भैंस को खराब गुणवत्ता वाले चारे के उत्कृष्ट परिवर्तक के रूप में जाना जाता रहा है, जो कि इन्हे कठोर वातावरण के अनुकूल बनाता है और गायों की तुलना में इन्हे उष्णकटिबंधीय रोगों जैसे- , इत्यादि, से प्रतिरोध क्षमता प्रदान करता है। इन खूबियों के बावजूद, भैंस को धीमी प्रजनन क्षमता, लंबे समय तक शुष्क अवस्था में रहना, यौवनावस्था का देरी से आना, खराब बाँझपन की अभिव्यक्ति देरी से करना और प्रजनन में मौसम को दोषी ठहराया जाता रहा है। अपितु जिसका मुख्य कारण प्रसवोत्तर (प्रसव के बाद) अस्थाई बाँझपन है। जो की एक गंभीर समस्या है, जिसमें प्रसव के उपरांत मद चक्र सामान्य रूप से शुरू नहीं होता। पिछले कुछ वर्षों के दौरान, कई अध्ययनों में हार्मोनल और गैर-हार्मोनल स्तरों पर लंबे समय तक प्रसवोत्तर बांझपन के इलाज का प्रयास किया गया है। लेकिन उपरोक्त उपाय इतने महंगे हैं, कि ये उपाय छोटे और सीमान्त किसानों के लिए उपलब्ध नहीं हो पाते; इसलिए यदि किसान कुछ पशुपालन सम्बन्धी प्रबंधन क्रिआओं का पालन करे, तो वे भैंस को प्रसवोत्तर बांझपन से सुरक्षित रख सकेंगें।
प्रसवोत्तर बाँझपन के कारण
- भैंस के यौवनावस्था के दौरान पोषण की स्थिति।
- मौसमी बदलाव।
- शारीरिक स्थिति।
- इंसुलिन प्रतिरोधी आदि।
हानि
- दूध उत्पादन में कमी।
- भैस की शारीरिक दक्षता में कमी।
- भैस की प्रजनन क्षमता में कमी।
प्रसवोत्तर बाँझपन से सुरक्षा के उपाय
करनाल और उसके आसपास के विभिन्न गांवों से डेटा संग्रह तथा उसके अध्ययन के उपरांत यह सुझाव दिया जाता है कि, अगर यहाँ के किसान विभिन्न पशुपालन सम्बन्धी प्रबंधन क्रिआओं का पालन करे, तो यह उनके भैसों को प्रसवोत्तर बांझपन से सुरक्षित रखने में सहायता प्रदान करेगा जैसे:
- मां का पहला गाड़ा दूध (कोलोस्ट्रम) और गुड़ का मिश्रण।
- कटड़ा-कटड़ी से निकटता।
- चारा।
- नर भैसे से निकटता।
- तालाब में लोटने से।
- ऑक्सीटोसिन से।
1. कोलोस्ट्रम और गुड़ का मिश्रण: कोलोस्ट्रम स्तनधारियों की स्तन ग्रंथियों द्वारा उत्पादित दूध का पहला रूप है, जो नवजात कटड़ा-कटड़ी की डिलीवरी के तुरंत बाद बनता है। कोलोस्ट्रम में रोगों के खिलाफ नवजात कटड़ा-कटड़ी की रक्षा के लिए प्रतिरोधी तत्व होते हैं, जो नवजात कटड़ा-कटड़ी की रोगों से रक्षा करते है। सामान्य तौर पर, कोलोस्ट्रम में प्रोटीन की मात्रा दूध की तुलना में काफी अधिक होती है। वसा की मात्रा भी कोलोस्ट्रम में दूध की तुलना में काफी अधिक है। अतः कोलोस्ट्रम को गुड़ के साथ मिश्रित कर के भैस को देने से कटड़ा-कटड़ी के साथ-साथ उसको जन्म देने वाली भैस को नकारात्मक ऊर्जा से बचाया जाता है, जिससे प्रसवोत्तर बाँझपन की अवधि को कम कम किया जाता है।
2. कटड़ा–कटड़ी से निकटता: वैसे तो माँ का दूध कटड़ा और कटड़ी के लिए अत्यंत आवश्यक है, परन्तु लगातार कटड़ा-कटड़ी को दूध पिलाने से यह अगली मद चक्र को प्रभावित करता है जिससे भैस के प्रसवोत्तर बाँझपन की अवधि में बृद्धि होती है। जिसको काम करने के लिए विभिन्न अनुसंधान किये गए, जिससे यह ज्ञात हुआ है कि अगर 60 दिनों के उपरांत कटड़ा-कटड़ी को माँ से अलग रखा जाये तो प्रसवोत्तर बाँझपन की अवधि को कम किया जा सकता है।
3. चारा: वर्तमान में हुए कई अध्ययनों से पता चला है कि भैस की प्रजनन क्षमता उनके प्रसवोत्तर के बाद तथा पहले की पोषण से प्रभावित होती है। जिसमे वशायुक्त आहार का प्रमुख स्थान है। अतः इस आपूर्ति को पूरा करने के लिए अगर सूखे चारे के साथ साथ बाजार में उपलब्ध विभिन्न पशुआहारों को भी उचित मात्रा में दिया जाये तो भैस को प्रसवोत्तर बाँझपन से बचने में सहायता मिलेगी।
4. नर भैसे से निकटता: पशु अपनी प्रजनन से संबंधित गतिविधियों को नर भैसे तक पहुंचने के लिए विशेष पदार्थों को स्रावित करते है, जिन्हे वैज्ञानिक भाषा में फेरोमोन कहते है। यह जानवर के बाहरी भाग से स्रावित होने वाला पदार्थ है और एक ही प्रजाति के पशु में एक विशिष्ट प्रतिक्रिया का कारण बनते हैं; जिससे अंतःस्रावी हॉर्मोन तथा प्रजनन प्रणाली के लिए शारीरिक बदलाव होते जाते है। कुछ अध्यनों में यह भी पाया गया है कि, नर भैसे के पास होने से मादा में लुटेइनीज़िंग हॉर्मोन-स्ट्राडिओल का स्तर बढ़ने से इनका अंडोत्सर्ग समय पर होते है। हाल ही में हुए एक शोध से पता चला है की अगर गायों को शुरुआती प्रसवोत्तर के तुरंत बाद सांडों के संपर्क में रखा जाये तो उनका मद चक्र 41वें दिन शुरू हो जाता है, तथा जिनको सांडों से दूर रखा गया उनका मद चक्र 62वें दिन शुरू हुआ। अतः अगर यही उपाय भैसों में भी किया जाये तो उनके प्रसवोत्तर बाँझपन अवधि को कम किया जा सकता है।
5. तालाब में लोटने से: ऐसा पाया गया है कि गायों की विभिन्न नस्लों की तुलना में भैसो का गर्मी और ठंड के प्रति अनुकूलन बहुत कठिन है। भैंस के शरीर का आतंरिक तापमान वास्तव में गायो की तुलना में थोड़ा कम है, परन्तु इनका रंग काला होने के कारण ये ज्यादा गर्मी शोषक होते है जिससे ये अपनी बालों से बचते है। इसके अलावा, भैंस की त्वचा में गायो की त्वचा की अपेछा पसीने की ग्रंथियों का घनत्व ज्यादा (लगभग 60 प्रतिशत) होता है, इसलिए भैंस का पसीना सुचारूरूप शरीर के बाहर नहीं निकल पाता जो की प्रसवोत्तर बाँझपन का मुख्य कारण बनता है। अतः अगर भैसों को नियमित रुप से तालाब में छोड़ा जाये तो यह उनके लिए अत्यंत लाभकारी होगा और साथ ही साथ गर्मी से होने वाले इस प्रसवोत्तर बाँझपन से भी उनकी रक्षा की जा सकती है।
6. ऑक्सीटोसिन से: ऑक्सीटोसिन एक दवा है जोकि प्रसव को आसान बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है, लेकिन भारतवर्ष में इसका उपयोग आमतौर पर पशुओं में दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए भी किया जाता है। हालाँकि इसका इस्तेमाल प्रतिबंधित है पर फिर भी पशुओं के मालिक प्रसव के तुरंत बाद इसका उपयोग कर रहे है। लगातार ऑक्सीटोसिन प्रयोग करने से प्रजनन सम्बन्धी समस्याओं के साथ-साथ दूध उत्पादन करने वाली ग्रंथिया भी कई बिमारियों से ग्रसित हो जाती है। जिसका सबसे ज्यादा असर ज्यादा दूध देने वाली नस्लों पर पड़ता है, जो की मुख्य्तः बिभिन्न क्षमताओं को प्रभावित करते है जैसे- कमजोर एस्ट्रस संकेत, गर्भाधान दर में कमी, कटड़ा-कटड़ी को स्तनपान करने में कमी तथा भ्रूण मृत्युदर में बृद्धि
निष्कर्ष
भैस में प्रसवोत्तर बाँझपन एक गंभीर समस्या है जिसमे दूध उत्पादन के साथ-साथ पशु की शारीरिक दक्षता पर भी बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है, फलस्वरूप भैसों में अनेकोनेक बिमारियों का उदय होता है। जिसका अतिरिक्त भार किसानो के जेब पर पड़ता है और उनकी माली हालत बिगड़ती जाती है। इसीलिए भैस के रखरखाव का उचित प्रबंधन में होना अति आवश्यक है। अतः प्रसवोत्तर बाँझपन के इलाज में होने वाले खर्च से बचने के लिए, किसानो का इस लेख में दिए गए सभी 6 उपायों का पालन करना चाहिए।
The content of the articles are accurate and true to the best of the author’s knowledge. It is not meant to substitute for diagnosis, prognosis, treatment, prescription, or formal and individualized advice from a veterinary medical professional. Animals exhibiting signs and symptoms of distress should be seen by a veterinarian immediately. |
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