डेयरी पशुओं के आहार में विटामिनों का महत्व

4.8
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विटामिन ऐसे तत्त्व हैं जिनसे कोई ऊर्जा तो नहीं मिलती है लेकिन शारीरिक विकास और शक्तिवर्द्धन के लिए बहुत आवश्यक तत्त्व हैं। विटामिन शरीर की विभिन्न क्रियाओं के लिए अतिआवश्यक होते हैं। दूध देने वाले पशुओं के शरीर से दुग्ध स्त्रावित होने पर विभिन्न प्रकार के विटामिन भी दूध के साथ शरीर से बाहर आते हैं जिनकी आपूर्ति आमतौर पर आहार से हो जाती है। सभी विटामिनों का एक अपना-अपना महत्व होता है जिनकी कमी होने पर शरीर में विभिन्न प्रकार की बीमारियां भी हो सकती हैं। विटामिन ‘ए’ पशुओं को हरे चारे से आवश्यकतानुसार मिल जाता है। विटामिन ‘डी’ धूप से और कुछ विटामिन पशु स्वयं तैयार कर लेते हैं। फिर भी दूधारू पशुओं में विटामिन की आमतौर पर कमी रहती है। अतः पशुओं खासतौर से ज्यादा दूध देने वाले पशुओं को पूरक आहार के रूप में विटामिन अवश्य देने चाहिए। घुलनशीलता के आधार पर विटामिन्स दो प्रकार के होते हैं:

  1. वसा में घुलनशील विटामिन: विटामिन ‘ए’, डी एवं ई वसा में घुलनशील होते हैं। विटामिन ‘डी’ एवं ‘ई’ वसीय ऊतकों (एडिपोस टिस्सू) में संग्रहित होते हैं। विटामिन ‘ए’ यकृत में संग्रहित होता है।
  2. पानी में घुलनशील विटामिन: पानी में घुलनशील विटामिन ’बी’ ग्रुप व ’सी’ होते हैं। जुगाली करने वाले पशुओं में विटामिन ’बी’ व ’सी’ उदर में मौजूद जीवाणुओं द्वारा संश्लेषित किए जाते हैं इसके अलावा यह चारे में प्रचुर मात्रा में मिल जाते हैं। आमतौर से इन विटामिन्स की कमी पशुओं में कम ही देखने को मिलती है।

विटामिन

विटामिन ‘ए’ को रेटिनॉल कहते हैं जो रंगहीन एवं वसा और एल्कोहॉल में घुलनशील होता है। विटामिन ‘ए’ यकृत, मछली के तेल में अधिक मात्रा में मिलता है लेकिन दूध एवं अण्डे में कम पाया जाता है। शरीर में विटामिन ‘ए’ यकृत (लिवर) में संग्रहित होता है। विटामिन ‘ए’ ताजे काटे हुए हरे चारे में बीटा-कैरोटीन के रूप में प्रचूर मात्रा में उपलब्द्ध होता है। अत: विटामिन ‘ए’ की आपूर्ति हरा चारा खिलाने से पूरी हो जाती है। सूखे चारे एवं अनाज के दानों में यह कम मात्रा में उपलब्द्ध होता है।

विटामिन ‘ए’ आंखों के लिए अतिआवश्यक है। चमड़ी व श्लेष्मा झिल्ली की सरंचना, सुरक्षा व नवीनीकरण में सहायक, प्रजनन क्षमता बढ़ाना, भ्रूण के बनने में सहायक, शारीरिक विकास के लिए जरूरी, शरीर के ऊत्तकों के लिए, शरीर में उत्पन्न होने वाली बीमारियों से लड़ने में जरूरी है। विटामिन ‘ए’ एवं बीटा-कैरोटीन ऑक्सीकरणरोधी का कार्य करते हैं इसीलिए ये पशुओं में रोगप्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में सहायक होते हैं (Yang & Li 2015)।

विटामिन ‘ए’ की कमी से पशुओं में निम्नलिखित लक्षण होते हैं (Baldwin et al. 2012, Yang & Li 2015, शालिनी 2015):

  • भूख कम लगना।
  • चमड़ी में सूखापन आ जाता है जिससे त्वचा मोटी एवं खुरदरी हो जाती है।
  • बालों का झड़ना।
  • विटामिन ‘ए’ की कमी के कारण शरीर की श्लेष्मा झिल्लियों की श्रृंगीयता (हाइपरकेराटोसिस) बढ़ जाती हैं।
  • अंधापन या आँखों की रोशनी कम हो जाती है।
  • मद में न आना, गर्भधारण न कर पाना, गर्भपात।
  • पशुओं में दुग्धोत्पादन कम होने के साथ-साथ थनैला रोग होने की संभावना बढ़ जाती है।
  • रोगप्रतिरोधकता कम होना।
  • प्रभावित पशुओं में गतिभंग भी हो जाता है।
  • पेशी-स्फुरण के साथ बेहोशी और ऐंठन।

विटामिन ‘ए’ आपूर्ति के लिए पशुओं को भरपूर मात्रा में हरा चारा खिलाना चाहिए। यदि पशुओं में विटामिन ‘ए’ की कमी हो जाती है तो उनको पूरक आहार में विटामिन ‘ए’ दिया जाना चाहिए।

विटामिन ‘डी’ शरीर में कैल्शियम व फास्फोरस की चयापचय क्रिया को बढ़ाकर उनके अवशोषण को बढ़ाता है। विटामिन ‘डी’ शरीर में कैल्शियम की मात्रा को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान करता है (शालिनी 2015)। यह गुर्दे में कैल्शियम व फास्फोरस के मलोत्सर्जन को नियन्त्रित कर हड्डियों में संग्रहित करता है एवं वहां से आवश्यकतानुसार शरीर को प्रदान करवाता है। यह शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है। शरीर में विटामिन ‘डी’ की कमी से पशुओं में निम्नलिखित प्रभाव होते हैं (Kwiecinski et al. 1989, Pfeifer et al. 2002, Searing & Leung 2010):यह वसा में घुलनशील विटामिन है। विटामिन ‘डी’ को धूप का विटामिन भी कहते हैं क्योंकि अधिकतर पशु चमड़ी में मौजूद रसायनों से सूर्य की किरणें चमड़ी पर पड़ने से स्वतः ही संश्लेषित कर लेते हैं (शालिनी 2015, Combs &  McClung 2016)। यह दूध, यकृत तेल व सूर्य की रोशनी में सुखाई गई हरी घास में पाया जाता है।

  • शरीर में फास्फोरस की मात्रा अधिक होने से विटामिन ‘डी’ की मात्रा कम हो जाती है, जिससे कैल्शियम की कमी भी होती है जिससे दुग्ध ज्वर उत्पन्न होता है।
  • गर्भधारण क्षमता कम होती है।
  • शरीर की माँसपेशियों की शक्ति का ह्रास होता है।
  • एजर्जिक त्वचाशोथ (एटॉपिक डर्मेटाइटिस) हो जाता है।
  • कैल्शियम व फास्फोरस की चयापचय क्रिया सम्बन्धी विकार, शारीरिक विकास-वृद्धि के दौरान हड्डियों में खनिज लवणों का संग्रहण कम करना व वहां से खनिज तत्त्व कम करके हड्डियों के विकार जैसे हड्डियों को नरम व टूटने की समस्या आदि पैदा करना।
  • शरीर में विटामिन ‘डी’ की कमी से छोटे पशुओं में ‘रिकेट्स’ एवं बड़े पशुओं में अस्थिमृदुता (ओस्टीयोमलेशिया) नामक हड्डी रोग उत्पन्न होते हैं।


विटामिन
‘डी’

विटामिन ‘ई’ वसा में घुलनशील अत्यंत महत्वपूर्ण विटामिन है जो प्रतिऑक्सीकारक (एंटीऑक्सिडेंट) के रूप में कार्य करता है। इसको सक्रिय जैविक रूप में अल्फा-टोकोफेरॉल (α-tocopherol) के रूप में जाना जाता है (अँजली 2013, Yang & Li 2015)। यह घास, बनमेथी, हरे चारे व बिना पीसे हुये दलहनी बीजों में पाया जाता है। यह गैर-दलहनी पदार्थों में कम पाया जाता है। चारे को काटने और सूखने के बाद सूर्य की रोशनी तथा ऑक्सीजन के सम्पर्क में आने से विटामिन ‘ई’ की मात्रा में कमी आती है (अँजली 2013)।

और देखें :  पशुपालकों की आय बढ़ाने हेतु दुधारू पशुओं में कृमिनाशक का महत्व

विटामिन ‘ई’ यकृत के ऊत्तकों को नष्ट होने से बचाता है। हॉर्मोन के चयापचय में सहायता करता है। यह कोशिका झिल्ली खासकर हृदय व मांसपेशीयों के अनुरक्षण में सहायता करता है। ग्रंथियों के विकास एवं उनके कार्यों को नियन्त्रित कर गर्भावस्था के लिए पशु को तैयार करता है व गर्भपात होने से बचाता है। यह एराकिडोनिक एसिड की चयापचयी क्रियाओं में सहायता करता है। एराकिडोनिक एसिड कंकालीय मांस-पेशी ऊत्तकों की मुरम्मत व विकास हेतू एक जरूरी रसायन है जो ऑक्सीकरण तनाव (ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस) को कम करने में सहायता करता है (शालिनी 2015) और रोगप्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है। विटामिन ‘ई’ की कमी से पशुओं में निम्नलिखित समस्याएं होती हैं (Yang & Li 2015, शालिनी 2015):

  • विटामिन ‘ई’ की कमी के कारण शरीर की मांसपेशियों में विकार उत्पन्न हो जाते हैं।
  • इसकी कमी से हृदय व मांसपेशियों के ऊत्तक नष्ट होते हैं जिससे अचानक हृदयगति रूकने से मृत्यु हो जाती है।
  • इसको बंध्यारोधक (एंटी स्टेरिलिटी) विटामिन कहा जाता है, अत: इसकी कमी के कारण शरीर में जनांग संबंधी विकार पैदा होते हैं।
  • विटामिन ‘ई’ की कमी के कारण पशुओं में रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है।
  • दूधारू पशुओं में थनैला रोग होने की संभावना बढ़ जाती है।
  • संवहन व तन्त्रिका तंत्र में विकार होते हैं ।
  • यकृत के ऊत्तक नष्ट होना।
  • गति-विषयक विकार (Locomotory disorders)


विटामिन
के

विटामिन ‘के’ वसा में घुलनशील विटामिन है जो चोट लगने पर बहते रक्त को जमने में सहायता करता है (FAO 2001, शालिनी 2015)। विटामिन ‘के’ की खोज 1929 में डेनमार्क के वैज्ञानिक डा. हेनरिक डेम (Dr. Henrik Dam) ने की (Dam 1943)। उन्होने मुर्गी के बच्चों को वसा रहित संश्लेषित आहार ​‌‌‌खिलाने पर पाया कि विशेष तत्त्व की कमी के कारण उनकी त्वचा के नीचे रक्त स्राव होने लगा है। एस्कॉर्बिक अम्ल (Ascorbic acid) देने से भी स्थिती में कोई सुधार नहीं हुआ। तब डा. डेम ने यह निष्कर्ष निकाला कि एक विशेष प्रकार का घुलनशील पदार्थ भोजन में पाया जाता है। जिसकी कमी होने पर रक्त-स्राव नहीं होता। तब उन्होने मुर्गी के चूजों के आहार में वसा में घुलनशील आहार सम्मिलित किया और पाया कि कुछ समय के बाद उनमें रक्तस्राव (हिमोर्हेज) रूक गया। उन्होंने इस पदार्थ का नाम विटामिन ‘के’ रखा क्योंकि यह डेनिश शब्द कोएगुलेशन फैक्टर से लिया गया था। सन् 1939 में डा. डेम, कैरर तथा उनके सहयोगियों में अल्फा-अल्फा नामक घास से विटामिन ‘के’ को अलग किया। यह हरे पौधों में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। यह जीवाणुओं द्वारा आमाश्य व आन्त में उत्पन्न किया जाता है। यह अनाज, चुकन्दर, मांस व मछली में कम पाया जाता है।

विटामिन ‘के’ का मुख्य कार्य रक्त का थक्का बनना (Clotting of blood) है। इसीलिए इसे प्रति-रक्तस्रावी (एंटीहिमोर्हेजिक) विटामिन भी कहते हैं। रक्त में पाया जाने वाला निष्क्रिय पदार्थ प्रोथ्रोम्बिन, विटामिन ‘के’ के सहयोग से निर्मित होता ‌‌‌है। थ्रोम्बोप्लास्टिन (जो कि एक फास्फोलिपिड है) इसे क्रियाशील एन्जाइम थ्रोम्बिन में बदल देता है। थ्रोम्बिन रक्त में पाए जाने वाले फाइब्रीनोजन को फाइब्रिन में बदल देता है। यह फाइब्रिन वायु के सम्पर्क में आकर रक्त के थक्के का निमार्ण करता है। यही कारण है कि चोट लगने पर रक्त थोड़ी देर में जम जाता ‌‌‌है तथा रक्त का बहना बन्द हो जाता है। यह ग्लूकोज को कोशिकाओं की भित्ति में पहुंचाने में सहायता करता है तथा ग्लूकोज को ग्लाइकोजन में परिवर्तित करने में भी सहायता करता है। विटामिन ‘के’ की कमी से निम्नलिखित प्रभाव होते हैं:

  • विटामिन ‘के’ की कमी से रक्त में प्रोथ्रोम्बिन की मात्रा कम हो जाती है। इससे रक्त का थक्का जमने की क्रिया का समय बढ़ जाता है तथा शरीर से अधिक मात्रा में रक्त बह जाता है। इस प्रकार की रक्तहीनता को अल्पोप्रोथ्रोम्बिन रक्तता (हाइपोथ्रोम्बिन एनीमिया) कहते हैं। विटामिन ‘के’ की निरन्तर कमी से किसी प्रकार की आन्तरिक या बाहरी चोट लगने से रक्त का बहना नहीं रूकता क्योंकि रक्त थक्के के रूप में जमकर बहने वाले रक्त का रास्ता नहीं रोक सकता। इस स्थिती को रक्तस्राव कहते हैं। ऐसी स्तिथि में मसूड़ों को रगड़ लगने मात्र से ही उनमें रक्तस्राव होने लगता है।
  • विटामिन ‘के’ की अत्यधिक कमी होने से हृदय, जांघ, पीठ आ​‌‌‌दि के तन्तुओं में भी आन्तरिक रक्त स्राव होने लगता है।


विटामिन
बी1’ – थायमिन

विटामिन बी1 को थायमिन कहते हैं। यह अनाज, खल, दुग्ध उत्पादों और खमीर में बहुतायत मात्रा में मिलता है। इसके अतिरिक्त यह कसावा (टेपियोका), चुकन्दर, मांस, मछली व नारियल में थोड़ी मात्रा में भी मिलता है। यह शर्करा चयापचय, तन्त्रिका तन्त्र व हृदय मांसपेशियों के लिए, पेट व अन्तड़ीयों की गति के लिए जरूरी है।

शरीर में विटामिन बी1 कमी से तन्त्रिका शोथ, संवेदनशीलता, शरीर का ऐंठना, लकवा, मस्तिष्क अतिक्षय, हृदयघात, भूख न लगना, ऊर्जा का उपयोग न कर पाना, शारीरिक विकास का रूकना व शरीर कमजोर होना, शारीरिक व्याधियां पैदा होती हैं।

विटामिनबी2’ (राइबोफलेविन)

यह दुग्ध उत्पादों, खमीर में बहुतायत मात्रा में मिलता है। इसके अतिरिक्त यह अनाज, कसावा (टेपियोका) में थोड़ी मात्रा में मिलता है।

विटामिन बी2 की कमी से चमड़ी की सूजन संबंधी अनियमितताएं जैसे अपक्षय व श्रंगीयता (हाईपरकेराटोसिस), तन्त्रिका शोथ, शारीरिक विकास का रूकना व शरीर कमजोर होना, दस्त, मुर्गियों में पंजे के अंगूठे मुड़ने का लकवा, अण्डों से चूजे कम निकलना, व चूजों की मृत्युदर ज्यादा होना आ​दि व्याधियां पैदा होती हैं।

और देखें :  गाय-भैंसों में बाँझपन की समस्या एवं समाधान

विटामिनबी3’ (नियासिन)

यह खमीर, चोकर, हरे चारे व प्रोटीन वाले पादप चारों में प्रचुर मात्रा में मिलता है। मक्की, राई व दुग्ध उत्पादों में कम पाया जाता है। इसका मुख्य कार्य विटामिन ’बी6’ (निकोटीनामाईड) के लिए सहायक एन्जाईम बनाना है, जिनका मुख्य कार्य शर्करा, प्रोटीन, वसा व ऊर्जा का चयापचय करना है।

विटामिन बी3 की कमी से तन्त्रिका शोथ, चर्म रोग, दस्त लगना, शारीरिक विकास का रूकना, श्लेष्मा झिल्लियों में सूजन व नासूर इत्यादि व्याधियां पैदा होती हैं।

विटामिन बी5 (पेंटोथिनिक एसीड)

यह दुग्ध उत्पादों, मछली, खमीर, हरे चारे व वसायुक्त खाद्य पदार्थों में बहुतायत में मिलता है। लो​बिया, सेम, चुकन्दर की सूखी लूगधी व मांस इत्या​दि में कम मात्रा में होता है।

यह शर्करा व प्रोटीन चयापचय, चमड़ी व श्लेष्मा झिल्ली की क्रियाओं में सहायक होता है। यह तन्त्रिका तन्तुओं के लिए एसिटाइल कोलीन बनाने व बालों के रंग में सहायक होता है।

इसकी कमी से चमड़ी व श्लेष्मा झिल्ली में अवांछनिय बदलाव, बालों का झड़ना, स्टीरॉयड हार्मोंन कम बनना व भूख कम लगनाए, दस्त जैसे विकार हो‌‌‌ते हैं।

विटामिनबी6’ (पायरीडोक्सिन)

यह अनाज, आटा मिल के उत्पादों, खल व खमीर में बहुतायत में पाया जाता है। पशु जन्य उत्पादों व कसावा (टेपियोका) में थोड़ी मात्रा में मिलता है। यह शर्करा चयापचय में सहायता करता है।

शरीर में विटामिन बी6 की कमी होने से भूख कम लगती है, शारीरिक विकास में बाधा, चमड़ी की सूजन, यकृत व हृदय को नुकसान होना, अनियन्त्रित उत्तेजित गतिविधियां, शरीर में ऐंठन पैदा होना आ​दि समस्याएं पैदा होती हैं।

विटामिन बी9 (फोलिक एसीड)

फोलिक एसीड ल्यूसर्न व खमीर में सबसे ज्यादा फोलिक एसीड पाया जाता है। कसावा (टेपियोका) व अनाजों में थोड़ी मात्रा में मिलता है। इसका लगभग 50 प्रतिशत भाग केवल यकृत में ही मिलता है

इसकी कमी से रक्त कणिकाओं व जठरीय कोशिकाओं का विकास कम होना, चमड़ी व श्लेश्मा ​झिल्ली को हानि, प्रजनन क्षमता का प्रभावित होना आदि समस्याएं होती हैं।

इसकी कमी से गर्भवती मादाओं में समय से पहले बच्चा जनना, बच्चे का वजन कम होना, गर्भस्थ बच्चे का विकास रूकना, गर्भपात, गर्भस्थ शिशु की तन्त्रिका तंत्र में गड़बड़ी, बच्चे की जन्मजात दिल की समस्या आदि पैदा होती हैं।

विटामिनबी12’ (कोबालामिन)

यह केवल पशुओं से प्राप्त पदार्थों जैसे कि दूध व मछली में ही पाया जाता है। यदि पशु के भोजन में कोबाल्ट मिला हो तो जुगाली करने वाले पशुओं के पेट में पाये जाने वाले जीवाणु ही इसे पूरी मात्रा में पशु के लिए पैदा कर देते हैं। यह रक्त कणिकाएं बनाने और विकास में सहायता करता है। यह जुगाली करने वाले पशुओं में प्रोप्योनिक रसायन से शरीर में शर्करा बनाने में सहायता करता है।

विटामिन बी12 की कमी होने से रक्त ग्लूकोज की कमी हो जाती है जिससे शरीर ऊर्जा की कमी को पूरा करने के लिए पशु शरीर की वसा का उपयोग करता है। इसकी कमी से रक्त में फ्री-फैटी एसिड बढ़ जाते हैं जो धीरे-धीरे यकृत में जमा होकर यकृत  की कार्यक्षमता को कम कर देते हैं। ऐसी परिस्थिति में पशु को किटोसिस होने की संभावना बढ़ जाती है। पशु चारा खाना छोड़ देता है (दीपिका एवं अन्य 2016)। इसकी कमी से भूख कम लगती है, शारीरिक विकास का रूकना, खून की कमी, चमड़ी का खुर्दरापन्न व चमड़ी में सूजन हो जाना पाया जाता है।

विटामिन सी’ (एस्कॉर्बिक एसिड)

सभी स्तनधारियों के लिए विटामिन ‘सी’ बहुत ही महत्वपूर्ण पानी में घुलनशील एंटीऑक्सीडेंट है। यह निंबू प्रजाति, टमाटर, हरी मिर्च, गोभी, हरी पत्तेदार सब्जियों व आलु में पाया जाता है। विटामिन ‘सी’ का संश्लेषण शरीर में भी होता है जिस कारण पूरक आहार के रूप में इसकी आवश्यकता कम होती है। लेकिन थनैला रोग से प्रभावित पशुओं में इसकी मात्रा कम पायी जाती है (Weiss et al. 2004), इसलिए पूरक आहार के रूप में विटामिन ‘सी’ की आपूर्ति थनैला रोग के उपचार में सहायक होती है (Yang & Li 2015)। यह ऑक्सीकरणरोधी, अस्थि व दांतों के लिए जरूरी, जख्म को ठीक करने में सहायक होता है। यह अस्थि, मांसपेशियों, चमड़ी में कोलाजन को बनाने में सहायता करता है। विटामिन ‘डी’ कैल्शियम की चयापचय क्रिया को नियन्त्रित करता है। बृहद भक्षक (मैक्रोफेज) व लसीका कोशिकाओं (लिम्फोसाइटों) को नियन्त्रित कर रोगप्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है। कॉर्टिसोल हार्मोन को कम करके तनाव क्रियाओं को कम करता है। शुक्राणुओं व अण्डाणुओं की गुणवत्ता को बढ़ाता है। लोह तत्त्व के पाचन को बढ़ाता है। भारी धातुओं (शीशा, कैडमियम व निक्कल) के जहरीले प्रभाव में कमी करता है।

विटामिन ’सी’ की कमी से रोग प्रतिरोधक क्षमता व शारीरिक विकास में कमी, अस्थि रोग, जख्म देरी से ठीक होना व प्रजनन क्षमता कम होना देखने में मिलते हैं।

कोलिन

कोलिन विटामिन बी के समान है। यह पशु जनित प्रोटीन आधारित खाद्य पदार्थों, खमीर व खल में पाया जाता है। कसावा (टेपियोका) व मक्की में थोड़ी मात्रा में मिलता है।

यह वसा व प्रोटीन के बनाने व वसा के चयापचय क्रिया में सहायक है। यह तन्त्रिका तन्तुओं में विद्युत तरंगे उत्पन्न करने में सहायता करता है।

इसकी कमी से वसा के चयापचय व अस्थि एवं अस्थि जोड़ों के विकार पैदा होते हैं। शारीरिक विकास में भी बाधा आती है।

और देखें :  पशुओं की प्रमुख प्रजनन समस्याएं: कारण एवं प्रबंधन

विटामिन एच’ (बायोटिन)

विटामिन ‘एच’ खल व खमीर में बहुतायत में पाया जाता है। अनाज व कसावा (टेपियोका) में भी थोड़ी मात्रा में मिलता है। शरीर में इसकी कमी से प्रोटीन-ऊर्जा का कुपोषण विकार पैदा होता है। एक अध्ययन के अनुसार एक-तिहाई महिलाओं में इसकी कमी पाई जाती है, जिससे चपापचयी क्रियाओं में गड़बड़ी हो जाती है। यह भी पाया गया है कि कुछ स्तनधारीयों के भ्रूण में विकृतियां आ जाती हैं। गर्भावस्था के दौरान, धुम्रपान करने से, सक्षुब्ध रोधी दवाई लेने से, बायोटिन की शरीर में कमी हो जाती है।

इसकी कमी से चमड़ी के रोग, बालों का झड़ना, शरीर में आलसीपन्न, उदासीनता, शिथिलता, मतिभ्रम, सुन्नपन्न, झुनझुनापन्न, शर्करा व प्रोटीन का कम बनना, हो जाता है। इन सब क्रियाओं के कारण शारीरिक विकास व प्रजनन क्षमता कम हो जाती है। इसकी कमी से सींग भुरभुरे व खुरों में दरारें पड़ जाती हैं।

विटामिनों की तरह अन्य तत्त्व

  • पैरा एमिनो बेंजोइक एसिड: यह फोलिक एसीड का घटक है। यह हरे पौधों व विभिन्न जीवाणुओं द्वारा उत्पन्न किया जाता है। मछली में यह बहुतायत में मिलता है। यह शारीरिक विकास वर्द्धन में सहायता करता है।
  • बीटेन: यह कोलिन व मिथियोनिन के साथ मिलकर यकृत को वसा संबंधी रोग से बचाता है। यह गर्म जलवायु में वीर्य की गुणवत्ता और प्रजनन क्षमता बढ़ाने के लिए सांडों का उपयोगी उत्प्रेरक का कार्य भी करता है (Attia et al. 2019)।
  • इनोसिटोल: इनोसिटोल भी यकृत को वसा संबंधी रोग से बचाता है। पशु इसे बनाने में सक्षम हैं और इसका उपयोग वसा व प्रोटीन बनाने में करते हैं।

हालांकि, जुगाली करने वाले पशुओं के आमाशय में सूक्ष्मजीवों द्वारा अधिकतर विटामिनों खासतौर पर बी-कम्पलैक्स और विटामिन ‘के’ को बनाने की क्षमता होती है और विटामिन ‘सी’ शरीर के अंगों द्वारा बनाया जाता है। पशुओं को केवल वसा में घुलनशील विटामिन ए, डी और ई को चारे के रूप में देने की आवश्यकता है। शरीर में विटामिनों की कमी होने पर विभिन्न प्रकार के रोग पैदा हो जाते हैं। अतः शरीर की विभिन्न क्रियाओं को सुचारू रूप से चलाने और रोगों से बचाने के लिए विटामिनों को पूरक आहार में अतिआवश्यक है।

संदर्भ

  1. Attia, Y.A., El-Naggar, A.S., Abou-Shehema, B.M. and Abdella, A.A., 2019. Effect of supplementation with trimethylglycine (betaine) and/or vitamins on semen quality, fertility, antioxidant status, DNA repair and welfare of roosters exposed to chronic heat stress. Animals, 9(8), p.547. [Web Reference]
  2. Baldwin T.J., et al., 2012, “Dermatopathy in juvenile Angus cattle due to vitamin A deficiency,” Journal of Veterinary Diagnostic Investigation; 24(4): 763-766. [Web Reference]
  3. Combs J.G.F. and McClung J.P., 2016, “The vitamins: fundamental aspects in nutrition and health – 5th,” Academic press. p.: 161.
  4. Dam H., 1943, “The discovery of vitamin K, its biological functions and therapeutical application,” Nobelprize.org, Nobel Media AB 2014. Assessed on July 1, 2018. [Web Reference]
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  7. Pfeifer M., Begerow B. and Minne H.W., 2002, “Vitamin D and muscle function,” Osteoporosis International; 13(3): 187-194. [Web Reference]
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  11. अँजली अग्रवाल, 2013, “दुधारू गायों के लिए सूक्ष्म पोषक तत्वों का उपयोगिता,” भा.कृ.अनु.प., राष्ट्रीय डेरी अनुसंधान संस्थान, करनाल; डेरी समाचार; 43(1): 3-5. [Web Reference]
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