रोगाणुरोधी प्रतिरोध: थनैला एवं लेवटी के अन्य रोगों का घरेलु उपचार

4.6
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रोगाणुरोधी प्रतिरोध (Antimicrobial resistance) एक बहुत ही महत्वपूर्ण जनस्वास्थ्य समस्या है होने के साथ-साथ यह महत्वपूर्ण पर्यावरणीय स्वास्थ्य समस्या भी है जिसे आमतौर पर एंटीबायोटिक प्रतिरोध कहा जाता है। और वास्तव में, अब हम जानते हैं कि हमारी कई मानवीय गतिविधियों और इंजीनियर पद्दतियां, रोगाणुरोधी प्रतिरोध के स्तर को बढ़ाने में योगदान कर रही हैं। रोगाणुरोधी प्रतिरोध सूक्ष्मजीवों के जीवन की शुरुआत के बाद से ही मौजूद है जिसका स्तर मानवीय गतिविधियों के साथ समृद्ध हुआ है। रोगाणुओं में अपनी विशेषताओं को साझा करने के लिए जीन को साझा करने की क्षमता होती है और जैसा कि जो रोगाणु प्रतिरोधी होते हैं वे फलते-फूलते हैं, उन्होंने अपने प्रतिरोध जीन को भी बहुत साझा किया है। और अंततः इस कारण हमारे पर्यावरण और हस्पतालों में रोगाणुरोधी प्रतिरोध का स्तर बढ़ रहा है (Singh 2013)

विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 27 लाख बच्चे जन्म के पहले महीने में ही मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं जिन में से  4,21,000 बच्चे रोगाणुओं के संक्रमण के कारण ही दम तोड़ देते हैं (Liu et al. 2015)। भारत में लगभग 10 लाख बच्चे जन्म के पहले माह में ही प्रतिवर्ष अकाल ही मर जाते हैं जिन में से 1,90,000 बच्चे केवल रोगाणुओं के संक्रमण के कारण ही दम तोड़ देते हैं और इनमें से 58319 बच्चे रोगाणुरोधी दवाओं के प्रतिरोध के कारण प्रतिवर्ष मर जाते हैं (CDDEP)। इसका सीधा अर्थ है कि भारत में लगभग 30 प्रतिशत बच्चों की मृत्यु केवल रोगाणुरोधी दवाओं के बेअसर होने से ही होती हैं। विश्व में मातृत्व प्राप्त महिलाओं में प्रतिवर्ष होने वाली कुल मौतों में से लगभग 11 प्रतिशत मौतें केवल रोगाणु संक्रमण के कारण ही होती हैं (Bonet et al. 2018)। यदि कहा जाए कि बढ़ता संक्रमण एवं रोगाणुरोधी प्रतिरोध भविष्य के लिए एक मण्डराने वाला घातक खतरा है, इसमें कोई भी अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए।

रोगाणुरोधी प्रतिरोध तब होता है, जब रोगाणु बदल जाते हैं और वे रोगाणुरोधी दवा के प्रतिरोधी बन जाते हैं। जो दवाएं प्रभावी रूप से पहले काम करती थीं लेकिन वे अब कम काम करती हैं या बेकार हो चुकी हैं। यह मानव स्वास्थ्य क्षेत्र में और पशु चिकित्सा स्वास्थ्य के लिए एक समस्या है। अत: इसमें विकास, लोगों की आजीविका और खाद्य सुरक्षा के व्यापक प्रभाव निहित हैं। जब रोगाणुरोधी दवाओं का दुरुपयोग या अति प्रयोग होता है तो उनका प्रभाव कम या बेअसर होने लगता है।

दूध, सबसे लोकप्रिय प्राकृतिक स्वास्थ्यर्द्धक आहार है, जिसका सेवन विश्व स्तर पर हर आयु वर्ग के मनुष्यों द्वारा किया जाता है। जब भी दूधारू पशु को लेवटी के रोग होते हैं तो उनको आमतौर पर रोगाणुनाशक औषधीयां दी जाती हैं। 2012 में, रोगाणुरोधी औषधीयों की औसत खपत मनुष्यों एवं  पशुओं में क्रमशः 116.4 और 144.0 मि.ग्रा. प्रति कि.ग्रा. अनुमानित थी जिसमें 2030 तक 67 प्रतिशत की बढ़ोतरी होने की  संभवना है (Lhermie et al. 2017)। खाद्य पशु उत्पादों (दूध एवं चिकन माँस) में रोगाणुरोधी औषधीयों के अवशेषों की मौजूदगी व्यापक रोगाणुरोधी औषधीयों के उपयोग की ओर संकेत देती है (Kakkar and Rogawski 2013, Brower et al. 2017)

एंटीबायोटिक दवाओं का अति प्रयोग और दुरुपयोग एंटीबायोटिक प्रतिरोधी जीवाणुओं के विकास को बढ़ावा देता है। जब भी किसी व्यक्ति या पशु को एंटीबायोटिक्स दी जाती हैं, संवेदनशील जीवाणु तो मारे जाते हैं, लेकिन प्रतिरोधी जीवाणु गुणात्मक रूप से बढ़ते रहते हैं। इस तरह से एंटीबायोटिक दवाओं के बार-बार उपयोग से औषधी प्रतिरोधी जीवाणुओं की संख्या बढ़ सकती है। यहाँ पर कुछ घरेलु नुस्खे बताये गये हैं जिनके उपयोग से न रोगाणुरोधी दवाओं के बेअसर होने का खतरा कम होगा बल्कि पशु पालकों का खर्च भी कम होगा।

थनैला (सभी प्रकार का)
थनैला रोग से ग्रसित दूधारू पशु का इलाज पशु पालकों को अत्याधिक मंहगा पड़ता है। ईलाज के बाद भी रोगी पशु से वांछित दुग्ध उत्पादन नहीं लिया जा सकता है। इसके साथ ही थनैला रोग से ग्रसित पशु का दूध प्रतिजैविक दवाओं के उपयोग के कारण पीने योग्य नहीं होता है जिस कारण पशु पालक को अतिरिक्त धन हानि भी उठानी पड़ती है। भारत में, थनैला रोग के कारण होने वाले कुल वार्षिक आर्थिक नुकसान की गणना 7165.51 करोड़ रुपये की गई है (Bansal and Gupta 2009)।थनैला रोग दुग्ध ग्रन्थि का रोग है जिसमें दुग्ध ग्रन्थियों में सूजन जाती हैं। यह रोग दूधारू पशुओं में आम समस्या है। इसके कारण पशु पालकों को बहुत आर्थिक नुकसान होता है। इसको जड़ से समाप्त नहीं किया जा सकता है लेकिन इसके द्वारा होने वाले नुकसान को अच्छे प्रबन्धन द्वारा कम किया जा सकता है। थनैला रोग के कई कारणों में से सूक्ष्म जीवों द्वारा उत्पन्न थनैला रोग बहुत महत्त्वपूर्ण है। हालांकि कवक, खमीर व वायरस जनित थनैला रोग भी होता है लेकिन जीवाणु जनित थनैला रोग बहुतायत में नुकसान पहुँचाता हैं। जब थन, रोग जनकों के सम्पर्क में आते हैं तो रोग जनक दुग्ध वाहिनी में प्रवेश कर जाते हैं जिससे थनैला रोग उत्पन्न होता है।

थनैला रोग के उत्पन्न होने में प्रबंधन संबंधी जोखिम कारकों की मुख्य भूमिका होती है। पक्के फर्श की तुलना में कच्चे फर्श पर बंधने वाले दूधारू पशुओं में इस रोग के होने का खतरा सबसे अधिक अधिक होता है। यदि पशु गृह की साफ-सफाई अच्छी नहीं है तो भी थनैला रोग होने की अत्याधिक संभावना रहती है। इसके अलावा, पशु का दूध दोहने वाले मनुष्य के स्वास्थ्य की स्थिति, प्राणीरूजा रोगों, गंदे कपड़े पहनकर, गंदे हाथों से दुग्ध दोहन करने से थनैला रोग होने की प्रबल संभावना रहती है। दुग्ध दोहन के संबंध, पूर्ण हस्त विधि अन्य तरीकों की तुलना में बेहतर है, जबकि अंगुठे एवं दो-तीन अंगुलियों की सहायता से या थनों के ऊपर अंगुठा मोड़कर थनों को दबाकर दुग्ध दोहन करने से थनों ऊतकों को अधिक नुकसान पहुंचता है, जिससे थनैला रोग होने का खतरा अधिक रहता है। आमतौर पर कटड़े/कटड़ीयों को दूध निकालने से पहले पसमाव के लिए चुंगाया जाता है और दुग्ध दोहन करने के बाद उनको दूध पीने के लिए मादा माँ के थनों को चूसने के लिए छोड़ दिया जाता है। लेकिन शोधों से यह भी पता चलता है कि उनके थनों को मुँह में डालने से थनैला रोग बढ़ने की संभावना ज्यादा रहती है। इसके अतिरिक्त, दुग्ध दोहन के बाद लेवटी में दूध कम रह जाता है जिससे बच्चा थनों को मुँह में दबाकर खींचता है और लेवटी में जोर से सिर मारता रहता है जिससे थनों एवं लेवटी के ऊत्तकों को हानि पहुंचती है। ऐसी प्रक्रिया के दौरान थन के माध्यम से लेवटी में प्रविष्ठ किये जीवाणु थनैला रोग के कारक बनते हैं (Rathod et al. 2017)। थनैला रोग से ग्रसित पशु के ईलाज के लिए योग्य पशु चिकित्सक से ही ईलाज करवाना चाहिए। थनैला रोग से प्रभावित पशु का घरेलु उपचार औषधीय पौधों की सहायता से इस प्रकार किया जा सकता है (Punniamurthy, Nair and Kumar 2016, NRLM 2016)

सामग्री

मात्रा

1. ग्वापाठा के पत्ते (Aloe vera leaves) 250 ग्राम
2. हल्दी पाउडर (Turmeric powder) 50 ग्राम
3. चूना पाउडर (Lime) 15 ग्राम
4. नींबू (Lemon) 2 फल
5. कढ़ीपत्ता दो मुट्ठी
और देखें :  नवजात बछड़े एवं बछिया की देखभाल

तैयार करने की विधि:  सबसे पहले ग्वापाठा के पत्तों को पीस कर इसमें हल्दी पाउडर (Turmeric powder) मिला लें। अब इसमें चूना मिलाकर अच्छी तरह मिक्स करके मलहम बना कर भण्डारित कर लें।

उपयोग विधि:
1. थनों एवं लेवटी को साफ पानी से धो लें। तैयार मिश्रण में से मुट्ठीभर लेकर 150 से 200 मि.ली. पानी मिलाकर पतला कर लें। अब इसको दिन में 8-10 बार, 5 दिन तक या ठीक होने तक लेवटी एवं थनों के ऊपर लगाएं। पशु को दो नींबू काटकर भी प्रतिदिन खिलाएं।

2. सेवन की दूसरी विधि के अनुसार सबसे पहले चारों थनों का दूध निकाल लें। फिर तैयार मलहम का दसवां भाग 100 मि.ली. शुद्ध पानी में मिलाकर लेवटी पर लगाएं। दोबारा फिर एक घण्टे बाद लेवटी को साफ पानी से धोकर लगाएं। ऐसा दिन में 10 बार करें लगातार 5 दिन तक करें। दिन में एक बार दो नींबू काट कर भी प्रभावित पशु को खिलाएं।

दूध में खून आने पर उपरोक्त विधि के अतिरिक्त, दो मुट्ठी कढ़ीपत्ता को पीसकर गुड़ के साथ मिलाकर दिन में एक-दो बार ठीक होने तक भी खिलाएं। यदि थनैला रोग ज्यादा दिनों से है तो घृतकुमारी, हल्दी एवं चूना के साथ हाडजोड़ (Cissus quadrangularis) के 2 फल भी मिला लें व 21 दिनों तक इस औषधी को लेवटी पर लगाएं।

औषधीय निर्देश: मलहम लगाने से पहले लेवटी को उबले हुए पानी को ठण्डा होने के बाद लेवटी एवं थनों को अवश्य साफ करें।

अयन-थन शोफ:
अयन शोफ लेवटी और थनों की सूजन है,जो कभी-कभी पशु के पेट के निचले भाग में भी हो जाती है। अयन शोफ के कारण पशु को दुग्धोहन के समय दर्द होता है। इस रोग में पशु की लेवटी, थनों एवं पेट के ऊत्तकों में पानी भर जाता है। कभी-कभी, सूजन इतनी गंभीर होती है कि पेट और पैरों के बीच की चमड़ी में घाव बन जाते हैं जिसमें संक्रमण भी हो जाता है। गंभीर रूप से प्रभावित गाय/भैंस में, जिनका समय पर उपचार नहीं हो पाता है, में लेवटी और थनों के ऊत्तकों में दीर्घकालिक क्षति हो सकती है और लेवटी लटकी हुई सी बन जाती है (MVM 1998)। ब्याने से पहले ज्यादा मात्रा में पशु को दी गई ऊर्जा या सोडियम या पोटेशियम भी शोफ की संभावना को बढ़ा सकते हैं (Vestweber and Al-Ani 1983)। आहार में अतिरिक्त रूप से दिया गया पोटेशियम एवं सोडियम, शरीर में पानी प्रतिधारण के साथ-साथ पोटाशियम उत्सर्जन को बढ़ाकर रेनिन-एंजियोटेंसिन तन्त्र के माध्यम से शोफ को बढ़ा सकता है (Sanders and Sanders 1981)। इस रोग प्रभावित पशु का उपचार औषधीय पौधों की सहायता से इस प्रकार किया जाता है (Balaji and Chakravarthi 2010, Punniamurthy, Nair and Kumar 2016)

सामग्री

मात्रा

1. तिल/सरसों का तेल (Sesame/Mustard oil) 200 मि.ली.
2. हल्दी पाउडर (Turmeric powder) 1 मुट्ठी
3. कटा हुआ लहसुन (Sliced garlic) 2 कलियाँ

तैयार करने की विधि:
1. तेल को गर्म करें।
2. हल्दी पाउडर एवं कटी हुई लहसुन की कलियाँ डालकर अच्छी तरह मिला लें।
3. अब जैसे ही गर्म करते समय इसमें से गंध आने लगे तो आँच से नीचे उतार लें (उबालने की आवश्यकता नहीं है)।
4. इसे ठण्डा होने दें।

नोट: एक मुट्ठी तुलसी (Ocimum sanctum) के पत्तों को भी हल्दी एवं लहसुन के साथ तेल में डाल सकते हैं।

उपयोग विधि:
1. शोफ (Oedema) वाले अयन, थन या भाग पर थोड़ा बल के साथ गोलाकार तरीके से लगाएं।
2. इसे दिन में चार बार लगातार तीन दिन तक लगाएं।

औषधीय निर्देश: इस विधि का उपयोग करने से पहले थनैला रोग की अवश्य जाँच कर लें।

थन टूट कर गिरना (Teat sloughing)
आमतौर पर दूधारू पशुओं में थन अथवा लेवटी संबंधित समस्याएं देखने को मिलती रहती हैं जिन में से थनैला रोग सर्वविधित है लेकिन दूधारू पशुओं की लेवटी या थनों में अचानक ही सूजन आ जाती है। प्रसवपूर्व भी

बहुत से प्रसवकालिन पशुओं में शोफ (Oedema) हो जाती है जिसका समय पर इलाज न होने के कारण स्थिति गम्भीर बन जाती है। कई बार थनों में सूजन अचानक ही दुग्ध दोहन करते समय ही देखने को मिल जाती है। थनों में अचानक ही सूजन आ जाना असाध्य रोग बन जाता है और अंत: थन सूज कर फट जाता है या टूट कर नीचे गिर जाता है (Teat sloughing) जिससे थन या लेवटी में घाव बन जाता है। प्रसवकालिन पशुओं में ज्यादा दिनों तक शोफ (Oedema) रहने से थनों में रक्त प्रवाह नहीं होने से थनों में गलन (Gangrene) की समस्या होने से थन टूट कर गिर जाते हैं। टूटे हुए थन के स्थान पर लेवटी में घाव बन जाता जाता है। ऐसे में असमय ही पशु पालक के धन का व्यय तो होता ही है साथ ही थन से दूध आना ही बंद हो जाता है। ऐसी स्थिति में यदि धैर्यपूर्वक उपचार करवाया जाता है तो जहाँ धन का अपव्यय तो बचता ही है लेकिन साथ ही लेवटी में बना घाव जल्दी ठीक हो जाता है। इसके लिए आधुनिक चिकित्सा के रूप में घर पर तैयार की जाने वाली निम्नलिखित औषधीयों का उपयोग चमत्कारिक परिणाम दे सकता है।

उपचार न. 1: दो चम्मच मक्खन में 5 ग्राम हल्दी पाउडर मिलाकर मलहम बना लें और इसे दिन में 3-4 बार प्रभावित अंग पर लगाने के बाद उस पर हल्छी पाउडर छिड़क दें। इस प्रक्रिया को जख्म ठीक होने तक दोहराते रहना चाहिए। (Prof. Punniamurthy N., Trans Disciplinary University, Bengaluru, Karnataka)

उपचार न. 2: जख्म के उपचार के लिए तीन प्रकार की घरेलु औषधीयों (त्रिफला काढ़ा; नारीयल, तुलसी, कुप्पी, नीम, मेंहदी, हल्दी एवं लहसुन का तेल एवं सूखा हल्दी पाउडर) को तैयार करके पशु के प्रभावित भाग पर लगाया जाता है। त्रिफला काढ़ा एवं तेल इस प्रकार तैयार करें (Prof. Nair M.N.B., Trans Disciplinary University, Bengaluru, Karnataka)

त्रिफला काढ़ा: त्रिफला बीज निकाले हुए तीन प्रकार के फलों का मिश्रण होता है जिसमें एक भाग हरड़, दो भाग बहेड़ा एवं तीन भाग आँवला के बीज रहित फलों को पीसकर मिलाया जाता है। यह बाजार में तैयार किया हुआ भी आसानी से मिल जाता है। त्रिफला का काढ़ा बनाने के लिए 100 ग्राम त्रिफला को 400 मि.ली. पानी में डाल कर एक-चौथाई रहने तक हल्की आँच पर पकाया जाता है। 100 मि.ली. रहने पर इसको सूती कपड़े के साथ छानकर लें। और इस काढ़े से घाव को धोएं।

नारीयल, तुलसी, कुप्पी, नीम, मेंहदी, हल्दी एवं लहसुन का तेल: अब एक बर्तन में 250 मि.ली. नारीयल (Cocos nucifera) का तेल डालें और इसमें एक-एक मुट्ठी तुलसी (Ocimum sanctum), कुप्पी (Acalypha indica), नीम (Azadirachta indica) और मेंहदी के पत्तों को डाल दें। साथ ही 20 ग्राम हल्दी (Curcuma longa) पाउडर और 5 लहसुन (Allium sativum) की कटी हुई कलियाँ भी डाल दें। अब इनको हल्की आँच पर पकाएं लेकिन ध्यान रहे कि यह सामग्री पकाते समय यह सामग्री काली न पड़े और आँच से नीचे उतार कर ठण्डा होने के लिए रख लें। इस तेल का उपयोग सभी प्रकार के घावों के लिए किया जा सकता है।

और देखें :  दुधारू पशुओ मे दुग्ध ज्वर (MILK FEVER) की समस्या

सूखा हल्दी पाउडर: इसके लिए बाजार में उपलब्ध हल्दी पाउडर या घर पर ही सूखी हल्दी की गाँठ को बारीक पीसकर पाउडर बनाकर उपयोग किया जा सकता है।

उपयोग करने की विधि: सबसे पहले त्रिफला के काढ़ा से जख्म को धोएं और इसे सूखने दें। अब इस पर हल्दी पाउडर लगा कर, ऊपर से उपरोक्त तैयार तेल का लेप दिन में तीन बार, घाव के ठीक होने तक करें।

उपचार न. 3: 100 ग्राम मक्खन में बाजार में उपलब्ध 20 – 25 ग्राम जिंक ऑक्साइड का पाउडर मिलाकर दिन में 3 – 4 बार, ठीक होने तक लगाने से भी अच्छे परिणाम देखने को मिलते हैं।

विशेष: थनों या लेवटी में अचानक सूजन आ जाने पर पशु की लेवटी पर लगभग एक घण्टा ठण्डा पानी डालने से आराम मिलता है और थन फटने या टूट कर गिरने से बच जाता है।

यदि लेवटी में शोफ (Oedema) है तो एक फ्राई पान में 200 मि.ली. तिल या सरसों का तेल लेकर गर्म करें (उबालने की आवश्यकता नहीं) और उसमें एक मुट्ठी हल्दी पाउडर और लहसुन की दो कटी हुई कलियों को भी डालकर अच्छी तरह मिला लें। खुशबुदार गंध आने पर इसे आँच से नीचे उतार कर ठण्डा कर लें। अब इस तेल को शोफ वाली लेवटी पर गोल-गोल घुमाकर दिन में चार बार, तीन दिन तक मालिश करें।

थनैला रोग होने पर घृतकुमारी (Aloe vera)  के 250 ग्राम पत्तों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर मिक्सी में पीसकर इसमें 50 ग्राम हल्दी पाउडर एवं 10 ग्राम चूना अच्छी तरह मिला लें। अब इस में से थोड़ी सी पेस्ट हथेली में लेकर उसमें पानी मिलाकर लेवटी पर दिन में 8-10 बार, ठीक होने तक लगाएं। इससे अत्याधिक लाभ मिलता। इस पेस्ट को हर रोज तैयार करें।

थन में रूकावट
आमतौर पर थन के अग्रभाग में सूजन आने के कारण दूधारू पशु के थन में रूकावट के कारण दूध आना बंद हो जाता है। शुरूआती अवस्था में प्रभावित थन में से दूध की धार बारीक हो जाती है और दूध भी सख्ती से ही निकलता है। यदि इसी अवस्था में ही इसका उपचार नहीं किया जाता है तो सख्ती से थन को दबाने से उसके ऊत्तकों को नुकसान होता है और समस्या बढ़ती जाती है और एक दिन वह समय भी आता है जब थन में से न केवल दूध निकालना ही मुश्किल बल्कि वह बंद भी हो जाता है। थन के सुराख में रूकावट होने पर दूध निकालने के लिए ज्यादा सख्ती से दूध निकालने के कारण उस थन पर घाव भी हो जाते हैं। और, ऐसी अवस्था में थन के सुराख को पशुओं की इस समस्या को आमतौर मूसड़ी रोग कहा जाता है। दबाने से उसमें सख्त गाँठ महसूस होती है जिसे आमतौर पर काटकर ही निकाला जाता है। ज्यादातर ऐसे थनों में संक्रमण बढ़ने से थनैला रोग हो जाता है और लेवटी का वह भाग ही निष्क्रिय होकर दुग्ध उत्पादन बंद हो जाता है। ऐसे थन, जिनमें दूध की रूकावट पैदा हो जाती है, पशु एवं उसके आवास की साफ-सफाई के अलावा निम्नलिखित उपाय किया जा सकता है (Punniamurthy, Nair and Kumar 2016) :

सामग्री :
(i) नीम की पत्ती का डंठल (Neem leafstalk)
(ii) हल्दी पाउडर (Turmeric powder)
(iii) मक्खन या घी (Butter or Ghee)

तैयार करने की विधि:
1. थन की लम्बाई के आधार पर नीम पत्ती के डण्ठल को आवश्यक लम्बाई तक काट लें।
2. अब इस डण्ठल पर, हल्दी पाउडर और मक्खन / घी के मिश्रण को अच्छी तरह लगा लें।

उपयोग विधि:अब इस लेपित नीम के पत्ते के डण्ठल को, घड़ी की सुई के विपरीत दिशा में घुमाते हुए अवरोधित थन के सुराख में अन्दर डालें।

औषधीय निर्देश: हर बार दूध निकालने के बाद, ताजी नीम की पत्ती की डण्ठल का ही उपयोग करें।

थनों पर बुवाईयाँ / चेचक / मस्से
चमड़ी की बाहरी परत वसीय अम्लों से ढकी होती है जो इसे रोगाणुओं से बचाने में सहायता करती है। लेकिन ठण्ड, नमी और वायु इत्यादि के प्रभाव से, मशीन से दूध निकालने थनों की चमड़ी अक्सर रूखी हो जाती है जो कई बार छिल भी जाती है और थन पर बुवाईयाँ पड़ जाती हैं। यदि समय पर थनों में बुवाईयों का उपचार नहीं किया जाता है तो इन्हीं रोगाणु आसानी से चमड़ी के माध्यम से लेवटी में प्रवेश कर थनैला रोग पैदा कर देते हैं। इसी प्रकार लेवटी पर चेचक या मस्से होने पर कई बार स्थिति और भी अधिक खराब हो जाती है। अतः थनों पर बुवाईयाँ पड़ने, चेचक या मस्से होने पर तुरन्त नजदीकी पशुचिकित्सक से ईलाज करवाना चाहिए। ऐथनोवेटरीनरी चिकित्सा के रूप में निम्नलिखित उपाय किया जाता है (Punniamurthy, Nair and Kumar 2016)

सामग्री

मात्रा

लहसुन (Garlic) 5 कलियाँ
हल्दी पाउडर (Turmeric powder) 10 ग्राम
जीरे के बीज (Cumin seeds) 15 ग्राम
मरूआ तुलसी (Sweet basil) के पत्ते 1 मुट्ठीभर
नीम (Neem) के पत्ते 1 मुट्ठीभर
मक्खन (पसंदीदा) या घी (Butter or Ghee) 50 ग्राम

तैयार करने की विधि :
1. जीरे के बीजों को 15 मिनट के लिए पानी में भिगोकर रख दें।
2. अब सभी सामग्रीयों को पीसकर बारीक पेस्ट में बना लें।
3. पेस्ट बनाने के बाद इसमें मक्खन भी अच्छी तरह मिला लें।

उपयोग विधि :
1. पेस्ट लगाने से पहले प्रभावित भाग को साफ पानी धो कर सूखा लें।
2. तैयार पेस्ट को प्रभावित थनों या लेवटी पर लगाएं।

औषधीय निर्देश : प्रभावित भाग पर जितनी बार संभव हो, रोग के ठीक होने तक यह पेस्ट लगाते रहें।

दूध में खून आना
आमतौर पर दुधारू पशुओं के दूध में खून आने लगता है जिससे दूध का रंग लाल या गुलाबी हो जाता है जिसे अक्सर उपभोक्ताओं द्वारा अस्वीकार कर दिया जाता है और पशुपालकों को आर्थिक हानि उठानी पड़ती है। रक्तासा्रवित के छोटे-छोटे छिछड़े होते हैं जिनका दूध निकालते समय पता नहीं चलता है और दूध साफ दिखायी देता है लेकिन रखने के कुछ देर बाद दूध का रंग लाल या गुलाबी होने लगता है। दूध में खून आने के कई कारण होते हैं। संक्षेप में इस विकार के महत्वपूर्ण कारण इस प्रकार हैं :

रक्तास्राव: दुग्ध ग्रन्थि ऊतकों में केशिका भित्ति (Capillary walls) के माध्यम से रक्त कोशिकाओं के प्रवाहित होने के कारण दूध में खून आने लगता है, जिसे कोशिकापारण (Diapedesis) कहते हैं। कोशिकापारण दुग्धोत्पादन की किसी भी चरणावस्था में हो सकता है। प्रसवोप्रान्त लेवटी एवं थनों में रक्त-संकुलन के कारण लेवटी एवं थनों के ऊत्तक लाल हो जाते हैं। प्रसवोप्रान्त हल्के से रक्त मिश्रित दूध को आमतौर पर सामान्य माना जाता है जो प्रसवोप्रान्त लगभग 14 दिन से ज्यादा नहीं रहता है। इसके अतिरिक्त किसी भी प्रकार के रक्तास्राव को पैथोलॉजिकल माना जाता है और इसके परिणामस्वरूप हाथ या मशीन द्वारा कठोरतापूर्वक दूध निकालने के कारण लेवटी एवं थनों की उपकला झिल्ली (Epithelial lining) को नुकसान होता है। कई बार लेवटी में मौजूद रक्त वाहिकाओं के फटने से भी दूध में खून आने लगता है। लेवटी एवं थनों में किसी भी प्रकार का आघात के कारण दूध में रक्तास्राव का सामान्य कारण है (Purohit et al. 2014)

और देखें :  सर्दियों/ शीत ऋतु में पशुओं का प्रबंधन

रोगाणुओं द्वारा संक्रमण: कई प्रकार के जीवाणुओं (लैप्टोस्पाइरा, ब्रेविबैक्ट्रीयम, सेरेशिया एवं माइक्रोकोक्कस इत्यादि), विषाणुओं, एवं शैवालों द्वारा शरीर में संक्रमण के कारण भी दूध में खून आने लगता है (Balhara et al. 2019)

प्राकृतिक विषाक्त पदार्थों या रंजक युक्त आहार: कभी-कभी, दूध का लाल रंग रूबिएसी परिवार के पौधों (मजीठ) के खाने से हो जाता है। रुनन्कुली, कॉनिफ़र, पॉपलर, अलडर्स आदि में मौजूद कुछ पौधों के विषों से केशिका को नुकसान हो सकता है जो दूध में लालपन उत्पन्न कर सकता है। फफूंदयुक्त बन मेथी घास (डाइकोमारिन विषाक्कतता) खिलाने से दूध में खून आ सकता है। कुछ पत्तेदार पौधों जैसे कि स्पर्ज (यूफोरबिया), मोथा घास में लाल रंग की डाई होती है जो दूध में लाल रंग के रूप में दिखाई देती है (Balhara et al. 2019)

अन्य कारण: दूध में खून आने के अन्य कारणों में विटामिन सी की कमी, दुग्धदोहन का सही तरीका न होना और अचानक या पुराना थनैला रोग आदि शामिल हैं (Balhara et al. 2019)

पारंपरिक उपचार:

  • चार चम्मच जीरा, 4 लौंग, एक बादाम एवं 1 कपूर की गोली को मिलाकर भूनकर पाउडर बना लें और इस मिश्रण में दो चेरी (Prunus puddum) को मिलाकर प्रतिदिन 5 दिन देने से रक्त धमनियाँ संकुचित होने से रक्तस्राव बंद हो जाता है (Naik et al. 2012)
  • ठण्डा पानी : थनों पर लगभग एक-एक घण्टा ठण्डे पानी के छींटे, दिन में 3-4 बार लगाने से दूध में खून आना बन्द हो जाता है।
  • पशु के थनों में रक्त रंजित दुग्ध आने पर एक केले (Musa paradisiaca) में एक गोली कपूर (4 ग्राम) की मिलाकर सुबह-शाम दो दिन तक पशु को खिलाने से दूध में रक्त आना बन्द हो जाता है (साधना 2009)

Reference

  1. Balaji N. and Chakravarthi P.V., 2010, “Ethnoveterinary Practices in India-A Review,” Veterinary World; 3(22);
  2. Balhara A.K., Rana N., Phulia S.K. and Sunesh, 2019, “Blood in Milk – causes & Control,” Buffalopedia. CIRB. Assessed on Agust 12, 2019.
  3. Bansal B. and Gupta D.K., 2009, “Economic analysis of bovine mastitis in India and Punjab-A review,” Indian journal of dairy science; 62(5): 337-345.
  4. Bonet M., Souza J.P., Abalos E., Fawole B., Knight M., Kouanda S., Lumbiganon P., Nabhan A., Nadisauskiene R., Brizuela V. and Gülmezoglu A.M., 2018, “The global maternal sepsis study and awareness campaign (GLOSS): study protocol,” Reproductive health; 15(1): 16.
  5. Brower C.H., Mandal S., Hayer S., Sran M., Zehra A., Patel S.J., Kaur R., Chatterjee L., Mishra S., Das B.R. and Singh P., 2017, “The prevalence of extended-spectrum beta-lactamase-producing multidrug-resistant Escherichia coli in poultry chickens and variation according to farming practices in Punjab, India,” Environmental health perspectives; 125(7): 077015.
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The content of the articles are accurate and true to the best of the author’s knowledge. It is not meant to substitute for diagnosis, prognosis, treatment, prescription, or formal and individualized advice from a veterinary medical professional. Animals exhibiting signs and symptoms of distress should be seen by a veterinarian immediately.

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