पशुओं में प्राकृतिक अथवा कृत्रिम गर्भाधान के पश्चात गर्भ की शीघ्र पहचान करना आर्थिक दृष्टिकोण से अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। इसमें समय की बचत पर मुख्य रुप से ध्यान दिया जाना चाहिए, अर्थात जितनी जल्दी हो सके ग्याभन पशु की पहचान हो उतना ही श्रेष्ठ है। ऐसा करने से पशुपालक गर्भित पशु को अलग कर उसे विशेष आहार प्रदान कर उचित देखभाल कर सकते हैं तथा जो पशु खाली पाए जाए उनको अलग कर अगले मद या गर्मी आने की प्रतीक्षा नियमित निरीक्षण द्वारा कर सकते हैं। यदि यह पशु गर्मी में नहीं आते हैं तो उनका निदान पशुचिकित्सक की सलाह द्वारा किया जाना चाहिए, जिससे धन और समय दोनों की बचत हो सके। पशुपालकों को सदैव यह प्रयास करना चाहिए की एक ब्यॉत से दूसरे ब्यॉत का अंतर 13 से 14 महीने से अधिक नहीं होना चाहिए। शीघ्र गर्भ की पहचान पशुओं की बिक्री एवं बीमा के हेतु भी आवश्यक है, क्योंकि पशु के गाभिन होने का प्रमाण पत्र इन दोनों कार्यों के लिए अति आवश्यक है।
गर्भधारण का प्रारंभिक लक्षण है कि पशु का अगले मद चक्र में गर्मी का नहीं होना। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि पशुओं द्वारा गर्भधारण की अवस्था में भ्रूण की उपस्थिति में दैहिक परिवर्तन द्वारा मद में आने की प्रक्रिया रुक जाती है क्योंकि भ्रूण द्वारा इंटरफेरान टाऊ निकलता है जो कि मादा पशु को गर्भ रुकने की सूचना देता है। इसे मैटरनल रिकॉग्निशन आफ प्रेगनेंसी कहते हैं । इस ज्ञान को पशुपालक पशु चिकित्सक एवं अन्य कार्यकर्ता उपयोग में लाते हैं। क्योंकि यह निर्भर करता है कि खाली पशु की गर्मी की पहचान आप कितना प्रतिशत सही सही कर पाते हैं। अतः इस कार्य के लिए अपनाई जाने वाली अन्य विधियों की महत्ता भी बहुत बढ़ जाती है जो ज्यादा तेज और सटीक होती है। इसमें मुख्य दो विधियां हैं:
- चिकित्सकीय विधि
- प्रयोगशाला परीक्षण विधि
चिकित्सकीय विधि
इस विधि द्वारा गर्भ की पहचान मुख्यता भ्रूण की पहचान, भ्रूण की ऊपरी परत की पहचान, प्लेसनटोम और भ्रूण द्रव्य की पहचान एवं मध्य की गर्भाशय धमनी की धड़कन पर निर्भर करती है। इसके अतिरिक्त पशु के शरीर में कई आंतरिक परिवर्तन होते हैं जो कि गर्भ की पहचान में सहायक होते हैं। इस विधि में दो पद्धतियां प्रचलित हैं:
1. गुदा मार्ग द्वारा परीक्षण से गर्भ की पहचान
पिछले कई दशकों से यह विधि प्रयोग में लाई जा रही है और वर्तमान में भी यह सबसे ज्यादा प्रचलित सटीक एवं आसानी से अपनाई जाने वाली विधि है। क्योंकि भ्रूण गर्भाशय की दो शाखाओं में से एक में ही विकसित होता है अतः स्वाभाविक है कि जिस शाखा में भ्रूण है वह दूसरी शाखा से बड़ा होता जाता है। गर्भ के प्रारंभिक दिनों मे यही असामान्यता सर्वप्रथम गर्भ की पहचान देता है। इससे त्वरित और भरोसेमंद परिणाम प्राप्त हो जाता है। जैसे जैसे भ्रूण का विकास होता है, स्वयं भ्रूण का तथा इसके अन्य अवयवों तथा प्लेसेंटोम का स्पर्श संभव हो जाता है जो कि गर्भ की पहचान में सहायक होते हैं।
इसमें प्रमुख हैं गर्भाशय की दीवाल का पतला होना गर्भाशय में द्रव्य का भरा होना एवं दबाने पर स्थिति बदलना, मध्य गर्भाशय धमनी में रक्त का विशेष बहाव एवं भ्रूण तथा गर्भाशय के बीच जुड़े हुए गॉठों / प्लेसेंटोम का स्पर्श। यह विधि आम प्रचलन में होने के बाद भी शत प्रतिशत परिणाम नहीं देती है। अतः अन्य विधियों के विकास की आवश्यकता महसूस की गई।
2. अल्ट्रासाउंड विधि द्वारा गर्भ की पहचान
पिछले दशक से अल्ट्रासाउंड का उपयोग शरीर के विभिन्न आंतरिक अंगों एवं ग्रंथियों के निरीक्षण में सहायक सिद्ध हुआ है। विशेषकर मनुष्यों में इसका प्रयोग आशातीत सफलता के साथ किया जा रहा है, जिसमें गर्भ की पहचान एवं बच्चे के लिंग का पता करना तथा बच्चे में कोई विकृति का पता करना अब संभव हो गया है। पशुओं में भी इसका उपयोग बढ़ा है। इसके द्वारा गर्भ की पहचान पूर्ण सफलता एवं सटीकता से की जा सकती है। अल्ट्रासाउंड मशीन एक विशेष प्रकार की अल्ट्रासोनिक ध्वनि तरंगों पर आधारित होती है जो भ्रूण से टकराती है जिससे उनकी गतिविधि द्वारा या इसके दिल द्वारा अथवा भ्रूण द्रव्य द्वारा उत्पन्न ध्वनि तरंगों को मशीन रिकॉर्ड कर लेती है। इन ध्वनियों को हम कान में फोन या स्पीकर द्वारा सुन सकते हैं। इस तरह कम से कम 24 30दिन के गर्भ को आसानी से पहचाना जा सकता है। अल्ट्रासाउंड मशीन का और भी विकास हुआ है जिससे कि भ्रूण की गतिविधि को कंप्यूटर स्क्रीन पर देखा जा सकता है और इस विधि द्वारा अब गर्भाधान के 12 दिन बाद गर्भ की पहचान करना संभव हो गया है।
प्रयोगशाला विधि/ जैव रासायनिक परीक्षण
पशुओं के गर्भ के पहचान के लिए अनेक विधियां विकसित की गई हैं जो उपयोग में लाई जा रही हैं। इसका मुख्य आधार गर्भ में पल रहे बच्चे द्वारा उत्पन्न पशु के आंतरिक परिवर्तन ऊतकों में परिवर्तन विशेष प्रकार के द्रव्य का स्राव या उसका स्तर का अधिक होना तथा गर्भ की वजह से उत्पन्न विशेष रसायनिक पदार्थ की पहचान करना है। प्रयोगशाला में रक्त पेशाब या दूध की जांच करके इन तत्वों की पहचान की जाती है।
1. आरंभिक गर्भ कारक (ई.पी.एफ.) की पहचान
यह पदार्थ एक इम्यूनोसपरेसिव प्रोटीन होता है जो गर्भ ठहरने के तुरंत बाद उत्पन्न होता है। सर्वप्रथम यह महिलाओं में पाया गया था उसके बाद में इसकी पहचान सूअर, भेड़ और गायों में की गई। इन पशुओं में इनकी पहचान गर्भधारण के कुछ ही दिनों बाद की जा सकती है जबकि चूहों में यह 24 घंटे के अंदर पाया जा सकता है। गाय में 3 से 5 दिन पश्चात एवं भेड़ में 24th 48 घंटे के पश्चात इस विधि का प्रयोग किया जा सकता है। ईपीएफ की पहचान होने से अब गर्भ की पहचान शीघ्रता से की जा सकती है जिससे कि जो पशु गाभिन नहीं है उनकी पहचान कर उनका सम्यक परीक्षणोंपरांत समुचित उपचार किया जा सके।
2. हार्मोन के स्तर का माप
प्रारंभिक अवस्था में ही गर्भ की पहचान करने में कई प्रकार के हार्मोन की जांच अत्यंत प्रभावी होती है। इसकी जांच रक्त या दूध में की जाती है। गर्भाधान के कारण कई हार्मोन के स्तर में उतार-चढ़ाव होता है एवं कुछ नए हार्मोन भी उत्पन्न होते हैं। यही इस जांच का आधार होता है।
प्रोजेस्ट्रोन
पशु प्रक्षेत्रों मैं गर्भ पहचान के लिए प्रोजेस्टेरोन हार्मोन के स्तर की माप बहुत व्यापक स्तर पर की जाती है। इसके लिए रक्त या दूध की जांच की जाती है। दूध की जांच को खून की जांच पर वरीयता दी जाती है। क्योंकि दूध में इस हार्मोन की मात्रा अधिक होती है। यह इसलिए भी ज्यादा उपयोगी है क्योंकि इसमें किसी सुई या इंजेक्शन की जरूरत नहीं होती है। इस विधि द्वारा गर्भ की पहचान गायों में गर्भाधान के 17 दिनों के पश्चात एवं भेड़ों में 21 दिन के पश्चात तथा सूअरों में 22 दिन के पश्चात की जा सकती है। इसकी सफलता दर 80 से 90% तक होती है।
एस्ट्रोन सल्फेट
यह हार्मोन मुख्यत: एस्ट्रोजन है जो कि भूख द्वारा उत्पन्न किया जाता है और जिस का माप रक्त दूध या पेशाब में किया जाता है। गर्भ के दौरान इसका स्तर धीरे धीरे बढ़ता है और 105 दिनों के बाद सभी गायों में उच्च स्तर प्राप्त कर लेता है। इसकी जांच 72 दिनों के बाद की जा सकती है। क्योंकि यह जांच गर्भाधान के ढाई से 3 महीने के बाद ही संभव है इसलिए इसकी उपयोगिता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है।
कम समय के गर्भ परीक्षण की अन्य सरल जैव रसायनिक विधियां
1. बीज अंकुरण निषेध परीक्षण
बीज अंकुरण निषेध परीक्षण कम समय की गर्भावस्था के निदान में अति महत्वपूर्ण है। कम समय की गर्भावस्था की जांच डेयरी व्यवसाय के प्रजनन प्रबंध एवं व्यावसायिक लाभ के दृष्टिकोण से अति उत्तम है। कम समय की गर्भावस्था की जांच हेतु कोई परीक्षण उपलब्ध न होने के कारण वैज्ञानिकों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया है। इन सबके बावजूद गर्भ जांच की कई विधियां जैसे गुदा परीक्षण, रेडियोग्राफी एवं अल्ट्रासाउंड और रोजेट इनहिबिसन टेस्ट इत्यादि उपलब्ध है। इन परीक्षणों की प्रायोगिक कठिनाइयों के कारण कम समय के गर्भ जांच हेतु लगातार साधारण, कम खर्च एवं नानइनवेसिव विधि के सफल क्रियान्वयन हेतु वैज्ञानिक लगातार कार्य कर रहे हैं। पुण्यकोटी परीक्षण एक सरल नान इनवेसिव गर्भ जांच हेतु परीक्षण है जिसे गाय/ भैंस के लिए विकसित किया गया है। यह परीक्षण पशुपालक द्वारा अपने घर पर आसानी से किया जा सकता है।
कम समय की गर्भावस्था का निदान अर्थात पहचान अत्यंत लाभदायक और उन्नत पशुपालन के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। गाय एवं भैंस में गर्भावस्था की जानकारी हेतु पुण्यकोटि परीक्षण तकनीक का उपयोग किया जाता है। इसे सीड बायो ऐसे भी कहा जाता है।
सिद्धांत: गर्भित पशु के मूत्र में लगभग 3 गुना अधिक एबसिसिक एसिड पाया जाता है जो गेहूं अथवा जौ के अंकुरण को बाधित करता है। गर्भित गाय और भैंस के मूत्र में एबसिसिक एसिड उच्च सांद्रता में 170.62 नैनोमोलस/ मिली लीटर जबकि बिना गर्भ की गायों एवं भैंसों में 74.46 नैनोमोल्स प्रति मिलीलीटर पाया जाता है। एबसिसिक एसिड की उच्च मात्रा बीजों के अंकुरण एवं उनकी सूट लेंथ को कम करता है, जब गर्वित पशु के मूत्र से उक्त बीजों का उपचार किया जाता है। यह परीक्षण भैंस, भेड़, बकरी में भी किया जा सकता है जिनमें धान एवं मूंग के बीजों का मूत्र के द्वारा उपचार किया जाता है।
प्रयोग की विधि: मूत्र नमूनों का संकलन प्रायोगिक समूह की गायों एवं भैंसों द्वारा प्राकृतिक मूत्र त्याग के समय अथवा इंड्यूस्ड मूत्र त्याग के समय किया जाता है। पशु के मूत्र को एकत्र करने के पश्चात उसको 10 गुना आसुत जल में तनुकृत किया जाता है। दो पेट्री डिश लेकर उन पर फिल्टर लगा दिया जाता है। लगभग 15 से 20 गेहूं या जौ के दाने प्रत्येक पेट्री डिश में रख दिए जाते हैं। लगभग 10 से 15 एम एल उपरोक्त तनुकृत मूत्र नमूना एक पेट्री डिश में डाल देते हैं जबकि दूसरी पेट्री डिश में केवल आसुत जल डालते हैं जो कंट्रोल ग्रुप का काम करता है। पेटरी डिस को ढक कर , रखते हैं ताकि तनुकृत मूत्र का वाष्पीकरण न हो और इसको 5 दिन तक रखते हैं।
निष्कर्ष: यदि बीजों का अंकुरण नहीं होता है और यह बीज काले या भूरे पड़ जाते हैं अथवा यदि अंकुरित होते हैं तो इनके सूट्स 1 सेंटीमीटर से कम लंबाई के होते हैं ऐसी स्थिति में पशु को गर्भित माना जाता है। 35 से 60 प्रतिशत अंकुरण के साथ सूट लेंथ 4 सेंटीमीटर की होती है तो पशु गर्भित नहीं माना जाता है। कंट्रोल पेट्री डिश मैं 60 से 80% अंकुरण होता है और सूट लेंथ लगभग 6 सेंटीमीटर होती है।
2. बेरियम क्लोराइड परीक्षण
इस परीक्षण का उपयोग गाय और भैंस की गर्भ जांच हेतु किया जाता है। इस परीक्षण से 90% से अधिक विश्वसनीय परिणाम प्राप्त होते हैं।
परीक्षण का सिद्धांत: प्रोजेस्ट्रोन की यकृत में मेटाबॉलिज्म के बाद जो अंत उत्पाद बनते हैं वे गाय और भैंस के मूत्र में उपस्थित होते हैं जो कि बेरियम क्लोराइड के प्रेसिपिटेशन को बाधित करते हैं। जबकि एस्ट्रोजन प्रेसिपिटेशन को उत्प्रेरित करता है।
परीक्षण की विधि: एक परखनली में 5ml पशु का मूत्र लेते हैं। इस परखनली में 5 से 6 बूंद 1% बेरियम क्लोराइड के घोल को डालकर अच्छी तरह मिक्स करते हैं।
परीक्षण के निष्कर्ष: प्रेसिपिटेशन का न होना यह सिद्ध करता है कि पशु गर्भित है। जबकि यदि स्पष्ट सफेद प्रेसिपिटेशन आता है तो यह पशु गर्भित नहीं है। इस परीक्षण द्वारा 3 से 4 सप्ताह के गर्भ की जांच, भी की जा सकती है। यह परीक्षण पशुपालक द्वारा अपने घर पर आसानी से किया जाना सकता है। जब पादप स्रोत की एस्ट्रोजन मूत्र में उपस्थित होती है तो यह परीक्षण गलत परिणाम देता है। स्थाई पीतकाय एवं गर्भावस्था की पीतकाय का जोकि ब्याने के कुछ समय तक रहती है, भी असत्य धनात्मक परिणाम दे सकती है।
3. सोडियम हाइड्रोक्साइड परीक्षण
इस परीक्षण का उपयोग गाय एवं भैंस के गर्भ परीक्षण के लिए किया जाता है। इस परीक्षण के परिणाम 80 से 90% सही होते हैं।
परीक्षण की विधि: एक परखनली में 0.25 मिलीलीटर गर्भाशय ग्रीवा का म्यूकस लेते हैं।
इसमें 5ml 10% सोडियम हाइड्रोक्साइड का घोल मिलाते हैं। इसके पश्चात इसको उबालने तक गर्म करते हैं।
परिणाम/ निष्कर्ष: उपरोक्त मिश्रण का नारंगी रंग का होना सिद्ध करता है कि पशु गर्भित है। यदि हल्का पीला रंग आता है इसका अर्थ है कि पशु गर्भित नहीं है।
4. स्पेसिफिक ग्रेविटी परीक्षण
गाय एवं भैंस में यह परीक्षण 90% से अधिक विश्वसनीय होता है।
परीक्षण का सिद्धांत: प्रोजेस्ट्रोन हार्मोन की सर्वाइकल म्यूकस में उपस्थिति स्पेसिफिक ग्रेविटी को बढ़ा देती है जबकि एस्ट्रोजन की उपस्थिति स्पेसिफिक ग्रेविटी को घटा देती है ।
प्रयोग की विधि: कुछ मिली लीटर कॉपर सल्फेट का घोल जिसकी स्पेसिफिक ग्रेविटी 1.008 हो एक टेस्ट ट्यूब में लेते हैं। इसमें 0.25 एम.एल. सर्वाइकल म्यूकस डालते हैं।
परिणाम/ निष्कर्ष: यदि म्यूकस डूब जाता है इसका अर्थ है कि पशु गर्भित है। परंतु यदि म्यूकस ऊपर उतराता है, इसका अर्थ है पशु गर्भित नहीं है।
इस प्रकार हम उपरोक्त वर्णित विभिन्न तकनीकों की सहायता से मादा पशु के गर्भित होने का पता लगाकर उसका सही प्रबंधन कर सकते हैं एवं बिना गर्भ की मादाओं की स्थिति का पता लगाकर उनका सम्यक परीक्षण उपरांत उपचार कर सकते हैं।
उपरोक्त विधियों में से किसी एक को अपनाने से कम समय की गर्भावस्था का ज्ञान हो जाता है। जिससे गर्भित पशु का समय से उत्तम प्रबंधन किया जा सकता है और 12 महीने में गाय से एक बच्चा एवं 13 से 14 महीने में भैंस से एक बच्चा प्राप्त कर पशुपालक समृद्ध किया जा सकता है।
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