भारत एक कृषि आधारित देश है। पूर्व काल से ही भारत में कृषि एवं पशुपालन एक दूसरें के अभिन्न अंग हैं। हमारे देश में कुल उत्पादन 54 प्रतिशत 65 मिलियन भारतीय भैंसें योगदान करती हैं। भारत के उत्तराखण्ड राज्य में भी मुर्रा भैसों के पालन को व्यवसाय के रूप में बहुत पुराने समय से किया जाता है।
भारत में भैसों की 10 नस्ले उनके आनुवंशिकता एवं उत्पादन के आधार पर चिन्हित किया गया है:
प्रमुख नस्लें- मुर्रा, भदावरी, नीलीरावी, सूरती, मेहसाना, जाफराबादी और नागपुरी हैं।
उत्तराखण्ड राज्य में महिषवंशीय पशुओं को दूध उत्पादन की दृष्टि से काफी लोकप्रियता के साथ सुदूर क्षेत्रों में पाला जाता है। उत्तराखण्ड राज्य मे मैदानी व पर्वतीय क्षेत्रों में मुर्रा नस्ल बहुतायत मिलती हैं।
दुधारू महिषवंशीय पशुओं में पोषण प्रबन्धन
- नवजात पशु का पोषण – खीस 1/2 एक घण्टे के अन्दर अवश्य पिलाना चाहिये। जिससे नवजात पशु की रोग अवरोधक क्षमता का विकास होता है।
- जन्म के समय पशु का वनज 25-30 किलोग्राम होता है इसलिए शुरुआती दिनों में हरा मुलायम चारा खिलाना चाहिये।
- दो महीने के बाद वनज बढ़ने के साथ आंतरिक संरचना में भी विकास होता है जिससे 50-100 ग्राम दाना खिलाना चाहिये।
छः महिने से दो साल (24 महीने) तक की कटिया/पड़िया की देखभाल
- इस उम्र में कटिया का वनज- 100-150 किलोग्राम हो जाता है। जो कि आयु के बढ़ने के साथा वजन भी बढ़ता है। अतः इस समय 15-25 किलोग्राम हरा चारा 1-1.5 किलोग्राम दाना प्रति दिन देना चाहियें।
- इसके साथ अच्छा खनिज मिश्रण भी देना चाहिये 30-40 ग्राम/दिन।
- चारा जो कि हरा चारा को छोटे-छोटे कुट्टी करके नाद में डाल देना चाकिये एवं दाना तथा खनिज मिश्रण को अच्छी तरह मिलाना चाहिये। जिससे कटिया/कटरा इसका अधिकतम उपयोग कर सके।
- साथ ही पानी साफ सीजन के अनुसार भरपेट पिलाना चाहिये।
जीवन निर्वाह के लिए दाने की मात्रा
कटिया/कटरा में 1.5-1.75 कुल दाना प्रति शरीर भार प्रतिदिन देना चाहिये। इसके साथ 4-6 किलोग्राम भूसा (सूखा चारा) प्रतिदिन साथ में मिलाकर देना चाहिये।
गर्भाधारण की अवस्था में- (पड़िया में)
छः महिने के बाद आखिरी तीन महीनो में ज्यादा दाना की आवश्यकता होती है तो इस समय 1.25-1.5 किलोग्राम/ 100 किलोग्राम प्रतिदिन दाना देना चाहिये। ब्याने से एक सप्ताह पहले 500 ग्राम गेहॅू का चोकर आहार में मिलाकर देना चाहिये। क्योंकि गेहॅू का चोकर बहुत ही लेक्जेटिव होता है। जिससे ब्याने में भैस/पड़िया के बच्चे को परेशानी का सामना कम करना पड़ता है।
दुग्ध उत्पादन के दौरान
भैंस के दूध में वसा छः प्रतिशत होता है अतः 2 किलोग्राम दूध उत्पादन के लिए 1 किलो दाना देना चाहियें
- अगर पड़िया में पहली बार दुग्ध स्रावित हो रहा है तो यह 300-350 ग्राम दाना देना होता है।
- अगर पड़िया मे दूसरी ब्यात के बाद दुग्ध स्रावित हो रहा है तो यह 150-175 ग्राम दाना देना सुनिश्चित करना चाहिये।
- रबी सीजन में- मक्का, बरसीम, जई-हरा चारे के रूप में खिलाना चाहिये।
- खरीब सीजन में- लोबिया, चारी, हरे चारे के रूप में खिलाना चाहिये।
- पर्वतीय क्षेत्रो में- चारा वृक्षों जैसे भीमल, खड़िक, बाज, एवं शहतूत की पत्तियों को खिलाने से उच्च गुणवत्ता वाले पोषक तत्वों की पूर्ति होती है। जिसमें भैसो का जनन एवं प्रजनन के साथ-साथ दुग्ध उत्पादन में वृद्धि होती है।
- अधिकतम दुग्ध उत्पादन के लिये आहार में चारा एवं दाना अनुकूलतम अनुपात में हो।
- चारा उत्तम किस्म तथा अनुकूलतम अवस्था में कटा हो।
- दाने एवं चारे की पचनीयता मान-35-40 प्रतिशत होनी चाहिये।
- आहार खिलाने की बारंबारता छः घण्टे के अंतराल का होना चाहिये। जिससे भोजन का पाचन आमाशय में उचित ढंग से हो सके।
- मौसम के अनुसार 30-40 लीटर पानी चिलाना आवश्यक होता है।
महिषवंशीय पशुओं में रेशायुक्त आहार का उपयोग बहुत अधिक मात्रा में होता है क्योंकि इन पशुओं में रेशेयुक्त आहार में उपस्थित सैल्लूलोज को पचाने के लिए सैलूलेज इन्जाइम पाचन तंत्र में उपस्थित होता है।
उत्तराखण्ड राज्य में छोटी जोत आकर होने के कारण चारा उत्पादन में कमी के साथ-साथ उच्च गुणवतायुक्त आहार की निरन्तर कमी बनी रहती है। इसलिए बागवानी, कृषि से प्राप्त रेशे वाले चारे को प्रसंस्कृत करके अधिक गुणवत्तापूर्ण पोषण आहार का निर्माण किया जाता है।
- फसल अवशेष भूस, पुआल के पोषण मान में वृद्धि होती 2 प्रतिशत यूरिया 1 प्रतिशत शीरा, 0.3 प्रतिशत खनिज मिश्रण मिलाकर इसका एक द्वीप बनाकर 20-22 दिन काली पॉलिथीन से ढक कर बाद में उपयोग करना चाहिये।
- छः महीने वाले लवारो को यूरिया उपचारित आहार नही खिलाना चाहिये।
- यूरोनोल खनिज पिण्ड उत्पाद के रूप में 2 प्रतिशत यूरिया, 20 प्रतिशत शीरा, 1 प्रतिशत वेन्टोनाइट, 2 प्रतिशत खनिज हमिश्रण के साथ दलहनी व रेशेयुक्त दाने को मिश्रित करके खनिज पिंड का निर्माण किया जाता है। उपरोक्त पिंड को 5–7 मिनट पशुओं को चटाने से 6-7 प्रतिशत दुग्ध उत्पादन मे वृद्धि होती है तथा दाने की मात्रा भी कम की जा सकती है।
- हमारे ग्रामीण क्षेत्र में भूसा व पुआल जैसे सूखे चारे ही भैसों का मुख्य आहार होने के कारण पशुओं में संतुलित मात्रा में पर्याप्त पोषक तत्व नही मिल पाते हैं। इसमें पाचकता एवं एन 2 बहुत कम होता है। जिसके फलस्वरूप इन चारों पर पलने वाले पशु उत्पादन करना तो दूर सामान्य तदुरूस्ती भी बनाये रखनें में असमर्थ हो जाते है। तो भूसे का अधिक मात्रा में वैज्ञानिक तरीके से उपचार किया जाता है। इसमें चार किलोग्राम यूरिया प्रति 50 लीटर पानी में तैयार किया जाता है। तथा प्रति 100 किलोग्राम भूसा/पुआल की दर से अच्छी तरह मिलाते जायें। यदि गढरी का औसत भार 20 किलोग्राम हो तो 10 लीटर घोल प्रति गढरी के हिसाब से मिलाकर करना होता है।
- उपचारित भूसे को पॉलिथीन से ढक देना चाहिये। इस भूसे व पुवाल में यूरिया से उत्पन्न अमोनिया जैसे क्षार की उपस्थिति से भूसा मुलायम होने के साथ पोशक मान में वृद्धि हो जाती है।
- उपचारित भूसा गर्मी के दिनों में एक सप्ताह में खिलाने के लिए तैयार हो जाता है एवं सर्दियों में दो सप्ताह का समय लगता है।
- उपचारित भूसे को खिलानें के कुछ समय पहले हवा मे फैला देना चाहिये ताकि यूरिया से बनी अमोनिया गैस उड़ जाती है।
- इस उपचारित भूसे को अकेले या फिर खली, दलिया, चोकर के साथ भी खिलाया जा सकता है।
प्रजनन के लिए उपयोग करने हेतु साडों का प्रबंधन
वर्तमान समय में भारत में महिषवंशीय पशुओं की इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद भी इन पशुओं की उत्पादन क्षमता बहुत कम है और इसका मुख्य कारण प्रचुर मात्रा में चारे का न होना है। भारत विश्व का सर्वाधिक दुग्ध उत्पादक देश है।
उत्तराखण्ड राज्य में भी महिषवंशीय पशुओं की संख्या काफी है। पर्वतीय क्षेत्रों में भी इन पशुओं को पाला जाता है। परन्तु चारे में पोषक तत्वों की कमी एवं भरपूर चारा न उपलब्ध होने के करण दुग्ध उत्पादन क्षमता में भी प्रभाव पड़ता है। यदि इन पशुओं की दुग्ध उत्पादन क्षमता बढ़ानी हो तो हमें पशुओं की नस्ल में सुधार लाना होगा यानि हमें अधिक उत्पादन वाले नस्लों को बढ़ावा देने के साथ-साथ संकट प्रजनन द्वारा भी अधिक उत्पादन वाले पशुओं को पालना होगा। इन सभी आयामों को मूर्तरूप देने के लिए उपयुक्त सांड का चुनाव करना अतिआवश्यक है।
मान्यतः एक अकेला सांड किसी पशु समूह के आधे हिस्से के बराबर होता है। अतः दुग्ध उत्पादन के साथ-साथ पशुधन व्यवसाय से अधिकाधिक लाभ अर्जित करने हेतू हमें सांडों के रख-रखा, खान-पान, स्वास्थ आदि पर समुचित ध्यान देना होगा।
खानपान
- सांड का खानपान उचित रखकर उनको स्वस्थ रखा जा सकता है। उनका खानपान ऐसा होना चाहिये कि वे कमजोर भी न हो और ज्यादा मोटे भी न हों।
- ज्यादा मोटे संड आलसी व सुस्त हो जाते हैं। ऐसे सांडों को निरन्तर व्यायाम कराना चाहिये ताकि वो दुरस्त हो जाये।
- सांड को हरा चारा खिलाना चाहिये- 25 किलोग्राम/प्रतिदिन खिलाना चाहिये।
- सांड में ज्यादा शुक्राणुओं के उत्पादन के लिए खनिज लवण एवं विटामिन ए जरूरी होता है। सांड को प्रदिन 3 किलोग्राम दाना पर्याप्त होता है तथा इस दाने में 25-30 प्रतिशत खली, 2 प्रतिशत नमक/लवण मिश्रण लाभकारी होता है। सांड के आहार में जन्म से ही ध्यान देने से वे शीघ्र ही प्रजनन क्षमता बढ़ जाती है। पानी हमेशा साफ व भरपेट पिलाना चाहिये।
कार्य में प्रयोग हेतु साडों का प्रबन्धन
- जब साडों को बोझा ढोने हेतु या बैलगाड़ी के प्रयोग में लाने हेतु प्रयोग में लाया जाता हैं तो इस समय रखरखाव को ध्यान में रखते हुये राशन तैयार किया जाता है।
- इनके राशन में प्रोटीन की मात्रा का अनुपात ज्यादा होता है।
- अधिक ऊर्जा व वसा युक्त राशन नही देना चाहियें।
- जो बैल छः घण्टें काम करते हैं या चार घण्टें जोतने का काम खेतो में करते हैं। उनका राशन अलग बनाया जाता हैं
- जो बैल आठ घण्टें भारी काम करते हैं और छः घण्टें खेतों को जोतने का काम करते हैं। उनका अलग राशन तैयार किया जाता है।
- हरा चारा अधिक मात्रा में खिलाना चाहिये।
- पानी भी अधिक से अधिक मात्रा में पिलाना चाहिये।
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