दुग्ध ज्वर एक मेटाबोलिक (उपापचयी) रोग है जिसे अंग्रेजी में मिल्क फीवर तथा आम बोलचाल की भाषा में सुन्नपात का रोग कहा जाता है। मिल्क फीवर गाय या भैंस में ब्याहने से दो दिन पहले से लेकर तीन दिन बाद तक होता है। परन्तु कुछ पशुओं में यह रोग ब्याने के पश्चात 15 दिन तक भी हो सकता है। मिल्क फीवर पशु के शरीर में कैल्शियम की कमी के कारण होता है। मिल्क फीवर ज्यादातर अधिक दूध देने वाली गाय या भैंस में होता है परन्तु यह रोग भेड़ बकरियों की दुधारू नस्लों में भी हो सकता है।
यह रोग प्रमुख रूप से अधिक दूध देने वाली गायों व भैसों के रक्त में ब्याने के बाद कैल्शियम स्तर में एकाएक गिरावट के कारण होता है। इसलिए इस रोग के लक्षण, उपचार एवं इस रोग से बचाव की जानकारी सभी पशुपालकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। सामान्य रूप से गाय-भैंस में खून में कैल्शियम स्तर 10 मिलीग्राम प्रति डेसी-लीटर होता है, जब कैल्शियम स्तर 7 मिलीग्राम प्रति 1डेसी-लीटर से कम हो जाता है तो पशु में दुग्ध ज्वर के लक्षण प्रकट होने लगते हैं।
पशुओं में कैल्शियम की कमी होने के प्रमुख कारण क्या हैं?
ब्याहने के बाद कोलेस्ट्रम के साथ अधिक मात्रा में कैल्शियम शरीर से बाहर आ जाता है। कोलेस्ट्रम में रक्त से 12-13 गुना तक अधिक कैल्शियम होता है। ब्याहने के बाद अचानक कोलेस्ट्रम निकल जाने के बाद हड्डियों से शरीर को तुरंत कैल्शियम नहीं मिल पाता है। ब्याहने के बाद यदि पशु को कम आहार दिया जाए दो अमाशय व आंत अपेक्षाकृत कम सक्रिय होने से कैल्शियम का अवशोषण काफी कम होता है। इससे पशु के शरीर में कैल्शियम की कमी हो जाती है। मांसपेशियों कमजोर हो जाती है। शरीर में रक्त का दौरा काफी कम व धीमी गति से होता है। अंत में, पशु सुस्त और बेहोश हो कर निढाल पड़ जाता है। पशु एक तरफ पेट और गर्दन मोड़ कर बैठा रहता है। इमसें पशु के शरीर का तापमान सामान्य से कम होता है तथा शरीर ठंडा पड़ जाता है। साधारणतया शरीर के तापमान बड़ने को ज्वर कहा जाता है परन्तु दुग्ध ज्वर में शरीर का तापमान सामान्य से कम हो जाता है, इसे फिर भी दुग्ध ज्वर ही कहा जाता है।
दुग्ध ज्वर (MILK FEVER) के लक्षण
रोग की प्रथम अवस्था उतेजित अवस्था है जिसमें पशु अधिक संवेदनशीलता हो जाता है, उत्तेजना, टेटनस जैसे लक्षण, चारा-दाना नहीं खाना, सिर को इधर-उधर हिलाना, जीभ बाहर निकालना और दांत किटकिटाना, तापमान समान्य से थोड़ा बढ़ा हुआ, शरीर में अकड़न, पिछले पैरों में अकड़न, आशिंक लकवा जिसके कारण पशु कभी कभी गिर भी जाता है। प्रारंभिक अवस्था के लक्षण लगभग तीन घंटे तक दिखाई देते हैं तथा इस अवस्था के रोग की पहचान केवल अनुभवी किसान या पशु चिकित्सक ही कर पाते हैं। यदि इस अवस्था में पशु का उचित उपचार नहीं किया जाए तो पशु रोग की दूसरी अवस्था में पहुँच जाता है।
रोग की द्वितीय अवस्था में पशु गर्दन मोड़कर बैठ जाता है तथा इसे उरास्थी पर बैठी हुई अवस्था भी कहते हैं। पशु अपनी गर्दन को पार्श्व भाग की ओर मोड़कर निढाल सा बैठा रहता है, पशु खड़ा नहीं हो पाता है। शरीर का तापमान सामान्य से कम हो जाता है। जिससे शरीर ठंडा पड़ जाता है। मुख्यतः पैर ठंडे पड़ते हैं। आंखें सुख जाती है। आँख की पुतली फैलकर बड़ी हो जाती है। आँखें झपकना बंद हो जाता है। प्रथम अमाशय की गति काफी कम हो जाती है जिससे कब्ज होती है। गुदा की मांसपेशियों में ढिलाई पड़ जाती है। हृदय ध्वनि धीमी हो जाती है, नाड़ी कमजोर हो जाती है, जबकि हृदय गति बढ़कर 60 प्रति मिनट तक हो जाती है। रक्त चाप कम हो जाता है। यदि उपचार न किया गया तो रोग की तीसरी अवस्था में पहुच जाता है।
रोग की तृतीय अवस्था इस अवस्था में पशु लेटा रहता है तथा बेहोशी की हालत में आ जाता है। शरीर का तापमान बहुत ज्यादा कम हो जाता है। नाड़ी की गति अनुभव नहीं होती तथा हृदय ध्वनि भी सुनवाई नहीं पड़ती है हृदय गति बढ़कर 120 प्रति मिनट तक पहुँच जाती है। पशु के बैठे रहने की वजह से अफारा भी हो जाता है। उसका सारा शरीर ठण्डा पड़ जाता है। पशु बेहोश होकर सांसें भरता हुआ पड़ा रहता है, कभी-कभी मुंह से पाचित चारा-दाना भी निकलने लगता है, यहाँ तक कि गोबर भी।
दुग्ध ज्वर (MILK FEVER) का उपचार
उपचार जितना जल्दी हो सके करना चाहिए। इसके लिए पशुचिकित्सक से सम्पर्क करें। क्योंकि यदि पशु एक बार तृतीय अवस्था में पहुँच जाता है तो मांसपेशियों में लकवा हो जाता है और पशु की जान भी जा सकती है। इसकी सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा कैल्शियम की आपूर्ति करना होता है, जिसे इंजेक्शन के रूप में शरीर में प्रवेश किया जाता है। इसके लिए कैल्शियम ग्लूकोनेट को कैल्शियम बोरोग्लूकोनेट के रूप में दिया जाता है, यह दवाएं बाजार में कई नामों से उपलब्ध है। यदि पशु दवा की खुराक देने के 4-5 घंटे के भीतर उठकर स्वयं खड़ा नहीं होता है तो इसी दवा की एक और खुराक दे देनी चाहिए। ध्यान रखना चाहिए कि यह दवा धीरे-धीरे 10-20 बूंदें प्रति मिनट की दर से चढ़ानी चाहिए। इस रोग से ठीक हुए पशु को विटामिन D का इंजेक्शन भी देना चाहिए ताकि पशु दुबारा बीमार न हो। दो तीन दिन तक रोजाना नौसादर गुड़ में मिलाकर देना चाहिए ये पशु के शरीर से कैल्शियम की निकाशी को कम करता है।
दुग्ध ज्वर (MILK FEVER) में सावधानियां और बचाव
“उपचार से परहेज अच्छा है’’ इस कहावत को ध्यान में रखते हुए यदि पशुपालक दुधारू पशुओं को संतुलित दाना देते रहें तो पशुओं में इस बीमारी के होने की संभावना कम रहती है। दुग्ध ज्वर (MILK FEVER) असंतुलित खानपान तथा कुपोषण की वजह से ही होती हैं, जिनका समय पर इलाज होने से पशु जल्दी ठीक हो जाता है। इस रोग के इलाज में देरी करने से पशु का दूध उत्पादन घट जाता है या तीव्र अवस्था में दूधारू पशु की मृत्यु भी हो सकती है।
- अधिक दूध देने वाले पशु को ब्याहने से एक महीने पहले से अच्छी खनिज लवण देना शुरू कर देना चाहिए।
- दुधारू पशुओं को ब्याने से ब्याहने से दो महीने पहले दूध निकालना छोड़ देना चाहिये।
- अधिक दूध देने वाली संकर गायों में यह समस्या ज्यादा रहती है तो इनमें अधिक सावधानी से खिलाई पिलाई करनी चाहिए।
- ब्याहने के बाद 3 दिनों तक पूरा खीस नहीं निकालना चाहिए।
- सर्दी के मौसम में हरे चारे में कैल्शियम की मात्रा कम होती है, इसलिये पशु की दानें में खनिज मिश्रण अवश्य मिलाएं
- गर्भावस्था में ज्यादा मात्रा में दी गयी कैल्शियम से भी शरीर को नुकसान पहुँच सकता है अतः यह ध्यान रखना चाहिये कि दिए जाने वाले खनिज मिश्रण में कैल्शियम की मात्रा 100 ग्राम/दिन से ज्यादा न हो।
- विटामिन-D का इंजेक्शन भी बीमारी से ठीक हुए पशु को लगाने से दोबारा इस बीमारी को होने बचाता है।
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