पशुयों में चयोपचय व अल्पता रोग एवं बचाव

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पशुयों में भोजन के विभिन्न अवयवों की आवश्यकता पशुयों की वृद्धि, दुग्ध उत्पादन, मांस उत्पादन एवं जनन क्रियाओं के लिए आवश्यक होती है। संतुलित भोजन में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा, खनिज तत्व तथा विटामिन जैसे प्रमुख अवयव आवश्यक मात्रा में होते हैं। यदि भोजन में किसी अवयव की कमी हो जाती है तो पशुयों के उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। विशेष रूप से खनिज तत्वों की कमी होने पर पशुयों की प्रजनन क्षमता एवं रोगी प्रतिरोधी क्षमता पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए इनकी कमी से होने वाले प्रमुख रोगों एवं उनके बचाव के विषय में पूरी जानकारी होना आवहशयक है। भोजन की कमी से संबन्धित रोग, मुखी रूप से ज़्यादा दूध, मांस देने वाली गाय एवं भैंसों में होते हैं। इन ज़्यादा उत्पादन वाले पशुयों में इन अवयवों की आवश्यकता गर्भित काल एवं दुग्ध उत्पादन के समय ज़्यादा बढ़ जाती है। अगर ऐसी अवस्था में पशुपालक भाई आवश्यकता के अनुसार संतुलित आहार नहीं देते हैं, तो स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव दिखाई देने लगते हैं। कभी-कभी तो पशुयों में मृत्यु तक हो जाती है।

पशुयों में उत्पादन से संबन्धित रोगों के तीन प्रमुख कारण होते है। प्रथम, पशुयों को सही मात्रा में आवश्यकतानुसार संतुलित आहार नहीं दिया जाना, दूसरे, ज़मीन एवं पानी में विशेष खनिज तत्वों की कमी होना, जिसके फलस्वरूप ज़मीन पर उगने वाले चारे में तत्वों की कमी होना, तीसरे, पशुयों में रोग की अवस्था में संतुलित आहार दिये जाने के बावजूद पेट एवं आंतों से तत्वों का सही प्रकार एवं पूर्णरूप से अवशोषित नहीं होना। इसलिए हमें अपने क्षेत्र की मृदा में विशेष खनिज लवणों की कमी के बारे में पता होना चाहिए जिसके अनुसार ही खनिज मिश्रण दुधारू पशुयों को दिया जाये। भोजन में विभिन्न अवयवों की कमी से होने वाले प्रमुख रोग निम्न हैं :

  1. दुग्ध ज्वर : यह रोग आहार में कैल्शियम की कमी के कारण होता है। यह प्रमुख रूप से ज़्यादा दूध देने वाली गाय व भैंसों में बच्चे देने के तुरंत बाद (1 या 2 दिन बाद) दिखाई देने लगता है। अगर दुधारू पशुयों को गर्भावस्था में उचित मात्रा में संतुलित आहार (विशेष रूप से कैल्शियम) नहीं दिया जाता, तब ऐसी गाय व भैंस ब्याहने के तुरंत बाद शुरुयत में शरीर का कैल्शियम दूध के साथ निकाल जाता है। जिसके कारण रक्त में अचानक कैल्शियम की ज़्यादा कमी हो जाती है व यही रोग उत्पन्न होने की अवस्था है।
    रोग की प्रारम्भिक अवस्था में प्रभावित दुधारू पशु अन्य पशुयों से अलग खड़ा हो जाता है। चारा-दाना छोड़ देता है। दूध की मात्रा कम होने लगती है। कभी-कभी शुरू में पशु स्वभाव से पशु उत्तेजित हो जाते हैं। रोग की अगली अवस्था में पशु सुस्त होने लगता है व बैठ जाता है। विशेष रूप से अगले पैरों को उदार के नीचे रख लेता है तथा गर्दन को मोड़कर एक तरफ रख लेता है। शरीर का तापक्रम 101-1020 से घटकर 96-970 हो जाता है। शरीर छूने पर ठंडा महसूस होता है। रोगी पशुयों को इस अवस्था तक उचित इलाज मिलना चाहिए अन्यथा पशु की मौत हो जाती है।
    रोग में उपचार के लिए तुरंत पशु चिकित्सक से संपर्क करना चाहिए। उपचार के लिए कैल्शियम का इंजेक्शन रक्त शिरा में 300 मि.ली. व 150 मि.ली. अंत: त्वचा दिया जाता है। इंजेक्शन का तुरंत असर होता है और कुछ समय में सामान्य दिखने लग जाता है व आगे उपचार के बाद बिलकुल ठीक हो जाता है एवं दुग्ध अवस्था में रोग के बचाव के लिए पशुयों को गर्भावस्था में सही मात्रा में संतुलित आहार देना चाहिए। दुग्ध ज्वर का रोग भेद-बकरियों में ज़्यादा तीव्र नहीं होता है। इनमें मुख्यरूप से दुग्ध उत्पादन में कमी एवं भूख न लगना जैसे लक्षण देखे जाते हैं।
  1. प्रसव पश्चात रक्त मूत्र रोग : गाय व भैंसों का उत्पादन संबंधी यह एक प्रमुख रोग है। यह शरीर के रक्त में फौस्फोरस की कमी के कारण होता है। यह रोग बच्चा देने के बाद प्राय: एक महीने तक की अवस्था में देखा जाता है। इस रोग में पशु का मूत्र काफ़ी लाल रंग का हो जाता है। यह रंग हेमोग्लोबिन का मूत्र में आने से होता है। दिग्ध उत्पादन कम हो जाता है। पशु कम खाता है व उसमे रक्त की कमी (अनीमिया) होने लगती है।
    इसके उपचार के लिए फौस्फोरस के इंजेक्शन (टोनोफोस्फेन) लगाए जाते हैं तथा सोडियम एसिड फॉस्फेट की खुराक देने पर पशु ठीक हो जाता है। इसके बचाव के लिए गर्भित पशुयों को संतुलि आहार देना चाहिए। जिस भूभाग में फौस्फोरस की कमी होती है, वहाँ पर खनिज मिश्रण गर्भावस्था से 40-50 ग्राम रोजाना दाने के साथ मिलना चाहिए। दाने के मिश्रण में चने की मात्रा अधिक होनी चाहिए।
    फौस्फोरस की कमी से होने वाला यह रोग भेड़ बकरियों में इस दशा में नहीं होता। इन जाती के पशुयों में दुग्ध उत्पादन में कमी एवं शारीरिक कमज़ोरी के लक्षण आते हैं।
  1. कीटोसिस (कीटोनमयता) : यह रोग मुख्यत: आहार में कार्बोहाईड्रेट (ग्लूकोज़) की कमी के कारण होता हाई। यह रोग गाय, भैंस, भेड़, बकरी जैसे सभी रोमांथी पशुयों में होता हाई। यह रोग संकर प्रजाति तथा विदेशी नस्ल की अधिक दूध देने वाली गायों में ज़्यादा होता हाई, जब ऐसे अच्छी नस्ल के गर्भित पशु को पूर्ण आहार व दाना नहीं मिलता। इसके अतिरिक्त कम चारा, अनियमितता, आहार अव्यवस्था, अचानक चारे में परिवर्तन, सड़ा-गला व दूषित चारा इत्यादि कारण प्रमुख होते हैं। फलस्वरूप शरीर के रक्त में ग्लूकोज़ की मात्रा कम होने लग जाती है। जैसे ही ऐसे पशु बच्चा देते हैं तथा दूध देने लग जाते हैं, तब रक्त में ग्लूकोज़ की कमी के कारण, कीटोन बौडीज़ जैसे नुकसानदायक रसायन शरीर में बढ़ने लग जाते हैं। रोग के लक्षण दिखाई देने लगते हैं, दुग्ध उत्पादन घाट जाता है व पशु कमजोर हो जाता है। कुछ पशुयों में मस्टिक्स से संबन्धित लक्षण जैसे लड़खड़ाना, लार आना, कंपन आदि भी दिखाई देते हैं। इस रोग के निदान व चिकित्सा के लिए तुरंत पशु चिकित्सक से संपर्क करना चाहिए। इस रोग के निदान के लिए दूध एवं मूत्र में कीटोन बौडीज़ की जांच की जाती है। यह रोग गाय व भैंसों में दूध देने वाली अवस्था में ज़्यादा होता है, लेकिन यह रोग भेड़ व बकरियों में गर्भावस्था में ज़्यादा होता है। गर्भावस्था में रोग ज़्यादा तीव्र होता है। यह रोग उन भेड़ बकरियों में ज़्यादा होता है जो अच्छे किस्म की ज़्यादा दूध देने वाली तथा गर्भ में ज़्यादा बच्चे होने की दशा में जल्दी उत्पन्न होता है। इस रोग की चिकित्सा के लिए 25-50% ग्लूकोज़ का इंजेक्शन रक्त शिरा में दिया जाता है। पशुयों में गुड़ का घोल रोग की अवस्था में लाभकारी होता है। रोग के बचाव के लिए चारे व दाने की सही मात्रा का ध्यान रखना चाहिए।
  2. घेंघा रोग : यह रोग आयोडीन की कमी से होता है। यह रोग छोटे बच्चों को ज़्यादा प्रभावित करता है। आयोडीन की कमी से थाईराइड ग्रंथि बढ़ने लग जाती है जो गले में नीचे उभरी हुई दिखाई देती है। ज़मीन में आयोडीन की कमी इसका प्रमुख कारण है। आहार में कैलशियम की अधिक मात्रा से भी रक्त में आयोडीन की कमी हो जाती है। बकरियों में अलसी की खाली ज़्यादा मात्रा में खिलाने से भी मेमनों में घेंघा रोग हो जाता है। इसके इलाज के लिए पोटाशियम आयोडाइड दिया जाता है। रोग के बचाव के लिए दाने में आयोडीन नमक संतुलित आहार में मिलाना चाहिए।
  3. पैराकेराटोसिस : यह एक त्वचा का रोग है जो आहार में ज़िंक तत्व की कमी के कारण होता है। इस रोग में त्वचा सूखी व कड़ी हो जाती है। ज़िंक की कमी के कर्ण प्रतिरोधक क्षमता में कमी, शारीरिक वृद्धि में रुकावट एवं शुक्राणुयों की संख्या कम बनती है। छोटे बच्चों में अनीमिया हो जाता है। इसके इलाज के लिए ज़िंक सल्फेट लगातार एक माह तक देनी चाहिए। बचाव के लिए खनिज मिश्रण में ज़िंक की मात्रा समुचित रखनी चाहिए।
  4. रिकेट्स (सूखा रोग) : यह रोग आहार में कैलशियम, फौस्फोरस तथा विटामिन डी की कमी से विषेशरूप से छोटे, शारीरिक वृद्धि करने वाले मेमनों में होता है। इससे ग्रसित बच्चों का विकास रुक जाता है तथा आँय रोगों से ग्रसित होने की संभावना बढ़ जाती है। इलाज व बचाव में, कलशियम, फॉस्फोरस की मात्रा 2:1 राखी जाती है तथा विटामिन डी के इंजेक्शन दिये जाते हैं। रोमनथी पशुयों में कौपर, कोबाल्ट, आयरन की आवश्यकता रयूम्न में पाचन में भाग लेने वाले जीवाणुयों को होती है। अगर इनकी कमी रहती है तो पशु को भूख नहीं लगती है जिससे शारीरिक विकास रुक जाता है एवं उत्पादन भी घाट जाता है। इसलिए यह सुनिश्चित करना चाहिए कि खनिज मिश्रण में इनकी निर्धारित मात्रा होनी चाहिए।
  5. रक्ताल्पता (अनीमिया) तथा एंज़ूटिक एटक्सिया : भेड़ व बकरियों में कौपर की कमी के लक्षण ज़्यादा होते हैं। मेमनों में एंज़ूटिक एटक्सिया का रोग होता है, जिससे मेमने लड़खड़ाने लगते हैं तथा मर जाते हैं। भेड़ में ऊन की मात्रा तथा उसकी गुणवत्ता में कमी आ जाती है। इसके अतिरिक्त रक्ताल्पता (अनीमिया), भूख न लगना, वज़न में कमी तथा उत्पादन प्रभावित होता है।
  6. रतौंधी/अन्धता : इस रोग में नवजात बच्चों को कम दिखाई देता है तथा पूर्ण अंधता भी हो जाती है। गर्भावस्था में पशुयों को उचित मात्रा में हरा चारा नहीं देने के कारण बच्चों में विटामिन ए की कमी हो जाती है। इनकी चिकित्सा में विटामिन ए के इंजेक्शन दिये जाते हैं। इस रोग से बचाव के लिए गर्भावस्था में पशुयों को हरा चारा अवश्य खिलना चाहिए।
  7. जनन क्षमता पर प्रभाव : कैल्शियम, फौस्फोरस, मैगनीशियम, सोडियम तथा सूक्षम तत्वों (कॉपर, ज़िंक, आयरन, मैंगनीज़, आयोडीन, सेलेनियम) की कमी से जानवरों में इसका असर जनन क्षमता पर होता है।
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कैल्शियम शरीर की वृद्धि, हड्डियों एवं दुग्ध उत्पादन में आवश्यक होता है। इस तत्व का सीधा प्रभाव जनन क्षमता पर नहीं होता है, अपितु इसकी कमी से ब्याहने के समय बच्चेदानी का संकुचन ठीक से नहीं हो पता है जिससे बच्चे के बाहर आने में देरी होती है। बच्चेदानी का ब्याहने के बाद पूर्वावस्था में आने में देरी होती है। इसके अलावा इसकी कमी से जेर का अटकना एवं बच्चेदानी का बाहर निकलना संभव हो जाता है। ऋतुकाल में आने वाले पशुयों की अपेक्षा ऋतु में न आने वाले पशुयों में कैल्शियम की मात्रा में कमी पाई गई है। फौस्फोरस मुख्यत: हड्डियों की वृद्धि एवं इनको मज़बूती प्रदान करता है एवं दुग्ध उत्पादन पर भी इस तत्व का प्रभाव देखा गया है। इसकी कमी से आहार में कमी आना, लैंगिक परिपक्वता तथा ब्याहने के बाद ऋतु में देरी आदि देखी गई है। इसकी अत्यंत कमी से पशु ऋतु में नहीं आते हैं तथा इसका प्रभाव पशुयों के गाभिन न होने से पशुयों में बांझपन उत्पन करता है।

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कॉपर का पशुयों की जनन क्षमता को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण स्थान है एवं यह देखा गया है कि इसकी कमी से जनन क्षमता पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। इसकी कमी से ब्याहने के बाद ऋतु आने के समय तथा ब्याहने के अंतराल में लाग्ने वाला समय बढ़ जाता है। गाय-भैंसों में इसकी कमी से जेर का अटकना, संकुचित अंडाशय, ऋतु में देरी से आना तथा भ्रूणों की अल्प अवस्था में मृत्यु की संभावना बढ़ जाती है। नरों में इसकी कमी से वैरी स्खलन में देरी, वैरी की कम मात्रा, शुक्राणुयों की संख्या एवं उनकी गतिशीलता में कमी आ जाती है। कोबाल्ट की कमी से पशुयों में वयस्कता आने में देरी, खून की कमी, ब्याहने के बाद बच्चेदानी का पूर्व अवस्था में आने में देरी एवं पशुयों में गर्भधारण के प्रतिशत में कमी आती है। भेड़ों में इसकी कमी से मेमनों की मृत्युदर में बढ़ोतरी हो जाती है। आयोडीन की कमी के कारण वयस्कता में देरी, ऋतु में आना तथा अंडाशय से अंडों के निकलने पर प्रभाव पड़ता है। गाभिन गाय-भैंसों में आयोडीन की कमी से गर्भपात हो जाने के कारण मरे हुये विकृत बच्चों के पैदा होने की संभावना होती है। इसकी कमी से जेर के अटकने की प्रवृति गाय भैंसों में बढ़ जाती है। नरों में इसकी कमी से वीर्य स्खलन पर प्रभाव पड़ता है। आयोडीन की कमी वाले क्षेत्रों में 20-40 मि॰ग्रा॰कार्बनिक आयोडीन के रोज़ खिलाने से जनन संबन्धित रोग (ऋतु में न आना एवं गाभिन कराने के बाद बार-बार ऋतु में आना) में सुधार होता है।

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सेलेनियम का विटामिन ई के साथ घनिष्ठ संबंध है। इन दोनों का कार्य कोशिकायों में एन्टिऔक्सीडेंट का है। इसकी कमी का प्रभाव ब्याहने के बाद जेर के गर्भाशय में अटकने पर देखा गया है। इसके प्रभाव से गर्भाशय की मांसपेशियों के संकुचन पर जेर निकाल जाती है। सेलेनियम अंडाशय में ऊर्जा उत्पादन की प्रक्रिया में उपयोगी एंज़ाइम ग्लूटाथिओन परओक्सीडेज़ का एक भाग है। इसलिए इसकी कमी का प्रभाव जनन प्रक्रिया पर पड़ता है।

मैंगनीज़ की कमी के कारण पशु देरी से ऋतु में आते हैं व गाभिन नहीं होते। पशुयों में 20-25 मि॰ग्रा॰/कि॰ग्रा॰ सूखे चारे में मैंगनीज़ देने से जनन क्षमता में सुधार होता है। इसकी कमी से अंडाशय में उपस्थित अंडों की वृद्धि पर प्रभाव पड़ता है। ज़िंक की कमी का मुख्यत: प्रभाव नर के लैंगिक हारमोन टेस्टोस्टीरोन एवं शुक्राणुयों के उत्पादन पर पड़ता है।

उपर्युक्त तत्वों की कमी से पशु जनन पर होने वाले प्रभावों को देखते हुये विभिन्न क्षेत्रों में इन तत्वों की कमी को आहार के माध्यम से डोर करना अत्यंत आवश्यक है।  सूखे के मौसम में इन तत्वों की घास एवं भूसे में अत्यंत कमी हो जाती है। इस कमी की पूर्ति समय रहते नहीं की गई तो इसका बुरा प्रभाव पशुयों की जनन क्षमता पर पड़ सकता है।

यह बात समझने योग्य है कि किसी भू-भाग में खनिज लवणों की कमी, उस क्षेत्र के चारे में इनकी कमी के होने का प्रमुख कारण है। अत: पशुयों में भी इनकी कमी रोगों के रूप में प्रदर्शित होती है। मृदा में खनिज लवणों की कमी क्षेत्र के अनुसार अलग-अलग होती है। अत: यह आवश्यक है कि किसान अपने कीमती पशुयों को वैज्ञानिकों के परामर्श अनुसार, क्षेत्र के अनुसार विकसित किए गए खनिज लवणों का मिश्रण चारे व दाने के साथ प्रदान करें जिससे कमी की पूर्ति हो सके तथा दूसरे खनिज लवण जोकि सामान्य मात्रा में है, उनकी अधिकता न हो सके अन्यथा आवश्यकता से अधिक खनिज लवण भी पशुयों के लिए हानिकारक सिद्ध होते हैं।

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