पशु प्रेम एवं पशु कल्याण का सामाजिक जीवन में महत्व

4.2
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भारतवर्ष में लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि एवं कृषि संबंधी व्यवसायों पर निर्भर करती है। शहरों और गाँवों का आपस में गहरा संबंध है क्योंकि ग्रामीण आँचल में पैदा होने वाला खाद्यान एवं कच्चा माल शहरों में भेजा जाता है और आवश्यक दैनिक वस्तुएं ग्रामीण आँचल में जाती है। इस प्रकार देखा जाए तो गाँव किसी भी राष्ट्र की विकास की धुरी हैं। अतः यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए ‘भारत का विकास गाँवों में बसता है’।

यह भी सर्वविधित है कि पशुपालन और कृषि व्यवसायों का आपस में गहरा संबंध जो प्राचीन काल से ही मानव सभ्यता खासतौर से ग्रामीण आंचल में प्रचलित हैं। वास्तव में, प्राचीन काल से ही मानव की समृद्धि कृषि सहित पशुधन संपदा से जुड़ी हुई है। किसान अपनी मेहनत से खाद्यान्न की पैदावार करके राष्ट्र के भण्डार को भरता है तो पशुपालक भी दूध अण्डा, मीट, ऊन, चमड़े के रूप में अपनी भागीदारी करता है। यदि किसान उत्पादित अन्न बेचकर आमदनी करते हैं तो पशुओं से उत्पादित दूध एवं उसके उत्पाद जैसे कि घी, दही, मक्खन, पनीर, छाछ बेचकर न केवल अच्छी आमदनी अर्जित करते हैं बल्कि किसी खास अवसर पर पशुओं को बेचकर भी अपना काम चलाते हैं। वास्तव में पशुधन गरीबी से त्रस्त परिवारों के लिए ग्रामीण मुद्राएं हैं। पशुधन विशेष रूप से गरीब परिवारों के लिए बीमा विकल्प के रूप में भी काम करता है क्योंकि यह एक ऐसी संपत्ति है जिसे संकट के समय बेचा जा सकता है। इसीलिए पशुओं को पशुधन कहा जाता है।

पशु मनुष्य के जीवन के सहभागी
यह सभी को ज्ञात है कि अपने भी साथ छोड़ देते हैं लेकिन पशु खासतौर से कुत्ते इतने वफादार होते हैं कि वह कभी भी अपने मालिक रूपी साथी का साथ नहीं छोड़ते हैं। आज जब मनुष्य एकाकी जीवन जीने के लिए मजबूर हो जाता है तब यही पशु उनके जीने का सहारा बनते हैं। दोनों ही अपनी-अपनी धुन में एक-दूसरे के सहारे अपना जीवन व्यतीत करते हैं।

सकल घरेलु उत्पाद में पशुधन की भागीदारी
पशुपालन क्षेत्र में सुधार, राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और घरेलू खाद्य सुरक्षा बढ़ाने के लिए किए गए प्रभावशाली योगदान में परिलक्षित होता है। भारत का पशुधन क्षेत्र दुनिया के सबसे बड़े पशुओं की आबादी का 11.6% है। सकल घरेलू उत्पाद के संदर्भ में राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में पशुधन और मत्स्य क्षेत्रों का योगदान क्रमशः 4.1 और 0.8% है (Islam et al. 2016)। दूध अब सकल घरेलू उत्पाद में योगदान देने वाला सबसे बड़ा कृषि उत्पाद है। बढ़ती मानव आबादी के पशु प्रोटीन की आवश्यकता को पूरा करने में दूध, अण्डा और माँस के रूप में पशुधन क्षेत्र का योगदान चिरकाल से प्रभावशाली रहा है।

पशुपालन से स्वरोजगार
पशुपालन में विकास की बहुत संभावनाएं हैं, इसकी छिपी हुई संभावनाओं को तलाशने की आवश्यकता है, क्योंकि समाज के किसी भी वर्ग खासतौर से कमजोर वर्गों को रोजगार अवसर प्रदान करता है और अर्थव्यवस्था के उत्थान में महत्तवपूर्ण योगदान दे सकता है। इसके अलावा, अकेला पशुपालन ग्रामीण आंचल में न केवल उनको स्थायी रोजगार प्रदान करके अच्छे गुणवत्ता वाले जीवन को सुनिश्चित करता है बल्कि आमदनी अर्जित करके संपत्तिहीन गरीब परिवारों को आमदनी सृजित करने वाली संपत्ति बनाने में भी सक्षम है। इस प्रकार पशुपालन ग्रामीण लोगों के व्यापक सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के लिए एक शक्तिशाली साधन के रूप में कार्य करता है और विकास के लिए एक इंजन के रूप में कार्य करता है और इसके गुणन प्रभाव द्वारा अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करता है। संक्षेप में यदि कहा जाये तो पशुधन गरीबी एवं भूख को मिटाने के लिए सहस्त्राब्दियों से विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में महत्तवपूर्ण योगदान देते आया है।

पशु रोगों से होने वाले आर्थिक नुकसान
सही-सही यह कह पाना मुश्किल है कि पशु में होने वाले रोगों से कितनी आर्थिक हानि होती है फिर भी यदि कहा जाये कि जिस पशुपालक के पशुओं में रोग आ जाता है तो उसका आर्थिक नुकसान तो होता ही है लेकिन साथ में पशुओं की मृत्यु होने से उसे पशुधन की असहनीय हानि भी होती है और इस तरह से देखा जाये तो उस परिवार की कमर ही टूट जाती है। एक आंकलन के अनुसार मुँह पका – खुर पका रोग होने की स्थिति में भारत में 12000 से 14000 करोड़ रूपये की वार्षिक हानि होती है (Singh et al. 2013)। इसी प्रकार गलगोटू रोग एवं ब्रुसेलोसिस से क्रमशः 5255 (Singh et al. 2014) एवं 20400 (Singh et al. 2018) करोड़ रूपये की प्रतिवर्ष हानि होती है।

भारत में गायों और भैंसों में पाये जाने वाले अलाक्षणिक थनैला रोग के कारण क्रमशः 2646 और 1723.32 करोड़ रुपये की अनुमानित वार्षिक हानि होती है जबकि लाक्षणिक थनैला रोग के कारण क्रमशः 987.60 और 696.29 करोड़ रुपये है। कुल मिलाकर भारत थनैला रोग से प्रतिवर्ष 6053 करोड़ रूपये की हानि होती है। वैश्विक स्तर पर थनैला रोग से लगभग 35 अरब डॉलर का नुकसान होता है (Dua 2001)। एक शोध के अनुसार थनैला रोग के कारण दुधारू पशुओं के दूध में औसतन 10.68 प्रतिशत की कमी पायी जाती है (Bhore 2012)।

पशु प्रेम
भारत में आमतौर पर पशु कल्याण का अर्थ केवल बेसहारा पशुओं के कल्याण लिए जाना जाता है। आमतौर पर ये बेसहारा पशु वे हैं जिनसे पशुपालकों को लाभ अर्जित नहीं होता है और वह उनको घर से बाहर किसी दूसरे स्थान पर छोड़ आता है। भारत में ऐसे पशु में सबसे अधिक संख्या गौवंश की है और इस गौवंश में भी नरों अर्थात नंदियों की संख्या सबसे अधिक है। जैसा कि भारवर्ष में गाय को माता का स्थान दिया गया है। ऐसे व्यक्ति या परिवार जो गौमाता में विश्वास तो रखते हैं लेकिन अनुपयोगी होने के कारण गौवंश को दर-दर की ठोकरें खाने के लिए घर से बाहर निकाल देते हैं। लेकिन भारतवर्ष में बेसहारा पशुओं खासतौर से गायों की सेवा करने वालों की भी कमी नहीं है जो इन पशुओं की सेवा करना न केवल अपना कर्तव्य समझते हैं बल्कि उनके लिए आश्रय भी प्रदान करते हैं। बेसहारा पशुओं के बीमार या चोटिल होने पर ऐसे लोग उनका इलाज करवाते भी हैं।

और देखें :  डेयरी उद्योग को आर्थिक नुकसान में थनैला का योगदान: जाँच वं प्रबंधन

ढाई अक्षर प्रेम के, जाने सो प्रेमी होय,
पशु प्रेमी होय, प्रभु प्रेमी हो जाय।

पशु कल्याण
जीव विज्ञान के एक महत्वपूर्ण रूप में देखा जाने वाला ‘पीड़ा’ शब्द का उपयोग पशु कल्याण की परिभाषा और व्यावहारिक मूल्यांकन दोनों में किया जा सकता है। इसे नकारात्मक कारकों के कारण उत्पन्न होने वाली नकारात्मक भावनाओं के एक समूह (जैसे कि भय, दर्द और उदासी) के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, और परिचालन के रूप में पहचाना जाता है। ‘अच्छे पशु कल्याण’ का यह अर्थ है कि स्वस्थ पशु के पास वह है जिसे वह चाहता है (Dawkins 2008)। अमेरिकन वेटरीनरी मेडिकल एसोसिएशन पशु कल्याण को परिभाषित करता है कि ‘एक पशु उन परिस्थितियों का सामना कैसे कर रहा है जिनमें वह रहता है’। यदि किसी पशु को ‘स्वस्थ, आरामदायक, अच्छी तरह से पोषित, सुरक्षित, स्वभाविक व्यवहार व्यक्त करने में सक्षम देखा जाता है, और यह दर्द, भय, और संकट जैसी अप्रिय स्थितियों से पीड़ित नहीं है’ तो यह कहा जाता है कि वह पशु कल्याण की ‘अच्छी’ स्थिति में रहता है (Maple and Bloomsmith 2018)। पशु स्वास्थ्य कल्याण पशुओं के स्थास्थ्यवर्द्धन में योगदान देने वाले कारकों (जैसे कि आहार, पानी, चोटिल न होना इत्यादि) पर बल देता है, हालांकि पशु जो ‘स्वयं’ चाहता है उसे समावेश करने से यह ‘तनाव प्रतीत’ होता है कि अच्छा कल्याण सिर्फ शारीरिक स्वास्थ्य से दूर है। लेकिन यह द्विखण्डी परिभाषा हर किसी को आसानी से समझ में आ सकती है जो पशु कल्याण गुणवत्ता के अधो-निम्नलिखित निम्नलिखित 12 बिंदुओं (Keeling 2009) पर भी सही प्रतीत होती है:

  1. पशुओं को ज्यादा समय तक भूख से पीड़ित नहीं होना चाहिए, अर्थात उनके पास पर्याप्त और उचित आहार होना चाहिए।
  2. पशुओं को लंबे समय तक प्यास से पीड़ित नहीं होना चाहिए, अर्थात उनके पास पर्याप्त और सुलभ जल आपूर्ति होनी चाहिए।
  3. विश्राम करने के समय उनके आसपास शान्तिपूर्ण वातावरण होना चाहिए।
  4. पशु ज्यादा गर्म या ठण्डें नहीं होने चाहिए।
  5. पशुओं के पास स्वतंत्र रूप से घूमने योग्य जगह अवश्य होनी चाहिए।
  6. पशु शारीरिक चोटिलता से मुक्त होना चाहिए।
  7. पशु रोग मुक्त होने चाहिए अर्थात पशुपालकों को उनकी स्वच्छता और देखभाल के उच्च मानकों को बनाये रखना चाहिए।
  8. पशुओं को अनुचित प्रबंधन, पकड़ना, वद्य या शल्य प्रक्रियाओं आदि जैसी क्रियाओं से होने वाली पीड़ा से गुजरने से बचाना चाहिए।
  9. पशुओं की सामान्य, असामान्य, अहितकारी, सामाजिक व्यवहार को व्यक्त करने में सक्षम होना चाहिए।
  10. पशुओं को अन्य सामान्य प्राकृतिक व्यवहार (जैसे कि दाना-पानी ढूंढने) को प्रदर्शित करना संभव होना चाहिए।
  11. पशुओं को सभी परिस्थितियों में अच्छी तरह से संभाला जाना चाहिए, अर्थात हैंडलर को अच्छे मानव-पशु संबंधों को बढ़ावा देना चाहिए।
  12. पशुओं में भय, पीड़ा, निराशा या उदासीनता जैसी नकारात्मक भावनाओं से बचाना चाहिए जबकि सकारात्मक भावनाओं जैसे सुरक्षा या संतोष को बढ़ावा देना चाहिए।

पशु कल्याण के लाभ
जलवायु परिवर्तन और बढ़ती मानव आबादी की आहारपूर्ति को पूरा करने के के लिए पशु पालन को अधिक कुशल और सघन बनाने की आवश्यकता है। इसके साथ ही यदि पशुपालक अपने पशुओं के उत्थान के लिए कल्याकारी कार्य करें तो, इसके निम्नलिखित लाभ हो सकते हैं (Dawkins 2017) :

  1. पशुओं की मृत्युदर में कमी : यह स्पष्ट सी बात है कि यदि मृत्युदर कम है तो पशु कल्याण की दक्षता भी अच्छी है। यदि पशुओं अच्छी हालात में रखा जाता है तो उनके दीर्घायु होने की संभावना भी बढ़ती है और ज्यादा पशुओं की संख्या होने पर पशुपालक अच्छे दामों पर बेच भी सकते हैं। यदि छोटे कटड़े-कटड़ियों, बछड़ियों अथवा किसी भी पशु प्रजाति के बच्चों में मृत्युदर कम है तो उनकी प्रतिस्थपना की संभावना ज्यादा होती है और इस प्रकार पशुपालक को बाहर से पशुओं को खरीदने की संभावना भी कम होती है।
  2. स्वास्थ्य में सुधार: यदि पशु स्वस्थ होंगे तो उनके बीमार होने की संभावना भी उतनी ही कम रहती है और बीमारी पर खर्च होने वाला धन बचने से आर्थिक हानि भी कम रहती है। यह ध्यान रखने योग्य सच्चाई है कि छोटी-छोटी समस्याएं एक दिन विकराल रूप धारण कर लेती हैं जैसे किसी भी लंगड़े पशुओं की संख्या न के बराबर है लेकिन समय पर ध्यान देने पर उनकी संख्या बढ़ने लगती है। जो पशु चलने में असमर्थ होता है तो वह आहार लेने में भी असमर्थ होता है जिस कारण उसकी शारीरिक क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। और एक दिन उसकी उत्पादन क्षमता अत्याधिक कम होने पर उसका मालिक उसे घर से बाहर निकाल देता है। इस प्रकार देखा जाये तो पशुपालक की अनदेखी के कारण उसे आर्थिक हानि भी उठानी पड़ती है।
  3. उन्नत उत्पाद की गुणवत्ता: कल्याणकारी उपाय न केवल पशुओं के स्वास्थ्यवर्द्धन में बढ़ोतरी करती हैं बल्कि उनके उत्पाद पर गुणवत्ता पर खरे उतरते हैं। यदि पशु की प्रबंधन व्यवस्थाएं जैसे कि पौष्टिक आहार-व्यवस्था, आवासीय व्यवस्था, प्रजनन तकनीक, समय-समय पर बाह्य एवं अंतःपरजीवीयों से रक्षा, टीकारण आदि सुविधाओं का बल दिया जाता है तो पशुओं का न केवल स्वास्थ्य ठीक रहता है बल्कि उनके उत्पाद भी मानवीय सेवन के लिए खरे होते हैं।
  4. रोग प्रतिरोधक क्षमता में बढ़ोतरी और औषधीयों में कमी: यह स्वाभाविक सी बात है कि यदि पशु स्वस्थ्य एवं हृष्ट-पुष्ट है तो उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है और बीमारी न होने की स्थिति पर उन पर खर्च होने वाला धन भी बचता है।
  5. पशुजन्य और आहार जनित बीमारियों का कम जोखिम: विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार लगभग 75 प्रतिशत नई बीमारियां जो मनुष्यों को प्रभावित करती हैं वे पशुओं और पशु उत्पादों से उत्पन्न होती हैं। पशुजन्य रोगों जैसे कि बर्ड फ्लू एवं स्वाईन का मानव स्वास्थ्य एवं आर्थिक स्थिति पर विनाशकारी प्रभाव पड़ता है। आहार जनित जीवाणु रोग जैसे कि टाईफायड एवं कैमपाइलोबैक्टीरियोसिस रोग मानव स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा खतरा हैं। इसी प्रकार विश्वभर में जीवन और अर्थव्यवस्था पर टोक्सोप्लाजमोसिज और सिस्टिककोरोसिस जैसे परजीवी जन्य रोगों का बड़ा प्रभाव पड़ता है। ऐसे रोगों से लड़ने के लिए ‘एक स्वास्थ्य’ जैसे कार्यकम की पशुओं, मानव स्वास्थ्य एवं पर्यायवरण स्वास्थ्य के लिए की गई पहल सराहनीय कदम है। यदि पशु स्वास्थ्य कल्याण पर कार्य किया जाये तो पशु जन्य रोगों पर भी विजय हासिल की जा सकती है और पशुओं के साथ-साथ मानवीय एवं पर्यायवरणीय स्वास्थ्य भी ठीक रहता है।
  6. पशुपालक एवं उपभोक्ता की संतुष्टि: यदि उपरोक्त पहलुओं को ध्यान में रखकर पशुओं के लिए कल्याणकारी कार्य किया जाता है तो जहाँ एक ओर पशुपालकों का पशुओं के ऊपर खर्च होने वाले धन में बचत होगी तो वहीं उनके उत्पाद की भी गुणवत्ता में सुधार आने से संतुष्टि उपभोक्ता उसको अच्छा दाम भी देता है।
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पशुओं में कल्याणकारी टीकाकरण
पशुओं को विभिन्न प्रकार के रोगो से बचाने के लिए उनमें टीकाकरण किया जाता है। विभिन्न प्रकार के रोगों के लिए विभिन्न प्रकार के टीकाकरण कार्यक्रम हैं। जैसे कि गाय-भैंस पालकों के लिए ग्रीष्म ऋतु के मौसम के शुरू होने से पहले ही उनके पशुओं में मुँह-खुर पका रोग से बचाने के लिए टीकाकरण किया जाता है ताकि अगले मौसम अर्थात वर्षाकाल में उत्पन्न होने वाले कई घातक रोगों से पशुधन को बचाया जा सके और पशुपालकों को पशुओं की असमय हानि होने से बचाया जा सके। छः माह के अंतराल पर अर्थात अप्रैल एवं अक्तुबर माह में भारत के कई राज्यों खासतौर से हरियाणा में गलगोटू एवं मुँह पका-खुर पका रोगों से बचाने के लिए टीकाकरण किया जाता है। अतः कृषि एवं अन्य आवश्यक कार्यों के साथ-साथ अपने पशुधन रूपी पशुओं को बचाये रखने के लिए टीकाकरण अभियान में सावधानीपूर्वक शामिल होकर राष्ट्रहित को भी अवश्य पूरा करें। पशुपालक टीकाकरण के दौरान अपने पशुओं को जानलेवा रोगों से बचाने के लिए पशुपालन विभाग के कर्मियों का सहयोग देकर अपने पशुओं को बचाने की दिशा में कार्य करें ताकि हम सभी का भविष्य उज्जवल रह सके।

पशुओं में पहले रोग नहीं आया ये आपका सौभाग्य है,
लेकिन वहम् न पालें कि रोग नहीं आया तो टीकाकरण क्यों करवाएं अपने पशुओं का।
याद रखिये एक भी पशु छूटा तो सुरक्षा चक्र टूटा,
आपका तो नुकसान होगा ही लेकिन दूसरों के नुकसान के भी भागीदार आप बनेंगें।

‌‌‌कुत्तों में एंटीरेबीज टीकारकण करने से न केवल कुत्तों का ही कल्याण होता है बल्कि उनमें टीकाकरण करने से मानव समाज का भी कल्याण होता है। मानवीय रेबीज के 99 प्रतिशत से भी ज्यादा मामले कुत्तों के काटने से होते हैं (WHO 2013)। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्वभर में प्रतिवर्ष लगभग 59000 – 61000 मौतें रेबीज से होती हैं (Gemechu 2017)। ‌‌‌विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में लगभग 20000 व्यक्ति इस बीमारी से मौत के मुँह में चले जाते हैं (Bharti et al. 2017, Gemechu 2017)।

पशुओं को आंतरिक एवं बाह्य परजीवीयों से बचाना
आंतरिक परजीवी ऐसे परजीवी है जो पशुओं के आंतरिक भागों जैसे कि आहार नली, आमाश्य, आंतें, यकृत, फेफड़ों इत्यादि महत्त्वपूर्ण आंतरिक भागों में पाये जाते हैं। ये परजीवी आमतौर से पशुओं के द्वारा सेवन किये आहार का सेवन करने के साथ-साथ उनके आंतरिक भागों को भारी क्षति पहुंचाते हैं। आंतरिक परजीवीयों से ग्रसित दूधारू पशुओं का दुग्ध उत्पादन कम होने से पशुपालकों को आर्थिक हानि उठानी पड़ती है। इसी प्रकार पशुओं के बाह्य परजीवी न उनका रक्तोपान करके उनको शारीरिक रूप से कमजोर बनाते है बल्कि उनमें बीमारियों को भी फैलाते हैं जिससे पशुओं की असमय मृत्यु होने से पशुपालकों को हानि पहुंचाते हैं। अतः समय-समय पर पशुओं को इन परजीवीयों से बचाने के लिए कल्याणकारी कार्य किया जाता है तो न केवल पशु ही स्वस्थ रहते हैं बल्कि पशुपालकों का नुकसान होने से बचता है।

जो करे पशुओं की आंतरिक-बाह्य परजीवीयों से चौकसी,
तो वह चतुर पशुपालक कहलाये।

अच्छा एवं स्वास्थ्यवर्द्धक पौष्टिक आहार
शरीर को सुचारू रूप से कार्य करने के लिए पोषक तत्त्वों की आवश्यकता होती है, जो उसे आहार से प्राप्त होते हैं। पशु के आहार की मात्रा का निर्धारण उसके शरीर की आवश्यकता व कार्य के अनुरूप तथा उपलब्ध भोज्य पदार्थों में पाए जाने वाले पोषक तत्वों के आधार पर गणना करके किया जाता है। किसी पशु के लिए आहार उसके अनुरक्षण अर्थात आहार की वह मात्रा जिसे पशु के शरीर को स्वतः रखने के लिए उपलब्ध कराया जाता है जिससे वह अपने शरीर के तापमान को उचित सीमा में बनाए रखने, शरीर की आवश्यक क्रियायें जैसे पाचन क्रिया, रक्त परिवहन, श्वसन, उत्सर्जन, चयापचय आदि के लिए काम में लाता हैं। इससे उसके शरीर का भार भी एक सीमा में स्थिर बना रहता हैं। इसके बाद पौष्टिक आहार की वह मात्रा होती है जिससे उसके शारीरिक विकास को बल मिलता है। यदि पशु दुग्ध उत्पादन में है तो उसे इन दोनों की आवश्यकताओं के अतिरिक्त उत्पादन के लिए भी आहार की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त उसे प्रजनन के लिए भी अलग से आहार की आवश्यकता होती है।

बचपन से खिलाओ संतुलित आहार,
सही समय पर पाओ उधार।

अनावश्यक औषधीयाँ न दें
वर्ष 2012 में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, रोगाणुरोधी औषधीयों की औसत खपत मनुष्यों एवं  पशुओं में क्रमशः 116.4 और 144.0 मि.ग्रा. प्रति किलोग्राम अनुमानित थी जिसमें 2030 तक 67 प्रतिशत की बढ़ोतरी होने की  संभावना है (Lhermie et al. 2017)। ऐसा देखने में आता है कि पशु को बीमारी चाहे कोई भी हो लेकिन उसको रोगाणुरोधी औषधी अवश्य दी जाती है जिससे न केवल पशुपालक का खर्च बढ़ता है बल्कि रोगाणुरोधी प्रतिरोध, जिसे आमतौर एंटिबायोटिक प्रतिरोध कहा जाता है, बढ़ने से मानवों एवं में पशुओं में स्वास्थ्य समस्या तो होती ही है साथ में पर्यावरण की समस्या भी पैदा हो रही है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों से खाद्य पशु उत्पादों (दूध एवं चिकन माँस) में रोगाणुरोधी औषधीयों के अवशेषों की मौजूदगी व्यापक रोगाणुरोधी औषधीयों के उपयोग की ओर संकेत देती है (Kakkar and Rogawski 2013, Brower et al. 2017)।

और देखें :  पशु प्रजनन एवं दुग्ध उत्पादन में पोषण का महत्व

इसी प्रकार पशु को रोग चाहे जो भी हो, लेकिन दर्दनिवारक जैसी औषधीयों का उपयोग धड़़ल्ले से किया जाता है। पशु के मरणोपरान्त जब गिद्ध इनका भक्षण करते हैं तो उनकी जान को खतरा बढ़ जाता है। आज हालात यह हैं कि गिद्धों की संख्या में इतनी कमी आयी है कि उनको देख पाना भी मुश्किल हो रहा है। इन औषधीयों में सबसे पहला नाम डिक्लोफेनाक जिसके इस्तेमाल से लगभग 99 प्रतिशत गिद्धों की संख्या में कमी सिद्ध हो चुकी है। डिक्लोफेनाक के अलावा अन्य दर्द निवारक, सूजनहारी एवं ज्वरनाशी औषधयां जैसे कि एसीक्लोफेनिक, मेलोक्सिीकेम, किटोपरोफेन, निमेसुलाइड एवं फ्लुनिक्सिन इत्यादि के दुष्प्रभाव भी गिद्धों में जानलेवा साबित हो चुके हैं। इन सभी औषधीयों के कारण गिद्धों के महत्वपूर्ण अंगों में खराबी आ जाने से उनकी मृत्यु निश्चित हो जाती है (BirdLife International 2017)। अतः समय की आवश्यकता एवं भविष्य के खतरे का आंकलन करते हुए आधुनिक चिकित्सा में प्रयोग की जाने वाली औषधीयों को विवेकपूर्वक इस्तेमाल करें और जहाँ तक संभव हो सके तो इन औषधीयों का उपयोग कुशल चिकित्सक की देखरेख में ही करने में भलाई है।

जो रोगाणुरोधी प्रतिरोध से रहे सचेत,
तो उनका जीवन रहे स्वस्थ।

Reference

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