मोरिंगा पशुओं के लिए पौष्टिक हरा चारा

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मोरिंगा यानी “मोरिंगा ओलिफेरा” (Moringa oleifera) एक बहु उपयोगी पेड़ है,  इसे हिन्दी में सहजन, सुजना, सेंजन और मुनगा, मराठी में शेवगा, तमिल में मुरुंगई, मलयालम में मुरिन्गन्गा, और तेलगु में मुनगावया, अंग्रेजी में ड्रमस्टिक और हॉर्स रेडिश ट्री आदि नामों से भी जाना जाता है। इस पेड़ के विभिन्न भाग अनेकानेक पोषक तत्वों से भरपूर पाये गये हैं इसलिये इसके विभिन्न भागों का विविध प्रकार से उपयोग किया जाता है। इसकी पत्तियों और फली की सब्जी भी बनती है। इसका कभी-कभी आयुर्वेदिक दवाओं हेतु जड़ी-बूटी के रूप में भी उपयोग होता है।

मोरिंगा सदाबहार, माध्यम आकर का पर्णपाती वृक्ष्य है। इसका तना सफ़ेद भूरे रंग का होता है और मोटी छाल से ढाका रहता है. इसकी उत्पत्ति भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के उपहिमालियन क्षेत्र है। भारत में गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु में इसकी खेती बड़े पैमाने पर होती है।

मोरिंगा पूरे भारतवर्ष में सुगमता से पाया जाने वाला पौष्टिकता से भरपूर बहुउद्देशीय वृक्ष है। यह आसानी से लग जाता है और इसके पत्ते, फूल, फलियां, बीज और जड़ें सभी पोषक तत्वों से भरपूर है, जो मनुष्य और जानवर दोनों के लिए काम आते हैं।दक्षिणी और पूर्व भारत में यह एक लोकप्रिय सब्जी है।

मोरिंगा से पशुओ के लिए पौष्टिक हरे चारा

मोरिंगा की पत्तियों और डलिओ से बना हरा चारा, मुलायम अत्यधिक पौष्टिक, स्वादिष्ट एवं खुशबूदार होता है। इसमें अत्यधिक मात्रा में जैव-भार उत्पादन करने की क्षमता है. और वर्षभर हरा चारा उत्पादन करने वाले वृक्ष के रूपमे इसका उपयोग किया जा सकता है। इसमें टैनिन जैसे चारो की गुणवत्ता काम करने वाले पदार्थ नगण्य मात्रा में पाए जाते है। इस कारण दुधारू पशुओ के लिए यह एक अनेकानेक पोषक तत्वों से भरा हरे चारे का स्त्रोत है।

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2 से 3 माह के अंतराल पर कटे गए मोरिंगा के हरे चारे में प्रोटीन एवं खनिजों के अलावा विटामिन A, B, C E भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते है। इसीको ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (NDDB), आनंद द्वारा मोरिंगा के हरे चारे के उत्पादन की तकनीक का विकास किया गया है। हरे चारे के तौर पर मोरिंगा के उत्पादन के लिए एक हेक्टेयर भूमि में 100 किग्रा बीज आवश्यक होता है

अच्छी तरह से तैयार खेत में, 30 से.मी. दूरी पर नाली बनाये, 10 से.मी. की दूरी पर 3-4 से.मी. की गहराई में बीज बोएं। बुवाई के 85 से 90 दिन बाद फसल पहली कटाई के लिए तैयार होजाती है। अच्छे चारा उत्पादन, जमाव एवं दुबारा अच्छी वृद्धि के लिए पौधे की जमीं से 30 से.मी. ऊपर से कटाई करे। आगे की कटाईया 60 दिन के अंतराल पर करनी चाहिए जब फसल की बढ़वार 5 से 6 फ़ीट हो। एक पशु को 15 से 20 किग्रा कुट्टी किया गया मोरिंगा हरा चारा किसी भी सूखे या अन्य हरे चारे के साथ मिलकर खिलाया जा सकता है।

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मोरिंगा की उन्नतिशील प्रजातियां

PKM-1: यह किस्म बीज द्वारा प्रसारित की गयी है। इस किस्म को उद्यान अनुसंधान केन्द्र, (तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय) पेरीयाकुलम द्वारा विकसित किया गया है। पौधों की ऊँचाई 4-6 मीटर होती है। इस किस्म के फूल 90-100 दिन बाद में पौध रोपण के पश्चात् आते हैं। प्रथम बार फलियों की तुड़ाई पौध रोपण के 160 से 170 दिन बाद करनी चाहिए। प्रति पौधा प्रति वर्ष 200-225 फलियां प्राप्त होती हैं।

PKM-2: यह किस्म बीज द्वारा प्रसारित की गयी है। इस किस्म को उद्यान अनुसंधान केन्द्र, (तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय) पेरीयाकुलम द्वारा विकसित किया गया है। इसकी फलियों की लम्बाई 125-130 से.मी. होती है। यह किस्म घरेलू उपयोग में आती है। फलियां अधिक लम्बी होने के कारण बाजार में इसका उचित दाम नहीं मिलता।

धनराज: यह एक बहुवर्षीय मोरिंगा की किस्म है जो बीज द्वारा उगाई जाति है। फलियां लंबी व हरे रंग की होती है। औसत वार्षिक उत्पादन प्रति पौधा प्रतिवर्ष 400-600 फलियां हैं। इसकी फलियां अचार बनाने के लिए उपयोगी होती है।

रोहित-1: पौधरोपण के 4-6 महीने के बाद ये उत्पादन शुरू कर देता है और 10 साल तक व्यवसाइक उत्पादन देता रहता है। एक पौधे से 40 से 135 फलियां मिल सकती हैं जो करीब 3-10 किलो तक होती है। इसके अलावा भाग्या, कोंकण रुचिरा, अनुपमा, जी.के.वि.के 1,2,3 यह किस्मे भी कुछ क्षेत्र में प्रचलित है।

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