पालतु पशुओं में अंतःकृमियों के दुष्प्रभाव एवं निवारण

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पशुओं की उत्पादकता में सुधार करना मुख्य चुनौतियों में से एक है जिसमें अंतःकृमियों, जिन्हें आमतौर पर पेट के कीड़े कहा जाता है, का प्रत्याक्रमण अतिमहत्वपूर्ण है। आमतौर पर पशुओं में अंतःकृमियों का प्रकोप बहुतायत में पाया जाता है लेकिन जानकारी के अभाव एवं सामान्य बीमारियों की तरह लक्षण दिखायी न देने के कारण इनका पता नहीं चलता है जिससे पशुपालकों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर भारी नुकसान उठाना पड़ता है।

आर्थिक नुकसान

पशुपालन व्यवसाय में अंतःपरजीवियों के कारण पीड़ित पशुओं में कम शारीरिक भार, पाचन संबंधी विकार, कम उत्पादन, प्रजनन दर में कमी, रूगणता, संक्रामण रोगों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ने और उपचार में खर्च होने वाले धन के साथ-साथ मृत्यु होने की स्थिति में पशुपालकों को भारी नुकसान सहन करना पड़ता है। एक शोध के अनुसार परजीवियों के कारण दूधारू पशुओं में 1.16 लीटर प्रति दूधारू पशु प्रतिदिन दुग्ध उत्पादन में कमी पायी जाती है जबकि मांस उत्पादन करने वाले पशुओं में 12.95 प्रतिशत मांस प्रति वर्ष अनुपयोगी हो जाता है (Rashid et al. 2019)। एक अन्य शोध के अनुसार दूधारू पशुओं में लगभग 2980 रूपये की हानि प्रति ब्यांत का आंकलन किया गया है (Das et al. 2017)।

परजीविता प्रभावित करने वाले कारक

  1. प्रभावित पशुवर्ग: रोगी, कमजोर एवं अधिक उम्र के ऐसे पशु जिनको संतुलित पौष्टिक आहार नहीं मिलता है, आसानी से अंतःपरजीवियों से ग्रसित हो जाते हैं। व्यस्क पशुओं की तुलना में युवा पशुओं में अंतःपरजीवियों के प्रति संवेशीलता कम होने के कारण उनमें मौजूद पेट के कीड़ों का प्रभाव अधिक दिखायी देता है।
  2. पशु की आयु वर्ग: पशुओं के छोटे बच्चे जिनमें आमतौर पर अपने पर्यायवरण में पाए जाने वाले परजीवियों या अन्य रोगों के विरूध प्रतिरोध क्षमता नहीं होती है और आसानी से परजीवियों से ग्रसित हो जाते हैं। पशु जो एक निश्चित क्षेत्र में व्यस्क होते हैं, आमतौर पर आसपास के परजीवियों और रोगाणुओं, जिनसे वे लगातार संक्रमित होते रहते हैं, के विरूध कुछ प्रकार के प्रतिरोध (प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया) विकसित कर लेते हैं। छोटे बच्चों में रोग प्रतिरोधक क्षमता न होने के कारण परजीवियों का संक्रमण अधिक होता है।
  3. स्वास्थ्य: ऐसे कमजोर पशु जिनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता का अभाव होता है, उनमें परजीवियों का संक्रमण अधिक पाया जाता है।
  4. पशु की नस्ल: हालांकि परजीवियों का प्रकोप सभी प्रकार की नस्लों में पाया जाता है फिर भी देशी नस्ल के पशुओं की तुलना में आयातित विदेशी एवं संकर नस्ल के पशुओं में सबसे अधिक पाया जाता है।
  5. मौसमी प्रभाव: अधिकांश परजीवियों के संक्रामक कीटडिंभकों (लार्वा) के जीवित रहने के लिए गर्म-आर्द्र पर्यावरणीय परिस्थितियाँ अनुकूल होती हैं। वैसे तो पशुओं में अंतःपरजीवियों का प्रकोप वर्षभर पाया जाता है फिर भी वर्षा ऋतु में सबसे अधिक (21 प्रतिशत), सर्द ऋतु में वर्षा ऋतु से कम (73.9 प्रतिशत) और ग्रीष्म ऋतु में सबसे कम (52.8 प्रतिशत) पाया जाता है (Sharma & Praveen 2017)।
  6. बाह्य परजीवियों का प्रकोप: कई प्रकार के बाह्य परजीवी जैसे कि घरेलू मक्खियां नेत्र अंतःपरजीवियों के वाहक होते हैं। अतः संक्रमित मक्खियों की अधिक संख्या होने की स्थिति में नेत्रकृमियों के संक्रमण का जाखिम भी बढ़ जाता है।
  7. संदूषित चारा और चरागाह: आमतौर पर पशुओं को चरागाह में चराने के लिए ले जाया जाता है। परजीवियों से प्रत्याक्रमित चरागाहों में पशुओं को चराने से इनका हमला उन पर हो जाता है। आमतौर पर चरागाहों में परजीवियों के वाहक जैसे कि घोंघा इत्यादि भी पाये जाते हैं। इन वाहकों में परजीवियों के अंडे और लार्वा मौजूद होते हैं। लार्वा चराहाह में मौजूद चारे पर पहुंचते जिसे खाने के बाद पशु परजीवियों से संक्रमित हो जाते हैं।
  8. संदूषित पानी: संदूषित पानी बहुत से संक्रामक रोगाणुओं सहित अंतःपरजीवियों का वाहक होता है। इसके अतिरिक्त पानी में जोंक इत्यादि जीव भी होते हैं जो पानी पीने के साथ पशुओं के मुंह में चले जाते हैं।

पशुओं में पाये जाने वाले विभिन्न प्रकार के अंतःकृमि

आमतौर पर पशुओं में पेट एवं शरीर के अन्य भागों में पत्ताकृमि, फीताकृमि और गोलकृमि आदि तीन प्रकार के परजीवी पाये जाते हैं लेकिन कभी-कभी जोंक भी पशुओं को प्रभवित करती हैं।

  1. पत्ताकृमि: इन परजीवियों का आकार पौधों के पत्तों की चपटा होता है। इन्हें पर्णकृमि भी कहा जाता है। इस वर्ग में यकृतकृमि (फेसियोला), रूमेनकृमि (एम्फीस्टोम), सिसटोसोमा, भालाकार कृमि (लैंसेट फ्लूक) पशुओं को हानि पहुँचाने वाली मुख्य प्रजातियां हैं। यह पशुओं के उत्पादन को कम करने के अतिरिक्त उनमें खून की कमी, ऊतकों की क्षति जैसी गंभीर समस्याएं उत्पन्न करते हैं।
  2. फीताकृमि: इन परजीवियों का आकार लम्बाई नापने के फीते के आकार जैसा चपटा और कुछ मिलीमीटर से लेकर कई मीटर तक लम्बे होते हैं। इस परजीवी का शरीर चपटा होता है। इनके फीते की तरह लम्बे और चपटे आकार के कारण ही इनको फीताकृमि कहा जाता है। आमतौर पर ये परजीवी पशुओं के आंत में पायें जाते हैं एवं पशुओं के पोषण तत्वों का उपयोग कर पशुओं को हानि पहुँचाते हैं। इनके लार्वा पशुओं के विभिन्न अंगों में सिस्ट आदि बनाते हैं एवं हानि पहुँचाते हैं जैसे हाईडेटिड सिस्ट, सिस्टीसरकोसिस आदि। इस वर्ग में मोनीजिया, सिस्टिसर्कोसिस, इकिनोकॉकस पशुओं को हानि पहुंचाने वाले मुख्य कृमि हैं।
  3. गोलकृमि: इन परजीवियों का शरीर बेलनाकार होने के कारण इन्हें गोलकृमि कहते हैं। यह परजीवी पशुओं में विभिन्न रोग जैसे खून चूसने के कारण खून की कमी, आंतों में मौजूद आहार खाने के कारण कमजोरी, फेफड़ों में होने के कारण निमोनिया, आंखों में होने के कारण अन्धापन, गांठ बनना, अंगों व ऊतकों को नष्ट करना आदि समस्याएं उत्पन्न कर सकते हैं। इस वर्ग में ट्राइकोस्ट्रॉन्गाइलस (केशकृमि), स्ट्रांगाइलोइड्स (सूत्रकृमि), टोक्सोकारा, ट्रिचोरिस (व्हिप वर्म), एंकिलोस्टोमा (हुक वर्म), हिमोन्कस (लाल कृमि), इसोफैगोस्टोमम (नोडुलर कीड़ा) पशुओं को हानि पहुंचाने वाले मुख्य कृमि हैं।
  4. जोंक: जोंक ऐसे जलीय और स्थलीय परजीवी हैं जो पशुओं और मनुष्यों का खून चूसते हैं और अपने शरीर के भार का 10 गुना तक रक्त चूस सकते हैं। जोंक प्रभावित क्षेत्र से गुजरने के दौरान मनुष्यों और पशुओं पर प्रत्याक्रमण और जोंक से प्रभावित तालाबों और नालों से पानी को पीने के दौरान उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय में एक सामान्य घटना है। हालांकि, जोंक के शरीर पर प्रत्याक्रमण की सूचनाएं तो हैं लेकिन शरीर में प्रविष्ट करने की सूचनाएं बहुत ही कम हैं। मनुष्यों में जोंक को किसी भी खोखले अंगों को प्रभावित करने की सूचना है जिसमें प्राकृतिक प्रवेश द्वार जैसे कि मूत्राशय में से शरीर में प्रविष्ठ कर सकती हैं। इसी प्रकार पशुओं में यह जोंक शरीर से चिकने के साथ-साथ मुंह, श्वसन मार्ग, मुंह और योनी के माध्यम से शरीर में प्रविष्ट कर सकती हैं (Sarmah et al. 2017)।
और देखें :  गौ माता

अंतःपरजीवियों द्वारा पशुधन को हानि पहुँचाने का तरीका

  1. पशुओं के आहार में हिस्साः कुछ परजीवी जैसे पत्ताकृमि, गोलकृमि और फीताकृमि पशु द्वारा ग्रहण किये गये आहार में भागीदार करते हैं जिससे मेजबान पशुओं में आवश्यक पोषक तत्तवों की कमी हो जाती है।
  2. खून चूसनाः अंतःपरजीवी पशुओं का खून चूसकर अपना भरण पोषण करते हैं जिससे मेजबान पशुओं में खून की कमी हो जाती है।
  3. संक्रामक रोगों का कारण: कुछ अंतःपरजीवी जैसे कि यकृत कृमि यकृत में टनल बनाते हैं जिनमें क्लोस्ट्रीडियम जैसे जीवाणु पनपने से टेटनस जैसे रोग पशुओं में होते हैं।
  4. जहरीले एवं विषैले पदार्थों का उत्सर्जन: कुछ परजीवी जैसे कि आमाशय में पाये जाने वाले कृमि कुछ विषैले पदार्थों का उत्सर्जन करते हैं जो कि मेजबान पशु के लिये हानिकारक होते हैं और उपचार में देरी होने पर उनकी मृत्यु भी हो जाती है।
  5. यांत्रिक रूकावट: कछु परजीवी जैसे फीताकृमि पशु की आंत में अधिक होने के कारण यांत्रिक रूकावट पैदा करते हैं जिससे आंत की कार्य प्रणाली में बाधा आती है। यकृतकृमि पित्त नली में यांत्रिक रूकसवट करते हैं जिससे उसकी कार्यप्रणाली में बाधा आती है।
  6. ऊत्तकों को नुकसान पहुंचाना: कुछ परजीवी जैसे कि यकृतकृमि पशु के यकृत के ऊत्तकों में प्रवेश कर इसमें टनल बनाकऱ कर नुकसान पहुंचाते हैं।

अंतःकृमि प्रत्याक्रमण के लक्षण

  • पेट के कीड़ों से ग्रसित पशु सुस्त एवं कमजोर हो जाते हैं।
  • उनका शारीरिक भार कम हो जाता है और उनकी हड्डियां दिखने लगती हैं।
  • पशुओं का पेट सामान्य से बड़ा हो जाता है।
  • पशु भरपूर में चारा और दाना खाकर भी शारीरिक भार में वृद्धि नहीं करता है।
  • उनके शरीर की चमक कम हो जाती है और चमड़ी व बाल खुरदरे से हो जाते हैं।
  • आंखों से पानी बहना
  • पेट के कीड़ों से ग्रसित पशुओं को कभी दस्त तो कब्ज हो जाती है।
  • उनके गोबर में कभी-कभी खून और कीड़े भी दिखायी देते हैं।
  • आमतौर पर अधिक समस्या होने की स्थिति में ऐसे पशु मिट्टी और अन्य अखाद्य वस्तुएं खाने लगते हैं।
  • कभी-कभी पीड़ित पशु अखाद्य वस्तुएं जैसे कि मिट्टी, ईंट-रोड़े, रस्सा भी खाने लगता है।
  • ऐसे पशु अन्य पशुओं का चाटने भी लग जाते हैं और ऐसा करने से उनके पेट में बाल भी चले जाते हैं जो एकत्रित हो कर आंत को बाधित कर देते हैं जिससे उनको कब्ज या मलबद्धता और पेट दर्द हो सकता है।
  • दुधारू पशुओं का दुग्ध उत्पादन कम हो जाता है।
  • पीड़ित पशुओं में खून की कमी हो जाती है।
  • मादा पशुओं में गर्भ धारण दर कम हो जाती है।

मुख्य अंतःपरजीवी एवं उनसे होने वाले मुख्य रोग

  • यकृतकृमि: यकृत कृमि, जुगाली करने वाले पशुओं जैसे गाय, भैंस, भेड़, बकरी के यकृत विशेषतः पित्त नली में पाये जाते हैं। ये पत्ती के समान लम्बे एवं चपटे होते हैं जो कि यकृत को क्षति पहुँचाते है। यह बीमारी उन गाय, भैंस, भेड़, बकरियों में अधिकतर देखने को मिलती है जो कि तालाब या नदी नाले के पास पानी के भराव वाले स्थान पर चरने हेतु जाते हैं। इस कृमि से रोगी पशु में प्रदर्शित मुख्य लक्षण पशु के विकास़ एवं उसके उत्पादन में कमी आना, निचले जबड़े के मध्य सूजन आना, पेट में दर्द रहना, पशु में खून की कमी होना एवं कभी-कभी अचानक पशु की मृत्यु होना।
  • फीताकृमि: फीताकृमि के लार्वा से पशु के मस्तिष्क या रीढ़ की मुख्य नाड़ी में गांठ बनने से गिड नामक रोग हो जाता है। अधिकांशतः यह रोग भेड़ एवं बकरियों में देखने को मिलता है। प्रारम्भिक स्तर पर पशु अनमना रहकर कम खाने लगता है एवं गोल-गोल घूमने लगता हैं। पशु की मांसपेशियों में अनायास संकुचन या ऐंठन आती है। धीरे-धीरे कम दिखने लगता है या एक आँख से पूरी तरह अंधा हो जाता है। पशु सिर को एक ओर झुकाता है एवं गोल-गोल घूमता है। छोटे बच्चों में सिर के एक भाग में बाहरी और मुलायम गाँठ बनती है यदि यह गाँठ, रीढ़ की मुख्य नाड़ी में बनती है तो पशु में पेरालिसिस भी हो जाता है। इस रोग से दीर्घकालीन संक्रमण रहने पर पशु मर भी सकता है।
  • आमाशय कृमि: यह कृमि मुख्य रूप से गाय, भैंस, भेड़, बकरियों में उनके आमाशय में देखने को मिलते है। आमतोर यह परजीवी एक वर्ष की उम्र तक के पशुओं में देखा जा सकता है। पशु को दस्त लगने से धीरे-धीरे पशु कमजोर पड़ता जाता है एवं उसका शारीरिक भार भी कम होता जाता है। कभी-कभी पशु में खून की कमी भी देखने को मिलता है।
  • फुफ्सीय कृमि: फेफड़ों में पाये जाने वाले अंतःपरजीवी धागे के समान 1 मि.मी. मोटे और 6-8 मि.मी. लंबे सफेद रंग के कृमि होते हैं। इनका संक्रमण गायों, भैंसों, भेड़ और बकरियों में पाया जाता है। सभी प्रजातियों पशुओं में अलाक्षणिक संक्रमण हो सकता है। इनके संक्रमण के कारण पीड़ित में मध्यम खाँसी से लेकर थोड़े बढ़े हुए श्वसन दर के साथ गंभीर लगातार खाँसी और सांस लेने में परेशानी और यहां तक कि पशु की मृत्यु भी हो जाती है। उनके शारीरिक भार और दुग्ध उत्पादन में कमी हो जाती है।
  • नेत्र कृमि: आंखों में पाये जाने वाले परजीवी भी धागे के समान 2 – 3 सें.मी. लंबे एवं सफेद रंग के होते हैं। आमतौर पर ये सूत्रकृमि नेत्र स्राव में निर्विहित होते हैं जो घरेलू मक्ख्यिों द्वारा निगल लिये जाते हैं और ये लार्वा 2-4 सप्ताह में संक्रमण योग्य हो जाते हैं जिनको मक्खियों द्वारा असंक्रमित पशुओं की आंख में उगल दिया जाता है। इनके संक्रमण के कारण पीड़ित पशुओं में नेत्रश्लेष्मलाशोथ होती है। प्रभावित आंख में जलन, सूजन और अल्सर हो जाते हैं। प्रभावित आंख में सफेद निशान दिखायी देता है और आंख को नजदीक देखने पर कभी-कभी नेत्रकृमि भी देखे जा सकते हैं।
  • एस्कारियासिस: आंत में पाये जाने वाले एस्केरिस और टोक्सोकारा गोलकृमियों को जूण या साधारणतः पेट के कीड़े कहा जाता है। यह मोटे धागे के समान 20 से 30 सें.मी. लंबे होते हैं जो आमतौर पर छोटी आंत में मौजूद होते हैं। अधिकतर इनका संक्रमण छोटी आयु (6 माह से कम) के पशुओं में पाये जाते हैं और इसी आयुवर्ग में सबसे अधिक मृत्यु दर होती है। यह संक्रमित खीस अथवा दूध पीने से भी फैलते है। इनके संक्रमण से पीड़ित पशुओं के पेट का आकार बढ़ जाता है, दुग्ध उत्पादन और शारीरिक भार में कमी हो जाती है। इन परजीवियों से पीड़ित पशुओं खासतौर से कम आयुवर्ग के बच्चों में सुस्ती, भूख में कमी और पेट का दर्द के लक्षण दिखायी देते हैं। ऐसे पशुओं में कभी दस्त या कभी कब्ज भी हो जाती है। इनके अत्यधिक प्रभाव से आंत्र पथ पूर्ण बंद हो सकता है।
और देखें :  पशुओं के ब्याने के समय और उसके तुरंत बाद की सावधानियां

उपचार

कई दवाएं जिनको मुंह के माध्यम से और इंजेक्शन द्वारा दी जाती हैं, बाजार में उपलब्ध हैं जो अंतःकृमियों के विरूध उपयोग की जा सकती हैं। किसी भी परिवार में जितने भी पशु हैं उन सभी का इलाज किया जाना चाहिए – जिनमें वे भी शामिल हैं जिनमें बीमारी के कोई लक्षण भी नहीं दिखायी देते हैं। पशुपालकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि पशुओं को अंतःकृमियों से बचाने के लिए पशुपालकों को नजदीकी पशु चिकित्सक से पीड़ित पशु की जांच करवाकर कृमिनाशक दवा से उपचार करवा चाहिए।

पशुओं को अंतःकृमिनाशक का दवा का महत्व

यदि पशु परजीवी मुक्त होगा तो पशुपालन अवश्य ही लाभदायक व्यवसाय होगा। क्योंकि पशु के पेट में कीड़े जीवित रहने के लिए पशु द्वारा ग्रहण किये गये चारे का अधिकतर हिस्सा खा जाते हैं। कुछ अंतःपरजीवी जैसे कि पत्ताकृमि, फीताकृमि, गोलकृमि आदि पशु के पेट में रह कर उसका आहार और खून पीते हैं, जिससे पशु कमजोर हो जाता है। कमजोर पशुओं की रोगों से लड़ने की शक्ति कम हो जाती है तथा वह अन्य बीमारियों का शिकार भी हो जाता है और उनको विभिन्न रोगों से बचाव के लिए लगाये गये टीकों (वैक्सिन) का प्रभाव भी पूरी तरह नहीं हो पाता है।

कृमिनाशक दवा क्या है

कृमिनाशक अथवा कृमिघन दवाओं को आमतौर पेट के कीड़ों की दवा कहते हैं, जिसे अंग्रेजी में एन्थेलमिंटिक कहते हैं, जो दवाओं का एक समूह है और जो मेजबान पशु को हानि पहुंचाये बिना अंतःकृमियों को पेट के अंदर ही मार देती हैं। इन दवाओं को रोगनिरोधी उपयोग में लाने की प्रक्रिया को कृमिरोधन अर्थात डिवर्मिंग कहते हैं। इन दवाओं का उपयोग पशु की उम्र और शारीरिक भार के अनुसार दिया जाता है।

प्राकृतिक कृमिरोधक

बाजार में उपलब्ध कृमिरोधक औषधियों के उपयोग करने अतिरिक्त अन्तःकृमियों को नियन्त्रित करने के लिए पशुपालक निम्नलिखित घरेलु औषधियों का उपयोग भी सफलतापूर्वक कर सकते हैं:

  1. काली मिर्च 10 ग्राम, जीरा के बीज 10 ग्राम, सरसों के बीज 10 ग्राम, एक प्याज, लहसुन की 5 कलियाँ, नीम के पत्ते एक मुट्ठी, करेला 50 ग्राम, हल्दी पाउडर 5 ग्राम, केले का तना 100 ग्राम, द्रोणपुष्पी एक मुट्ठी और गुड़ 100 ग्राम आदि सामग्रियों को अच्छी तरह कूटकर छोटे-छोटे लड्डू बनाकर दिन में एक बार, दिन में एक बार, तीन तक पशु को खिलाएं (Punniamurthy et al. 2016)।
  2. नीम के पत्तों का रस कूट कर उनका लगभग 300 मिली लीटर रस निकाल कर प्रभावित व्यस्क पशु को पिलाने से अन्तःकृमियों से आराम मिलता है।
  3. जीरा के बीज 10 ग्राम, सरसों के बीज 10 ग्राम, काली मिर्च 10, हल्दी 5 ग्राम और लहसुन 5 ग्राम आदि को कूटकर 100 ग्राम गुड़ में मिलाकर महीने में एक बार दें (Hema Sayee et al. 2016)।
  4. निर्गुंडी के पत्ते 1 किलोग्राम, घृतकुमारी 1 किलोग्राम, नीम की गुठलियाँ 1 किलोग्राम, चिरायता 1 किलोग्राम और सफेद आक 1 किलोग्राम आदि सभी सामग्रियों को मिलाकर चटनी बना लें। आवश्यकतानुसार थोड़ा पानी भी डाल सकते हैं। चटनी बनी सामग्री को फिल्टर कर लें। इससे लगभग 4 लीटर रस तैयार हो जाएगा जिसको एक महीने तक भण्डारित किया जा सकता है। इस रस का 30 मिलीलीटर बड़ी भेड़ या बकरी को पिलाएं। छोटे मेमनों को उनके शारीरिक भार के अनुसार पिलाएं। एक व्यस्क गाय या भैंस को 100 मिलीलीटर एवं छोटे पशुओं को उनके शारीरिक भार के अनुसार पिलाएं (NRLM 2016)।

कृमिरोधन कराने की प्रक्रिया

पशुओं का कृमिरोधन हमेशा ही गोबर की जांच करवाने के बाद ही करना चाहिए। लेकिन जांच की सुविधा न होने पर पशुओं का कृमिरोधन इस प्रकार किया जा सकता हैः

बछड़े-बछड़ियों के लिए कृमिनाशक सूची

  • पशुओं मे उनके जन्म के पहले सप्ताह से ही उनको पेट के कीड़ों की दवाई दे दी जानी चाहिए।
  • पशुओं के बच्चों में विशेष रूप से भैंस के बच्चों में एस्केरियासिस को नियंत्रित करने के लिए जीवन के पहले सप्ताहांत पर 10 ग्राम पिपेरजिन की एकल मौखिक खुराक की सिफारिश की जाती है।
  • इसके बाद उन्हें छः माह की आयु तक हर माह कृमिरोधक दवा देनी चाहिए, उसके बाद तीन महीने में एक बार।

व्यस्क पशुओं के लिए कृमिनाशक सूची

  • वर्ष में तीन माह के अंतराल पर एक बार और वर्षा ऋतु के मध्य या अंत में कृमिरोधक दवा अवश्य देनी चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर वर्षा ऋतु के बाद दोबारा कृमिनाशक दी जा सकती है। यदि पशु को ऋतु परिवर्तन के साथ कृमिरोधक दवा दी जाती है तो यह उसके लिए अच्छा रहता है।
  • गर्भित पशुओं को दो बार कृमिरोधक दवा बार अर्थात 7 से 14 दिन प्रसवपूर्व और प्रसव के 6 सप्ताह बाद देनी चाहिए।
  • पशुपालकों को पशुओं को पेट के कीड़ों की दवाई की अनुमोदित मात्रा से कम मात्रा देने से बचना चाहिए।
  • कृमिनाशक दवा देने के बाद पशुओं का खनिज तत्व देने चाहिए।

कृमिरोधक प्रतिरोध

कृमिरोधक प्रतिरोध परजीवियों की आनुवंशिक क्षमता है जो कृमिरोधक दवा के साथ उपचार से उत्पन्न होता है और परजीवियों को आमतौर पर अतीत में प्रयोग की जाने वाली प्रभावशाली दवाओं के विरूध प्रतिरोध स्वरूप वर्तमान में अप्रभावी हो जाती हैं। एक पशु को एक कृमिनाशक दवा के साथ इलाज करने के बाद, अतिसंवेदनशील परजीवी मर जाते हैं और प्रतिरोधी परजीवी अपने वंश के लिए प्रतिरोध जीनों को अग्रेसित करने के लिए जीवित रहते हैं। भारत के विभिन्न राज्यों से बहुत सी रिपोर्टें हैं जो आमतौर पर उपयोग किए जाने वाली कृमिनाशक दवाओं के विरूध पशुधन परजीवियों में कृमिरोधक प्रतिरोध के विकास को प्रमाणित करती हैं। यहाँ पर कृमि प्रतिरोध को रोकने के कुछ तरीके दिए गए हैं जिनका अनुसरण कर कृमि प्रतिरोधकता को दूर किया जा सकता हैः

  1. पशुओं को कभी भी कृमिनाशक दवाई की मात्रा कम नहीं देनी चाहिए। उनको उनके शारीरिक भार के अनुसार की उचित मात्रा की गणना करके ही दी जानी चाहिए।
  2. किसी एक ही कृमिनाशक दवा को बार-बार नहीं बल्कि हमेशा ही बदल-बदल कर देना चाहिए।
  3. गलत कृमिनाशक दवा के उपयोग से बचना चाहिए।
  4. कृमिरोधक प्रतिरोध की नियमित निगरानी होनी चाहिए।
और देखें :  दुधारू पशुओं की उत्पादन क्षमता बढ़ाने हेतु आहार व्यवस्था एवं खनिज मिश्रण का महत्व

अंतकृमियों की रोकथाम और नियंत्रण के उपाय

  • आवासीय प्रबंधन: पशुओं के बाड़े को साफ-सुथरा रखना चाहिए। आवश्यक आर्द्रता और वायु परिसंचरण को बनाए रखने के लिए पशु आवास को अच्छी तरह हवादार और प्रकाशयुक्त होना चाहिए। गोबर को हमेशा ढेर बनाकर रखें ताकि खाद बनाने के दौरान उत्पन्न गर्मी के कारण अंडे, लार्वा, पुटी (सिस्ट) या परजीवियों की विभिन्न चरणावस्थाएं मर जाएं। पशुओं की नीचे की बिछावन सामग्री को विघटित करने की सुविधा होने के साथ-साथ पशु आवास में उचित जल निकासी की सुविधा होनी चाहिए।
  • आहार प्रबंधन: संदूषित चारा दाना कभी नहीं देना चाहिए। पशुओं को कभी भी गंदा पानी एकत्रित होने वाली भूमि से चारा काट कर नहीं खिलाना चाहिए। टैनिन युक्त चरागाह के पौधों में कृमिनाशक गुण होते हैं। अनुसंधान से पता चला है कि टैनिन से समृद्ध चरागाहों में चरने वाले पशुओं में पारंपरिक घास की चरागाहों की तुलना में पशुओं के गोबर में परजीवियों के कम अंडे होते हैं (Sharma & Praveen 2017)। उनको हमेशा शुद्ध एवं ताजा पानी ही देना चाहिए। अंतःपरजीवियों के विरूध प्रतिरक्षा विकसित करने में विटामिन ए, डी और बी कॉम्प्लेक्स आवश्यक हैं। जिंक, आयरन, कोबाल्ट, सोडियम, पोटेशियम, फास्फोरस आदि जैसे खनिज तत्व परजीवियों के विरूध प्रतिरक्षा विकसित करने के लिए बहुत आवश्यक हैं।
  • गोबर की जांच और चिकित्सक की सलाह: पशुओं में विभिन्न प्रकार के अंतःपरजीवी पाये जाते हैं जिनके उपचार के लिए दवाईयां भी भिन्न होती हैं। अतः नियमित रूप से गोबर की जांच करवाते रहना चाहिए। यदि जांच में पेट के कीड़े की पुष्टि होती है तो पशुचिकित्सक के परामर्श पर पशु को उचित कृमिनाशक दवा दें। गर्भित अवस्था में पशुओं को कृमिनाशक दवाई पशु चिकित्सक की सलाह से ही देनी चाहिए।
  • चक्रानुक्रमक कृमिनाशन: यदि एक ही तरह की कृमिनाशक दवा का उपयोग किया जाता है तो उस दवा विशेष के विरूध ये अंतःपरजीवी प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेते हैं। चक्रानुक्रमक कृमिनाशन एक ऐसा पैटर्न जिसके अंतर्गत कृमिरोधक प्रतिरोध को दूर करने के लिए विभिन्न प्रकार की कृमिनाशक दवाओं का उपयोग किया जाता है। एक ही कृमिनाशक दवा को बार-बार नहीं देना चाहिए अन्यथा कीड़े उस दवा के प्रति प्रतिरक्षा विकसित कर सकते हैं। हर तीन महीने बाद बदल-बदल कर कृमिनाशक दवा अवश्य देनी चाहिए।
  • टीकाकरण से पहले अंतःकृमिनाशक दवा का महत्व: टीकाकरण ऐसी प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत स्वस्थ पशुओं को एक रोग विशेष के प्रति संक्रमण रोधी टीका लगाया जाता है। अंतःकृमि पशुओं को कमजोर बना देते हैं जिससे टीकाकरण करने के बावजूद भी उपयुक्त प्रभाव नहीं हो पाता है। अतः पशुओं का टीकाकरण करवाने से पहले कृमिनाशक दवाई देना आवश्यक होता है।

आवश्यक सार

अंतःकृमि पशुधन को स्वास्थ्य हानि करने के साथ-साथ राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को काफी प्रभावित करते हैं लेकिन समय-समय पर निर्धारित सही अंतःकृमिशोधन नीति अपनाने से इस हानि से निजात पायी जा सकती है।

संदर्भ

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  8. साधना पांडेय, आर.के. वर्मा, के.के. सिंह, एस.आर. कंटवा, खेम चन्द एवं सचेन्द्र त्रिपाठी, पशुओं के बाह्य परजीवी और अंतःपरजीवी कीटाणु, भा.कृ.अनु.प.-भारतीय चरागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान, झांसी – 284003 (उत्तर प्रदेश) Assessed on January 16, 2021. [Web Reference]
इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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