पशुओं में होनें वाले किलनी तथा जूँ और उससे बचाव

4.5
(44)

किलनी तथा जूँ से सभी आयु तथा प्रकार के पशु प्रभावित होते हैं। भैसो में किलनी कम मिलती हैं परन्तू इनमें जूँ अत्यधिक मात्रा में मिलती हैं। किलनी प्रायः गर्मी एवं वर्षा ऋतु में अधिक होती हैं। किलनियाँ पशुओं में घूमन्तू पशु एवं चारागाहो से आती हैं। इसके अतिरिक्त ये पशुषालाओं की दीवारों व फर्ष की दरारो व छिद्रो में भी छिपी रहती हैं और जैसे ही मौका मिलता है वैसे ही पशु के शरीर पर आ जाती हैं।

किलनी अपना भोजन स्वयं तैयार नहीं करता बल्कि जिस पशु के शरीर  पर रहता उसी का खून चूस कर अपनी आवश्यकता की पूर्ति करता है। अलग-अलग प्रकार की किलनी की जातियां भिन्न मात्राओं में पशुओं के शरीर  से रक्त चूसती हैं। जैसे एक बूफिलस नामक नामक किलनी एक दिन में लगभग 0.5 मिली0 से 2.0 मिली0 तक रक्त चूसती हैं। एक पशु के शरीर  पर हजारो की मात्रा में किलनी होती हैं। अत: यह शरीर  में खून की कमी का प्रमुख कारण हैं। इस प्रकार जब पशु के शरीर  पर किलनी की संख्या बहुत अधिक होती है तो पशु की मृत्यु तक हो सकती है।

और देखें :  पशुओं में मुख्य रक्त परजीवी रोगों के कारण एवं निवारण

किलनी अपने मुख से पशु की त्वचा को भेदती हैं जिससे पशु के शरीर  में छोटे-छोटे घाव हो जाते हैं। किलनी की कुछ जातियां सिर या रीड़ की हड्डी के आस पास होती हैं। उनसे एक प्रकार का जहराला पदार्थ निकलता है, जो पशु को लकवा जैसी स्थिति में ला देता है। इसके अतिरिक्त यह किलनी कई प्रकार के विषाणुओं तथा प्रटोजोवा को एक पशु से दूसरे पशु तक ले जाती हैं। अत: यह अनेक जान लेवा बीमारियेां के वाहक का कार्य सम्पन्न करती हैं।

जुओं से हानि

जुएं त्वचा से ऊत्तक द्रव तथा रक्त या त्वचा की बाहय सतह को अपने भोजन के लिए प्रयोग में लाती हैं। यह मुख्य रूप से खुजली व बेचैनी पैदा कर पशु को परेशान करती हैं। अत: पशु ठीक से खा नहीं पाता तथा लगातार खुजला कर अपने आप को जख्मी कर लेता है। दूधारू पशुओं में दुग्ध उत्पादन कम हो जाता है।

और देखें :  पशुओं में अफलाटॉक्सिकोसिस: कारण एवं निवारण

उपचार तथा रोकथाम

शरीर पर किलनी की कम संख्या होने पर उन्हें चिमटी से हटा कर मारा जा यकता है। किलनी तथा जूँ के उपचार हेतु बाजार में अनेक कीटनाषक औषधियां उपलब्ध हैं। इन औषधियों का सही मात्रा में घोल बनाकर घर में उपलब्ध सभी पशुओं पर छिड़काव करना चाहिए। शरीर  का वह भाग जहां बाल कम होते है विशेषत: वहाँ इनको अति आवश्यक होता है। साथ ही जहॅा पर भी पशु बांधें जाते है, वहां के फर्ष तथा दीवारों पर भी इस द्रव का प्रयोग करना चाहिए। इनमें प्रमुख हैं। ब्यूटाक्स, क्लीनर, साईपरोल, टिक किल आदि। 2-3 मिली0 ब्यूटाक्स को 1 लीटर पानी में घोलते हैं। क्लीनर या साईपरोल या टिक किल के प्रयोग के लिए उनका 1 मिली द्रव 1 लीटर पानी में घोला जाता है। पशुशाला में छिड़काव के लिए इसको 20 मिली0 1 लीटर घालना चाहिए। यह औषधियां पशु तथा पशुपालक दोनों के लिए हानिकारक होती हैं। अत: पशुपालकों को अपने बचाव पर भी पूरा ध्यान देना चाहिए। अनेक आयुर्वेदिक औशधियों जैसे पेस्टोबैन, जीराकीट, कीटआउट भी लाभकारी होती है। यह किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहॅुचाती। सभी दवाओं के प्रयोग के पूर्व के शरीर  पर लगी किसी भी प्रकार की गंदगी इन दवाइयों के असर को कम करती हैं। पशु के शरीर पर यदि घाव हो तो उसके ठीक होने पर ही दवा का प्रयोग करना चाहिए।

इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।
और देखें :  पशुओं में अनुउत्पादकता एवं कम उत्पादकता के कारण एवं निवारण

यह लेख कितना उपयोगी था?

इस लेख की समीक्षा करने के लिए स्टार पर क्लिक करें!

औसत रेटिंग 4.5 ⭐ (44 Review)

अब तक कोई समीक्षा नहीं! इस लेख की समीक्षा करने वाले पहले व्यक्ति बनें।

हमें खेद है कि यह लेख आपके लिए उपयोगी नहीं थी!

कृपया हमें इस लेख में सुधार करने में मदद करें!

हमें बताएं कि हम इस लेख को कैसे सुधार सकते हैं?

Authors

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*