डेयरी पशुओं के आहार में खनिज तत्वों का महत्व

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शर्करा, प्रोटीन और वसा आहार के मुख्य भाग जाने जाते हैं। बेशक, खनिज तत्त्व और विटामिन की बहुत कम मात्रा में ही सही लेकिन शरीर की विभिन्न क्रियाओं के लिए भी आवश्यक हैं। आमतौर पर पशुपालक अपने पशुओं को पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज्ञात पारंपरिक ज्ञान के आधार पर या स्थानीय क्षेत्र में उपलब्ध एक या दो ही खाद्य पदार्थों का ही इस्तेमाल करते हैं जिससे पशुओं खासतौर से अधिक दुग्ध उत्पादन करने वाले पशुओं में आमतौर पर खनिज तत्वों की कमी पायी जाती है। शरीर में खनिजों की कमी के कारण पशुओं के स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और उनमें कई प्रकार के रोग एवं समस्यायें उत्पन्न हो सकती हैं। इनकी कमी के कारण दुधारू पशुओं का दुग्ध उत्पादन कम होने के साथ-साथ उनकी प्रजनन क्षमता भी प्रभावित होती है। आमतौर पर पशुओं को कृषि अवशेष ही मुख्य आहार के रूप में दिये जाते हैं। कृषि अवशेषों में शर्करा ही पर्याप्त मात्रा में होती है लेकिन उनमें खनिज तत्वों की मात्रा कम होती है। उनमें लिग्लिन अधिक होने के कारण पशु इनका पूरी तरह उपयोग नहीं कर पाते हैं। डेयरी पशुओं के चारे और आहार में दुग्ध उत्पादन और प्रजनन के लिए आवश्यक सभी खनिज तत्त्व मौजूद नहीं होते हैं। चारे और आहार में खनिज तत्वों का स्तर क्षेत्र-दर-क्षेत्र बदलता रहता है। खनिज तत्त्व बहुत ही थोड़ी मात्रा में हर प्रकार के चारे  में पाये जाते हैं लेकिन अधिक दुग्ध उत्पादन करने वाले पशुओं में इनकी आवश्यकता केवल चारे में उपलब्ध खनिज तत्वों से ही पूरी नहीं होती है। अतः खनिज तत्वों को पूरक आहार के साथ दिया जाता है। प्रकृति में लगभग 40 प्रकार के खनिज जीव-जन्तुओं के शरीर में पाये जाते हैं, लेकिन इसमें से कुछ ही अत्यन्त उपयोगी है। शरीर की आवश्यकतानुसार खनिज तत्त्वों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जाता है: 1. गौण खनिज तत्त्व 2. सूक्ष्म खनिज तत्त्व इत्यादि।

  1. गौण खनिज तत्त्व: इन खनिज तत्त्वों की पशुओं के लिए अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है, जिनकी मात्रा को ग्राम या प्रतिशत में व्यक्त किया जाता है। इनको प्रमुख खनिज तत्त्व भी कहते हैं। कैल्शियम, फास्फोरस, पोटैशियम, सोडियम, सल्फर, मैग्निशियम तथा क्लोरीन इत्यादि इस श्रेणी में आते हैं।
  2. सूक्ष्म खनिज तत्त्व: इन खनिज तत्त्वों की पशुओं के लिए सूक्ष्म मात्रा में आवश्यकता होती है, जिसको मिलीग्राम/पी.पी.एम./माइक्रोग्राम इत्यादि में व्यक्त करते है, ऐसे खनिजों को ट्रेस खनिज तत्त्व या विरल खनिज तत्त्व भी कहते हैं। लोहा, तांबा, मोलीब्डेनम, मैंगनीज, जिंक, कोबाल्ट, आयोडिन, क्रोमियम, सेलेनियम, फ्लोरिन इत्यादि इस श्रेणी में आते हैं।

दुग्ध उत्पादन करने वाले पशुओं के शरीर से सोडियम, पोटैशियम, कैल्शियम, मैग्निशियम और क्लोराइड, सल्फर, फास्फोरस, लोहा, तांबा और आयोडीन इत्यादि खनिज तत्त्व दूध में स्त्रावित होते हैं। प्रचूर मात्रा में पूरक खनिज तत्त्वों के अभाव में दूधारू पशुओं के शरीर से ये तत्त्व कम होने से उनमें इनकी कमी के लक्षण दिखायी देने लगते हैं। इसके अतिरिक्त भूमि से भी खनिज तत्त्वों की कमी होने से चारे में इनकी कमी हो जाती है और यही चारा खाने से पशु के शरीर में इनकी कमी होने से दूधारू पशुओं का स्वास्थ्य, दूध की गुणवत्ता और उत्पादन को किसी न किसी रूप में प्रभावित करते हैं। इनकी कमी से पशु के शरीर पर कई प्रकार के दुष्प्रभाव पड़ते हैं जैसे कि:

  • पशुओं का गर्भधारण अधिक उम्र में होना, ब्याने पर दुग्ध ज्वर होना, बार-बार मद में आना व गर्भपात हो जाना।
  • पेशाब में खून आना।
  • खुर व पूंछ झड़ने लगना।
  • रोगप्रतिरोधक क्षमता कम होना।
  • रक्ताल्पतता अर्थात खून की कमी होना।
  • दूधारू पशुओं के दुग्धोत्पादन में कमी और ज्यादा समय तक दूध न देना।
  • पशु का पाचन तन्त्र कमजोर होना।
  • संचालन शक्ति कम होना।

कैल्शियम

दूधारू पशु के लिए कैल्शियम बहुत ही महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। यह हड्डियों तथा दाँतों की रचना करता है और उन्हें मजबूत बनाता है, हृदय की प्रक्रिया को सामान्य रखता है, रक्त के जमने में सहायता करता है तथा माँस पेशियों को क्रियाशील बनाए रखता है। हरी पत्तेदार फसल खासकर फलीदार पौधे कैल्शियम के उपयुक्त स्त्रोत हैं (शालिनी 2015)। शरीर में उपलब्ध ज्यादातर कैल्शियम दूध के माध्यम से बाहर निकलता है। अत: कैल्शियम की कमी ज्यादातर प्रसवोपरान्त दुधारू पशुओें में देखने को मिलती है। प्रति किलोग्राम दुग्धोत्पादन के लिए शरीर को 2 ग्राम कैल्शियम देना चाहिए नहीं तो दुग्ध उत्पादन कम हो जाएगा। गर्भित पशुओं में कैल्शियम की आवश्यकता भ्रूण के विकास के कारण ज्यादा बढ़ जाती है। आमतौर से कम मात्रा में कैल्शियम की कमी के लक्षण पशुओं में दिखायी नहीं देते हैं। कैल्शियम की कमी के कारण निम्नलिखित दुष्प्रभाव होते हैं (सुभाशीष एवं अन्य 2016, वीनस एवं अन्य 2017):

  • कैल्शियम की कमी के कारण पशु कई बार मिट्टी खाना, रस्सी, कपड़ा आदि चबाना शुरू कर देता है।
  • बूढ़े पशुओं में इसकी कमी से अस्थिमृदुता (ओस्टियोमलेसिया) नामक रोग उत्पन्न होता है, जिससे पशु की हड्डियां कमजोर होनी शुरू हो जाती हैं।
  • कैल्शियम की कमी के कारण पशु के दाँत व हड्डियां कमजोर हो जाती हैं।
  • छोटे बच्चों की बढ़ोतरी एवं विकास रूक जाता है।
  • आहार में कैल्शियम की कम मात्रा दूध उत्पादन क्षमता को कम कर देता है। प्रसवोपरान्त दुधारू पशु के शरीर में कैल्शियम की कमी होने से दुग्ध ज्वर हो जाता है।
  • पशु के शरीर में कैल्शियम की कमी से बच्चेदानी का संकुचन कमजोर होता है जिससे बच्चा पैदा होते समय परेशानी होती है। ऐसी स्थिति में जेर का अटकना सामान्य घटना होती है।
  • कैल्शियम की कमी के कारण मादा पशुओं में मदकाल के दौरान डिंबोत्सर्जन (ओवुलेशन) में देरी होती है जिससे उसकी गर्भधारण की क्षमता कम हो जाती है।
  • मादा पशुओं में डिंबग्रंथि पुटिका (सिस्टिक ओवरी) होने की सम्भावना भी बढ़ जाती है।

पशुओं में कैल्शियम की कमी को दूर करने के लिए इसे पूरक आहारर के रूप में देना चाहिए।

फास्फोरस

फास्फोरस भी कैल्शियम की तरह ही दूधारू पशु के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं। फास्फोरस भी हड्डियों व दाँतों का एक मुख्य हिस्सा होने के साथ शरीर की ऊर्जा चपापचय क्रिया एवं कई अन्य चपापचयी क्रियाओं में योगदान देता है (शालिनी 2015, वीनस एवं अन्य 2017)। प्रति किलोग्राम दुग्धोत्पादन के लिए शरीर को 1 ग्राम फास्फोरस की आवश्यकता होती है। फास्फोरस कमी के निम्नलिखित लक्षण होते हैं:

  • पशु मिट्टी खाना, रस्सी, कपड़ा आदि चबाना शुरू कर देता है।
  • दाँत व हड्डियां कमजोर हो जाती हैं।
  • ऊर्जा के उपयोग में कमी हो जाती है।
  • पशुओं में यौवन परिपक्वता देरी से आती है (वीनस एवं अन्य 2017)।
  • मद चक्र अनियमित हो जाता है।
  • मादा पशुओं में मद चक्र विहिनता हो जाती है।
  • पशुओं के मूत्र में खून आने लगता है एवं जोड़ों में सूजन हो जाती है (सुभाशीष एवं अन्य 2016)।
और देखें :  पशुओं के लिए आहार संतुलन, का महत्वपूर्ण योगदान

पशुओं में फास्फोरस की कमी को दूर करने के लिए फास्फोरस को पूरक आहार के रूप में देना चाहिए। फास्फोरस की कमी से उत्पन्न होने वाले रोगों (हिमोग्लोबिनयूरिया) के निदान के लिए पशु चिकित्सक से इलाज करवाना चाहिए।

सोडीयम एवं क्लोरीन

सोडियम एवं क्लोरीन साधारण नमक के मुख्य घटक होते हैं। ये बाह्य कोशिका द्रव्य का मुख्य संघटक हैं। ये शरीर में अम्ल-क्षार संतुलन (इलेक्ट्रोलाइट बैलेंस) और परासरणी संतुलन (ऑस्मोटिक बैलेंस) के लिए आवश्यक होते हैं (शालिनी 2015)। सोडियम शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों को क्रियाशील बनाए रखता है और तंत्रिका आवेग संवहन (नर्व इम्पलस कंडक्शन) में भी इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। सोडियम क्लोराइड अथवा साधारण नमक की आवश्यकता पशुओं में काफी मात्रा में होती है जिसे साधारण नमक के रूप में ​दिया जाता है। शरीर में सोडियम एवं क्लोरीन की कमी से निम्नलिखित लक्षण उत्पन्न होते हैं (शिवमूरत 2015):

  • नमक खाने की इच्छा होना, साधारण नमक में मौजूद सोडियम एवं क्लोरीन की कमी का प्रारंभिक लक्षण है। इन तत्त्वों की कमी वाले पशुओं में अखाद्य पदार्थ जैसे कि मिट्टी, ईंट-रोड़ा, पत्थर, लकड़ी, हड्डियां एवं अन्य अखाद्य वस्तुओं को खाने प्रवृति बढ़ जाती है। ऐसे पशु अन्य पशुओं की त्वचा चाटना प्रारंभ कर देते हैं।
  • शरीर का तापमान कम हो जाता एवं अत्याधिक कमी से प्रभावित पशु कांपने लगता है। बहुत अधिक कमी होने से शरीर की क्रियाशक्ति कम होने पर मृत्यु भी हो जाती है।
  • यदि बचपन से ही नवजात बच्चे को नमक नहीं मिलता है तो उनकी चपापचयी दर कम हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप उनकी शारीरिक विकास दर कम होने उनकी परिपक्व उम्र भी बढ़ जाती है।
  • पशु अखाद्य पदार्थ जैसे कि लकड़ी, मिट्टी कपड़े, रस्से अथवा अन्य असामान्य वस्तुओं को चाटना/चबाना शुरू कर देता है।
  • शारीरिक भार में कमी हो जाती है।
  • हृदय गति का असामान्य होना।
  • दुग्धोत्पादन में कमी।
  • पीड़ित पशु में सुस्ती व थकावट बनी रहती है।
  • मादा पशु गर्भ न धारण करने वाली डिंबाक्षरणी मद (एनोवुलेटरी हीट) में आती है।
  • नमक से वंचित पशु इसे प्राप्त करने के लिए इतना बेचैन हो सकता है कि वह नमक तक पहुंचने के प्रयास में खुद को चोट पहुंचा सकता है।

पशुओं के आहार में नमक को 0.5 – 1.0 प्रतिशत की दर से मिलाकर देना सभी पालतु पशुओं के लिए पर्याप्त है।

मैग्निशियम

मैग्निशियम हड्डियों की संरचना और तंत्रिका तन्त्र एवं माँसपेशीयों की क्रियाशीलता के लिए आवश्यक है। यह शर्करा के चयापचय के लिए उत्प्रेरक का कार्य करता है। मैग्निशियम शरीर की अनेक रासायनिक प्रतिक्रियाओं में महत्वपूर्ण योगदान देता है। शर्करा व प्रोटीन चयापचय में महत्वपूर्ण कार्य करता हैं। शरीर में कैल्शियम व फास्फोरस का उचित समन्वय बनाये रखने में मैग्निशियम महत्त्वपूर्ण कार्य करता हैं। माँसपेशियों व नाड़ी ऊतकों की शक्ति संवर्द्धन में सहायता करता है। मैग्निशियम के कण फास्फाटेज एन्जाइम को सक्रिय करने में सहायक होते हैं जो शरीर में फास्फोरिलेशन क्रिया के माध्यम से ऊर्जा (एटीपी) का उत्पादन करता है। मैग्निशियम शरीर में तन्त्रिकापेशीय प्रणाली की संवेदनशीलता (न्यूरोमस्कुलर इरिटेबिलिटी) को नियन्त्रित करता है (Banerjee 2011)। हरा चारा, अनाज, चोकर, बिनौला खल, अलसी की खल  में मैग्निशियम अच्छी मात्रा में उपलब्ध होता है।

मैग्निशियम की कमी तभी होती है जब पशु को ऐसे चारागाह में चरने के लिए भेजा जाता है या चारा खिलाया जाता है जिसकी मिट्टी में मैग्निशियम की कमी होती है। ऐसे चारे जिनमें पोटैशियम की मात्रा अधिक होती है, मैग्निशियम की कमी हो जाती है। मैग्निशियम की कमी से निम्नलिखित समस्याएं होती हैं:

  • मैग्निशियम की कमी से पशुओं में तृण अपतानिका अर्थात ग्रास टिटेनी नामक बीमारी उत्पन्न हो जाती है (शालिनी 2015)।
  • पशु असामान्य ढंग से चलते हैं। प्रभावित पशुओं में चिड़चिड़ापन एवं अतिसंवेदनशीलता के लक्षण दिखायी देते हैं। कंपकंपी एवं शरीर एंठन के लक्षण भी उत्पन्न हो जाते हैं।,

मैग्निशियम की कमी को पूरा करने के लिए सान्द्र दाना-मिश्रण में खनिज मिश्रण की उचित मात्रा मिलायी जाती है। फिर भी इसकी कमी होने की अवस्था में संभावित पशुओं को लगभग 50 ग्राम मैग्निशियम ऑक्साइड की खुराक प्रतिदिन रोकथाम के लिए दी जाती है (Banerjee 2011)।

पोटैशियम

पोटैशियम अंतःकोशिकीय द्रव्य का मुख्य घटक है। यह माँसपेशियों के संकुचन एवं तंत्रिका आवेगों के संचारण के लिए आवश्यक है। इसकी आवश्यकता ऊत्तकों की कार्यशैली को सामान्य बनाए रखने के लिए होती है। उत्तेजना, तनाव, बुखार या दस्त इत्यादि मूत्र मार्ग के माध्यम से उत्सर्जन में वृद्धि करते हैं, जिससे शरीर में पोटैशियम की कमी हो जाती है। तरूण पौधों में पोटैशियम की अच्छी मात्रा होती है लेकिन जैसे-जैसे पौधे बढ़ते हैं तो उनमें पोटैशियम की मात्रा में कमी होने लगती है। इसके अतिरिक्त यह अम्ल-क्षार के संतुलन बनाये रखने के लिए भी आवश्यक है (शालिनी 2015)।

ऐसे चारे जिनमें पोटैशियम की मात्रा अधिक होती है, मैग्निशियम से प्रतिस्पर्धा कर तृण अपतानिका (ग्रास टिटेनी) नामक बीमारी उत्पन्न करता है। यदि शरीर में पोटैशियम की मात्रा ज्यादा होती है तो यह कैल्शियम व मैग्निशियम की चयापचयन क्रिया को प्रभावित कर लेवटी में शोफ (इडिमा) उत्पन्न कर देता है। शरीर में पोटैशियम की कमी के कारण निम्नलिखित लक्षण होते हैं:

  • शारीरिक विकास वृद्धि में कमी।
  • आहार एवं पानी के सेवन में कमी।
  • आहार में उपलब्ध तत्त्वों के अवशोषण में कमी।
  • माँसपेशियों में कमजोरी होना।
  • तन्त्रिका तन्त्र में विकार उत्पन्न होना।
  • शरीर में अकड़न एवं कमजोरी होना।

उपचार एवं रोकथाम: इसकी कमी को पूरा करने के लिए आहार में पोटैशियम मिलाकर पशुओं को देना चाहिए।

गन्धक

गन्धक अर्थात सल्फर शरीर की सभी कोशिकाओं में मौजूद होती है। यह कई अमीनो एसीड, जैसे कि मिथियोनिन, सिस्टीन, होमोसिस्टीन व टॉरिन का मुख्य घटक है। ये अमीनो एसीड शरीर में प्रोटीन बनाने में सहायता करते हैं। गन्धक का उपयोग शरीर में मौजूद सूक्ष्म जीवाणुओं द्वारा भी किया जाता है। इसके अलावा यह इन्सुलिन, विटामिन बी1, बायोटीन हेपारिन, ग्लूटाथियोन, को-एन्जाइम-ए, लिपोइक एसिड, एवं टॉरोकोलिन एसिड में भी सहायक होता है (Banerjee 2011)। ऊन में सबसे ज्यादा गन्धक (4 प्रतिशत) होता है। यह केराटिन, बालों, खुरों इत्यादि में भी उच्च मात्रा में मौजूद होता है। यह अकार्बनिक रूप में रक्त एवं अन्य ऊत्तकों में भी होता है।

आमतौर पर शरीर में गन्धक की कमी नहीं होती है क्योंकि इसकी आपूर्ति प्रोटीन के सेवन हो जाती है। फिर भी आहार में सल्फर की कमी से प्रोटीन व संबंधित विटामिन्स की कमी हो जाती है (Banerjee 2011)। यदि आहार में प्रोटीन की आपूर्ति हेतु नाइट्रोजन अर्थात यूरिया का उपयोग किया जाता है तो पशुओं में गन्धक की कमी हो जाती है।

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लोहा

यह रक्तकणरंजकद्रव्य (हीमोग्लोबिन) तथा माँसपेशीरंजकद्रव्य (मायोग्लोबिन) का मुख्य अवयव है। हीमोग्लोबिन ऊत्तकों में ऑक्सीजन पहुँचाने का कार्य करता है। यह कोशिकीय ऑक्सीकरण (ऑक्सीजिनेशन) के लिए आवश्यक होता है। आहार में अनाज की ज्यादा मात्रा एवं प्रोटीन की कम मात्रा होने से शरीर में से लोह तत्त्व की कमी हो जाती है। दस्त या आंतों की बीमारियों में भी इसकी कमी हो जाती है। लोहे की पर्याप्त मात्रा फलीदार पौधों, बीजावरण एवं हरी पत्तेदार फसलों में प्रचुर मात्रा में पाया होती है (शालिनी 2015)। शरीर में लोह तत्त्व की कमी के निम्नलिखित लक्षण हैं:

  • पशुओं के शरीर में लोहे की कमी से खून की कमी हो जाती है।
  • त्वचा का लाल रंग भी हो सकता है।
  • विकास दर कम हो जाती है।
  • इसकी कमी से प्रजनन शक्तिहीनता उत्पन्न होती है।

तांबा

ऐसे स्थानों में जहाँ की मिट्टी में तांबे की कमी है या मोलिब्डेनम की अधिकता है, तांबे की कमी पाई जाती है। शरीर में तैयार होने वाले कई अतिआवश्यक एंजाइम एवं लोहे के अवशोषण के लिए तांबे की आवश्यकता होती है (दीपिका एवं अन्य 2016)। शरीर में उत्पन्न होने वाले हानिकारक ऑक्सीकारक तत्त्वों को नष्ट करने के लिए तांबे की आवश्यकता होती है। आहार में सल्फर एवं मोलिब्डेनम की अधिकता होने से तांबे के अवशोषण में बाधा आती है। इसकी कमी से निम्नलिखित समस्याएं आती हैं  (अँजली 2013, Yang & Li 2015, दीपिका एवं अन्य 2016, वीनस एवं अन्य 2017):

  • हड्डियां कमजोर होना।
  • धीमी गति से विकास वृद्धि होना।
  • रोगप्रतिरोधक क्षमता कम होना।
  • यौवनावस्था में देरी।
  • गर्भाशय ऊत्तकों में कमजोरी जैसा विकार उत्पन्न हो जाता है।
  • गर्भाशय की क्रियाशीलता कम हो जाती है।
  • डिंबग्रंथि अक्रियाशील हो जाती है जिससे मादा पशुओं की गर्भधारण क्षमता कम हो जाती है।
  • तांबे की कमी के कारण गर्भावस्था के प्रारंभिक चरण में ही भ्रूण की मृत्यु हो जाती है। इसकी कमी के कारण पशुओं का गर्भपात या गर्भस्थ शिशु का ममीकरण (मम्मीफिकेशन) भी हो जाता है।
  • बालों का रंग काले से भूरा या लाल हो सकता है।
  • जेर अटकना।
  • थनैला रोग की संभावना।

तांबे का अत्याधिक सेवन भी प्रजनन क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है (वीनस एवं अन्य 2017)।

मोलीब्डेनम

पशुओं को बहुत कम मात्रा में आहारीय मोलीब्डेनम की आवश्यकता होती है। चारे में इसकी ज्यादा मात्रा होने पर तांबे की कमी को बढ़ा देता है, ऐसी स्थिति में तांबा देना आवश्यक हो जाता है। जैसे-जैसे भूमि की पी.एच. बढ़ती है तो मोलीब्डेनम की मात्रा में भी बढ़ोत्तरी होती है। आहार में मोलिब्डेनम को पूरक आहार के रूप में शायद ही कभी आवश्यकता होती है लेकिन जुगाली करने वाले पशुओं के आहार में यदि फाइबर की मात्रा ज्यादा होने के साथ-साथ ताबे एवं मोलीब्डेनम का अनुपात 4:1 से ज्यादा होता है तो ज्यादातर मोलीब्डेनम मल के साथ शरीर से बाहर आ जाता है। आहार में मोलीब्डेनम की अधिकता से गंभीर दस्त लग जाते हैं। शरीर में जैन्थिन ऑक्सीडेज, सल्फाइड ऑक्सीडेज एवं एल्डेहाइड ऑक्सीडेज आदि एंजाइमों के लिए मोलीब्डेनम की आवश्यकता होती है। पशुओं में मोलीब्डेनम की कमी बहुत कम होने की संभावना होती है फिर भी तांबे एवं सल्फर की अधिकता होने पर इसकी कमी हो जाती है जिसके लक्षण इस प्रकार हैं (Donaldson 2015):

  • प्रभावित पशुओं में आहारीय सेवन कम हो जाता है जिससे उनका विकास अवरूध हो जाता है।
  • प्रजनन क्षमता भी प्रभावित होती है।
  • चूजों में निचला जबड़ा, टांगे कमजोर होने के साथ-साथ उनकी शक्ति भी क्षीण हो जाती है।

मैंगनीज

मैंगनीज शरीर में उत्पन्न होने वाले हानिकारक ऑक्सीकारकों को निष्क्रिय करने में सहायक है (दीपिका एवं अन्य 2016)। चारे में मैंगनीज की कमी होने से निम्नलिखित प्रभाव पशुओं में देखने को मिलते हैं (दीपिका एवं अन्य 2016):

  • मैंगनीज की कमी से पशु का ढांचा विकसित नहीं हो पाता है।
  • पशु की विकास दर कम हो जाती है।
  • हड्डियों में असामान्यता आ जाती है व उनकी शक्ति भी कम हो जाती है।
  • शरीर एवं टांगों में कमजोरी होना जिससे पशु के पैर गुथने (इंटरलॉक) लगते हैं।
  • पशु के जोड़ों का आकार बड़ जाता है।
  • पशु का मद में रहना लेकिन मद के लक्षण न दिखना।
  • प्रजनन क्षमता कम हो जाती है। इसकी कमी के कारण पशुओं की गर्भधारण क्षमता 35 – 40 प्रतिशत कम हो जाती है (वीनस एवं अन्य 2017)।
  • असामान्य बच्चे का जन्म।

जिंक

जिंक कई जैविक उत्प्रेरक क्रियाओं में भाग लेता है। शरीर में कोशिकाओं की वृद्धि, हार्मोन्स के निर्माण, चपापचयन, भूख नियन्त्रण, रोगप्रतिरोधक क्षमता आदि नियन्त्रित करने वाले एन्जाइमों के लिए जिंक की आवश्यकता होती है (अँजली 2013, दीपिका एवं अन्य 2016)। जिंक विटामिन ए के साथ मिलकर पशु की प्रजनन क्षमता बनाए रखने में सहायता करता है। खुरों एवं थनों का बाहरी आवरण (केराटिन) बनाने में जिंक की मुख्य आवश्यकता होती है। थन नलिका में कैरेटिन बनने के लिए जिंक आवश्यक है। कैरेटिन एक मोम जैसा पदार्थ है जो थन के छिद्र में स्त्रावित होता है जो थनों में जीवाणुओं के प्रवेश को रोकता है तथा थनैला रोग की रोकथाम में महत्त्वपूर्ण है (अँजली 2013)। शरीर में तैयार होने वाले हानिकारक ऑक्सीकारक तत्त्वों को क्रियाविहिन करने के लिए जिंक पर निर्भर एंजाइमों की आवश्यकता होती है। यह रक्ताल्पतता को दूर करने के साथ-साथ कॉलेस्ट्रम में इम्मुनोग्लोब्यूलिन की मात्रा को भी बढ़ता है (दीपिका एवं अन्य 2016)। आहार में जिंक की मात्रा अधिक होने से तांबे के अवशोषण में बाधा आती है (दीपिका एवं अन्य 2016)। इसकी कमी से निम्नलिखित लक्षण होते हैं (अँजली 2013, Yang & Li 2015, सुभाशीष एवं अन्य 2016, दीपिका एवं अन्य 2016):

  • भूख कम लगती है।
  • पशु की विकास दर कम हो जाती है।
  • पशु की प्रतिरक्षण क्षमता कम हो जाती है।
  • डिंबग्रंथि का विकास न होना।
  • प्रजनन क्षमता कम हो जाती है।
  • अनियमित मदचक्र।
  • गर्भधारण देरी से होना।
  • थनैला रोग की संभावना।
  • शिशुओं में मृत्यु बढ़ जाती है।
  • चमड़ी का रूखापन, भेड़ों में ऊन का कड़ापन व झड़ना, पतले दस्त इत्यादि जिंक की कमी के कारण हो सकते हैं।
  • सींग एवं खुर कमजोर हो जाना।

कोबाल्ट

यह ‘बी’ ग्रुप विटामिंस का एक आवश्यक भाग होता है। गाय या भैंस को आहार में विटामिन बी12 देना अनिवार्य नहीं है क्योंकि उनके रूमेन में ही सूक्ष्म जीवाणुओं की सहायता से कोबाल्ट से बन जाता है (दीपिका एवं अन्य 2016)। इसकी कमी से निम्नलिखित लक्षण होते हैं (सुभाशीष एवं अन्य 2016, दीपिका एवं अन्य 2016, वीनस एवं अन्य 2017):

  • भूख कम लगती है।
  • पशुओं में कमजोरी आना।
  • पशु का विकास धीमी गति से होना।
  • पशु के शरीर में खून की कमी हो जाती है।
  • प्रजनन क्षमता कम हो जाती है। मादा पशुओं में कोबाल्ट की कमी के कारण गर्भधारण क्षमता में कमी आ जाती है, साथ ही उनमें अनियमित एवं मूक मदचक्र भी सामान्य लक्षण होता है।
  • प्रसवोपरान्त पूर्वावस्था में देरी से आना जिससे अगला बच्चा देर से होना।
  • दुग्धोत्पादन में कमी होना।
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आयोडीन

आयोडीन की थायराइड ग्रंथि से चपापचय क्रियाओं के लिए आवश्यक थाईरॉक्सिन हार्मोन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। शरीर में ग्लूकोज अतिरिक्त होने पर ग्लूकोज को संचित करना एवं ग्लूकोज की कमी होने पर संचित ग्लूकोज को उपलब्ध कराना आदि क्रियाओं के लिए थाईरॉक्सिन की आवश्यकता होती है। दुग्धोत्पादन के लिए थाईरॉक्सिन अति महत्त्वपूर्ण है। गर्भावस्था के आखिरी दिनों में दुग्धोत्पादन एवं ठण्ड के समय शरीर में थाईरॉक्सिन का उत्पादन बढ़ जाता है। ज्यादा दूध देने वाले पशुओं में थाईरॉक्सिन का उत्पादन 2-3 गुणा बढ़ जाता है।

समुद्री मूल के भोजन (समुद्री शैवाल) में आयोडीन की प्रचुर मात्रा पाई जाती है (शालिनी 2015)। आयोडीन की कमी से थायराइड ग्रंथि बढ़ जाती है। गोभी, पत्ता गोभी, सरसों, शलजम, सोयाबीन, शकरकंद, चुकन्दर, अलसी, मटर व मूँगफली के अत्यधिक सेवन से भी थाइरॉइड ग्रंथि के बढ़ने की आशंका रहती है (शालिनी 2015, दीपिका एवं अन्य 2016)। आयोडीन की कमी से निम्नलिखित समस्याएं होती हैं:

  • प्रजनन क्षमता में कमी।
  • कमजोर, अविकसित, मरे बच्चे पैदा होने जैसी समस्याएं।
  • दुग्धोत्पादन में कमी।

क्रोमियम

हालांकि, क्रोमियम की आवश्यकता बहुत ही कम होती है, लेकिन यह पशुओं को बीमारियों में लड़ने की शक्ति पैदा करता है। यह शारीरिक ऊर्जा क्षमता को बढ़ाता है। तनाव ग्रस्त पशुओं के आहार में पर्याप्त मात्रा में क्रोमियम होने से पशु का आहारीय सेवन बढ़ जाता है। इसकी उपलब्धता से शरीर की कोशिकाओं में ग्लूकोज और प्रोटीन की उपलब्धता बढ़ जाती है। प्रसवोपरान्त मादा एवं बच्चे दोनों ही स्वस्थ रहते हैं व दुग्धोत्पादन भी बढ़ता है। इसके सेवन से रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है (दीपिका एवं अन्य 2016)।

सेलेनियम

सेलेनियम ग्लूटाथियोन परऑक्सीडेज एंजाइम के साथ मिलकर ऑक्सीकरणरोधी (एंटीऑक्सीडेंट) का कार्य करता है। यह कोशिकाओं की प्लाज्मा झिल्ली को टूटने से भी बचाता है। सेलेनियम की अधिकता से पशुओं में क्षार रोग होने की संभावना रहती है। सेलेनियम की कमी से निम्नलिखित प्रभाव देखने में आते हैं (Yang & Li 2015, शालिनी 2015, दीपिका एवं अन्य 2016):

  • दुधारू पशुओं का भार कम होने लगता है।
  • रोगप्रतिरोधक क्षमता में कमी।
  • दुग्धोत्पादन में कमी।
  • थनैला रोग की संभावना।
  • जेर अटकना।
  • गर्भाशय खराब होना।
  • डिंबग्रंथि में रसौली।
  • अनियमित मदचक्र।
  • गर्भधारण न होना या देरी से होना।
  • लेवटी में शोफ (इडिमा) होना।
  • थनैला रोग।

अधिक मात्रा में खिलाया गया सेलेनियम विषाक्त होता है। जिन क्षेत्रों में सेलेनियम की मात्रा चारे में होती है तो उन क्षेत्रों में इसे पूरक आहार में नहीं देना चाहिए (अँजली 2013)।

फ्लोरिन

शरीर को फ्लोरिन की आवश्यकता बहुत कम मात्रा में होती है। यह हड्डियों और दाँतों को सख्त कर देता है और मुख में जीवाणु क्रिया की दर को कम कर देता है। फ्लोरिन एक अत्यन्त विषैला खनिज है। इसकी अधिकता से विषाक्तता होती है जिससे फ्लोरोसिस कहा जाता है। गाय, भेड़ व घोड़ों में प्रदूषित जल, तृणीय चारा (ग्रास), रॉक फास्फेट (जिसमें फ्लोराइड होता है) की धूल के कारण फ्लोरोसिस होने की संभावना रहती है (शालिनी 2015)।

खनिज लवण मिश्रण बनाना

निम्नलिखित अवयवों का उपयोग कर खनिज लवण मिश्रण तैयार किया जा सकता है (लक्ष्मीनारायण वर्मा 2018)।

डाइकैल्शियम फास्फेट 55 प्रतिशत
सादा नमक 30 प्रतिशत
कैल्शियम कार्बोनेट 11 प्रतिशत
मैग्निशियम कार्बोनेट 3 प्रतिशत
फैरस सल्फेट 0.55 प्रतिशत
कॉपर सल्फेट 0.07 प्रतिशत
मैगनीज डाईऑक्साइड 0.07 प्रतिशत
कोबाल्ट क्लोराइड 0.05 प्रतिशत
पोटैशियम आयोडाइड 0.01 प्रतिशत
जिंक सल्फेट 0.25 प्रतिशत

खनिज की शारीरिक आवश्यकता

खनिज मिश्रण दुधारू पशुओं को उनके दुग्ध उत्पादन के अनुसार खिलाया जाता है। चार-पाँच किलोग्राम दूध देने वाले पशु को अतिरिक्त खनिज मिश्रण देने की आवश्यकता नहीं होती है। उनकी यह आवश्यकता खिलाये जाने वाले आहार से पूरी हो जाती है। इससे ज्यादा दुग्ध उत्पादन करने वाले पशुओं को लगभग 10 ग्राम खनिज मिश्रण प्रति किलोग्राम दुग्ध उत्पादन के अनुसार गणना करके दिया जाना चाहिए।

संदर्भ

  1. Banerjee G.C., 2011, “A Textbook of Animal Husbandry 8th edition,” Oxford & IBH Publishing Co. Pvt. Ltd., New Delhi.
  2. Donaldson D., 2015, The Importance of Micro-Minerals: Molybdenum, The Agri-King Advantage; 6(2) [Web Reference]
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  9. सुभाशीष साहू, हरीश कुमार गुलाटी एवं देवेन्द्र सिंह बिढाण, 2016, “पशु आहार में खनिज व विटामिन का महत्त्व,” पशुधन ज्ञान; 2(1): 23 – 24.

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