आज बढ़ते हुये डेयरी व्यवसाय के कारण फिर से श्वेत क्रान्ति का दौर आ रहा है, परंतु हमारे देश के पशुयों की उत्पादन तथा पुनरोत्पादन क्षमता सामान्य से कम पाई गयी है। आमतौर पर पशुपालकों को गाय व भैंसों में अस्थाई बाँझपन की समस्या का सामना करना पड़ता है जो कि निम्न प्रकार से देखने को मिलता है:
- गाय तथा भैंस की बछड़ियों में तरुणाई अवस्था का देरी से प्रारम्भ होना तथा वयस्कता पार करने के बाद भी गर्भधारण न कर पाना।
- पशु के प्रसव के काफ़ी दिनों बाद गर्भ ठहरना, परिणामस्वरूप दो ब्यान्त का अंतराल बहुत अधिक बढ़ जाना।
- पुन: गर्भाधान की आवश्यकता अर्थात पशु गर्मी में आता है, परंतु गर्भाधान करने के बाद गर्भधारण नहीं कर पाता और फिर से 20-21 दिन के अंतराल पर बार-बार गर्मी में आता रहता है।
पशुपालन तभी लाभकारी हो सकता है, जब गाय और भैंस नियमित रूप से गाभिन होती रहे तथा दो ब्यान्त का अंतराल ज़्यादा न बढ़े । पशु को ब्याने के पश्चात् 90 दिनों के अंदर फिर से गाभिन हो जाना चाहिए। प्राय: ग्रामीण क्षेत्रों में यह पाया गया है कि पशु ब्याने के करीब 4 या 5 महीने तक तो गर्म ही नहीं होते जिससे ब्यान्त से गर्भ ठहरने का अंतराल बजाय 90 दिनों के होने के, कई महीनों तक हो जाता है, जिसके फलस्वरूप पशुपालकों को हानि उठानी पड़ती है। इस तरह की समस्या दो कारणों से होती है, पहला कारण है कि पशुपालक नवजात बच्चे को रोज़ाना दूध दुहने से पहले पशु का दूध दो या तीन बार पिलाते रहते हैं। दूसरा कारण यह है कि पशुपालक जान-बूझ कर पशु को शीघ्र गाभिन नहीं कराना चाहते हैं, क्योंकि उनमें यह धारणा होती है कि ऐसा करने पर पशु के दूध में कमी आ जाएगी। अत: यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि पशु को गर्मी में आने पर तुरंत गाभिन करवाने के लिए ले जाना चाहिए। दूध में कमी आने का कोई कारण नहीं है बल्कि जल्दी गाभिन हो जाने पर साल भर दूध मिल सकेगा और अधिक लाभ ले सकेंगे बशर्ते पशु के खान-पान में ध्यान रखना ज़रूरी होता है क्योंकि पशु चाहे कितनी भी उन्नत नस्ल का क्यों न हो उससे हम अधिकतम लाभ बिना पर्याप्त एवं संतुलित आहार के नहीं ले सकते।
संतुलित आहार का मतलब मंहगा होना नहीं है बल्कि जिस आहार में भूसा एवं दाना, हरा चारा एवं खनिज लवण भरपूर हों, तो दुधारू पशुयों का स्वास्थ्य उत्तम एवं दुग्ध उत्पादन क्षमता अधिक बनी रहती है। हरा चारा पशु के लिए सस्ते प्रोटीन व शक्ति का मुख्य स्त्रोत है। इनमें विटामिन-ए व खनिज लवण पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं। हरा चारा खिलाने से सूखे चारे तथा दाने के मुक़ाबले में व्यय कम होता है। 10 किग्रा. हरा चारा बढ़ाने से 1 किग्रा. दाना पशु आहार में कम किया जा सकता है। अत: कम लागत में दुधारू पशुयों को आवश्यक पौष्टिक तत्व देने के लिए वर्ष भर हरा चारा खिलाना लाभदायक है। पशु इसे आसानी से पचाते हैं, पशुयों की प्रजनन क्षमता ठीक बनी रहती है और दो ब्यातों का अंतराल कम हो जाता है।
प्रयोगों द्वारा देखा जा चुका है कि जिन पशुयों में शरीर को आवश्यक ऊर्जा नहीं मिलती, उनमें गर्मी के लक्षण नहीं आते हैं और पशु लगातार बाँझ बना रहता है। कम आहार भी पशु की पीयूष (पिट्यूटरी) ग्रंथि को प्रभावित करता है जिससे एक विशेष प्रकार के हार्मोन की खून में कमी हो जाती है। पशु की भूख में कमी आ जाती है और बाद में पशु के शरीर में विशेष तत्वों जैसे प्रोटीन, फॉस्फोरस, कॉपर, आयोडिन, कोबाल्ट, ज़िंक इत्यादि की कमी हो सकती है तथा कुछ समय बाद गर्मी के लक्षण प्रकट होना बंद हो सकते हैं। अत: पशुपालकों को प्रतिदिन हरा चारा व खनिज लवण भरपूर मात्रा में पशुयों को देना चाहिए । खनिज लवण देने से कैल्शियम की भी आपूर्ति बनी रहती है। आहार की कमी से हार्मोनों का असंतुलन हो जाता है और पशु में काफ़ी देर से तरुणाई अवस्था प्रारम्भ हो पाती है। यद्यपि हमारे देश में पशुयों को खिलाये जाने वाले हरे चारे में खनिज लवणों की मात्रा सामान्य से कम है, जो पशु-शरीर के लिए आवश्यक मात्रा की पूर्ति करने में सक्षम नहीं है। कृषि की आधुनिक विधियों तथा रासायनिक खादों के अत्यधिक प्रयोग से खाद्यान्नों का उत्पादन तो बढ़ा है, परंतु भूमि में कुछ खनिज तत्व जैसे मैगनीशियम, कोबाल्ट, कॉपर, ज़िंक, आयोडीन इत्यादि की कमी हो गई है और ऐसी भूमि पर उगने वाले चारों व दानों में भी इन तत्वों का अभाव होता है। अत: उन्नत नस्ल के चारों को खिलाने से पशु कुपोषण का शिकार नहीं हो पाते हैं । इसलिए पशु आहार में प्रोटीन, फॉस्फोरस, विटामिन-ए, कोबाल्ट, आयोडीन, ज़िंक, कॉपर जैसे खनिजों को उचित मात्रा में देकर बाँझपन को ठीक किया जा सकता है। प्राय: पशुपालक अपने पशुयों की बछड़ियों के एक निश्चित आयु में ऋतुमयी न होने (गर्मी में न आने) से भी बिलकुल बेखबर रहते हैं। कभी-कभी तो मदचक्र इन बछड़ियों में 4-5 साल तक दिखाई नहीं देता । इस तरह से इनकी आयु, पहले ब्यान्त तक 6 साल से अधिक तक हो जाती है। ऐसे पशुयों के जननांगों का परीक्षण करने पर पता चलता है कि जननांग या तो बिलकुल ही विकसित नहीं हुये होते हैं अथवा कम विकसित होते हैं।
इसके अतिरिक्त, बहुधा पशुपालक या तो बहुत शीघ्र अथवा पशु की गर्मी निकल जाने पर गाभिन कराने लाते हैं। ऐसे में पशुपालक ध्यान रखें कि अगर पशु शाम को गर्मी में आए तो अगले दिन सुबह तथा यदि पशु में गर्मी के लक्षण सुबह दिखाई दें, तो उसी दिन शाम को गाभिन कराने के लिए ले जाएँ। अत: उन्हें प्रतिदिन शाम व सुबह को पशु में गर्मी के लक्षण अवश्य देखने चाहिए। भैंसों में प्रजनन ऋतुकालिक होने के कारण गर्मी के दिनों में खासकर अप्रैल से जुलाई के महीनों में विशेष व्यवस्था करनी चाहिए जैसे कि : –
- पशु के लिए आवास खुला व छायादार हो।
- पशु को सुबह व शाम को खूब नहलायें व दोपहर की गर्मी के समय पास के किसी नदी या तालाब में लोटने दें, परंतु सूरज की सीधी गर्मी से बचाएं।
- इस ऋतु में पशु को चारा या भूसा भी शाम या रात को अथवा बहुत सुबह ही देना चाहिए।
- ज़्यादातर भैंसों में गर्म होने के लक्षण रात में दिखाई देते हैं । अत: गर्मी के लक्षण देर शाम तथा सुबह ही देखे जाने चाहिए जिससे शांत गर्मी में आने वाले पशु भी गाभिन कराये जा सकें।
गर्मी में आने के लक्षण
- योनिमार्ग में सूजन (रक्तप्रवाह के कारण गुलाबी-लाल रंग)।
- बार-बार रंभाना एवं पूंछ उठाना।
- मूत्रमार्ग से गाढ़े, स्वच्छ एवं पारदर्शी तरल का स्त्राव।
- बार-बार मूत्र त्याग करना।
- खुराक व दूध का कम होना।
- पशु का बेचैन होना, दूसरे पशुयों को सूंघना व उन पर चढ़ना।
- गर्मी में आने के 10-12 घंटे के बाद पशु का सांड या अन्य पशु के सामने जाकर खड़ा होना और उसे अपने ऊपर चढ़ने देना (यह गर्भाधान का सर्वाधिक उपयुक्त समय होता है)।
गर्भाधान
- प्राकृतिक गर्भाधान: जिस स्थान पर कृत्रिम गर्भाधान की सुविधा उपलब्ध नहीं है, उन स्थानों पर प्राकृतिक गर्भाधान करवाएँ। प्राकृतिक गर्भाधान कराते समय निम्न बातों का ध्यान रखें:
- प्राकृतिक गर्भाधान के लिए उत्तम नस्ल के उत्तम साँड का चयन करें । साँड का चयन करते समय उसकी माँ की दूध देने कि क्षमता का ज्ञान होना चाहिए।
- प्राकृतिक गर्भाधान में प्रयुक्त साँड किसी रोग से ग्रसित न हो।
- पशुयों में अंत:प्रजनन कराने से बचें । नज़दीकी रिश्ते के पशुयों में आपस में प्रजनन न कराएं।
- प्राकृतिक गर्भाधान में एक साँड से दिन में एक से अधिक व सप्ताह में चार से अधिक प्रजनन न कराएं अन्यथा इससे अधिक कराने पर मादा पशु के गर्भित होने पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
- अवर्णित नस्ल एवं कम उत्पादन क्षमता वाले नर पशुयों/सांडों का बधियाकरण करवाएँ ताकि पशु नस्ल सुधार कार्यक्रम पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।
- कृत्रिम गर्भाधान: कृत्रिम गर्भाधान में नर पशु के वीर्य को कृत्रिम विधि द्वारा एकत्रित कर मादा पशु के गर्भाशय में यंत्र (गन) द्वारा डाला जाता है । दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए कृत्रिम गर्भाधान तकनीक सर्वोत्तम है।
कृत्रिम गर्भाधान की उपयोगिता
- कृत्रिम गर्भाधान द्वारा एक उन्नत नस्ल के साँड से अनेक पशुयों को गर्भित कराया जा सकता है जिससे उन्नत सांडों की उपयोगिता में वृद्धि होती है।
- मादा पशु के गर्म होने पर साँड को ढूंढ़ने की ज़रूरत नहीं पड़ती । इस विधि द्वारा उन्नत साँड के उच्च गुणवत्तायुक्त वीर्य से पशु को आसानी से गर्भित किया जा सकता है।
- पशुयों की नस्ल में तेज़ी से सुधार होता है।
- पशुपालक को अपने पशु समूह हेतु मंहगे साँड रखने की आवश्यकता नहीं होती।
- कृत्रिम गर्भाधान द्वारा प्रजनन संबंधी बीमारियों को फैलने से रोका जा सकता है तथा कृत्रिम गर्भाधान करते समय जननांगों की बीमारियों का भी पता लग जाता है।
- कम व्यय में प्रजनन कराया जा सकता है। अत: यह एक सस्ती तकनीक है।
- वीर्य को एक स्थान से दूसरे स्थान तक भली-भांति व बिना असुविधा के ले जाया जा सकता है।
अत: पशुपालकों को चाहिए कि वे कृत्रिम गर्भाधान विधि को अपनाएं और पशु को सही समय पर गर्मी में आने पर ही गाभिन करवाएँ । गर्भाधान कराने के पश्चात पशुयों के रख-रखाव की तरफ ज़्यादा ध्यान देना चाहिए । सर्वथा निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए:
- यह देखना चाहिए कि पशु ने कृत्रिम गर्भाधान किया है या नहीं । यह पशु के गर्भाधान के 2 से 3 महीने के बाद परीक्षण कराने से ज्ञात हो सकता है।
- यदि गाय या भैंस गाभिन है व दूध भी दे रही है तो उसके लिए प्रचुर मात्रा में आहार उपलब्ध कराना चाहिए।
- यदि किसी कारणवश पशु ने गर्भधारण नहीं किया है, तो उसके पुन: ऋतुकाल में आने की प्रतीक्षा करें और कुछ समय बाद यदि पशु ऋतुकाल में भी नहीं आता है तो तुरंत पशु चिकित्सक से जांच कराएं । इसके लिए प्रत्येक पशु का रिकॉर्ड रखें।
- पशु की जांच किसी विशेषज्ञ पशु चिकित्सक से नियमित अंतराल पर अवश्य करवाएँ।
- पशु को रोज़ाना 40 से 50 ग्रा. खनिज लवण व 30 ग्रा. नमक चारे-दाने के साथ अवश्य खिलाएँ।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि यदि पशुपालक अपने पशुयों के पोषण तथा प्रबंधन का नियमित ध्यान रखेंगे तो वह दुधारू पशुयों में बाँझपन की समस्या से निजात पाकर आर्थिक रूप से समृद्ध रहेंगे।
Be the first to comment