दुग्ध ज्वर: दुधारू पशुओं की प्रमुख समस्या

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भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहाँ पशुधन अपना विशेष स्थान रखता है। पशुपालन कृषि के साथ सहयोगी उद्यम भी है और  हमारे देश में लघभग सभी कृषि कार्य पशुओं की शक्ति द्वारा ही किये जाते है। पशुपालको को अपने पशु के गाभिन होने के समय अधिक देखभाल की जरुरत पड़ती है क्यूंकि इस समय पशुओं में बिमारियों का खतरा बढ़ जाता है। दुग्ध ज्वर इन्ही बिमारियों में से एक है जो दुधारू पशुओं को मुख्यतः प्रभावित करती है, यह रोग अन्य कई बिमारियों का ‘प्रवेश द्वार’ भी है। यह रोग पशुओं की दुग्ध उत्पादकता को कम करने के अलावा प्रजनन में भी बाधक बनता है। दुग्ध ज्वर एक मेटाबोलिक या उपापचयी रोग है जिसे अंग्रेजी भाषा में ‘Milk Fever’ और  आम बोल चाल की भाषा में ‘सुन्नपात’ भी कहा जाता है।

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यह रोग प्रमुख रूप से अधिक दूध देने वाली गायों या भैंसों में ब्याने के २  दिन पहले से लेकर ३ दिन बाद विशेषतः पांचवी और छठवीं ब्यात के समय कैल्शियम स्तर के एकाएक गिरावट के कारण होता है। इसलिए इस रोग के लक्षण, निदान, उपचार व बचाव की जानकारी सभी पशुपालको के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। सामान्य रूप से गाय /भेंसो के खून में कैल्शियम स्तर 10 mg/dl होता है, इस रोग में यह स्तर 7mg/dl से भी कम हो जाता है, जिससे पशु में दुग्ध ज्वर के लक्षण प्रकट होने लगते है।

कारण

  1. खानपान तथा कुपोषण
  2. आहार से प्राप्त कैल्शियम शरीर में अवशोषित न हो पाना
  3. शुष्क अवधि में अधिक कैल्शियम युक्त आहार खिलाना
  4. पाचन प्रणाली से संभन्धित कोई रोग होना

लक्षण

यह रोग तीन अवस्थाओं के रूप में प्रकट होता है।

  1. प्रथम अवस्था: यह अवस्था उत्तेजित अवस्था होती है जिसमे पशु सवेंदनशील हो जाता है। टिटनेस जैसे लक्षण, दाना चारा नहीं खाना, जीभ बहार निकालना, दांत किटकिटाना आदि लक्षण मुख्य है। इस अवस्था की पहचान अनुभवी किसान और पशु चिकित्सक ही कर पाते है। यदि इस अवस्था में पशु का उपचार न  हो तो पशु रोग की दूसरी अवस्था में प्रवेश कर जाता।
  2. दूसरी अवस्था: इस अवस्था में पशु खड़ा नहीं हो पाता, शरीर ठंडा जाता है, ह्रदय ध्वनि कम हो जाती है और नाड़ी भी कमज़ोर हो जाती है। पशु अपनी गर्दन पेट की तरफ घुमाकर बैठ जाता है और अफरा भी आ जाता है।
  3. तीसरी अवस्था: इस स्तिथि में पशु लेटा रहेगा तथा बेहोशी की हालत में चला जाता है, मांसपेशिया कमजोर पड़ जाती है और उपचार न होने पर पशु की मृत्यु भी हो सकती है।
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निदान

इस रोग की पहचान पशु के प्रसव के आस पास होने और उसके द्वारा प्रदर्शित लक्षणों के आधार पर की जा सकती है।

उपचार

  1. सही समय पर इलाज से पशु शीघ्र ठीक हो जाते है।
  2. पशु को कैल्शियम के इंजेक्शन लगाए जाते है, जिसमे Calcium Borogluconate प्रमुख है, जो बाजार में में कई नामो से उपलब्ध है।  इसके साथ विटामिन डी, मैगनेसियम  और डेक्सट्रोस आदि भी दिए जाते है।
  3. रोग ग्रस्त पशु  अगर लेटी अवस्था में है, तो तुरंत उसे बिठाना चाहिए। एक तरफ  पशु को देर तक न बैठे रहने दे।

बचाव

  1. सूखे समय में अधिक कैल्शियम युक्त आहार न दे।
  2. ब्याने के १०-१५ दिन तक पशु का संपूर्ण दूध नहीं दुहना चाहिए।
  3. दूध की कुछ मात्रा थनो में बनी रहनी चाहिए।
  4. ब्याने से ५-७ दिन पहले Vit डी के इंजेक्शन इस रोग के बचाव में लाभकारी सिद्ध हो सकते है।
  5. अगर पशुपालक पशु का उचित रख रखाव और प्रबंधन करता है, तो आसानी से पशु को इस रोग से बचाया जा सकता है।
  6. मवेशी या अन्य पशुधन के बीमार हो जाने पर उसका इलाज़ करने के बजाय उन्हें तंदुरुस्त बनाये रखने का इंतज़ाम ज्यादा अच्छा है।
  7. कहावत प्रसिद्ध है “समय से पहले चेते किसान, उपचार से कहीं बेहतर है, निदान”

हम सिर्फ अपना घर ही नहीं पूरा देश चलते है,
हम किसान है साहब, हम मिटटी का कर्ज चुकाते है।

और देखें :  भैसों में प्रसवोत्तर बाँझपन अवधि एक समस्या तथा बचाने के घरेलु उपाय
इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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