वन हेल्थ कार्यक्रम के अंतर्गत पशुजन्य (Zoonotic) रोगों के नियंत्रण में पशु चिकित्साविदो का योगदान

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पशुजन्य रोग अथवा Zoonosis ऐसे संक्रामक रोग हैं जो विभिन्न प्रजातियों जैसे: पशुओं से मनुष्यों में अथवा मनुष्यों से पशुओं तक संचारित होते हैंI अन्य शब्दों में कहें तो रोगों के विभिन्न कारक जो अनेकानेक प्रजातियों जिनमें मनुष्य भी सम्मिलित है, में विभिन्न संचारी रोगों का कारण बनते हैं ; पशुजन्य रोग कहलाते हैंI पशुजन्य रोग विभिन्न प्रकार यथा: हवा के द्वारा, सीधे संपर्क द्वारा, अनजाने में रोग संचारी माध्यम के संपर्क में आने के द्वारा , मुख द्वारा खाद्य ग्रहण करने से तथा कीड़े मकोड़ों के काटने से फैलते हैं I ऐसे लोग जो परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से प्रायः पशुओं के संपर्क में आते हैं विभिन्न विषाणुओं, जीवाणुओं, प्रोटोजोआ , कवक तथा अन्यान्य बाह्य व आंतरिक परजीवियों के माध्यम से पशुजन्य रोगों के प्रथम लक्ष्य बनते हैं I आधुनिक युग के अनेकानेक रोग जिनमें अनेक जानपदिक रोग (Epidemics) भी सम्मिलित हैं , का प्रारंभ पशुजन्य रोगों के रूप में ही हुआ है I वैसे पूर्णतया यह स्पष्ट कर सकना तो अत्यंत दुष्कर है कि कौन सा रोग अन्यान्य पशुओं के माध्यम से मनुष्यों तक संचारित हुआ परन्तु इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि खसरा, चेचक/शीतला (Small Pox), एच.आई. वी. एवं रोहिणी (Diphtheria) रोग कुछ इसी प्रकार से मनुष्यों तक पहुंचे I इसी प्रकार जुकाम तथा तपेदिक ( T.B.) भी विभिन्न प्रजातियों तक अपनी पैठ बना सकने में सफल हो सका I वर्तमान समय में पशुजन्य रोगों की अत्यधिक चर्चा उनके नितांत नवीन रूप में प्रकटीकरण, परिवर्धित घातक रूप में अल्प प्रतिरक्षा वाले बहुसंख्य मनुष्यों को प्रभावित करने तथा संचार माध्यमों की अति सक्रियता के कारण हो रही हैI

और देखें :  पशुओं में टीकाकरण भ्रान्तियाँ एवं आवश्यकता

संयुक्त राज्य अमेरिका में सन् १९९९ में सर्वप्रथम West Nile Virus की उपस्थिति न्यूयॉर्क में देखी गयी पर सन् २००२ में इसने सम्पूर्ण संयुक्त राज्य अमेरिका को अपनी चपेट में ले लियाI कुछ ऐसे ही ब्यूबोनिक प्लेग , रॉकी माउंटेन स्पॉटेड फीवर तथा लाइम (Lyme) फीवर अदि भी मनुष्यों में संचारित हुए I एक अनुमानानुसार लगभग २०० ऐसे रोग या संक्रमण हैं जो प्राकृतिक रूप से पशुओं से मनुष्यों तक संचारित होते हैं I इनमे से कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण एवं घातक पशुजन्य रोग निम्नवत है:

  1. रेबीज़ (Hydrophobia)
  2. बर्ड फ्लू
  3. स्वाइन फ्लू
  4. वेस्ट नाइल ज्वर
  5. चिकुनगुनिया
  6. ऐन्थ्रेक्स
  7. ग्लैंडरस एवं फारसी रोग
  8. तपेदिक /टी. बी. / क्षय रोग
  9. ब्रूसेल्लोसिस
  10. लैपटोस्पायरोसिस
  11. क्यू ज्वर
  12. क्रिप्टोस्पोरिडियोसिस
  13. टॉक्सोप्लास्मोसिस
  14.  विसरल लार्वा मायग्रेन

और देखें :  जीवाणु व विषाणु जनित शूकर के जूनोटिक रोग

जूनोटिक संक्रमण प्रकृति या मनुष्यों में पशुओं के अतिरिक्त जीवाणु, विषाणु एवं परजीवी के माध्यम से फैलता है। एचआईवी- एड्स, इबोला, मलेरिया, रेबीज तथा वर्तमान में कोरोनावायरस कोविड-19 जूनोटिक संक्रमण के कारण प्रसारित होने वाले रोग हैं। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम तथा अंतरराष्ट्रीय पशुधन अनुसंधान संस्थान द्वारा कोविड-19 महामारी के संदर्भ में प्रीवेंटिव द नेक्स्ट पांडेमिक जूनोटिक डिसीसिस एंड हाउ टू ब्रेक द चैन आफ ट्रांसमिशन नामक रिपोर्ट प्रकाशित की गई है। इस रिपोर्ट का प्रकाशन 6 जुलाई को विश्व जूनोसिस दिवस के अवसर पर किया गया है। 6 जुलाई 1885 को फ्रांसीसी जीव विज्ञानी लुई पाश्चर द्वारा सफलतापूर्वक जूनोटिक बीमारी रेबीज के खिलाफ पहला टीका विकसित किया था। प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार मनुष्यों मैं 60% ज्ञात जूनोटिक रोग है तथा 70% जूनोटिक रोग ऐसे हैं जो अभी ज्ञात नहीं है। विश्व में हर वर्ष निम्न मध्यम आय वाले देशों में लगभग 1000000 लोग जूनोटिक लोगों के कारण मृत्यु को प्राप्त होते हैं। पिछले दो दशकों में जूनोटिक रोगों के कारण कोविड-19 महामारी की लागत को शामिल न करते हुए 100 बिलियन डालर से अधिक का आर्थिक नुकसान हुआ है जिसके अगले कुछ वर्षों में 9 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है। रिपोर्ट के अनुसार अगर पशु जनित बीमारियों की रोकथाम के प्रयास नहीं किए गए तो कोविड-19 जैसी अन्य महा मारियो का सामना आगे भी करना पड़ सकता है ।

जूनोटिक संक्रमण के कारण

जूनोटिक रोगों में वृद्धि के लिए सात प्रमुख कारणों को चिन्हित किया गया है जो इस प्रकार है:-

  1. पशु प्रोटीन की बढ़ती मांग
  2. गहन और अस्थिर खेती में वृद्धि
  3. वन्यजीवों का बढ़ता उपयोग और शोषण
  4. प्राकृतिक संसाधनों का निरंतर दोहन
  5. यात्रा और परिवहन
  6. खाद्य आपूर्ति श्रंखला में बदलाव
  7. जलवायु परिवर्तन संकट इत्यादि।

जूनोटिक रोगों के संक्रमण को रोकने के उपाय

एक स्वास्थ्य पहल वन हेल्थ इनीशिएटिव एक अत्यंत अनुकूलतम विधि जिसके माध्यम से महामारी से निपटने के लिए मानव स्वास्थ्य पशु स्वास्थ्य एवं पर्यावरण पर एक साथ ध्यान दिया जाता है । उपरोक्त के संबंध में 10 ऐसी विधियों के बारे में बताया गया है जो भविष्य में जूनोटिक संक्रमण को रोकने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं जो निम्न प्रकार हैं:

  1. एक स्वास्थ्य पहल पर बहु विषयक अथवा अंतर विषयक तरीकों से निवेश पर जोर देना। इस समस्या के समाधान के तौर पर अफ्रीकी देशों द्वारा एक स्वास्थ्य पहल/ वन हेल्थ इनीशिएटिव को अपनाया जा रहा है जिसमें मानव स्वास्थ्य व पशु पर्यावरण तीनों पर ध्यान दिया जाता है।
  2. जूनोटिक संक्रमण अर्थात पशु जनित बीमारियों पर वैज्ञानिक खोज को बढ़ावा देना।
  3. पशु बीमारियों के प्रति जागरूकता बढ़ाने पर बल देनाl
  4. बीमारियों के संदर्भ में जवाबी कार्रवाई के लागत -मुनाफा विश्लेषण को बेहतर बनाना और समाज पर बीमारियों के फैलाव का सटीक विश्लेषण करना।
  5. पशु जनित बीमारियों की निगरानी और नियामक तरीकों को मजबूत बनाना।
  6. भूमि प्रबंधन की टिकाऊशीलता को प्रोत्साहन देना तथा खाद्य सुरक्षा को बढ़ाने के लिए वैकल्पिक उपायों को विकसित करना जिससे आवास स्थलों एवं जैव विविधता का संरक्षण किया जा सके।
  7. जैव सुरक्षा एवं नियंत्रण को बेहतर बनाना पशुधन में बीमारियों के होने के कारणों को पहचानना तथा नियंत्रण उपायों को बढ़ावा देना।
  8. कृषि एवं वन्य जीव के साहित्य को बढ़ावा देने के लिए भूदृश्य कि टिकाऊ सिलता को सहारा देना।
  9. सभी देशों में स्वास्थ्य क्षेत्र में भागीदारों की क्षमताओं को मजबूत बनानाl
  10. अन्य क्षेत्रों में घूम उपयोग एवं सतत विकास योजना कार्यान्वयन तथा निगरानी के लिए एक स्वास्थ्य दृष्टिकोण अर्थात वन हेल्थ अप्रोच का संचालन करनाl

उपरोक्त समस्त कारणों का निवारण पशु चिकित्सा विदो एवं मानव चिकित्सकों के साथ-साथ पर्यावरण विशेषज्ञों द्वारा किया जा रहा है।

और देखें :  पशुओं से मनुष्यों में होने वाले प्रमुख जूनोटिक रोग एवं उनसे बचाव

निष्कर्ष

यदि वन्यजीवों के दोहन तथा पारिस्थितिकी तंत्र में समन्वय नहीं किया गया तो आने वाले वर्षों में पशुओं से मनुष्यों को होने वाली बीमारियां इसी प्रकार लगातार सामने आती रहेगी।

वैश्विक महामारी या मानव जीवन एवं अर्थव्यवस्था दोनों को ही नष्ट कर रही हैं जैसा कि हमने पिछले कुछ महीनों से कोविड-19 महामारी के संदर्भ में देख रहे हैं। इनका सबसे अधिक असर निर्धन एवं निर्बल समुदायों पर होता है अतः हमें भविष्य मैं महा मारियो को रोकने के लिए अपने प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा के लिए विचार करने की अत्यंत आवश्यकता है।

मनुष्यों में पशुजन्य रोग संक्रमण से बचाव के कुछ सामान्य उपाय

  • पशु तथा मनुष्यों के रहने के स्थान पर स्वच्छता का निरंतर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता हैI
  • पशु मल मूत्र तथा खाद्य अवशेषों का समुचित निस्तारण आवश्यक हैI
  • अनजाने तथा छुट्टा पशुओं का आवागमन पशुशाला में यथासम्भव नियंत्रित करना चाहियेI
  • पशुओं के संपर्क में आने के बाद हाथों को भलीभाँति साबुन से धोना एक सरल तथा पशुजन्य रोग संक्रमण से बचाव का एक व्यावहारिक निरोधी उपाय है I इसके लिए पशुशाला या पशु चिकित्सा केन्द्र पर साबुन की उपलब्धता सुनिश्चित होनी चाहियेI
  • अपास्चुरिकृत दूध तथा दुग्ध पदार्थों का उपभोग छोटे बच्चों, वृद्ध व्यक्तियों, गर्भवती स्त्रियों तथा अल्प रोग प्रतिरोधी क्षमता वाले व्यक्तियों में पशुजन्यरोग संक्रमण का कारण बन सकता है I अतः सदैव भलीभाँति उबले या पास्तुरिकृत दूध का उपभोग करना चाहिये I
  • मांस का खूब भलीभाँति उच्च आतंरिक तापक्रम के प्रयोग द्वारा भलीभाँति पकाने के बाद ही उपभोग करना चाहियेI
  • कच्चे अंडे का खाने में प्रयोग यथासम्भव बचाना चाहियेI
  • कच्चे माँस का प्रयोगशाला में भी प्रयोग सदा समस्त संस्तुत सावधानियों के साथ करना चाहियेI
  • कच्चे खाद्य पदार्थों के संपर्क में आने वाली सतह तथा समस्त बर्तनों को खूब अच्छी तरह गरम पानी तथा साबुन की सहायता से साफ़ करने के बाद ही प्रयोग करना चाहियेI
  • छोटे बच्चों तथा अन्य व्यक्तियों को भी अपने पालतू पशुओं यथा कुत्ते, बिल्ली आदि के संपर्क में आने के बाद अपने हाथों को अच्छे से साबुन से धुलना तथा तत्पश्चात यदि संभव हो तो स्नान करना चाहिये I
  • रोगी पशुओं का सदैव स्वस्थ पशुओं तथा मनुष्यों से पृथक्कीकरण प्रारम्भ में ही सुनिश्चित करना चाहियेI
  • नवीन पशुओं का आयात करने के पश्चात उनका समुचित संगरोध ( Quarantine) निश्चित करना अत्यंत आवश्यक है I
  • पर्याप्त मात्र में व्यक्तिगत निरोधी वस्तुओं यथा दस्ताने , चश्मे तथा गैस मास्क की पशुपालन तथा पशुचिकित्सा से जुड़े व्यक्तियों के पास उपलब्धता तथा उपायl

वर्तमान में मनुष्यों में फैली हुई कोविड-19 महामारी से पालतू पशु एवं वन्य जीव भी प्रभावित हो सकते हैं?

अब तक की सीमित सूचनाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि पशुओं द्वारा मनुष्यों में कोविड-19 के संक्रमण के फैलने का खतरा कम है। ऐसा प्रतीत होता है कि कोविड-19 बीमारी को करने वाला विषाणु मनुष्यों से पशुओं में कुछ परिस्थितियों में फैल सकता है।

उपरोक्त पशु जन्य अर्थात जूनोटिक बीमारियों से बचाव में पशु चिकित्सा विदो  का बहुत अहम योगदान है।

विश्व रेबीज दिवस के अवसर पर रेबीज से संबंधित मुख्य जानकारियां निम्नांकित है:

रेबीज पशुजन्य रोगों मे अत्यंत महत्वपूर्ण एवं  जानलेवा बीमारी है इसे जलानतक (Hydrophobia ) जलभीति, और हड़किया, रोग के नाम से भी जानते हैं। रेबीज जूनोटिक रोगों में अत्यंत महत्वपूर्ण जानलेवा घातक रोग है जो रोगी पशु द्वारा स्वस्थ पशु या मनुष्य को काटने या घाव को चाटने से फैलता है। यह मनुष्य सहित सभी तरह के पशुओं में हो सकता है। प्रत्येक वर्ष 28 सितंबर को वैज्ञानिक लुइस पाश्चर के निर्वाण दिवस पर विश्व रेबीज दिवस मनाया जाता है जिसके अंतर्गत    इस बीमारी के कारण लक्षण बचाव तथा इस बीमारी के नियंत्रण एवं उन्मूलन हेतु संपूर्ण विश्व के पशु चिकित्सा विदो द्वारा जानजागरुकता एवं टीकाकरण अभियान चलाया जाता है।

एक ऐसा विषाणुजनित रोग है जिसमें मुख्यतः चमगादड़,  कुत्ते या बंदर के काटने से, उसकी लार के द्वारा विषाणु  मानव / काटे जाने वाले पशु के मष्तिष्क तंतु कुप्रभावित करते हैं और मष्तिष्कशोथ (Encephalitis ) की स्थिति पैदा हो जाती है I एक अनुमानानुसार इस रोग के कारण प्रति वर्ष विश्व में लगभग ५९००० व्यक्ति उचित उपचार के अभाव में जिनमें अधिकतम बच्चे होते हैं , काल के गाल में समा जाते है। एशिया में रेबीज का अधिकतम प्रकोप है जिसमें लगभग 33172 मनुष्यों की मृत्यु प्रति वर्ष हो जाती है। भारत में  पूरी एशिया के लगभग 59.9% एवं पूरे विश्व के लगभग 35% व्यक्ति रेबीज के कारण मृत्यु को प्राप्त होते हैं।

पशुओं में रेबीज के लक्षण

भूख कम लगना दूध में कमी कान आगे तने हुए सचेत अवस्था में। तेज बुखार व पशुओं के मुंह से झाग दार लार गिराना दांत पीसना इत्यादि मुंह के भाग के लकवा के कारण होता है। इसमें रोगी के व्यवहार में बदलाव अधिक उत्तेजना पागलपन लकवा व मौत हो जाती है यह एक पशुधन रोग होने के कारण पशु से मनुष्य व मनुष्य से पशुओं में फैलता है ।  मनुष्य में इसे हाइड्रोफोबिया या जलांतक कहते हैं क्योंकि इस रोग में गले की मांसपेशियों में ऐंठन के कारण रोगी पानी नहीं पी पाता है एवं अंतिम अवस्था में पशु के गले में लकवा हो जाना। पशु का शीघ्र ही दुर्बल हो जाना। बिना आवाज रंभाने की कोशिश वोकल कॉर्ड की पैरालिसिस के कारण मुंह से कर्कश आवाज निकालना। पैरों में लड़खड़ा हट के कारण पशु अन्य पशु या दीवार से टकरा जाता है। उपरोक्त में से किसी भी लक्षण के प्रकट होने पर रेबीज का ही शक किया जाना चाहिए जब तक कि कोई अन्य रोग का निदान ना हो जाए।

मनुष्य में रेबीज के लक्षण

  • कुत्ते के काटने के स्थान पर मनुष्य को अजीब सी झनझनाहट महसूस होती है।
  • हल्का बुखार सिर दर्द उबकाई आना।
  • अधिक संवेदनशीलता बेचैनी मांसपेशियों में अकड़न।
  • आंख के पुतली का फैलना आंख से आंसू गिरना।
  • मुंह से लार गिरना तथा तेज पसीना आना।
  • अंतिम अवस्था में गले व सांस की मांसपेशियों में जोरदार है ऐठन से खाना पानी नहीं निगल पाना तथा साथ में अत्याधिक कष्ट होना
  • विभिन्न अंगों में लकवा, कंपकपाहट , एेंठन, मस्तिष्क शोथ, स्वसन तंत्र की मांसपेशियों के लकवा ग्रस्त होने से  मनुष्य एवं पशु की मृत्यु हो जाती है।
  • मनुष्य में अधिकांशत: रेबीज की डंब प्रकार  ही होती है। कुत्तों की तरह उग्रपन अर्थात फ्यूरियस फार्म नहीं दिखाई देती है।

रोग के संक्रमण का कारण

यह बीमारी मुख्यत: पागल कुत्ते ,सियार ,नेवले , बिल्ली एवं बंदर के काटने से लार द्वारा फैलती है। इन पशुओं की लार से रेबडो वायरस, नामक विषाणु से यह रोग फैलता है, यह एक न्यूरोट्रॉपिक वायरस है जो नर्वस टिशु सलाइवेरी ग्लैंड तथा सलाइवा अर्थात लार में पाए जाते हैं। रेबीज  हमेशा  रेबीज ग्रस्त पशु से  ही फैलता है, पशुओं में अधिकतर कुत्ते के काटने से रोग फैलता है। रेबीज ग्रस्त पशु की लार त्वचा के घाव खरोच आज पर लगने से संक्रमण शरीर में प्रवेश करता है कई बार यह विषाणु दूध व मूत्र में भी पाए जाते हैं परंतु यह विषाणु रक्त में नहीं पाए जाते हैं। यह एक  बड़े आकार का विषाणु है जो तेज धूप गरम पानी फॉर्मलीन लाल दवा आदि से नष्ट हो जाते हैं। यह दो रूप में पाए जाते हैं। प्राकृतिक रूप से रेबीज होने पर रोगी को उसके शरीर से प्राप्त किए जाने वाले विषाणु को स्ट्रीट वायरस कहते हैं। जबकि स्ट्रीट वायरस को ब्रेन इना कुलेशन द्वारा खरगोश जैसे प्रयोगशाला पशु में प्रवेश कराया जाता है तो खरगोश के ब्रेन में फिक्स्ड वायरस बनते हैं । रेबीज  मनुष्य तथा  सभी गर्म रक्त वाले  जीवो में पाया जाता है  लेकिन  कुत्ते  लोमड़ी भेड़िया  बिल्ली चूहे  तथा वैंपायर प्रजाति के  चमगादड़ में अधिक पाया जाता है  और इन्हीं के द्वारा  अन्य जीवो में  फैलता है । यह अत्यंत घातक एवं लाइलाज बीमारी है। मनुष्यों में यह रोग किसी गर्म खून वाले रेबीज प्रभावित पशु के काटने से हो सकता है। सन 1880 में लुइस पाश्चर ने इसका विस्तृत अध्ययन कर मनुष्य की जीवन रक्षा हेतु टीके के बारे में बताया। कुत्ता रेबीज का एक प्रमुख वाहक है। कुत्ते में रोग के लक्षण प्रकट होने से 5 दिन पहले ही लार में विषाणु मौजूद रहते हैं। रेबीज अधिकतर गर्मियों के दिनों में होता है क्योंकि इस दौरान प्रजनन काल होता है तथा आहार पानी की तलाश में जंगली पशुओं की गतिविधियां बढ़ जाती हैं। यह जंगली जानवर कुत्तों के संपर्क में अधिक आते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि रेबीज रोग ग्रस्त कुत्ते के काटने से प्रत्येक पशु को रेबीज होती है क्योंकि कई बार लार स्वस्थ पशु के शरीर पर लगते ही साफ हो जाती है। कुछ मामलों में रोगी पशु का बिना गर्म किया हुआ दूध मांस तथा रोगी स्त्री का शिशु द्वारा दूध पीने से रेबीज हो सकता है।

उपचार: इस बीमारी का पूरे विश्व में कोई इलाज नहीं है। एक बार रोग के लक्षण प्रकट हो जाने पर पशु या मनुष्य की मृत्यु निश्चित होती है। इसलिए इसकी रोकथाम का एकमात्र उपाय है कि पागल पशु के काटने पर पोस्ट बाइट टीकाकरण का पूरा कोर्स लगवाएं।

भारत में रेबीज का नियंत्रण एवं उन्मूलन

रोग के लक्षण मिलने पर तत्काल पशु चिकित्सा अधिकारी या चिकित्सा अधिकारी से संपर्क करें। कुत्ता काटने पर 24 घंटे के अंदर रेबीज का टीकाकरण ही एकमात्र बचाव है। कुत्ते को रेबीज का टीका प्रतिवर्ष अवश्य लगवाएं। भारतीय समाज में लावारिस कुत्ते एक सबसे बड़ी समस्या है ।इनकी अत्याधिक बढ़ती संख्या की रोकथाम के लिए, कुत्तों का नसबंदी ऑपरेशन बड़े पैमाने पर चलाया जाना चाहिए या मर्सी किलिंग करनी चाहिए। पालतू कुत्तों का भी हर वर्ष बड़े पैमाने पर टीकाकरण होना चाहिए।

देश प्रदेश या किसी क्षेत्र में बाहर से आए नए कुत्तों के प्रवेश के समय रेबीज हेतु जांच होनी चाहिए तथा 4 से 6 महीने तक निगरानी में रखना चाहिए। कुत्तों एवं बिल्लियों का रेबीज टीकाकरण अति आवश्यक है।

एक बार किसी रेबीज ग्रस्त पशु द्वारा, पशु या मनुष्य को काट लेने पर पोस्ट एक्स्पोज़र टीकाकरण कराना चाहिए। वर्तमान समय में काटने के बाद टिशू कल्चर वैक्सीन काम में लिया जाता है जो काटने से पहले भी हर वर्ष टीकाकरण के काम में लिया जाता है। यह इन एक्टिवेटेड सेल कल्चर वैक्सीन होता है जो काफी प्रभावशाली होता है और दर्द रहित होता है तथा कोई साइड इफेक्ट भी नहीं होता है। इसकी मात्रा 1ml सबकुटेनियस या इंटरमस्कुलर विधि से सभी प्रजाति उम्र व वजन के पशुओं एवं मनुष्यों में दिया जाता है। यह वैक्सीन काटने से पूर्व एवं काटने के पश्चात दोनों स्थितियों में लगा सकते हैं। इस वैक्सीन को रेफ्रिजरेटर में 4 से 7 डिग्री फारेनहाइट तापमान पर रखा जाता है। वैक्सीन को रेफ्रिजरेटर के अंदर फ्रीजर वाले भाग में कभी नहीं रखें यदि फ्रीजर भाग में रख दियाl तो वैक्सीन जम जाएगा तब  इसे उपयोग में नहीं लेना चाहिए।

रेबीज युक्त पशु के काटने के बाद वैक्सीन का कोर्स निम्न दिनों के अनुसार लगाएं

0 दिन 3 दिन 7 दिन 14 दिन 30 दिन एवं 90 वे दिन।

कुत्ते का पिल्ला जब 2 महीने का हो तो पहला एंटी रेबीज वैक्सीन लगाएं। दूसरा इंजेक्शन तीसरे महीने पर लगाएं । इसके बाद हर वर्ष एक बार लगाएं। यदि पिल्ले को 3 माह की उम्र पर पहला वैक्सीन लगाया जाता है तो दूसरे वैक्सीन की जरूरत नहीं पड़ती है। बाद में प्रत्येक वर्ष वर्ष में एक बार अवश्य लगाएं।

पशु स्वास्थ्य के विश्व संगठन ओoआईoईo, द्वारा सन 2030 तक रेबीज के द्वारा होने वाली मृत्यु दर को शून्य करने अर्थात  इस बीमारी के उन्मूलन का लक्ष्य है । इस लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु कुत्तों एवं बिल्लियों का रेबीज वैक्सीनेशन करना अत्यंत आवश्यक है। सभी पालतू कुत्तों के टीकाकरण , आवारा कुत्तों के बंध्याकरण एवं टीकाकरण एवं इस बीमारी के लक्षण एवं बचाव के उपाय जन सामान्य मे प्रचार प्रसार से इस जानलेवा बीमारी के नकारात्मक प्रभाव को नियंत्रित किया जा सकता है । इससे पशु और मनुष्य में इस बीमारी की रोकथाम की जा सकती है।

विभिन्न जूनोटिक रोगों के नियंत्रण में पशु चिकित्सकों की भूमिका

  1. पशु चिकित्सा अधिकारी किसान गोष्ठीयों के माध्यम से एवं ऑल इंडिया रेडियो तथा विभिन्न किसानोंपयोगी  पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा विभिन्न जूनोटिक बीमारियों के बारे में पशु पालको एवं जनसामान्य  को जागरूक करते हैं।
  2. सीरोसर्विलांस हेतु नियमित रूप से प्रतिमाह घोड़े ,गधे एवं खच्चर से रक्त नमूने एकत्रित कर उनका सीरम निकाल कर प्रत्येक पशु चिकित्सा अधिकारी द्वारा मंडलीय प्रयोगशाला को प्रेषित करना जिससे कि समय रहते गलेंडर एवं फांरसी बीमारी का त्वरित निदान  National Research Centre on Equines हिसार हरियाणा द्वारा किया जा सके।
  3. बर्ड फ्लू अर्थात एवियन इनफ्लुएंजा के नियमित सीरोसर्विलांस अर्थात निगरानी हेतु पक्षियों से रक्त नमूने, नाक एवं मलद्वार के नमूने एकत्र कर प्रत्येक पशु चिकित्सा अधिकारी द्वारा मंडलीय प्रयोगशाला को प्रतिमाह प्रेषित की जाती है जिससे समय अंतर्गत उपरोक्त खतरनाक बीमारियों का निदान हो सके जिससे कि इन रोगों पर प्रभावी नियंत्रण किया जा सके।
  4. संक्रामक गर्भपात अर्थात ब्रूसेलोसिस बीमारी से बचाव हेतु 4 से 8 महीने की मादा बच्चियां एवं कटिया मैं Cotton Strain-19 का टीकाकरण पशु चिकित्सकों द्वारा किया जाता है।
  5. Ganders एवं बर्ड फ्लू  Notifiable बीमारियां है यदि प्रयोगशाला परीक्षण में धनात्मक प्रणाम पाए जाते हैं तो उनको नष्ट करने के लिए पशु चिकित्सा अधिकारी अपनी टीम के साथ उनको नष्ट कर नीस्तारित करते हैं। इस प्रकार पशु चिकित्सक उपरोक्त अत्यंत जूनोटिक बीमारियों को फैलने से रोक कर पशुओं एवं मनुष्यों में उपरोक्त बीमारियों को फैलने से रोकते हैं।
  6. ट्यूबरक्लोसिस एवं पैराट्यूबरक्लोसिस से ग्रसित पशुओं का सर्विलांस एवं ट्यूबरकुलोसिस तथा जॉनी अर्थात पैराट्यूबरक्लोसिस परीक्षणों से रोग के होने या ना होने की पुष्टि करते हैं।
  7. इसके अतिरिक्त अन्य बहुत सी जूनोटिक बीमारियों के परीक्षण एवं निदान की महती जिम्मेदारी पशु चिकित्सकों द्वारा निभाई जाती है।
  8. जिन बीमारियों के टीके उपलब्ध है अपने चिकित्सालय के क्षेत्र अंतर्गत समस्त पशुओं में उनके टीकाकरण कराए जाते हैं।
  9. कोविड-19 महामारी के दौरान आरटी पीसीआर के द्वारा देश के विभिन्न चिकित्सा महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों के पशु चिकित्सा विदो द्वारा सप्ताह के प्रत्येक दिन कोविड-19 परीक्षण द्वारा निदान कर परीक्षण रिपोर्ट संबंधित मुख्य पशु चिकित्सा अधिकारियों को उपलब्ध कराई गई है एवं कराई जा रही है जिससे कि कोविड-19 महामारी पर काफी हद तक नियंत्रण किया जा सका है।
  10. पशु चिकित्सा विद द्वारा आयोजित बांझपन चिकित्सा शिविरों , बहुउद्देशीय पशु चिकित्सा शिविरों एवं पंडित दीनदयाल उपाध्याय पशु आरोग्य शिविरों/ मेलो में पशुओं के रोग निदान एवं उपचार के अतिरिक्त जन सामान्य को जूनोटिक बीमारियों के लक्षण सामान्य पहचान एवं उनसे बचाव के उपाय  निरंतर बताए जाते हैं।
  11. इस प्रकार पशु चिकित्सकों द्वारा विभिन्न जूनोटिक बीमारियों की पहचान एवं नियंत्रण पर महत्वपूर्ण योगदान किया जाता है।

संदर्भ

  1. टेक्स्ट बुक ऑफ वेटरनरी क्लिनिकल मेडिसिन द्वारा डॉ अमलेंदु चक्रवर्ती
इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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