लंपी स्किन रोग गायों और भैंसों का एक वेक्टर-जनित चेचक रोग है और त्वचा पर गांठों की उपस्थिति लंपी स्किन रोग की विशेषता है। यह रोग कई भारतीय राज्यों जैसे राजस्थान, असम, ओडिशा, महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, आदि में पाया जाता है।
संवेदनशील होस्ट
लंपी स्किनरोग मेजबान-विशिष्ट है, जिससे गायों और एशियाई भैंस (बुबलस बुबलिस) में प्राकृतिक संक्रमण होता है। यह रोग मनुष्यों को प्रभावित नहीं करता है।
कारण
लंपी स्किन रोग,लंपी स्किन रोगवायरस (एलएसडीवी) के कारण होता है, जो परिवार पॉक्सविरिडे के भीतर जीनस कैप्रिपोक्स वायरस (सीएपीवी) का एक सदस्य है। लंपी स्किन रोग वायरस जींस, भेड़ पॉक्स वायरस (SPPV) और बकरी पॉक्स वायरस (GTPV) के जीन्स से बहुत समानता रखते हैं, लेकिन फ़ाइलोजेनेटिक रूप से अलग हैं।
संचरण
वायरस का संचरण मवेशियों की गतिविधियों के माध्यम से होता है। संक्रमित जानवर की त्वचा, मुंह, लार में,नाक और ओकुलर डिस्चार्ज में संक्रामक लंपी स्किन रोग वायरस उत्सर्जित होते हैं, जो साझा भोजन और पीने के स्रोतों को दूषित कर सकते हैं।
संक्रमित सांडों के वीर्य में यह वायरस बना रहता है जिससे कि प्राकृतिक संभोग या कृत्रिम गर्भाधान मादा पशु के लिए संक्रमण का स्रोत हो सकता है। संक्रमित मादा गायों की त्वचा पर उपस्थितघावसे भी सम्पर्क में आने वाले बछड़ों मे भी यह रोग हो जाता है।संक्रमित दूध के माध्यम से, दूध पीने वाले बछड़ों में, या मादा के टीट्स में त्वचा के घावों से वायरस को प्रेषित किया जा सकता है।
मवेशियों को खिलाने वाले स्थानीय रक्त-पोषक कीट वाहक भी वायरस संचारित कर सकते हैं। सामान्य मक्खी (स्टोमोक्सिस कैल्सीट्रांस), एडीज एजिप्टी मच्छर,और Rhipicephalus और Amblyomma spp की कुछ किलनी प्रजातियों से भी लंपी स्किन रोगवायरस फैलता है।
लक्षण
- प्रारंभिक लक्षण – आंखों से पानी टपकनाऔर नाक से स्राव
- सबस्कैपुलर और प्रीफेमोरल लिम्फ नोड्स बड़े हो जाते हैं और आसानी से दिखाई देने योग्य होते हैं।
- तेज बुखार (>40.50C) लगभग एक सप्ताह तक बना रह सकता है।
- दूध उत्पादन में तेज गिरावट।
- 10-50 मिमी व्यास के अत्यधिक विशिष्ट, गांठदार त्वचा के घावों की उपस्थिति: घावों की संख्या हल्के मामलों में कुछ से लेकर कई तक भिन्न होती है।
- गंभीर रूप से संक्रमित जानवरों में घाव। पूर्वाभास स्थल सिर, गर्दन, पेरिनेम, जननांग, थन और अंगों की त्वचा हैं। त्वचा पर गांठें कई महीनों तक बनी रह सकती हैं।
- कभी-कभी, एक या दोनों आंखों के कॉर्निया में दर्दनाक अल्सरेटिव घाव विकसित हो जाते हैं, जिससे सबसे खराब स्थिति में अंधापन हो जाता है।
- स्वयं वायरस या द्वितीयक जीवाणु संक्रमण के कारण होने वाला निमोनिया और थनैला सामान्य जटिलताएं हैं।
- संक्रमित जानवर अक्सर एंटी-एलर्जी और एंटीबायोटिक दवाओं के उपचार के तीन सप्ताह के भीतर ठीक हो जाते हैं। एलएसडी में रुग्णता दर 10-20% है, जबकि मृत्यु दर 5% तक है।
बीमारी के संदेह की स्थिति में उपाय
- यदि संभव हो तो संदिग्ध मामले को शेष झुंड से अलग कर दें।
- यदि संभव हो तो, बाकी जानवरों को डेरी फार्म या पशुघर में खिलाकर,सामूहिक चराई से बचकरतथा पड़ोसीझुंड (झुंडों) से अपने पशुओ को अलग कर देना चाहिए।
- किसी भी सामान्य कीटाणुनाशक का उपयोग करके अपने हाथों, जूतों और कपड़ों को कीटाणुरहित करना चाहिए और जब घर/खेत में हों तो कपड़ों को गर्म पानी से धोना (60 डिग्री सेल्सियस)चाहिए।
- फार्म पर उपयोग किए जाने वाले उपकरण और सामग्री को कीटाणुरहित करें।
- सहायता के लिए अपने पशु चिकित्सक से संपर्क करना चाहिए।
निदान
- हिस्टोपैथोलॉजिकल स्लाइड बनाकर,विषाणु की उपस्थिति का सही पता लगाया जाता है।
- इस रोग को सूडो लुम्पी स्किन डिजीज (Pseudo lumpy skin disease) जो की हर्पीस (Herpes virus )वायरस से होने वाला रोगहै,विषाणु आइसोलेशन द्वारा अलग करना चाहिए, क्यूकि दोनों ही बिमारियों के लक्षण बहुत समान होते हैं।
- त्वचा पर घाव के नमूने ले कर इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोपी द्वारा लुम्पी स्किन रोग के विषाणु की पहचान की जाती है।
- पी.सी.आर. के माध्यम से विषाणु की उपस्थिति का सही पता लगाया जाता है क्यू कि डर्माटोफिलस कांगोलेंसिस (Dermatophilus congolensis )जीवाणु भी मवेशियों में त्वचा की गांठ का कारण बनताहै।
उपचार
- इस रोग का कोई समुचित इलाज नहीं है। एंटीबायोटिक्स, एंटी- इंफ्लेमेटरी दवायें और विटमिंस के इंजेक्शंस से इस बीमारी में जीवाणु के संक्रमण से होने वाले नुक्सान (सूजन बुखार भूख न लगना) को रोका जा सकता है।
- संक्रमित पशु को गोट पॉक्स वैक्सीन लगवाएं।
- आईसीएआर-नेशनल रिसर्च सेंटर ऑन इक्वाइन (आईसीएआर-एनआरसीई), हिसार (हरियाणा) ने आईसीएआर-भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान (आईवीआरआई), इज्जतनगर, उत्तर प्रदेश के सहयोग से एक वैक्सीन “लंपी-प्रोवैकइंड” विकसित किया है।
रोकथाम
- फार्म स्तर पर रोग की शुरुआत और प्रसार की सावधानीपूर्वक निगरानी की जानी चाहिए।
- नए जानवर की खरीद से पहले जानवर की जांच करानी चाहिए और नैदानिक रोगों से मुक्त घोषित किया जाना चाहिए जानवर को कम से कम 28 दिन के लिए झुंड से अलग रखा जाना चाहिए।
- प्रभावित गांव में पशु झुंड को अन्य पशु झुंडों से अलग रखा जाना चाहिए ताकि सामूहिक चराई से बचा जा सके।
- रोग के वेक्टर संचरण के जोखिम को कम करने के लिए मवेशियों का नियमित रूप से कीट विकर्षक से उपचार किया जाना चाहिए। यह उपाय संचरण को पूरी तरह से रोक तो नहीं सकता है, लेकिन जोखिम को कम कर सकता है।
- स्थायी जल स्रोतों, स्लरी और खाद जैसे वेक्टर प्रजनन स्थलों को सीमित करना और डेरी फार्म या पशुघरमें जल निकासी में सुधार करना, मवेशियों पर और उसके आसपास वैक्टर (किलनी, मच्छर और मक्खी) की संख्या को कम करने के टिकाऊ, किफायती और पर्यावरण अनुकूल तरीके अपनाना चाहिए।
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