पशुओं में संक्रामक रोग: कारण, लक्षण एवं बचाव

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कृषि प्रधान भारतवर्ष की अर्थव्यवस्था में पशुधन व्यवसाय का महत्वपूर्ण योगदान है। यह नि:संदेह अधिकांश जनसंख्या के जीविकोपार्जन का साधन है। रोज़गार की कमी और कृषि योग्य भूमि की कमी की स्थिति में अधिकांश परिवारों के लिए पशुपालन एक व्यापक स्वरोज़गार है और इससे भूमिहीन परिवार भी जीविका उपार्जन करते हैं। ऐसी कठिन परिस्थितियों में कम संख्या में उत्पादनशील पशुओं को पालने वाले पशुपालकों के लिए उनके पशुओं की अस्वस्थता गंभीर आर्थिक संकट उत्पन्न कर देती है। प्रतिवर्ष विभिन्न प्रकार के संक्रामक रोगों से पशुओं की उत्पादकता में अत्याधिक ह्रास ही नहीं होता अपितु अनेकों पशु काल के ग्रास बन जाते हैं। कई प्रकार के संक्रामक रोग तपेदिक (टी.बी.), दाद, खुजली, रेबीज़ आदि पशुओं से मनुष्यों व मनुष्यों से पशुओं में भी एक साथ रहने के कारण हो जाते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि पशुपालकों को विभिन्न प्रकार के संक्रामक रोगों के कारण और लक्षण की प्रारम्भिक जानकारी रहे ताकि वे स्वास्थ्य रक्षा के महत्व को समझ कर उचित रक्षात्मक उपाय करने के लिए सजग रहें।

वैसे तो पशुओं में अनेकों प्रकार के रोग होते हैं, परंतु यहाँ पर मुख्यत: जीवाणु व विषाणुजनित संक्रामक रोगों के कारण, लक्षण एवं बचाव के उपायों का वर्णन किया गया है।

गलघोंटू (एच.एस.)

यह रोग हेमोंरेजिक सेप्टिसीमिया (एच.एस.) के नाम से जाना जाता है जो कि पास्चुरेला मल्टोसिडा नमक जीवाणु से होता है। यह रोग पशुओं में बरसात में होता है तथा भैंसों में अधिक उग्र होता है। इस बीमारी में पशु तेज़ बुखार के साथ-साथ खाना पीना छोड़ देते हैं। धीरे-धीरे गले में सूजन हो जाती है। सूजन के कारण सांस लेने में परेशानी होने लगती है। इससे बेचैन होकर पशु बार-बार उठने-बैठने लगता है। फिर थक कर लेट जाते हैं तथा जीभ निकाल कर या मुँह खोलकर सांस लेते है जिसके कारण घर्र-घर्र की आवाज़ होती है। इसलिए यह रोग घुरका नाम से भी जाना जाता है। रोगी पशुओं के गोबर से झिल्ली सी आती है। उचित समय पर इलाज नहीं मिलने पर पशु तड़पकर मर जाता है।

बचाव के उपाय

  • यह छूत की बीमारी है। अत: रोगी पशु को अन्य पशुओं से अलग रखना चाहिए।
  • गरम पानी में नमक डालकर पशु के गले की सिकाई करनी चाहिए।
  • कलमी सोडा, नौशादर, सोंठ, अजवाइन (20 ग्रा.) व कपूर (5 ग्रा.) को 500 ग्रा. गुड़ में मिलाकर खिलाना चाहिए।
  • कपूर को सरसों के तेल में मिलाकर मालिश करने से भी लाभ मिलता है।
  • इस बीमारी में ऑक्सीटेट्रासाइक्लिन व सल्फ़ा दवाइयाँ बहुत अच्छा काम करती हैं।
  • छ: माह से ऊपर की आयु के सभी पशुओं में इस बीमारी के विरुद्ध टीकाकरण करने से इस रोग से बचा जा सकता है। इस टीकाकरण का उचित समय अप्रैल से जून माह तक है तथा टीका प्रतिवर्ष एक बार लगवाना चाहिए। यह टीकाकरण सभी पशु चिकित्सा संस्थानों में नि:शुल्क किया जाता है।

लंगड़ा बुखार (बी.क्यू.)

यह रोग गायों व भैंसों में क्लौसट्रीडियम चौव्याई नामक जीवाणु से होता है। यह बीमारी भी बरसात के समय अधिक होती है। यह खासकर छोटी आयु के पशुओं (2 वर्ष से कम) में होती है। इस रोग में पशु पिछले पैरों से लंगड़ाने लगता है। कभी-कभी अगले पैरों से भी लंगड़ाता है। पिछले पैरों की मांसपेशियाँ सूज जाती हैं तथा काले रंग की हो जाती हैं जिसे दबाने पर किड-किड (क्रेपिटिटेटिंग) आवाज़ आती है। पशु चलने में काफी परेशानी महसूस करता है। पशु को तेज़ बुखार हो जाता है। ऐसे पशुओं का गोबर सफ़ेद झिल्ली से ढका रहता है। उचित समय पर इलाज न मिलने पर पशु बहुत अधिक तकलीफ महसूस करते हैं व उनकी मृत्यु भी हो सकती है।

बचाव के उपाय

  • रोगी पशु को नर्म बिछावन पर रखें।
  • गर्म पानी से मांसपेशियों की सिकाई करें व तारपीन के तेल से हल्के हाथ से मालिश करें।
  • इस रोग से बचाव के लिए, छ: माह की आयु से ऊपर के सभी पशुओं का अप्रैल-मई माह में नि:शुल्क टीकाकरण अवश्य करवा लेना चाहिए व इसके उपरांत प्रतिवर्ष टीकाकरण करवाना चाहिए।
  • इस बीमारी में पेनिसिलिन नामक दवा बहुत प्रभावी होती है।
और देखें :  दुधारू पशुओं की उत्पादन क्षमता बढ़ाने हेतु आहार व्यवस्था एवं खनिज मिश्रण का महत्व

थनैला रोग (मैस्टाइटिस)

यह रोग अनेक प्रकार के जीवाणुयों से होने वाला दुधारू पशुओं के थनों का सबसे हानिकारक रोग है। इस रोग से पशु में दुग्ध उत्पादन अचानक कम हो जाता है व दूध की गुणवत्ता नष्ट हो जाती है और ऐसा दूध प्रयोग करने के लिए उपयुक्त नहीं रह जाता, जिससे आर्थिक हानि होती है। यह रोग एक या एक से अधिक थनों में हो सकता है। दूध अत्याधिक पीला, गाढ़ा, रक्त मिश्रित छिछड़ों सहित आता है। थनैला रोग से ग्रसित थनों में सूजन, दर्द, गर्माहट व उत्तकों में कड़ापन देखा जा सकती है। इसका निदान थनों या अयन (उहल) को हाथ से छूकर अथवा स्ट्रिप परीक्षण से सरलतापूर्वक किया जा सकता है। यह रोग जीवाणुयों के थनों के छिद्रों में प्रवेश करने या चोट से या बच्चे के काटने पर हो सकता है।

बचाव के उपाय

  • दुधारू पशु को साफ-सुथरे स्थान पर रखें।
  • दूध दुहने से पहले थनों व हाथों को लाल दवा के घोल (1:4000) से अच्छी तरह साफ कर लें। दूध निकालने के बाद भी इसी घोल से साफ कर लें।
  • रोगग्रस्त थनों में एंटिबायोटिक ट्यूब पशु चिकित्सक की सलाह से चढ़ाएं।
  • पशुओं के दूध सुखाने पर भी उपर्युक्त ट्यूब अवश्य चढ़ाएं जिससे अगले ब्यान्त में थनैला रोग न हो।
  • सूजे थनों को नमक डालकर गुनगुने पानी से सेकें।

छूतदार गर्भपात (ब्रुसलोसिस) रोग

यह रोग समस्त पालतू पशुओं व कुत्तों में पाया जाता है। प्राय: यह बड़े-बड़े डेयरी फार्मों में अधिक देखने को मिलता है। यह रोग ब्रूसेल्ला एबोर्ट्स नामक जीवाणु से होता है। यह जीवाणु रोगग्रस्त सांड के वीर्य तथा रोगी मादा के योनि स्त्राव से फैलता है। इस बीमारी के कारण गर्भावस्था की अंतिम तिमाही यानि के 6 से 9 महीने में गायों व भैंसों में गर्भपात हो जाता है। रोगी पशुओं में जेर का रुकना तथा गर्भाशय अथवा अंडाशय की सूजन इसके प्रमुख लक्षण हैं। मनुष्यों में इस रोग के कारण रात के समय जाड़ा देकर तेज़ बुखार आता है जो चढ़ता-उतरता रहता है तथा रोगी के पसीने में लहसुन जैसी गंध आती है। रोगी के कमर व जोड़ों में दर्द बना रहता है। रोगी पशुओं के वीर्य अथवा योनि स्त्राव, दूध एवं रक्त की प्रयोगशाला में जांच से इस रोग का निदान होता है।

बचाव के उपाय  

  • बछड़ियों में 4 से 6 माह की आयु में ब्रूसेल्ला एबोर्ट्स स्ट्रेन-19 के टीके लगवाएँ।
  • गोवंशीय पशुओं के अतिरिक्त अन्य सभी पशुओं को वध हेतु वधशाला भेज दें।
  • बड़े स्वस्थ पशुओं का भी टीकाकरण करवाएँ।
  • पशु बाड़े के समस्त पशुओं के रक्त अथवा दूध की ब्रूसेल्ला संक्रमण हेतु जांच कराएं।
  • नए पशु को ब्रूसेल्ला संक्रमण की जांच के बिना बाड़े के अन्य स्वस्थ पशुओं के साथ कभी न रखें।
  • फ़िनायल के घोल से पशु गृह को विसंक्रमित करें।
  • बीमार पशु के कच्चे दूध को अन्य स्वस्थ नवजात पशु को न पिलाएँ।
  • मृत नवजात पशु के शव को ज़मीन में गाड़ दें या जला दें।
  • स्वस्थ एवं रोगी पशुओं को अलग-अलग स्थान पर रखें।
  • रोगी पशु की जेर अथवा मृत नवजात बच्चे के शव को कुत्तों से बचाकर फार्म में रोग प्रसार को रोकें तथा स्वच्छता का विशेष ध्यान रखें।

तपेदिक या टी.बी.

बीमार पशुओं या मनुष्यों के द्वारा दूषित वायु में सांस लेने तथा रोगी पशु से प्राप्त कच्चे दूध, मांस एवं अंडों के प्रयोग से फैलने वाला, यह एक जर्जर कर देने वाला लंबे समय का रोग है। यह बीमारी हर उम्र के जानवरों, मौसम एवं पशु में पाई जाती है। यह बीमारी वातावरण, कच्चे दूध एवं मांस में पाये जाने वाले जीवाणु, माईकोबैकटीरियम ट्यूबरक्यूलोसिस के संक्रमण से होती है। रोगी पशुओं तथा मनुष्यों में लंबे समय तक चलने वाली खांसी, रोगी मनुष्यों के थूक व बलगम में रक्त का मिला होना, हल्के बुखार तथा दस्तों का लंबे समय तक बना रहना व सामान्य उपचार द्वारा ठीक न होना व शरीर के भार में कमी होना इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं। रोगी पशु में धीरे-धीरे दूध क्षमता व प्रजनन क्षमता भी घटने लगती है। थूक व बलगम की जांच द्वारा, छाती के एक्स-रे द्वारा फेंफड़ों की जांच व प्रयोगशाला में परीक्षण द्वारा इस रोग का निदान किया जा सकता है।

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बचाव के उपाय

  • प्रबंधन एवं सफाई का विशेष ध्यान रखें।
  • हल्के ज्वर व खांसी से पीड़ित दुर्बल रोगी पशुओं को अन्य स्वस्थ पशुओं से अलग रखें।
  • हवादार एवं स्वच्छ बाड़ों में पशुओं को एक दूसरे से विपरीत दिशा में बांधकर रखना चाहिए।
  • पशुओं के मल-मूत्र का शीघ्र निस्तारण होना चाहिए।
  • पशुओं की त्वचा में ट्यूबरकुलिन नामक टीका लगवाकर जांच से रोगी पशुओं की पहचान करके, रोगी पशुओं को स्वस्थ पशु से अलग रखें।

खुरपकामुंहपका रोग (एफ़.एम.डी.)

यह बीमारी गायों व भैंसों में बड़ी शीघ्रता से फैलती है तथा एक प्रकार के विषाणु से उत्पन्न होती है। यह रोग गायों व भैंसों के अलावा भेड़, बकरी व सूकरों में भी हो सकता है। इस बीमारी में जीभ के नीचे, मसूड़ों, थनों व खुरों में छोटे आकार के फफोले/छाले पड़ जाते हैं। पशुओं को तेज़ बुखार होता है, वे जुगाली करना बंद कर देते हैं व दूध उत्पादन एकदम गिर जाता है। फफोलेदार दाने फूट कर छालों का रूप ले लेते हैं। पशुओं के मुंह से लार गिरने लगती है। थनों पर छालों से कभी-कभी थनैला रोग भी हो सकता है, जिससे दूध पतला व रक्त मिश्रित हो सकता है। पशु में रोग ठीक होने में काफी समय लगता है। बच्चों में यह बीमारी घातक रूप ले लेती है जिससे कई बछड़े/बछड़ियों की मृत्यु हो जाती है।

बचाव के उपाय

  • पशुओं को खुले, स्वच्छ एवं हवादार स्थान में रखें।
  • रोगी व स्वस्थ पशुओं को अलग-अलग रखें।
  • रोगी पशु के मुंह व खुरों को फिटकरी (10 ग्राम फिटकरी 1 लीटर पानी में) अथवा पोटाश/लाल दवा के घोल (1:4000) से दिन में 2 से 3 बार साफ करें।
  • पशु के मुंह में 2-3 बार बोरोग्लिसरिन का लेप (10 ग्राम बोरिक एसिड + 100 ग्राम ग्लिसरिन या शीरा या गुड़ की चाशनी या शहद में मिलाकर) लगाएँ।
  • खुरों को सैव्लॉन या डेटॉल के घोल से भी साफ कर सकते हैं। साफ करने के पश्चात साफ कपड़े की पट्टी बांध देनी चाहिए।
  • खाने के लिए चावल की लुगड़ी, गेंहू का दलिया गुड़ के साथ मिला के दें। बारीक कटा हुआ हरा चारा भी दिया जा सकता है।
  • इस बीमारी में एंटिबायोटिक्स व सल्फा ग्रुप की दवाइयाँ काफी आराम देती हैं।
  • इस बीमारी की रोकथाम के लिए पॉलिवेलेंट एफ़.एम.डी. वैक्सीन 4 से 6 माह की आयु में और उसके बाद हर छ: माह के अंतर पर साल में दो बार लगवानी चाहिए। सभी पशु चिकित्सा संस्थानों में यह टीकाकरण नि:शुल्क किया जाता है।

रेबीज़ या पशुओं में पागलपन

रेबीज़ एक बहुत भयंकर विषाणु जनित रोग है जोकि मनुष्यों व पशुओं के केंद्रीय स्नायु तंत्र को प्रभावित करता है। यह स्तनधारी जीवों में पाया जाता है। रेबीज़ तीन रूपों में देखा जाता है। ‘वन्यजीव रेबीज़’ (सिलवेटिक रेबीज़) जोकि वन्यजीवों जैसे लोमड़ी, भेड़िया, सियार आदि जीवों में पाया जाता है। ‘नगरीय रेबीज़’ (अर्बन रेबीज़) जोकि पालतू पशुओं जैसे कुत्ता, बिल्ली, गाय, भैंस, घोडा, बकरी, भेड़ आदि में पाया जाता है। ‘चमगादड़ रेबीज़’ जोकि मुख्यत: अमेरिका में पाया जाता है। पशुओं में रेबीज़, रेबीज़ ग्रसित पशु के काटने से होती है। रेबीज़ का विषाणु ग्रसित जीव की लार और मस्तिष्क में पाया जाता है। यह विषाणु घाव के माध्यम से आँख, नाक व मुंह की श्लेष्म झिल्ली में प्रवेश करके भी फैलता है, परंतु सामान्य त्वचा को पार नहीं कर सकता। इस रोग की सेचन अवधि (इनक्यूबेशन पीरियड) 2 सप्ताह से लेकर 6 साल तक भी पाया गया है। यह घाव में विषाणु की मात्रा एवं मस्तिष्क से घाव की दूरी पर निर्भर करता है। घाव मस्तिष्क के जितना पास होता है, रोग के लक्षण उतनी जल्दी प्रकट होते हैं। रेबीज़ के लक्षणों में काफी अंतर पाया जाता है। पहला लक्षण जीव के व्यवहार में परिवर्तन के रूप में देखा जाता है। ‘आक्रामक रूप’ (फ़्यूरियस फॉर्म) में रोगी अत्याधिक उत्तेजित, आक्रामक, चिड़चिड़ा व हवा में झपटना आदि लक्षण दिखाता है। ‘मूक स्थिति’ (डम्ब फॉर्म) में रोगी चुपचाप एक कोने में पड़ा रहता है। किसी को पहचान नहीं पाता। उसकी आवाज़ में परिवर्तन, मुंह से झाग निकालना व लड़खड़ाने लगना इसके लक्षण हैं। अंत में रोगी पक्षाघात का शिकार हो जाता है और 6-7 दिनों के अंदर श्वसनतंत्र निष्काम होने के कारण मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इस बीमारी का निदान रेबीज़ ग्रसित पशु द्वारा काटे जाने, खरोंच या संपर्क में आने की पूर्व जानकारी से, बीमारी के लक्षण देखने से व प्रयोगशाला में परीक्षण द्वारा किया जा सकता है।

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  बचाव के उपाय

  • पागल कुत्ते या पशु द्वारा काटे गए भाग को फिनोलयुक्त लाल साबुन, कॉस्टिक सोडा वाले साबुन व पानी से अच्छी तरह धोएँ तथा ऐसा कई बार करना चाहिए।
  • संभावित पागल कुत्ते या पशु को बांधकर 14 दिनों तक उसके व्यवहार में परिवर्तन, पागलपन तथा मृत्यु हेतु निरीक्षण करें।
  • पागल कुत्ते या पशु द्वारा काटे गए पशुओं में तुरंत बचाव हेतु टीके लगवाएँ।
  • कुत्तों में जन्म के 2-3 माह पश्चात तथा फिर इसके बाद प्रत्येक वर्ष रेबीज़ निरोधक टीके लगवाएँ।
  • किसानों एवं पशुपालकों को प्रचार माध्यमों द्वारा इस रोग के विषय एवं बचाव के उपायों के बारे में व्यापक स्तर पर शिक्षित करने की आवश्यकता है।
इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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