भैसों में सफ़ेद दाग (ल्यूकोडर्मा)

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पशुधन का भारतीय अर्थव्यवस्था में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान हैं जिनमे भैंसों का एक विशेष स्थान है। विश्व के सम्पूर्ण भैंसों की संख्या का आधा हिस्सा भारत में पाई जाती हैं। भैंस दूध, मांस एवं खाल/चमड़ी का उत्तम श्रोत हैं। भारत के कुल दुग्ध उतपादन का लगभग 55% ढूध भैंसों द्वारा उत्पादित किया जाता है। पशु का उत्पादन अनेक कारको जैसे वातावरण, प्रबन्धन एवं बीमारियों से प्रभावित होता है। कुछ बीमारियाँ ऐसी होती है जिसमे पशु के उत्पादन पर सीधा प्रभाव नहीं पड़ता है जिनमे से एक ल्यूकोडर्मा है। सफ़ेद दाग या ल्यूकोडर्मा भैंसों में होने वाली एक दुर्लभ बीमारी है। इसमें पशु के शरीर पर विभिन्न हिस्सों में सफ़ेद रंग के दाग उत्पन्न होने लगते हैं। ये दाग प्रारंम्भ में हल्के गुलाबी एवं छोटे आकार के होते हैं परन्तु धीरे धीरे इनका रंग सफ़ेद आकार  बड़ा हो जाता है। वैज्ञानिक भाषा में ल्यूकोडर्मा का अर्थ खाल/चमड़ी का रंग सफ़ेद होना, जो की रंग प्रदान करने वाले लवक की अनुपस्थिति या उसका कम मात्र में पाया जाना होता है। इस बीमारी से ग्रसित पशु के दुग्ध उत्त्पदन एवं गुणवत्ता पर कोई असर नहीं पड़ता परन्तु पशु का शरीर देखने में अच्छा नहीं लगता है और समाज में व्याप्त भ्रांतियों की वजह से पशु को बेचने पर बहुत कम मूल्य प्राप्त होता है जिससे की पशुपालको को आर्थिक हानि का सामना करना पड़ता है।

यह रोग प्रायः भैंसों में देखने को मिलता है क्योकि भैंस के शरीर का रंग काला होता है। जैसा की मनुष्यों में सफ़ेद दाग को एक अभिशाप के रूप में देखा जाता है वैसे ही इस रोग से ग्रसित पशु का दूध पीने से लोग बचते हैं एवं उस पशु को लोग छूना भी पसंद नहीं करते क्योंकि लोगो के मन में यह भ्रान्ति होती है की यह एक छुआछूत की बीमारी है।

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कारण

अभी तक इस रोग का निश्चित कारण अज्ञात है। परन्तु भैसों में यह रोग मुख्यतः कॉपर तत्व की कमी से होता है। पशु के शरीर को रंग प्रदान करने वाले लवक को मेलेनिन कहते हैं। क्योंकि मेलेनिन के बनने की प्रक्रिया में टाईरोसिनेज एंजाइम की आवश्यकता होती है जो की कॉपर से मिलकर बना होता है। अतःपशु के शारीर में कॉपर तत्व की कमी हनी से मेलेनिन उचित मात्र में नहीं बन पता है जिससे की खाल एवं बालों का रंग सफ़ेद होने लगता है। पशुओ में कॉपर तत्व की कमी का मुख्य कारण पशु के चारे में कॉपर की कमी या पशु के पेट मैं कॉपर तत्व का ठीक ढंग से अवशोषित न हो पाना होता है। पशु के पेट में कीडे/कृमि होने से भी पशु को कॉपर की कमी हो जाती है । पशु के पेट में पाए जाने वाले कुछ कृमि/कीड़े बहुत से खनिजो का अवशोषण करते हैं जिसके फलस्वरूप कॉपर की कमी हो जाती है।

लक्षण

शरीर के विभिन्न भागों में सफ़ेद या हल्के गुलाबी रंग के धब्बे/निशान का पाया जाना ल्यूकोडर्मा रोग का प्रमुख लक्षण है। इस बीमारी के लक्षण सबसे ज्यादा पशु के शरीर के निचले हिस्सों जैसे पेट, छाती, थन , जांघ, वाह्य मादा जनांगो एवं कभी कभी शरीर के उपरी हिस्सों में भी पाए जाते हैं। यह रोग अक्सर मादा पशुओं में ही पाया जाता है। इस रोग से ग्रसित पशु के खान पान एवं दुग्ध उत्पादन पर कोई महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं पड़ता है ।

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उपचार

पशुचिकित्सक की सलाह पर पशु को प्रत्येक तीन महीने में एक बार कृमिनाशक दवा देनी चाहिए। इसके बाद मिनिरल मिक्सचर पाउडर ४० ग्राम प्रतिदिन एवं पशु चिकित्सक से कॉपर ग्लाइसिनेट का इंजेक्शन लगवाने से पशु ठीक हो जाता परन्तु पूरी तरह से ठीक होने में ३ से ४ महीनो का समय लग सकता है इसलिए इलाज के दौरान पशुपालको को धैर्य रखना चाहिए।

पशुपालको के लिए सलाह

सफ़ेद दाग या ल्यूकोडर्मा छुआछूत की बीमारी नहीं है इसलिए पशु को छूने से, पशु का ढूध पीने से, या पशु को चारा खिलाने या पानी पिलाने से यह बीमारी नहीं फैलती है। बीमार पशु का पंजीकृत पशु चिकत्सक से समुचित इलाज करवाना चाहिए। किसी भ्रान्ति में आकर या किसी अन्य के कहने पर पशु को कम मूल्य में बेचने से आर्थिक हानि होती है।

इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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