाता है।

समुचित उर्वरक प्रबंधन

जहाँ की मिट्टी मे उर्वरकता कि कमी हो वहाँ 15 से 20 किलों प्रति हेक्टेयर नत्रजनीय उर्वरक एवं 40 से 50 किलों कम्पोस्ट का प्रयोग उपयोगी होता है।

हरी खाद की प्रयोग की सीमायें

हमारे देश में हरी खाद की प्रचलन में कुछ निम्नलिखित बाधायें है जिनकें कारण  कृषक के लिए हरी खाद उगाना आसान नहीं है।

  1. किन्ही-किन्हीं क्षेत्रों में कृषको को हरी खाद की फसल का बीज उपल्ब्ध नही हो पाता है अतः कृषक उगाने में असमर्थ होता है ।
  2. कुछ क्षेत्रों में कृषको को हरी खाद को खेत में पलटने के यंत्र भी उपलब्ध नहीं हो पता है साथ ही अधिकांश कृषक हरी खाद की फसल को मिट्टी में दबाने की तकनीक से भी पूर्णतः अवगत नहीं है।
  3. कम वर्षा वाले क्षेत्रों में हरी खाद की फसल खेत में नमी के कारण नहीं उगाते है क्योंकि कम नमी के कारण फसलों का पूर्णतः सड़न नहीं होता है जो अगली फसल के उत्पादन में कमी का कारण बनता है।
  4. किसी क्षे़त्र विशेष में मौसम की विषमता के कारण हरी खाद की बढ़बार और उसे खेत में दबाने में बाधा होती है।
  5. विशेष रूप से खरीफ के मौसम में फसल की बढ़बार के लिए वर्षा नहीं होने पर सिंचाई का उचित प्रबंध नही हो जाता है।
  6. विकार ग्रस्त (लवणीय, क्षारीये, अम्लीय, जलमग्न भूमि व पथरीली आदि) मृदाओं के लिए उपयुक्त हरी खाद खाद की फसल का बीज समय पर नही मिल जाता है।
  7. हरी खाद उगाने के लिए उचित प्रचार प्रसार एवं ज्ञान की कमी है।
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