बाह्य परजीवी: पशुपालन के लिए बहुत बड़ा आर्थिक नुकसान

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परजीवी एक ऐसे जीव होते हैं जो किसी अन्य जीव, जिसे ‘मेजबान जीव’ कहते हैं, के अन्दर या बाहर रहते हैं व मेजबान जीव के भोजन या शरीर पर आश्रित रहते हैं (बैनीवाल एवं खोखर 2012, CDC 2016)। शरीर के अंदर पाये जाने वाले परजीवियों को अंतःपरजीवी जबकि शरीर के बाहर चमड़ी पर प्रत्याक्रमण करने वाले परजीवियों को बाह्य परजीवी कहते हैं। बाह्य परजीवी वे सन्धिपाद कीट हैं, जो मेजबान जीव के शरीर की चमड़ी पर या अंदर या बालों, पंखों पर आश्रय और भोजन प्राप्त करने के लिए निर्भर रहते हैं। ग्रीष्म ऋतु शुरू होते ही बाह्य परजीवियों का प्रकोप हर जगह देखने को मिलता है जो किसी एक स्थान पर कम मिलता है तो किसी अन्य स्थान पर ज्यादा। इनमें विभिन्न प्रकार की मक्खियाँ, मच्छर, चिचड़ियाँ, खाज-खुजली करने वाले सूक्ष्म जीव और पिस्सू इत्यादि बाह्य परजीवी होते हैं।

बाह्य परजीवियों को प्रभावित करने वाले कारक

  1. बाह्य परजीवियों का मौसमी प्रभाव: बाह्य परजीवियों का प्रकोप मौसम के अनुसार कम-या-ज्यादा देखने को मिलता है। ग्रीष्म ऋतु शुरू होते ही इनका प्रकोप बढ़ने लगता है। गर्म-आर्द्र मौसम बाह्य परजीवियों के लिए अनुकूलित होता है इसलिए गर्म-आर्द्र मौसम में बाह्य परजीवियों का प्रकोप ज्यादा होता है (Singh et al. 2000)। बाह्य परजीवियों का सबसे अधिक प्रकोप वर्षा काल में होता है जबकि ग्रीष्म ऋतु में कम तो सर्द ऋतु में नगण्य सा हो जाता है।
  2. पशु की आयु: पशुओं के छोटे बच्चे जिनमें आमतौर पर अपने पर्यायवरण में पाए जाने वाले परजीवियों या अन्य रोगों के विरूध प्रतिरोध क्षमता प्राप्त नहीं करते हैं, आसानी से बाह्य परजीवियों के प्रत्याक्रमण से ग्रसित हो जाते हैं। पशु जो एक निश्चित क्षेत्र में व्यस्क होते हैं, आमतौर पर आसपास के परजीवियों और रोगाणुओं, जिनसे वे लगातार संक्रमित होते रहते हैं, के विरूध कुछ प्रकार के प्रतिरोध (प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया) विकसित कर लेते हैं। छोटे बच्चों में रोग प्रतिरोधक क्षमता न होने के कारण बाह्य परजीवियों का संक्रमण अधिक होता है।
  3. स्वास्थ्य: ऐसे कमजोर पशु जिनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता का अभाव होता है, उनमें बाह्य परजीवियों का प्रत्याक्रमण अधिक पाया जाता है।
  4. पशु प्रजाति: बाह्य परजीवियों का प्रत्याक्रमण भैंसों की तुलना में गायों में सबसे अधिक पाया जाता है।
  5. पशु की नस्ल: हालांकि बाह्य परजीवियों का प्रकोप सभी प्रकार की नस्लों में पाया जाता है फिर भी देशी नस्ल के पशुओं की तुलना में आयातित विदेशी एवं संकर नस्ल के पशुओं में सबसे अधिक पाया जाता है।
  6. लिंग: हालांकि बाह्य परजीवियों का प्रत्याक्रमण नर की तुलना में मादा गाय-भैंस में अधिक प्रकोप देखने को मिलता है लेकिन कई शोधों के अनुसार मादाओं की तुलना में नर भेड़-बकरी में अधिक होता है (Seyoum et al. 2015, Wondmnew et al. 2018)।
  7. चरागाह: आमतौर पर पशुओं को चरागाह में चराने के लिए ले जाया जाता है। परजीवियों से प्रत्याक्रमित चरागाहों में पशुओं को चराने से इनका हमला उन पर हो जाता है। सभी प्रकार के बाह्य परजीवी जीवन चक्र चलाने के लिए किसी-न-किसी प्रकार के जीव पर निर्भर करते हैं। अतः जैसे ही पशु चरागाह में प्रवेश करते हैं तो उसमें मौजूद बाह्य परजीवी उनका रक्तोपान करने के लिए पशुओं पर प्रत्याक्रमण करते हैं और इसके बाद भूमि पर नीचे गिर कर अनुकूल स्थान पर अंडे देते हैं और उनका जीवन चक्र चलता रहता है।
  8. बेसहारा पशु: बेसहारा पशुओं खासतौर से अवारा कुत्तों में बाह्य परजीवियों का प्रकोप अधिक होता है। अतः किसी भी क्षेत्र विशेष में इन पशुओं खासतौर से अवारा कुत्तों की बहुत संख्या अधिक होने से बाह्य परजीवियों का प्रत्याक्रमण अधिक पाया जाता है।

विभिन्न प्रकार के बाह्य परजीवी

पशुओं में निम्नलिखित प्रजाति (फाईलम) से संबंधित बाह्य परजीवी पाये जाते हैं (Hopla et al. 1994):

  1. अकशेरूकी: एनेलिडा जैसे कि जोंक (लीच) इत्यादि।
  2. कशेरूकी: चिरोप्टेरा जैसे कि चमगादढ़ इत्यादि।
  3. सन्धिपाद: इनसैक्टा अर्थात कीट जैसे कि मक्खियाँ, चिचड़ियाँ, घुनीय कीट, जूएं, मच्छर, पिस्सू, खटमल इत्यादि।

उपरोक्त बाह्य परजीवियों में से सन्धिपाद परजीवी सबसे अधिक पाये जाने वाले परजीवी हैं जो सबसे अधिक आर्थिक नुकसान पहुंचाते हैं:

  • मक्खियाँ: घरेलू मक्खियाँ, अस्तबल, टेबानिड, काली, हॉर्न, छोटी मक्खियाँ (बाइटिंग मिजेज) इत्यादि विभिन्न प्रकार की छोटी-बड़ी मक्खियाँ पशुओं को परेशानी करती हैं।

  • चिचड़ियाँ: पालतु पशुओं जैसे में कई प्रकार की चिचड़ियाँ जैसे कि रिपीसेफालस, इग्जोडेस, हिमफाईसेलिस, डरमासेन्टर, एम्बलीओमा, हायलोमा, अरगस, ओटाबियस, ओर्निथोडोरस इत्यादि पायी जाती हैं। एक चिचड़ी का सामान्य आकार 0 से 3.7 मिलीमीटर लंबा होता है। नर चिचड़ी का आकार मादा से काफी छोटा है। खून चूसने के बाद इनका आकार काफी बड़ा हो जाता है।

  • घुनीय कीट: पशुओं सहित मनुष्यों में घुनीय कीट (माइट्स) सूक्ष्म जीव होते हैं जिनको केवल सूक्ष्मदर्शी यंत्र से ही देखा जा सकता है। इनके प्रत्याक्रमण के कारण त्वचा में जलन होती है, जिसके परिणाम स्वरूप खुजली, बालों का झड़ना और प्रभावित त्वचा में सूजन आ जाती है। सभी प्रकार के घनीय कीट अत्यधिक संक्रामक होते हैं।

  • जूएं: जूएं ठण्डे मौसम में पनपने वाले कीट हैं जिनका प्रकोप दिसंबर, जनवरी, फरवरी माह के दौरान सबसे अधिक देखने को मिलता है। यह कीट एक पशु से दूसरे पशु के संपर्क से फैलते हैं।
  • मच्छर: मच्छर ने केवल घातक रोग फैलाते हैं, बल्कि वे पशुओं, मनुष्यों या किसी भी गर्म रक्त वाले प्राणियों काटते समय किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करते हैं। ये सभी इन कष्टदायी जीवों के लिए परंपरागत रूप से संभावित लक्ष्य होते हैं।
  • पिस्सू: पिस्सू छोटे, पंखहीन, कठोर आवरण वाले कीट होते हैं जिसमें कड़े व खड़े बाल और चौड़ी व चपटी रीढ़ वाली कंघी (टेनिडिया) होती है। वयस्क पिस्सू लंबाई में लगभग 1 से 2 मि.ली. तक होती है और स्तनधारियों (मनुष्यों सहित) और पक्षियों के रक्त पर विशेष रूप से निर्भर होते हैं।

बाह्य परजीवियों से होने वाला आर्थिक नुकसान

बाह्य परजीवी पशुधन के साथ-साथ मनुष्यों को भी हानि पहुंचाते हैं। बहुत से बाह्य परजीवी एक पशु से दूसरे पशु में बीमारी फैलाने का कारण भी बनते हैं। घरेलू मक्खियाँ, सार्वजनिक परेशानी और जन स्वास्थ्य को प्रभावित करने के साथ-साथ दुधारू पशुओं में घरेलू मक्खियाँ लगभग 3.3 प्रतिशत, छोटी मक्खियाँ 18.97 और चिचड़ियां लगभग 23-26 प्रतिशत दुग्ध उत्पादन कम करती हैं। वर्ष 2012-13 के शोधपत्र के अनुसार घरेलू मक्खियों से भारत में दुधारू से लगभग 16606 करोड़ रूपये, छोटी काटने एवं खून चूसने वाली मक्खियों से लगभग 95463 करोड़ रूपये और चिचड़ियों से 115748 करोड़ रूपये का वार्षिक आर्थिक नुकसान होने का आंकलन है (Narladkar 2018)।

बाह्य परजीवियों से प्रत्यक्ष तौर पर दुग्ध उत्पादन कम होने के साथ-साथ उनके द्वारा फैलने वाले संक्रामक रोगों से भी बहुत बड़ी आर्थिक होती है। थिलेरियोसिस से 8426.70 करोड़ रूपये, सर्रा से 1208.57 करोड़, बबेसियोसिस से 551.54 करोड़ रूपये का वार्षिक नुकसान होता है। भारत में बाह्य परजीवियों को नियंत्रित करने पर 4335 करोड़ रूपये का आर्थिक नुकसान प्रतिवर्ष होने का आंकलन है (Narladkar 2018)।

भारत में चमड़ा उद्योग अर्थव्यवस्था और सकल घरेलु उतपाद में प्रमुख योगदान देता है। भारत चमड़ा उद्योग द्वारा आपूर्ति की जाने वाली वैश्विक चमड़े की आवश्यकता का 12.9 प्रतिशत और फुटवियर उत्पादन का 9 प्रतिशत योगदान है (Muthusamy & Ganesh 2019)। हालांकि भारत में पशुओं की संख्या सबसे अधिक है फिर वैश्विक स्तर पर चमड़ा उद्योग में योगदान कम आंका जाता है। दुग्ध उत्पादन में कमी के अतिरिक्त, बाहय परजीवियों के प्रत्याक्रमण का सीधा प्रभाव चमड़ा उद्योग के लिए अच्छी गुणवत्ता की खाल की उपलब्धता पर गहरा प्रभाव पड़ता है। बाह्य परजीवियों खासतौर से चिचड़ियों के प्रत्याक्रमण के कारण बिक्री योग्य चमड़े के मूल्य में 20 से 30 प्रतिशत की कमी हो जाती है (Biswas 2003)।

और देखें :  पशुओं में गर्भाशय की जड़ता: कारण एवं निवारण

सबसे अधिक प्रभावित करने वाले बाह्य परजीवी

बाह्य परजीवियों में चिचड़ियाँ, पशुओं में सबसे अधिक प्रभावित एवं हानि पहुंचाती हैं। चिचड़ियाँ, मच्छरों की तरह, चमड़ी पर बैठते ही काटना शुरू नहीं करतीं हैं। ये पहले चमड़ी पर चिपकती हैं, जिसमें 10 मिनट से 2 घण्टे लगते हैं। चमड़ी पर सही जगह पर चिपकने के बाद ये चमड़ी में सुराख करके रक्त चूसना शुरू कर कर देती हैं। इस दौरान ये चिपकने वाला पदार्थ भी छोड़ती हैं, जो इनको चमड़ी के साथ मजबूती से चिपकने में सहायता प्रदान करता है। चिचड़ियाँ चमड़ी को सुन्न करने वाला पदार्थ भी छोड़ती हैं, जिससे पशु को दर्द कम होता है और चिचड़ियाँ आराम से पशु का खून चूसती रहती हैं। एक चिचड़ी दिन में 0.5 से 1.5 मि.ली. खून चूस लेती है। खून चूसने के दौरान चिचड़ियाँ पशुओं में बीमारी के कीटाणु भी छोड़ती हैं। एक अकेली चिचड़ी, जिसका पशुपालक को पता भी नहीं चलता है और समझा जाता है कि पशुओं में चिचड़ियों का प्रकोप नहीं है लेकिन रोगाणुयुक्त एक अकेली चिचड़ी ही रोग को फैलाने के लिए काफी होती है।

बाह्य परजीवियों के दुष्प्रभाव

  1. अन्य कीटों प्रत्याक्रमण: पशु की चमड़ी के जिस स्थान पर बाह्य परजीवी काटते हैं, तो उस स्थान पर खून बहने लगता है जिस घरेलु मक्खियाँ आकर्षित होती हैं और चमड़ी के उस स्थान पर अंडे देती हैं। इन अण्डों में से लार्वा पैदा होते हैं जो जिन्दा रहने के लिए पशु की चमड़ी के ऊत्तकों को खाकर नष्ट करते हैं और जख्म को ज्यादा बड़ा कर देते हैं व जख्म को ठीक नहीं होने देते हैं।
  2. हानिकारक प्रतिक्रियायें: बाह्य परजीवी काटने पर पशु के शरीर में रसायन छोड़ते हैं, जिससे शरीर में हानिकारक प्रतिक्रियाएं उत्पन्न होती हैं। इन प्रतिक्रियाओं से बुखार, रक्तस्राव, हृदय-क्षिप्रता व सांस लेने में दिक्कत आना, जैसी जानलेवा समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
  3. शरीर में खून की कमी: बाह्य परजीवी पशुओं सहित मनुष्यों को परेशान करने के साथ-साथ रक्त चूसते हैं। बेशक एक छोटी सी चिचड़ी पशु के शरीर से थोड़ा सी ही खून चूसती हो लेकिन यदि यही छोटी-छोटी चिचड़ियाँ पशु के शरीर पर बहुत ज्यादा संख्या में चिपकी हों तो ये उसका खून चूसकर खत्म कर देती हैं। एक चिचड़ी दिन में5 से 1.5 मि.ली. खून चूस लेती है।
  4. संक्रामक रोगाणुओं का संचार: विभिन्न प्रकार के परजीवी पशुओं सहित मनुष्यों में वायरस, बैक्टिरिया, रिकेट्सिया, प्रोटोजोआ, अंतःकृमियों को फैलाते हैं। बाह्य परजीवियों खासतौर से चिचड़ियों का प्रत्याक्रमण पशुओं का खून चूसकर उन्हें कमजोर तो करता ही है लेकिन ये पशुओं में एनाप्लाजमोसिस, बबेसियोसिस, थेलेरियोसिस एवं एहरलिचियोसिस जैसे जानलेवा रोग भी फैलाती हैं जिन्हें आमतौर पर चिचड़ी रोग कहते हैं। पशुधन में फैलने वाले इन रोगों से असमय ही उनकी मृत्यु हो जाती है और पशुपालकों को पशु हानि होने के साथ-साथ धन हानि भी उठानी पड़ती है।
  5. चिचड़ी पक्षाघात: चिचड़ियाँ पशुओं का खून चूसते समय अपनी लार से चमड़ी को सुन्न करने के लिए रसायनों को छोड़ती हैं। इन रसायनों के कारण पशुओं में लकवा हो जाता है जिसे चिचड़ी पक्षाघात कहते हैं। इस रोग के कारण पीड़ित पशु खड़ा नहीं हो पाता है।
  6. आर्थिक हानि: चिचड़ियों से ग्रसित पशु कमजोर होने से उनकी विकास वृद्धि, उत्पादन, कार्यक्षमता एवं जनन क्षमता कम हो जाती है। प्रत्यक्षतौर पर दुधारू पशुओं का दुग्ध उत्पादन कम होने से पशुपालकों को प्रतिदिन हानि होती है। छोटे विकाशील पशुओं में उनकी परिपक्वता में देरी होने से उनके पालन-पोषण पर अतिरिक्त धन खर्च होता है। कमजोर होने के कारण उनकी प्रजनन क्षमता प्रभावित होने के कारण पशुओं की जनन दर कम होती है तो भार ढोने में उपयोग किये जाने पशुओं की कार्यक्षमता कम हो जाती है।
  7. रोग प्रतिरोधक क्षमता: परजीवी न केवल पशुओं का रक्त चूसते हैं बल्कि संक्रामक रोग भी फैलाते हैं। कमजोर होने के कारण पशुओं की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है जिससे टीकाकरण होने के बावजूद भी पशुओं में रोगाणुओं का संक्रमण होने की स्थिति में टीकाकरण भी विफल हो जाता है।
  8. पशुजन्य रोग: पशुजन्य रोग स्वाभाविक रूप से पशुओं और मनुष्य के बीच संचरित रोग हैं और कुल वर्णित मानव संक्रमणों में लगभग 80 प्रतिशत शामिल हैं। चेयलेटेलोसिस, टुलारेमिया, रॉकी माउंटेन स्पॉटेड फीवर, लाइम डिजीज इत्यादि संक्रमण चिचड़ियों, पिस्सुओं और जूं इत्यादि के काटने से फैलते हैं (Mayer and Donnelly 2013)।
  9. जनस्वास्थ्य समस्या: बाह्य परजीवी खासतौर से मक्खियां दूषित सामग्री पर बैठती हैं और अपने साथ जीवाणुओं, विषाणुओं और कुछ परजीवियों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर संचारित करती हैं। यही मक्खियाँ घरों में रखे खाद्य पदार्थों पर बैठती हैं जिससे खाद्य पदार्थ संक्रमित हो जाते हैं, इससे ऐसे संदूषित आहार को खाने से टाइफाइड, पेचिश जैसी संक्रामक बीमारियां पैदा होती हैं।

बाह्य परजीवियों का प्रकोप कैसे बढ़ता है

  1. पशुशाला में: चिचड़ियाँ अंडे देने के लिए पशु को छोड़कर पशुशाला की दरारों, छिद्रों व कूड़ा-कर्कट में छिप जाती हैं व वहाँ पर हजारों की संख्या में अंडे देती हैं तथा यहाँ कुछ दिन अवस्था परिवर्तन के बाद वहाँ से हटकर अगली अवस्था के पहुंचने के लिए अन्य पशुओं पर लग जाते हैं।
  2. पशुशाला में नये पशुओं का प्रवेश: यदि पशुशाला में चिचड़ी से ग्रसित नये पशुओं का प्रवेश होता है तो साधारण सी बात है कि आपकी पशुशाला में पहले मौजूद अन्य पशुओं में भी ये परजीवी फैल जाएगें।
  3. कुत्तों से: अवारा कुत्तों में प्रायः परजीवी लगे रहते हैं। अतः इन अवारा कुत्तों के पशुशाला में घुसने से परजीवी पनपने लगेगें।
  4. चारागाह का बदलना: चरागाहों में विभिन्न प्रकार के परजीवी निवास करते हैं। यही परजीवी हमारे पशुधन के ऊपर चिपक जाते हैं व विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न करते हैं।

पशुओं में बाह्य परजीवियों से फैलने वाले रोग

एनाप्लाजमोसिस

पशुओं में होने वाला यह संक्रामक रोग रिकेट्सिया नामक जीवाणुओं से होता है जो पशुओं में चिचड़ियों, मक्खियों एवं मच्छरों के काटने से फैलता है। आमतौर पर इस रोग का प्रकोप वर्षा ऋतु में अधिक पाया जाता है क्योंकि इस मौसम में रोग को फैलाने वाले बाह्य परजीवियों की संख्या सबसे अधिक होती है। इस रोग पीड़ित पशुओं में रोग के प्रारंभ में अनियमित बुखार होता है जिससे शरीर का तापमान 105 डिग्री फारेनहाइट से भी अधिक होता है। पशुओं में खून की कमी होने से खून पतला होता है और पशु में कमजोरी भी दिखायी देने लगती है। संक्रमित पशु सुस्त हो जाता है। उसको भूख कम लगती है या खाना-पीना छोड़ देता है और उनका शारीरिक भार कम हो जाता है। दुधारू पशु का दुग्ध उत्पादन कम हो जाता है। रोगी पशु का शरीर कांपने लगता है उसकी दिल की धड़कन बढ़ जाती है। रोग के अग्रिम चरण में पशु की श्लेमा झिल्ली पीली हो जाती है व संक्रमित पशु धीरे-धीरे पीलियाग्रस्त हो जाता है। पशु को सांस लेने में परेशानी भी हो जाती है। पीड़ित पशु का व्यवहार आक्रामक या अनियन्त्रित भी हो सकता है। लालिमायुक्त काला पेशाब भी हो सकता है। पशु को कब्ज भी हो सकती है। गर्भित पशुओं में गर्भापात की समस्या भी देखने को मिलती है।

और देखें :  पशुओं में चर्म रोग: कारण एवं निवारण

बबेसियोसिस

रोमंथी पशुओं में इस रोग का संक्रमण रिपीसेफालस एवं हिमफाईसैलिस नामक चिचड़ियों से फैलता है। इस रोग से पीड़ित रोमंथी पशुओं में तेज बुखार, रक्ताल्पता, कमजोरी, दुग्ध उत्पादन में कमी, शारीरिक विकास में कमी, लालिमा युक्त पेशाब, पहले दस्त लगना एवं बाद में कब्ज होना इत्यादि लक्षण पाये जाते हैं। इन लक्षणों के अतिरिक्त मस्तिक संबंधी लक्षण जैसे कि पशु द्वारा आँखों की पुतलियों का घुमाना, अतिसंवेदनशील होना, दीवार या खुण्टे से सिर को दबाना, शरीर में अकड़न, गतिभंग, दाँत पीसना, माँसपेशियों में कंपन हो सकते हैं जिनको आमतौर पर सर्रा रोग में देखा जाता है।

थिलेरियोसिस

ग्रीष्म एवं वर्षा ऋतु में होने वाला यह रोग आमतौर पर संकर या विदेशीमूल की गायों में सबसे अधिक पाया जाता है। यह रोग चिचड़ियों के द्वारा एक पशु से दूसरे पशु में फैलती है। इस रोग के कारण गायों में बहुत तेज (104–107 डिग्री फारेनहाइट) बुखार, सुस्ती, लंगड़ापन, नाक एवं आँखों से पानी बहना, पीली या कभी-कभी लाल आँखें, सांस लेने में परेशानी, चमड़ी पर गाँठें बनना, कभी-कभी खूनी एवं श्लेमायुक्त दस्त, खाना-पीना छोड़ देना, कमजोरी इत्यादि लक्षण दिखायी देते हैं। इस रोग से पीड़ित पशुओं की सतही लसिका ग्रन्थियों का आकार बढ़ जाता है। अधिक खतरनाक स्थिति में रोगी पशु की मृत्यु भी हो सकती है, जो सांस न आने के कारण होती है।

एहरलिचियोसिस

एहरलिचिया जीवाणुओं से होने वाला यह रोग रिपीसेफालस एवं डर्मासेंटर चिचड़ियों के काटने से फैलता है जो परिधीय रक्त वाहिकाओं (पेरिफरल ब्लड वैसल्ज) में श्वेत रक्त कणिकाओं एवं प्लेटलेट्स में गुणात्मक रूप से बढ़ता है। इस रोग के लक्षण चिचड़ियों के काटने के बाद 7–14 दिन बाद दिखायी देते हैं। इस रोग से पीड़ित रोमंथी पशुओं में तेज बुखार, चारा न खाना, चक्कर काटना, लड़खड़ाना इत्यादि लक्षण दिखायी देते हैं।

सर्रा

यह रोग एक रक्त परजीवी (प्रोटोजोआ) जिसे ‘ट्रिपैनोसोमा’ कहते हैं के कारण उत्पन्न होता है। यह रोग आमतौर पर खून चूसने वाली टेबेनस जिसे डांसी मक्खी भी कहते हैं के काटने से एक पशु से दूसरे पशु में फैलता है। यह रोग अन्य खून चूसने वाली मक्खियों जैसे कि स्टोमोक्सिस, हिमेटोपोटा व लिपरोसिया के काटने से भी फैलता है। एकाएक तेज बुखार या सामान्य से कम तापमान, तेज उत्तेजना, इधर-उधर भागना, अंधा सा दीवार से टकरा जाना या पागल जैसा सिर को दीवार या जमीन आदि से दबाना, कांपना या थर्रथरना, छटपटाना या मूर्छित सा होना, पेशाब बार-बार व थोड़ा-थोड़ा करना, मुँह से लार बहना/टपकना, जुगाली न करना, खाना-पीना छोड़ देना, शीघ्र मृत्यु हो सकती है। सर्रा की दीर्घकालिक (क्रोनिक) अवस्था में बुखार न होना, सुस्त, अत्यन्त कमजोर एवं शक्तिहीन हो जाता है। बैठ जाना, बैठ कर उठ न पाना, मूर्छित एवं अप्राकृतिक निद्रा अवस्था में होना, दांतों का किटकिटाना, कम खाना पीना, 12-21 दिनों में मृत्यु या कभी-कभी ऐसे रोगी पशु 2–4 महीने तक भी देखे गये हैं।

पशुओं में बाह्य परजीवियों से बचाव एवं उपचार

  • आवासीय साफ-सफाईः पशुशाला की दीवारों, खुरली इत्यादि में मौजूद दरारों एवं छिद्रों को बन्द कर देना चाहिए। पशुशाला को साफ-सुथरा रखें व उसमें कुड़ा-कर्कट इक्कट्ठा न होने दें। पशुशाला को साफ पानी से अच्छी तरह धो कर 0 प्रतिशत मेलाथियॉन या सुमिथियान सेविन का छिड़काव करना चाहिए। मार्च से सितम्बर तक ऐसा हर 15 दिन बाद करना चाहिए।
  • संघरोधः पशु आवास में ऐसे स्थान जहां पर बाह्य परजीवी दिखायी दें तो वहां पर पशुओं का न बांधें और उस स्थान को परजीवीनाशक दवा के घोल से धो दें। ऐसे पशु जिन के शरीर पर बाह्य परजीवी खासतौर से चिचड़ियां दिखायी दें तो ऐसे पशुओं अलग कर देना चाहिए और उनको परजीवीनाशक घोल से नहलाना चाहिए। इसी प्रकार नए पशुओं को पहले पशुओं के साथ पशुशाला में बांधने से पहले अच्छी तरह सुनिश्चित कर लें कि नये पशुओं पर चिचड़ियाँ ना लगी हों, यदि चिचड़ियाँ लगी हैं तो पहले उनको कीटनाशक दवा के घोल से नहलाना चाहिए एवं चिचड़ियाँ मरने के बाद ही अन्य पशुओं के साथ बांधना चाहिए।
  • अवारा कुत्तों का पशुशाला में प्रवेश नहीं होने नहीं देना चाहिए, साथ ही पशुशला में रखे कुत्तों को भी पशुओं से अलग रखें व चिचड़ी मुक्त रखें।
  • चरागाहों में चरने वाले पशुओं से खून चूसने के बाद चिचड़ियाँ नीचे जमीन पर गिर जाती हैं जो दोबारा भूख लगने पर अन्य पशुओं की तलाश में रहती हैं और उन पर चढ़ जाती हैं। यदि कुछ समय उन्हें पशु न मिलें तो वे अपने-आप ही मर जायेंगी या अन्य जगह चली जाएंगी। चरागाहों वाले क्षेत्रों को छोटे भागों में बांट देना चाहिए और बारी-बारी से इन छोटे बंटे हुए क्षेत्रों में 30 दिनों के बाद ही पशुओं को चराना चाहिए। यह रणनीति चरागाह में मौजूद परजीवियों के लार्वा और अंडों की संख्या में कमी करके परजीवियों के चक्र में हस्तक्षेप करती है। (Escosteguy et al. 2017)। चरागाह में झाड़ियाँ इत्यादि नहीं होनी चाहिए क्योंकि ज्यादातर चिचड़ियों के लार्वा इन्हीं पर ही रहते हैं।

बाह्य परजीवियों के प्रत्याक्रमण का उपचार

उपरोक्त लेख में अब हमें ज्ञात होता है कि बाह्य परजीवियों के प्रत्याक्रमण से अप्रत्याशित हानि होती है जिसका समय पर नियंत्रण ही एकमात्र उपाय है। फिर भी उपरोक्त नियंत्रण करने के बावजूद पशुओं में बाह्य परजीवियों का प्रत्याक्रमण होने की स्थिति में निम्नलिखित उपाय समय पर कर लेने में ही भलाईः

  • पशुओं के ऊपर परजीवीनाशक दवा का छिड़कावः मेलाथियोन (5 प्रतिशत), डेल्टामेथारिन (0.0025 प्रतिशत), साईपरमैथरिन (0.01 प्रतिशत), फैनवेलरेट (0.1 प्रतिशत) एवं अमिट्राज आदि दवाओं का पानी में घोल बनाकर पशुओं के ऊपर छिड़काव करें। जैसा कि ज्यादातर चिचड़ियों का जीवनकाल लगभग 21 दिन का होता है। अतः जिन पशुओं में चिचड़ियों की अधिक समस्या है तो उन पर 14-21 दिन के अंतराल पर, तीन बार छिड़काव करें। चिचड़ियों के प्रभावी नियंत्रण के लिए, पशुओं के आवास में भी दवा का छिड़काव किया जाना चाहिए।

  • बैकलाइनर कीटनाशकः बैकलाइनर या पोर-ऑन एक या अधिक परजीवीनाशक दवाओं से युक्त तरल यौगिकों से तैयार होते हैं, जो गाय, भैंस, भेड़, सूअर या घोड़ों पर लगाए जाते हैं। इनको पशु के सिर-गर्दनसे पूंछ तक पशु के ऊपर डाल दिया जाता है। यदि परजीवीनाशक घोल को पशु के ऊपर नहीं डाला जाता है, लेकिन बैकलाइन अर्थात सिर से पूंछ तक रीढ़ हड्डी के साथ-साथ छिड़का जाता है, तो उन्हें स्प्रे-ऑन कहा जाता है। इनका प्रभाव छिड़काव करने वाले परजीवीनाशियों की तुलना में अधिक दिनों तक रहता है।
  • इंजेक्शन एवं मुंह से दी जाने वाली दवाइयां: आइवरमेक्टिन, डोरमेक्टिन आदि रेडी-टू-यूज इंजेक्टेबल दवाईयों को हर 25 से 30 दिनों में 6 से 9 महीने के लिए दिया जाता है। इन दवाइयों का उपयोग पशु के शारीरिक भार अनुसार पशु चिकित्सक द्वारा ही दिया जाता है। इंजेक्शन के अतिरिक्त इन दवाइयों को मुंह द्वारा भी पशुओं को दिया जाता है।

चेतावनी: पशुपालकों को हिदायत दी जाती है कि किसी भी रासायनिक दवा का अनुप्रयोग या उपचार का उपयोग करने से पहले सभी रासायनिक उत्पाद लेबल निर्देशों, सिफारिशों और सुरक्षा सावधानियों को अच्छी तरह से पढ़ना, समझना और उनका पालन करना सुनिश्चित करें। उचित यही होगा कि इनका उपयोग पशु चिकित्सक की देखरेख में ही किया जाए।

बाह्य परजीवियों का घरेलू उपचार

जैसा कि चिचड़ियों के उपचार के लिए उपयोग की जाने वाली रसायानिक दवाएं जहरीली होती हैं, कई बार इनके कुप्रभाव पशुओं में देखने को मिलते हैं। इनके उपयोग से पशुओं की मृत्यु भी हो जाती है। अतः पशुपालकों को सलाह दी जाती है कि इनका इस्तेमाल केवल पशु चिकित्सक की देखरेख में ही करें। इन रसायानिक दवाओं के अतिरिक्त पशुपालक निम्नलिखित घरेलु दवाओं का उपयोग करके भी पशुधन को चिचड़ियों के प्रकोप से बचा सकते हैं: –

  • लहसुन की 10 कलियाँ, नीम के पत्ते एक मुट्ठी, नीम की गुठलियाँ एक मुट्ठी, बच का प्रकंद (भूमिगत तना) 10 ग्राम, हल्दी पाउडर 20 ग्राम, लैंटाना के पत्ते एक मुट्ठी और एक मुट्ठी तुलसी के पत्तों को कूटकर चटनी बना लें। अब इसमें एक लीटर साफ पानी मिलाकर अच्छी तरह मिक्स करने के बाद छलनी या कपड़े की सहायता से छानकर चिचड़ियों से पीड़ित पशुओं के ऊपर सप्ताह में दो बार आवश्यकतानुसार दिन के गर्म समय में ही छिड़काव करें। इसका छिड़काव पशुशाला की दरारों में भी करें। जब तक चिचड़ियाँ पशुओं के शरीर से समाप्त न हो जाएं तब तक इसका नियमित छिड़काव करते रहें (Punniamurthy et al. 2016)।
और देखें :  भैसों में प्रसवोत्तर बाँझपन अवधि एक समस्या तथा बचाने के घरेलु उपाय

  • अन्य कई प्रकार के घरेलु उपचार भी चिचड़ियों के प्रकोप को कम करने में सहायक होते हैं जिनमें आमतौर घर के आसपास या खेत में उगे नीम के पेड़ के 250 – 300 ग्राम पत्तों की चटनी बनाकर एक लीटर पानी में घोलकर पशुओं के ऊपर सप्ताह में 2 – 3 बार लगाने से अच्छा प्रभाव देखने को मिलता है। इसके साथ यदि इसमें 20 ग्राम हल्दी भी मिला लें तो अच्छा प्रभाव मिलता है।
  • नीम एवं तम्बाखू के पत्ते, आक के फूल और अजवायन का काढ़े का उपयोग भी बाह्य परजीवीनाशक के रूप में किया जाता है। छाया में सुखाए हुए नीम के पत्ते (5 किलोग्राम), छाया में सुखाए हुए तम्बाखू के पत्ते (5 किलोग्राम), छाया में सुखाए हुए आक के फूल-पत्ते (5 किलोग्राम) और अजवायन के बीज (5 किलोग्राम) को 50 लीटर पानी में डालकर 30 दिन के लिए रख दें। हर 72 घण्टे के अंतराल पर इन सभी को एक बार अच्छी तरह से मिलाते रहें। 30 दिन के बादए 50 डिग्री सेल्सियस तापमान पर तब तक गर्म करें, जब तक इसका भार 10 किलोग्राम रह जाए। अब इसे आंच से नीचे उतार कर रख लें। इस मलहमनुमा द्रव को 4 डिग्री सेल्सियस तापमान पर भण्डारित किया जा सकता है। तैयार मलहमनुमा 150 – 450 ग्राम सामग्री को 1 लीटर पानी में घोलकर कपड़े की सहायता से पशुओं के ऊपर लगाना होता है (Zaman et al. 2012)।

सारांश

इस सुष्टि में प्रकृति सभी को प्राणियों को जीवन जीने के लिए भरपूर अवसर प्रदान करती है और इसी अवसर के मध्यनजर सभी प्राणी एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं। कहीं पर यह निर्भरता सकारात्मक सहजीवन यापन करती है तो कहीं पर नकारात्मक जैसा परजीवी करते हैं। नकारात्मक परजीविता खासतौर से बाह्य परजीवियों की निर्भरता मेजबान प्राणी पर कुप्रभाव डालती जिससे उसका जीवन तो फलता-फूलता है लेकिन मेजबान प्राणी को अपने जीवन का त्याग करना पड़ता है। पशुपालन में इन बाह्य परजीवियों से होने वाली असामयिक मृत्यु से पशुपलकों को न केवल पशु हानि बल्कि धनहानि भी झेलनी पड़ती है। हालांकि, बाह्य परजीवियों को सदा के लिए तो समाप्त नहीं किया जा सकता है लेकिन उनका समय-समय पर नियंत्रण पशुधन से होने वाली अप्रत्याशित जोखिम दर से अवश्य बचा सकता है।

संदर्भ

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इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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