दुधारू गायों और भैंसों में प्रसवोत्तर 100 दिन का महत्व

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पशुपालकों के लिए गाय/भैंस के ब्याने के बाद (प्रसवोत्तर) 100 दिन की अवधि अत्यंत महत्वपूर्ण होती है क्योंकि इन्हीं दिनों में डेयरी व्यवसाय से होने वाले लाभ का निर्धारण होता है। इन 100 दिनों में पशु प्रबंधन एवं देखभाल उचित तरीके से होनी चाहिए ताकि दुधारू पशु स्वस्थ रहे, दुग्ध उत्पादन निरन्तर बना रहे एवं मादा अगले प्रजनन चक्र में प्रवेश कर सके। पशुपालक कुछ छोटी किंतु महत्वपूर्ण बातों को ध्यान में रखकर अपने व्यवसाय को सफल बना सकते हैं एवं उचित लाभ भी कमा सकते हैं। प्रसवोत्तर गाय/भैंस का सही स्वास्थ्य पशुपालकों की खुशहाली का प्रतीक है। दुधारू पशुओं के डेयरी व्यवसाय में निम्नलिखित मुख्य उद्देश्य हैं:

  1. दुग्ध उत्पादकता: प्रसवोत्तर दुधारू गाय/भैंस की दुग्ध उत्पादन क्षमता पहले 5-8 सप्ताह में शिखर पर पहुंचती है एवं फिर यह हर माह 7 प्रतिशत की दर से कम होती है। साथ ही दुधारू पशु का लगभग 60-65 प्रतिशत दुग्ध उत्पादन इन्हीं 100 दिनों में होता है। इसी कारण से यह जरूरी है कि पशु से अच्छा उत्पादन लेने के लिए उसे संतुलित आहार दिया जाए।
  2. अगले प्रजनन चक्र की तैयारी: अगले प्रजनन चक्र में समय से जाने के लिए आवश्यक है कि प्रसवोत्तर मादा समय पर जेर गिराए ताकि गर्भाशय की सफाई समय पर हो सके एवं उसे संक्रमण से भी बचाया जा सके और साथ ही उसके गर्भाशय की समय पर पुर्नस्थापना भी उतनी ही आवश्यक है जिसमें लगभग 40-50 दिनों का समय लगता है। इसलिए पशु को प्रसव के समय गर्भाशय की सफाई एवं पुर्नस्थापना करने वाली औषधी दी जानी चाहिए। आमतौर पर प्रसवोत्तर गाय/भैंस को लगभग 60 दिनों के अन्दर गर्मी में आ जाना चाहिए जिससे वह दोबारा अगले प्रजनन चक्र में प्रवेश कर सके। इसलिए प्रसवोत्तर ​दिनों में गाय/भैंस को खनिज एवं सूक्ष्म खनिज तत्वों की कमी को पूरा करने के लिए खनिज मिश्रण खिलाना चाहिए जिसे देने से मादा समय पर मद में आएगी एवं मद के लक्षण भी स्पष्ट दिखाएगी। साथ ही मादा आसानी से गर्भ भी धारण कर भी पाएगी एवं स्वस्थ रहेगी।

बीमारियों के प्रति पशु की अधिक संवेदनशीलता

प्रसवोत्तर मादा की रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो जाती है। यह अधिकतर प्रसव के तनाव के कारण होता है। इसी कारण पशु की बीमारियों के प्रति ग्राह्यता एवं संवेदनशीलता बढ़ जाती है। पशु कई चयापचयी एवं संक्रामक रोगों का शिकार हो सकता है। इस वजह से पशु का उचित प्रबंधन आवश्यक होता है ताकि पशु के उपचार में होने वाले अनावश्यक खर्च से बचा जा सके। गायों एवं भैंसों में प्रसवोत्तर निम्नलिखित समस्याएं एवं हानियां होती हैं:

समस्या

हानि

जेर का न निकलना  गर्भाशय में संक्रमण का खतरा

दुग्ध उत्पादन कम होना

पशु का देरी से मद में आना

तनाव  भूख कम लगना

दुग्ध उत्पादन कम होना

संक्रामक बीमारियों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ना

पशु का कमजोर होना

दुग्ध ज्वर  दुग्ध उत्पादन कम होना

पशु का उठ न पाना

गंभीर परिस्थिति में पशु की मृत्यु

भूख कम लगना  दुग्ध उत्पादन कम होना

पशु का कमजोर होना

नकारात्मक ऊर्जा संतुलन या दूध में कम वसा  पशु का कमजोर होना

भूख न लगना

दुग्ध उत्पादन में भारी गिरावट

दूध में कम वसा

यकृत की कमजोरी  कमजोर पाचन शक्ति

दुग्ध उत्पादन में कमी

पशु में शिथिलता आना

थनैला  दूध की मात्रा व गुणवत्ता कम होना

थनों का खराब होना

मूक कामुकता (साइलेंट हीट)  समय पर गर्भधारण न होना

दो ब्यांत के बीच का अंतराल बढ़ना

समय पर मद में न आना  गर्भधारण में देरी

दो ब्यांत के बीच का अंतराल बढ़ना

प्रसवोत्तर होने वाली उपरोक्त समस्याओं का सीधा संबंध कैल्शियम की कमी, नकारात्मक ऊर्जा, शारीरिक दशा एवं आहारीय प्रोटीन से होता है जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैः

  1. प्रजनन संबंधित समस्याओं का कैल्शियम की कमी के साथ संबंध

प्रसव के दौरान या उसके तुरंत बाद, कैल्शियम की कमी (हाइपोकैल्शिमिया), प्रति 100 मिलीलीटर रक्त में कैल्शियम की मात्रा 8.0 मिलीग्राम से कम हो जाती है (Goff & Horst 1998, Oetzel 1996, Oetzel et al. 1998)। कैल्शियम की कमी, अचानक से खीस में कैल्शियम स्रावण के कारण उत्पन्न होती है, जिसके परिणामस्वरूप मादा के रक्त में सामान्य कैल्शियम के स्तर को बनाए रखने की मुश्किल चुनौती होती है। दुग्ध ज्वर (मिल्क फिवर) कैल्शियम की कमी का नैदानिक लक्षण होता है। पीड़ित गाय/भैंस बेसुध होकर बैठ जाती है और वह उठने में असमर्थ होती है।

कैल्शियम की कमी गर्भाशय, रूमेन (प्रथम आमाशय), ऐबोमेज्म (जठरांत) की अनैच्छिक पेशियों को प्रभावित कर सकती है। डेयरी पशुओं में कैल्शियम की कमी के कारण प्रसवकालिन हाइपोकैल्शिमिया, कठिनप्रसव, और जेर रूकने के बीच गहरा संबंध है (Curtis et al. 1983, Curtis et al. 1995, Grohn et al. 1990)। आंशिक कैल्शियम की कमी होने की स्थिति में गाय/भैंसों में कठिनप्रसव की 6.5 गुणा, जेर रूकने की 3.2 गुणा और दायीं ओर ऐबोमेज्म विस्थापन की 3.4 गुणा अधिक होने की संभावना होती है (Gröhn et al. 1990, Ferguson & Galligan1993)। रक्त में कैल्शियम की कमी नैदानिक किटोसिस के लिए भी एक महत्त्वपूर्ण जोखिम का कारण होती है।

प्रसव के बाद अनैदानिक कैल्शियम अल्पतता के कारण पशुओं में गर्भाशय भ्रंश होने की संभावना अधिक रहती है जिसका सीधा संबंध गर्भाशय अतानता (यूटेरिन एटोनी), गर्भाशय ग्रीवा अंतराभिमुखन (सर्वाइकल इनवोलूशन), प्रसव के तुरंत बाद निरंतर उदरीय दबाव से होता है। अनैदानिक कैल्शियम की कमी के कारण दायीं ओर ऐबोजम विस्थापन की 4.8 गुणा अधिक होने की संभावना होती है (Massey et al. 1993)। इसके अतिरिक्त, कैल्शियम की कमी के नैदानिक लक्षणों से पहले प्रथम आमाशय दुष्क्रियात्मकता (रूमिनल डिसफंक्शन) काफी हद तक हो सकती है जिसके कारण ऐबोजम विस्थापन या आंतों की ऐंठन (वोल्वुलस) की अधिक संभावना रहती है (Delgado-Lecaroz et al. 1998)।

  1. ऊर्जा की स्थिति

प्रसवोत्तर दुधारू पशुओं को शारीरिक ऊर्जा की स्थिति में उल्लेखनीय परिवर्तन से गुजरना पड़ता है और उन्हें डिम्बग्रंथि चक्र की सामान्य प्रक्रिया में लौटना होता है। दुधारू पशु प्रारंभिक दुग्धोत्पादन के कारण नकारात्मक ऊर्जा की स्थिति से गुजरते हैं क्योंकि दुग्धोत्पादन के लिए ऊर्जा का ह्रास आहारीय ऊर्जा के सेवन से अधिक होता है। प्रसव के बाद, दुधारू पशुओं में कोई भी प्रजनन संबंधित विकार जो आहारीय सेवन को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है, नकारात्मक ऊर्जा की स्थिति को बढ़ाता है। प्रसव के बाद, दीर्घकालिक कैल्शियम की कमी आहारीय सेवन में कमी कर सकती है जिसे आमतौर पर दुग्ध ज्वर से पीड़ित पशुओं में देखा जाता है (Marquardt et al. 1977)। इसके अतिरिक्त, कैल्शियम की कमी के कारण इंसुलिन का स्राव भी कम हो जाता है जिससे ग्लूकोज का अंतर्ग्रहण (अपटेक) रूक जाता है जिससे शरीर में वसा का उपयोग बढ़ जाता है जो किटोसिस के जोखिम का कारक बनता है (Kremer et al. 1998)।

कैल्शियम की कमी की तुलना में दुग्ध ज्वर से पीड़ित गाय/भैंसों को अत्यधिक नकारात्मक ऊर्जा संतुलन और शारीरिक स्थिति स्कोर (बॉडी कंडिशन स्कोर – बीसीएस) का अधिक नुकसान होता है (Risco et al. 1994)। कैल्शियम की कमी के कारण ‘ड्रूपी काउ सिंडरोम’ हो सकता है जिसे कभी-कभी उन पशुओं में भी देखा जाता है जिन में प्रसव के बाद नैदानिक दुग्ध ज्वर के लक्षण दिखायी नहीं देते हैं। एक शोध के अनुसार 10 से 50 प्रतिशत दुधारू पशुओं में अलाक्षणिक कैल्शियम की कमी (7.5 मिलीग्राम प्रति 100 मिलीलीटर रक्त) 10 दिन प्रसवोत्तर भी पायी जाती है। प्रसव के बाद पहले 2 सप्ताह के दौरान दुधारू पशुओं की ऊर्जा की स्थिति का डिम्बग्रंथि क्रिया पर अत्यधिक प्रभाव होता है जिसका प्रभाव प्रसव के बाद दूसरे सप्ताह में अधिक पाया जाता है और समय बीतने के साथ-साथ यह अंतर बढ़ता ही जाता है। आमतौर पर ऐसी मादाओं में प्रसवोत्तर अमदकाल अधिक पाया जाता है (Risco 2004)।

  1. शारीरिक दशा

नकारात्मक ऊर्जा संतुलन का परिमाण और गंभीरता दोनों शारीरिक स्थिति स्कोर (बीसीएस) प्रसवोत्तर निर्धारित करते हैं। प्रसव के दौरान 0.5 से अधिक बीसीएस कम होने वाली गायों के प्रजनन क्षमता से समझौता होने के साक्ष्य हैं (Domecq et al. 1997)। इसके अतिरिक्त, पहले 100 दिनों के दौरान बीसीएस 2.5 से कम होने पर पहली मदावस्था में गर्भधारण दर कम होती है (Burke et al. 1998, Moreira et al. 1997)। जैसा कि यह विधित है कि प्रसवोत्तर सभी मादाओं की शारीरिक दशा की हानि होती है। अतः प्रसवकालिन मादाओं का बीसीएस अच्छा अर्थात 3.25 से 3.75 होना चाहिए। जिन मादाओं का बीसीएस अधिक होता है उनमें भी शारीरिक दशा का ह्रास होता है क्योंकि ऐसी मादाएं दुग्ध उत्पादन के लिए शरीर भण्डार का उपयोग करती हैं और प्रसवोत्तर उनको सकारात्मक ऊर्जा हेतु दो सप्ताह का समय लग जाता है (Grummer et al. 1995)। गर्भाधारण की संभावना पहले गर्भाधान के समय प्रसवोत्तर अवधि के दौरान बीसीएस के नुकसान से निर्धारित की जा सकती है। जिन गाय/भैंसों में एक माह प्रसवोत्तर एक बीसीएस की कमी होती है तो उनमें 1.5 गुणा कम गर्भधारण दर होती है (Domecq et al. 1997)।

  1. आहारीय प्रोटीन एवं ऊर्जा की स्थिति

आहारीय प्रोटीन में परिवर्तन प्रजनन से जुड़े शारीरिक परिवर्तनों को प्रभावित करता है। यदि मादा द्वारा अधिक कच्चे प्रोटीन (सीपी) का उपयोग किया जाता है, तो शरीर के ऊतकों में यूरिया सांद्रता में बढ़ोतरी हो सकती है। 15 से 16 प्रतिशत कच्ची प्रोटीन वाले आहार की तुलना में 19 से 21 प्रतिशत कच्ची प्रोटीन युक्त आहार खिलाने से रक्त में यूरिया-नाइट्रोजन सांद्रता बढ़ती है और आमतौर पर गर्भधारण दर में कमी पायी जाती है। कम आयु की मादाओं की तुलना में वृद्ध गायों को अधिक प्रोटीन की सांध्रता वाले आहार देने से नकारात्मक रूप से प्रभावित होने की संभावना अधिक होती है (Risco 2004)। अधिक मात्रा में प्रोटीन खिलाने से शरीर में अमोनिया विषाक्तता बढ़ जाती है जिसके प्रभाव को कम करने के लिए ऊर्जा का उपयोग भी बढ़ जाता है जिससे शरीर की ऊर्जा कम हो जाती है और परिणाम स्वरूप प्रजनन क्षमता भी कम हो जाती है। पशुओं के ऊत्तकों से अमोनिया विषहरण मंहगा हो सकता है। 100 ग्राम अतिरिक्त या उपयोग न करने योग्य कच्ची प्रोटीन खिलाने से 0.2 मेगाकैलोरी ऊर्जा का नुकसान होता है (Twigge & VanGils 1984)।

अग्रिम गर्भावस्था के दौरान आहारीय बदलाव

पारगर्भित (ट्रांजिशनिंग) अवधि खासतौर पर अग्रिम गर्भावस्था के दौरान, प्रसवपूर्व एवं प्रसवोत्तर गायों/भैंसों को शुष्क पदार्थ के सेवन को अधिकतम मात्रा में खिलाना सफल पारगर्भित अवधि की कुंजी माना जाता है। इस अवधि के दौरान गर्भित पशुओं का आहारीय सेवन कम होने से उनके स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव होता है। आमतौर पर गर्भित गायों/भैंसों में गर्भाशय का आकार बढ़ने से रूमेन के भरने और पाचन तंत्र में बाधा पहुंचाने वाले कारकों के कारण उनका आहारीय सेवन कम हो जाता है। आहारीय सेवन कम होने से शरीर ऊर्जा की पूर्ति  हेतु शरीर में मौजूद वसा और ऊर्जा भण्डार का उपयोग किया जाता है। इन कारकों के संयोजन से आमतौर पर फैटी लीवर और अन्य समस्याएं होती हैं। इस अवधि के दौरान, कम होने वाले आहारीय सेवन के नकारात्मक प्रभाव को ग्लूकोनोजेनिक प्रीकर्स की आपूर्ति बढ़ा कर कम किया जा सकता है। इसी तरह अग्रिम गर्भावस्था में आहार की ऊर्जा घनत्व में वृद्धि, फैटी लीवर की समस्या को कम करती है और प्रसवोत्तर दुग्ध उत्पादन में सुधार करती है। हालांकि, आहारीय बदलाव जो तेजी से किण्वित होने वाले कार्बोहाइड्रेट जैसे स्टार्च को शामिल करने के माध्यम से ऊर्जा घनत्व को तो बढ़ाते हैं, लेकिन इसके परिणामस्वरूप अधिक बीसीएस वाली मादाओं में एबोमेसम विस्थापन और एसिडोसिस की समस्याएं भी बढ़ा सकती हैं (Varga 2004)।

प्रसवकालिन आहारीय-धनायन-ऋणायन-अंतर (डीकैड) आहार का महत्तव

ऋणायन वे खनिज तत्त्व होते हैं जिनमें ऋणायनों का एक उच्च अनुपात होता है। ऋणायन नकारात्मक जबकि धनायन धनात्मक आवेशित होते हैं। जीवित ऊतक उदासीनता (न्यूट्रालिटी) प्राप्त करने के लिए ऋणायनों और धनायनों का संतुलन बनाए रखते हैं। किसी भी आहार में इन आयनों का संतुलन उदासीनता के पास ही होना चाहिए। कुछ धनायन (सोडियम और पोटेशियम) एवं ऋणायन (क्लोराइड और सल्फर) शरीर की चपापचयी क्रियाओं को बहुत प्रभावित करते हैं खासतौर से शरीर में एसिड-बेस की स्थिति को काफी प्रभावित करने वाले माने जाते हैं। आहारीय धनायन-ऋणायन-अंतर (डीकैड) की अवधारणा आहार में मुख्य धनायनों और ऋणायनों की मात्रा निर्धारित करती है। नकारात्मक डीकैड आहार में धनायनों की तुलना में अधिक ऋणानय होते हैं जबकि धनात्मक डीकैड आहार में अधिक धनायन होते हैं। आमतौर पर चारा और दाना मिश्रण वाले राशन में सकारात्मक डीकैड अर्थात अधिक धनायन होते हैं। धनायन डीकैड खिलाने से दुधारू पशुओं में कैल्शियम की कमी होती है। नकारात्मक डीकैड को प्राप्त करने का एकमात्र साधन ऋणायन लवण जैसे कि मैग्नीशियम सल्फेट, कैल्शियम सल्फेट, अमोनियम सल्फेट, कैल्शियम क्लोराइड, अमोनियम क्लोराइड और मैग्नीशियम क्लोराइड इत्यादि को आहार में मिलाना चाहिए। इन लवणों का उपयोग केवल क्लोज-अप ड्राई मादाओं के लिए करें। ओसर मादाओं को ऋणात्मक लवण नहीं खिलाने चाहिए (Stokes 1998)। याद रहे! सोडियम क्लोराइड और पोटेशियम क्लोराइड ऋणात्मक लवणों के रूप में शामिल नहीं हैं। वे उदासीन लवण हैं और डीकैड के लिए योगदान नहीं करते हैं। आमतौर पर डीकैड में दो ऋणायन (पोटेशियम और सोडियम) और दो धनायन (क्लोरिन और सल्फर) होते हैं। ऋणायनी लवणों के लिए निम्नलिखित मानकों का उपयोग किया जा सकता है (Byers 1993) और इनका उपयोय केवल कुशल पशु चिकित्सक की सलाहानुसार ही करना चाहिए:

  1. मैग्नीशियम सल्फेट 4 ग्राम और अमोनियम क्लोराइड 113.4 ग्राम
  2. मैग्नीशियम सल्फेट 4 ग्राम, अमोनियम सल्फेट 56.7 ग्राम और अमोनियम क्लोराइड 56.7 ग्राम
  3. अमोनियम क्लोराइड 4 ग्राम और अमोनियम सल्फेट 113.4 ग्राम

आमतौर ये अनुसंशित मात्रांक काम करती हैं, लेकिन ऐसा समय भी होता है कि ये काम नहीं करते हैं। अतः अपने नजदीकी पशुचिकित्सक से अवश्य सलाह अनुसार बाजार में उपलब्ध डीकैड भी अपने पशु को दे सकते हैं।

प्रसवोत्तर खनिज तत्त्वों को महत्त्व

दुधारू पशुओं के प्रजनन और दुग्ध उत्पादन के लिए उर्जा और प्रोटीन के अतिरिक्त खनिज तत्वों का विशेष महत्व है। कैल्शियम, फास्फोरस, मैग्नीशियम, सोडियम, क्लोराइड मुख्य खनिज तत्व है। कोबाल्ट, आयरन, मैंगनीज, आयोडीन, सेलेनियम, जिंक, कॉपर, क्रोमियम, सूक्ष्म खनिज है अर्थात इनकी आवश्यकता बहुत कम केवल मिलीग्राम प्रति किलो खनिज मिश्रण ही होती है। पशुपालक दुधारू पशु के लिए ऊर्जा और प्रोटीन पर तो विशेष ध्यान देते हैं, क्योंकि इनका महत्व और इनकी मात्रा के बारे में पशुपालक कुछ हद तक जानकारी रखते हैं लेकिन खनिज तत्वों के महत्व के प्रति जागरूक नहीं है। यह जानना नितांत आवश्यक है कि इन तत्वों की भी अन्य आहारीय तत्वों के उपयोग में मुख्य भूमिका है।

व्यवसायिक खेती के कारण भूमि में खनिज तत्वों की कमी पाई जाती है जिसके कारण पशुओं के चारे में इनकी खासतौर से सूक्ष्म खनिजों की मात्रा काफी कम विद्यमान होती है। आहार में विद्यमान सूक्ष्म खनिजों का शरीर में अवशोषण काफी कम होता है। अतः मुख्य खनिजों सहित सूक्ष्म तत्वों की आपूर्ति के लिए चारे पर निर्भर न होकर अतिरिक्त खनिज मिश्रण देना आनिवार्य है। खनिज तत्वों की कमी के कारण शरीर में कई प्रकार की व्यधियां उत्पन्न हो जाती हैं। इनकी कमी के कारण शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता तो नकारात्मक रूप से प्रभावित होती ही है साथ ही इनकी कमी के कारण प्रजनन संबंधी समस्याएं होने से पशुपालकों को आर्थिक हानि भी होती है।

प्रसवोत्तर समस्याओं का प्रबंधन

दूध देने वाली गायों/भैंसों के सफल प्रबंधन से दुग्ध उत्पादन और प्रजनन क्षमता दोनों को अनुकूलित करने के लिए मानक प्रसवोत्तर पशुओं के स्वास्थ्य प्रयोजनों के साथ प्रजनन और पोषण के विषयों को एकीकृत करने की आवश्यकता होती है। दुग्ध ज्वर के अलावा कैल्शियम की कमी के कारण कठिन प्रसव, योनि/गर्भाशय भ्रंश, जेर अटकना, एबोमेज्म विस्थापन, और अन्य व्याधियां प्रसवोत्तर स्वास्थ्य और प्रजनन क्षमता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती हैं। इसलिए, पोषण संबंधी नीतियों को 3 से 4 सप्ताह प्रसवपूर्व ही लागू किया जाना चाहिए ताकि प्रसव के बाद जल्दी से कैल्शियम की कमी को पूरा होने में बढ़ावा मिल सके।

प्रसव के बाद गायों/भैसों को नकारात्मक ऊर्जा की स्थिति से बाहर लाने के लिए जल्द-से-जल्द उच्च ऊर्जा सेवन की उपलब्धि, उत्पादन एवं प्रजनन क्षमताओं के लिए अतिमहत्त्वपूर्ण होती है। अधिकत्तर दुधारू गायों/भैंसों में मदचक्र प्रसव के बाद बहुत जल्दी (1-2 सप्ताह में) शुरू हो जाता है। प्रसव के बाद दुधारू गाय/भैंस की शारीरिक दशा अर्थात स्वास्थ्य उचित न होने की स्थिति में गर्भधारण दर कम होती है। नष्ट होने वाली (डिग्रेडेबल) प्रोटीन अधिक मात्रा में खिलाने से शारीरिक भार और स्वास्थ्य का अधिक नुकसान होता है जिसका सीधा संबंध डिंबग्रंथि की क्रियाशीलता कम होने से जुड़ा होता है। इसके विपरीत आहार में पूरक वसा देने से डिंबग्रंथि सुचारू रूप से कार्य करती है।

प्रसव के बाद दुग्ध उत्पादन एवं गर्भधारण दर को अधिकत्तम प्राप्त करने के लिए दुधारू गायों/भैंसों का उचित प्रबंधन आवश्यक है जिसके लिए पशुपालक को अपने नजदीकी पशुचिकित्सक से सलाह अवश्य लेनी चाहिए। यहां पर कुछ बिंदु दिये जा रहे हैं जिनका पालन कर प्रसवोत्तर गाय/भैंस का उचित दुग्ध उत्पादन एवं प्रजनन क्षमता ग्रहण की जा सकती हैः

  1. पारगर्भित मादा का पोषण: कैल्शियम की कमी और ऊर्जा से संबंधित विकारों जैसे कि दुग्ध ज्वर, कठिन प्रसव, जेर अटकना, किटोसिस और गर्भाशय शोथ की घटनाओं को कम करने के उद्देश्य से प्रसवकालिन अवधि (क्लोज अप पीरियड) डेयरी गाय के उचित पोषण प्रबंधन आवश्यक है। इन समस्याओं की घटना को कम करने के लिए निम्नलिखित चिह्नांकन-सूची बिंदुओं की ओर ध्यान दिया जाना चाहिएः
    • डीकैड, ऊर्जा, फाइबर, विटामिन और खनिज पदार्थों के लिए पारगर्भित राशन भली-भांति संतुलित होना चाहिए।
    • प्रसवकालिन मादाओं को पशु चिकित्सक की सलाहानुसार 100 से 200 ग्राम डीकैड, दिन में एक बार, ब्याने से तीन सप्ताह पूर्व शुरू कर देना चाहिए जिसे ब्याने के बाद नहीं दिया जाना चाहिए।
    • यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सभी पारगर्भित मादाओं को प्रतिदिन शुष्क पदार्थ भरपूर मात्रा (10-12 किलोग्राम) में मिलना चाहिए।
    • चारा खाते समय दो पशुओं के बीच कम-से-कम 2 फुट की दूरी होनी चाहिए।
    • ग्रीष्म ऋतु के समय उनको पर्याप्त छाया (50 वर्ग फुट प्रति गाय/भैंस) उपलब्ध करानी चाहिए और सर्दी के मौसम में ठण्ड से बचाया जाना चाहिए।
    • प्रसव के समय साफ-सफाई सहित अच्छी सुविधाएं प्रदान करनी चाहिए।
    • दुधारू पशुओं को शुष्क काल अर्थात दूध निकालना बंद करने के बाद उनके शारीरिक स्थिति स्कोर का मूल्यांकन करना चाहिए और उनकी शारीरिक स्थिति के अनुसार आहार दिया जाना चाहिए।
    • आहार का डीकैड जांचने के लिए मूत्र पीएच और कीटोन बॉडी की जांच अवश्य करवानी चाहिए।
    • प्रसव के बाद गाय/भैंस को उसके दुग्ध उत्पादन के अनुसार ही खनिज मिश्रण अर्थात 10 ग्राम प्रति एक किलोग्राम दूध के अनुसार दिया जाना चाहिए।
  2. प्रसव प्रबंधन: प्रसव के समय होने वाली समस्याओं जैसे कि कठिन प्रसव, दुग्ध जवर, जेर अटकना और लेवटी में शोफ (अडर इडिमा) आदि का उपचार और प्रबंधन किसी भी कुशल पशुचिकित्सक से करवाना चाहिए। पशुपालकों को ज्ञात होना चाहिए कि कौन इलाज करता है, उन्हें क्या प्रशिक्षण मिला है, वे इन समस्याओं का इलाज कब और कैसे इलाज करते हैं?
  3. प्रसवोत्तर पहले 10 दिनों तक मादाओं की स्वास्थ्य निगरानी: प्रसव से 10 दिन पूर्व मादाओं का परीक्षण करने के निम्नलिखित दो सामान्य उद्देश्य हैं:
    • सबसे पहले, प्रसवोत्तर ऐसी गायों/भैंसों में एंटीबायोटिक और हार्मोन के अनावश्यक उपयोग को कम करना, जिनको इस प्रकार के उपचार से लाभ नहीं होता है।
    • दूसरा, यह भी सुनिश्चित करना है कि सभी प्रसवोत्तर गायों/भैंसों की प्रतिदिन जांच की जाती है, ताकि आवश्यकतानुसार उनको किसी भी समस्या के लिए उपचार दिया जा सके।
  4. प्रसवोत्तर मादा का पोषण: प्रसवोत्तर पारगर्भित गाय/भैंस का राशन स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए ऊर्जा, फाइबर, विटामिन और खनिजों से भरपूर एवं संतुलित होना चाहिए। उसका आहार सकारात्मक ऊर्जा संतुलन को बढ़ावा देने वाला होना चाहिए। प्रसवोत्तर मादाओं की शारीरिक दशा का नियमित आंकलन किया जाना चाहिए और यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि पहले 60 दिन में उनके शरीर का एक बिंदु स्कोर से अधिक कम नहीं होना चाहिए। दुधारू पशुओं को केवल खल, बिनौला या तेलीय आहार नहीं खिलाने चाहिए। इसके स्थान पर उनको संतुलित आहार देना चाहिए।
  5. स्वैच्छिक प्रतीक्षा अवधि के अंत में प्रजनन निति: प्रसवोत्तर स्वैच्छिक प्रतीक्षा अवधि 60 दिनों की होती है जिसमें मादा के शारीरिक भार में अधिक कमी नहीं होनी ताकि वह 60 से 80 दिन में गर्भित हो सके।

निष्कर्ष

यह विधित है कि प्रसव प्रक्रिया एक ऐसी अवधि है जिसमें कोई भी मादा अदुग्ध काल से प्रसव क्रिया से गुजर कर दुग्धोत्पादन करती है। प्रसव ही वह क्रिया है जिसे मादा का पुनर्जन्म कहा जाता है। बहुत सी मादाओं में प्रसव के बाद अत्यधिक स्वास्थ्य हानि भी होती है जो उचित पोषण न मिलने की स्थिति में अत्यधिक कमजोर भी हो सकती है। इसी अवधि में स्वास्थ्य हानि होने के साथ-साथ उसे विभिन्न प्रकार की जानलेवा व्याधियां और रोग भी हो सकते हैं। अतः उचित आवासीय एवं आहारीय प्रबंधन करने से इन सभी समस्याओं से बचने में सहायक होता है। किसी भी प्रकार की समस्या होने के संदेहापूर्वक नजदीकी पशुचिकित्सक से मिलकर समय रहते ही उसका समाधान कर लेना चाहिए। अन्यथा देरी होने पर गंभीर समस्या से ग्रसित होने की स्थिति में खर्च होने के बावजूद भी दुधारू पशु की दयनीय स्थिति हो जाती है और कई बार पशु की मृत्यु भी हो जाती है। प्रसवोत्तर 100 दिन की वह अवधि जिसमें गाय/भैंस दुग्धोत्पादन के साथ-साथ अगले मदचक्र में प्रवेश कर पुनः गर्भधारण करती है ताकि वह एक वर्ष के अंतर पर पुनः दुग्धोत्पादन कर सके। अतः प्रसव के बाद दुधारू पशुओं के खानपान सहित सभी सुविधाओं का ध्यान रखा जाना चाहिए।

आवश्यकता आविष्कार की जननी है।
तो दुधारू पशु की उचित देखभाल आय जननी है।।

संदर्भ

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