दुग्ध उत्पादों का मूल्य संवर्धन: अधिक लाभार्जन

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दूध एक बहुत ही पौष्टिक खाद्य पदार्थ है। इसके उपभोग से हमें उत्तम गुणवत्ता की प्रोटीन, उर्जादायक वसा तथा हड्डियों के विकास के लिए आवश्यक खनिज लवण जैसे कैल्शियम व फॉसफोरस आदि संतुलित मात्रा में प्राप्त होते हैं। वर्तमान में भारत में लगभग 156 मिलियन टन दूध का प्रतिवर्ष उत्पादन हो रहा है, जोकि विश्व में सबसे अधिक है। इसका लगभग 50% भाग तरल दूध के रूप में उपयोग किया जाता है तथा शेष में से 45% पारंपरिक दूध उत्पाद तैयार करने व 5% पाश्चात्य उत्पाद तैयार करने में प्रयुक्त होता है।

दूध बहुत जल्दी खराब होने वाला खाद्य पदार्थ है। अत: इसका शीघ्र एवं उचित प्रसंस्करण अति आवश्यक है। भारत में अधिकतर पारंपरिक उत्पाद हलवाइयों तथा छोटे डेयरी संयंत्रों द्वारा तैयार किए जाते हैं। संगठित एवं बड़े डेयरी संयंत्रों में केवल 15-20% दूध का ही मूल्य संवर्धन किया जाता है। इसके विपरीत, विकसित देशों में लगभग 90% दूध को संगठित एवं बड़े डेयरी संयंत्रों में प्रसंस्कृत कर मूल्य संवर्धन किया जाता है। वर्तमान में भारत के नागरिकों की बदलती जीवन शैली, तेज़ी से बढ़ता शहरीकरण तथा अधिक खर्च करने योग्य आमदनी के कारण पारंपरिक एवं पाश्चात्य दूध उत्पादों की मांग में काफी वृद्धि हुई है। अत: यह आवश्यक है की हमारे पशुपालक भी दूध का पारंपरिक दूध उत्पादों में प्रसंस्करण करना सीखें एवं उससे होने वाले मूल्य संवर्धन का लाभ उठाएँ।

मूल्य संवर्धन में दूध के संचयन, पैकेजिंग, प्रशीतन, परिवहन तथा विभिन्न उत्पादों के रूप में प्रसंस्करण की सभी क्रियाएँ श्रंखलावत होती है। मूल्य संवर्धन से हम आवश्यकता से अधिक दूध का मांग के अनुरूप सदुपयोग कर सकते हैं। इससे हम दूध के पौष्टिक उत्पादों में विभिन्नता ला सकते हैं। अत: दूध एवं इसके उत्पादों का मूल्य संवर्धन कर डेयरी को लाभप्रद उद्योग के रूप में विकसित किया जा सकता है। दूध एवं दूध के उत्पादों का मूल्य संवर्धन मुख्यत: तीन स्तरों पर किया जा सकता है: –

  1. तरण दूध की गुणवत्ता एवं उपयोगिता बढ़ाना
  2. दूध के विभिन्न उत्पाद तैयार करना
  3. दूध के उत्पादों की पौष्टिकता, गुणवत्ता, निधानी आयु एवं संवेदी गुणों में वृद्धि करना।

तरल दूध का मूल्य संवर्धन

पशुपालकों को स्वच्छ दूध उत्पादन के सभी उपायों को अपनाना चाहिए। इससे क्षेत्र में उनकी प्रगतिशील पशुपालक की ख्याति स्थापित होती है और जागरूक उपभोक्ता इसके लिए अधिक दर पर भी उनका दूध खरीद सकते हैं।

शिक्षित बड़े पशुपालक दूध को विभिन्न श्रेणियों में बांटकर उसका विपणन कर सकते हैं। दूध को स्टैंडर्डाइज़ दूध (वसा 4.5%), टोंड दूध (वसा 3%), डबल टोंड दूध (वसा 1.5%) तथा स्किम दूध (वसा 0.5% से कम) की श्रेणियों में बांटकर बेचा जा सकता है तथा वसा से घी बनाकर अलग से विपणन किया जा सकता है। इस कार्य के लिए अलग से क्रीम सेपरेटर लेना पड़ता है।

तरल दूध के मूल्य संवर्धन के लिए फ्लेवर्ड दूध तैयार करने की तकनीक अपनाई जा सकती है। इसमें दूध में कई प्रचलित फ्लेवर, फलों का जूस या सूखे मेवे मिलाकर उत्तम पेय के रूप में तैयार कर विपणन कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त दूध में विटामिन, मिनरल आदि मिलाकर पौष्टिकता एवं संवेदी गुणों में वृद्धि कर सकते हैं। दूध के साथ-साथ छाछ विपणन को अपनाना सदैव लाभदायक रहता है। दूध की विशेष पैकिंग को अपनाकर इसमें अपनी विशेषता एवं ब्राण्ड मूल्य को स्थापित कर मूल्य संवर्धन किया जा सकता है।

इस प्रकार शिक्षित पशुपालक दूध उत्पादन एवं मूल्य संवर्धन के क्षेत्र में संबन्धित प्रशिक्षण लेकर पशुपालन को डेयरी व्यवसाय के रूप में अपनाकर अपनी आर्थिक स्थिति मज़बूत कर सकते हैं।

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भारत के पारम्परिक दूध उत्पाद

भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक प्रकार के पारम्परिक दूध उत्पाद प्रचलित हैं। इनमें कुछ को बनाना काफ़ी सुगम है और अधिक मूल्य के उपकरणों की आवश्यकता भी नहीं होती। ये सभी डेयरी उत्पाद पोषण एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से अति उत्तम हैं। पारम्परिक दूध उत्पादों में बहुत ही कम लागत से खोया, रबड़ी, पनीर, छैना, घी आदि बनाए जा सकते हैं, जिनके विपणन से अधिक लाभ होता है। इसके अतिरिक्त छाछ, व्हे, घी अवशेष आदि से भी मूल्य संवर्धित उत्पाद बनाकर आमदनी बढ़ाई जा सकती है।

  1. दही बनाना

दूध को 80सेंटीग्रेड पर 5 मिनट तक गरम करके 300 सेंटीग्रेड तक ठंडा कर लेते हैं। फिर इसमें आधे से एक प्रतिशत तक जामन या स्टार्टर मिलाते हैं। फिर इसे 300 सेंटीग्रेड तापमान पर ही संचारण या इनक्यूबेशन हेतु 12-15 घंटे तक रख देते हैं, जिससे दही जम जाता है। अधिक तापमान (400 सेंटीग्रेड के आसपास) पर रखने पर यह जल्दी जम जाता है, लेकिन इसका मानकीकरण कर लेना चाहिए। दही को छोटे-छोटे कुल्हड़ों में जमाकर इसकी फुटकर बिक्री कर अधिक लाभ अर्जित कर सकते हैं। बड़े स्तर पर दही जमाकर इससे लस्सी बनाने हेतु पानी, चीनी व सुगंध मिलाकर मथानी से मथ दिया जाता है तथा कम तापमान (40 सेंटीग्रेड) पर ठंडा कर रखा जा सकता है। इसे कम तापमान पर मथकर या तीव्र गति से हिलाया जाता है। इससे मक्खन ऊपरी सतह पर आ जाता है। इसी प्रक्रिया को कई बार अपनाकर पूरा मक्खन निकाल लेते हैं तथा बचे छाछ को अलग मूल्य संवर्धन हेतु एकत्र कर लेते हैं।

  1. छाछ का सदुपयोग

छाछ एक पौष्टिक डेयरी उपोत्पाद है, जो दही से मक्खन तैयार करते समय प्राप्त होता है। यह प्रोटीन तथा कैल्शियम का उत्तम स्त्रोत है। इसका नमकीन या मीठे पेय बनाकर मूल्य संवर्धन किया जा सकता है। इसमें नमक के साथ भुना जीरा मिलाकर जीरा-मट्ठा तैयार कर सकते हैं। उत्तर भारत में कई स्तरों पर छाछ में नमक मिलाकर सरसों के तेल में जीरे के साथ छोंक लगाकर रायता बनाते हैं, जिसमें बूंदी भी डाल दी जाती है। छाछ में चीनी मिलाकर वैकल्पिक लस्सी तैयार कर सकते हैं। इसमें केवड़ा, वनीला, स्ट्राबेरी या रूहअफ़ज़ा आदि विभिन्न सुगंध मिलाकर और अधिक मूल्य संवर्धन कर सकते हैं। छाछ के साथ फलों का रस मिलाकर संवर्धित पेयों को बाज़ार में बेचा जा सकता है। उपर्युक्त पेयों को बनाने में साधारण तकनीकी का प्रयोग होता है व समय भी कम लगता है। पौष्टिकता के आधार पर छाछ के सभी उत्पाद स्वास्थ्यवर्धक होते हैं।

  1. घी बनाना

घी दूध से बना एक स्वत: स्थायी उत्पाद है, जिसे किसी भी तापमान पर महीनों तक रखा जा सकता है। यह वसीय उत्पाद ऊर्जा का स्त्रोत होने के साथ-साथ किसी भी भोजन की सुगंध बढ़ा देता है तथा बाज़ार में इसकी मांग हमेशा बनी रहती है। दूध से घी तैयार करने हेतु सुविधा एवं स्तर के अनुसार, निम्न में से कोई भी विधि अपनाई जा सकती है:

() देशी विधि : इसके पहले चरण में बताई गई विधि से गुनगुने दूध में जामन लगाकर दही तैयार कर लेते हैं। इस दही को अच्छी तरह मथकर मक्खन निकालकर एकत्र कर लेते हैं। देशी मक्खन को धीमी आँच पर गर्म कर उसका पानी वाष्पीकृत कर दिया जाता है। पानी निकलने पर मक्खन घी छोड़ने लगता है, जिसे तापमान कम करके एकत्र कर  लिया जाता है। घी बनाते समय घी अवशेष नीचे बैठ जाता है। बाद में इसे छानकर उपयुक्त बर्तनों में रख लेते हैं।

() क्रीम से घी बनाने की विधि : संगठित क्षेत्र में घी बनाने के लिए इसी विधि को अपनाया जाता है। इसमें ताज़े दूध से सैपरेटर मशीन में अपकेन्द्रीय बल द्वारा क्रीम अलग कर ली जाती है। इस क्रीम को या तो मथकर क्रीमरी मक्खन तैयार करके या सीधे बॉयलर में गर्म करके घी तैयार किया जाता है। इसे ठंडा कर दानेदार बनाते हैं और उचित पैकिंग में विपणन हेतु भंडारित कर लेते हैं।

  1. घी अवशेष का सदुपयोग
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देशी घी भारत का एक प्रचलित दूध उत्पाद है, जिसके बनाने में काफ़ी मात्रा में घी अवशेष बचता है, जो कि सामान्यत: बेकार चला जाता है। घी अवशेष में वसा, प्रोटीन तथा खनिज लवण अच्छी मात्रा में उपस्थित रहते हैं। इस उपोत्पाद का प्रयोग बर्फी, चॉकलेट, कैन्डी, बेकरी उत्पाद आदि तैयार करने में किया जा सकता है।

  1. खोया बनाना

खोया, खोवा या मावा सम्पूर्ण दूध को आंच पर गाढ़ा करके बनाया जाता है। इसे बनाने के लिए भैंस के दूध को प्राथमिकता दी जाती है, क्योंकि इससे मुलायम, दानेदार तथा अधिक खोया प्राप्त होता है। यह विभिन्न पारंपरिक मिठाइयों जैसे पेड़ा, बर्फी, गुलाबजामुन, कलाकंद आदि बनाने में प्रयोग किया जाता है। दूध से खोया तैयार कर इसे ऊंचे दामों पर बेचकर अधिक लाभ कमाया जाता है। खोया बनाने के लिए दूध को खुली कढ़ाही में आंच पर पकाते हैं और कलछी से बराबर चलाते एवं खुरचते रहते हैं, ताकि सतह पर चिपके नहीं। इस प्रक्रिया में दूध का पानी बराबर वाष्प बनकर उड़ता रहता है व दूध गाढ़ा होता जाता है। गाढ़ा होते-होते जब अर्ध ठोस के रूप में यह कढ़ाही छोड़ने लगे तो इसे गोले का आकार दे देते हैं। साधारणतय: खोये में 20% से अधिक वसा होनी चाहिए। यह पौष्टिक प्रोटीन व आयरन का अच्छा स्त्रोत है। इसका भंडारण प्रशीतन तापमान (40 सेंटीग्रेड) पर करना चाहिए।

  1. रबड़ी बनाना

रबड़ी एक स्वदेशी सम्पूर्ण दूध से बना मीठा उत्पाद है, जिसमें जमी क्रीम की कई परतें समाहित होती हैं। रबड़ी में 20% वसा, 10% प्रोटीन, 3% खनिज लवण तथा 20% चीनी होती है। दूध को बड़ी कढ़ाही में 85-900 सेंटीग्रेड पर गर्म किया जाता है, जिसे न तो उबलने देते हैं और न ही कलछी से चलाया जाता है। दूध की सतह को हलके से हवा करने से मलाई जमने में सहायता मिलती है। इस मलाई को लगातार तोड़कर कढ़ाही के ऊपर अपेक्षाकृत ठंडे हिस्से में ले आते हैं। जब दूध मूल आयतन का पांचवा हिस्सा रह जाए तो इसमें मूल भार की 5-6% चीनी मिलाकर कढ़ाही के ऊपरी हिस्से में लगी मलाई की तहों को भी शामिल कर लेते हैं तथा पूरे उत्पाद को हल्की आंच पर एक सा कर लिया जाता है। इस उत्पाद की तकनीक आसान है, तथा मूल्य संवर्धन अच्छा होता है।

  1. पनीर बनाना

पनीर एक ऐसा दुग्ध उत्पाद है, जो साधारण उपकरण एवं सुगम तकनीक द्वारा अच्छा मूल्य संवर्धन करता है। उचित विधि से पनीर बनाने में भैंस के एक लीटर सम्पूर्ण दूध से 260 से 280 ग्राम तथा गाय के एक लीटर सम्पूर्ण दूध से 180 से 200 ग्राम पनीर प्राप्त होता है। यह प्रोटीनयुक्त पौष्टिक उत्पाद है जो विशेष खाद्य पदार्थों की श्रेणी में आता है। पनीर बनाने के लिए दूध को पहले 900 सेंटीग्रेड पर 5 मिनट तक गर्म करके तापमान कम करने के लिए रख देते हैं। जब तापमान 700 सेंटीग्रेड पर आ जाए तो इसमें साइट्रिक अम्ल का एक प्रतिशत घोल धीरे-धीरे डालकर चलाते जाते हैं। दूध के फट जाने पर उसे मलमल के कपड़े से छानते हैं, जिससे निकला व्हे अलग इकट्ठा कर लिया जाता है तथा ढीले दूध को ठंडा होने के लिए लकड़ी के विशेष साँचों में रखकर उचित भार से दबा दिया जाता है। लगभग 20-25 मिनट में वह ठोस दूध उत्पाद पनीर के रूप में प्राप्त होता है। तत्पश्चात इसे एक से दो घंटे ठंडे पानी में रखकर इच्छित गठन तक ले आते हैं और टुकड़ों में काट लेते हैं।

  1. छेना बनाना
और देखें :  देश की डेरी आपूर्ति श्रृंखला की सुरक्षा करने हेतु सभी उत्‍पादक स्‍वामित्‍व वाली संस्‍थाओं एवं दूध उत्‍पादकों की सराहना की जाए: अध्‍यक्ष, एनडीडीबी

पूर्वी भारत में मिठाइयाँ बनाने में अधिकतर छेने का उपयोग किया जाता है। छेने का गठन पनीर से मुलायम होता है और इससे बनी मिठाइयों को सामान्यत: बंगाली मिठाई कहते हैं। छेना बनाने के लिए दूध को 5 मिनट तक उबालते हैं। फिर 700 सेंटीग्रेड तक ठंडा करके दो प्रतिशत साइट्रिक अम्ल के घोल से फाड़कर अच्छी तरह चलते हैं। पूरे मिश्रण को मलमल के कपड़े में लेकर लटका देते हैं। व्हे को अलग इकट्ठा कर लेते हैं। छेने को 50 सेंटीग्रेड पर उपयोग तक भंडारित कर सकते हैं।

  1. व्हे का सदुपयोग

पनीर व छेना के उत्पादन में व्हे उपोत्पाद के रूप में प्राप्त होता है तथा अधिकतर बेकार में बहा दिया जाता है। उल्लेखनीय है कि इसमें प्रोटीन एवं कैल्शियम होता है तथा इसे पौष्टिक एवं स्वादिष्ट पेय बनाकर लाभर्जन किया जा सकता है। इसका औद्योगिक उपयोग व्हे प्रोटीन कन्सन्ट्रेट तथा लैक्टोज़ बनाकर किया जा सकता है। इसे बेकरी उत्पादों में प्रयोग करके उनकी पौष्टिकता बढ़ाई जा सकती है। व्हे में प्रचलित सुगंधों जैसे वनीला, स्ट्रॉबेरी, केवड़ा आदि मिलाकर स्वास्थ्यवर्धक पेय तैयार किए जा सकते हैं। व्हे आधारित जलजीरा बनाकर बाज़ार में बेचा जा सकता है तथा स्वयं आर्थिक लाभ के साथ ही इसमें उपस्थित पौष्टिक तत्वों से समाज को लाभान्वित किया जा सकता है।   

उपर्युक्त दूध के मूल्य के संवर्धित सामान्य उत्पादों एवं उपोत्पादों के अतिरिक्त विशाल भारत के अनेक प्रान्तों के अनेक क्षेत्र-विशेष मूल्य-संवर्धित उत्पाद हैं। बंगाल की मिष्ठी दही में 20% तक चीनी प्रयोग होती है। गुजरात के श्रीखंड में एक प्रतिशत स्ट्रैप्टोकोकस लैक्टोज़ के जामन का प्रयोग होता है। एक अन्य ऐसी ही पाश्चात्य दूध उत्पाद, योघर्ट भारत में तेज़ी से प्रचलित होता जा रहा है, जिसमें स्ट्रैप्टोकोकस थर्मोफिलस एवं लैक्टोबैसीलस वलगैरिस के मिलेजुले जामन का प्रयोग होता है। डेयरी के मूल्य संवर्धित उत्पादों की परिधि काफ़ी बड़ी है। डेयरी उद्योग स्तर पर संयंत्र या मशीनों की सहायता से अनेक उत्पाद बनाए जा सकते हैं। यहाँ पर वर्णित उत्पादों को पशुपालक स्तर पर ही सीमित रखा गया है। आशा है कि पशुपालक उपर्युक्त विधियों का प्रयोगकर अपने दूध से मूल्य-संवर्धित दूध उत्पाद बनाकर लाभ अर्जित कर सकेंगे।

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