जठरआंत परजीवी
ज्यादातर जठरआंत परजीवी एक पशु से दूसरे पशु में गोबर में आने वाले अण्डों द्वारा फैलते हैं। बारिश के बाद ये अण्डे काफी ज्यादा बड़े एरिया में फैल जाते हैं तथा घास द्वारा अन्य पशुओं में फैलते हैं। नमी एवं मॅाडरेट तापमान में ये ज्यादा पनपते हैं। इन परजीवियों के कारण श्लेष्मा झिल्ली सफेद पड़ जाती है। खून की कमी हो जाती है। जबड़े के आस पास की चमड़ी ढ़ीली पड़ जाती है। शरीर सूख जाता है एवं कमजोरी आ जाती है ज्यादातर इसके इलाज के लिये कृमिनाशक दवाई दी जाती हैं।
फेफड़े की कृमि
यह भी जठरआंत परजीवियों जैसे ही फैलती है नमी के मौसम एवं ठण्डी के मौसम में ज्यादा पनपते हैं। इनके लक्षण भी जठरआंत परजीवियों जैसे रहते हैं। इलाज में कृमिनाशक दवाई काम आती हैं।
लीवर फ्लूक
यह पर्णकृमि पशुओं के यकृत में पाया जाता है एवं पशु का रक्त चूसता है यह संक्रमित पशुओं के गोबर से अन्य पशुओं में फैलता है। इससे डायरिया एवं कमजोरी आती है। लीवर भी खराब हो जाता है। इसके पनपने के लिये घोंघें सहायता करते हैं अर्थात ये इण्टरमीडियेट होस्ट है। इसके इलाज के लिये कृमिनाशक दवायें जैसे ट्राइक्लेबेण्डोज़ोल एवं आॅक्सीक्लोजानाइड काम आती है।
यह लेख कितना उपयोगी था?
इस लेख की समीक्षा करने के लिए स्टार पर क्लिक करें!
औसत रेटिंग 3.7 ⭐ (11 Review)
अब तक कोई समीक्षा नहीं! इस लेख की समीक्षा करने वाले पहले व्यक्ति बनें।
हमें खेद है कि यह लेख आपके लिए उपयोगी नहीं थी!
कृपया हमें इस लेख में सुधार करने में मदद करें!
हमें बताएं कि हम इस लेख को कैसे सुधार सकते हैं?
Authors
-
सह प्राध्यापक, पशु औषधि विज्ञान विभाग, पशु चिकित्सा विज्ञान एवं पशुपालन महाविद्यालय, रीवा, मध्यप्रदेश
-
सह प्राध्यापक, पशु परजीवी विज्ञान विभाग, पशु चिकित्सा विज्ञान एवं पशुपालन महाविद्यालय, रीवा, मध्यप्रदेश
Be the first to comment