जब भी हमें दर्द, ज्वर या सूजन (शोथ) होती है तो इनको हरने के लिए औषधी लेने में तनिक भी देरी नहीं करते हैं। इसी प्रकार जब भी पशु को रोग चाहे जो भी, लेकिन इन औषधीयों का उपयोग धड़ल्ले से किया जाता है। पशु के मरणोपरान्त जब गिद्ध इनका भक्षण करते हैं तो उनकी जान को खतरा बढ़ जाता है। आज हालात यह हैं कि गिद्धों की संख्या में इतनी कमी आयी है कि उनको देख पाना भी मुश्किल हो रहा है। इतना ही नहीं अन्य पक्षी जैसे कि चिड़ियां जो घर-आंगन में चहचहाती थीं, लगभग विलुप्तप्रायः हो चुकी हैं। आधुनिक दौर में उपयोग किये जाने वाले रसायनों के अत्याधिक उपयोग के कारण हर जीव को खतरा उत्पन्न हो चुका है जिसका सबसे ज्यादा कुप्रभाव हमारे पर्यायवरण में विचरण करने वाले गिद्धों पर पड़ा है और अंतः उनकी आबादी लगभग विलुप्ती के कगार पर है।
गिद्ध ऐसा पक्षी होता है जो मृत पशुओं के माँस का भक्षण करके पर्यायवरण को स्वच्छ रखने में मदद करता है और बाकि जो बचता है तो केवल उस पशु की अस्थियां ही बचती हैं जिनको आसानी से सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया जाता है। आज गिद्धों की संख्या में अत्याधिक कमी के कारण मृत पशुओं के शरीर ऐसे ही पड़े रहते हैं जो पर्यायवरण के लिए खतरे की ओर इशारा करते हैं। अतः यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए कि गिद्ध प्राकृतिक रूप से पर्यायवरण के सफाई कर्मी हैं जिनके अभाव में सफाई का अभाव भी निहित है।
गिद्धों की संख्या में कमी का सबसे बड़ा कारण पालतु पशुओं के बीमार होने पर उनको दी जाने वाली दर्द, ज्वर या सूजन को हरने वाली औषधीयाँ हैं। इन औषधीयों में सबसे ऊपर डिक्लोफेनाक का नाम आता है। डिक्लोफेनाक एक ऐसी औषधी जिसका उपयोग सूजन को दूर करने के साथ-साथ बुखार, दर्द आदि को ठीक करने के लिए उपयोग किया जाता रहा है। प्रतिबंधित होने के बाद भी इस औषधी का उपयोग आज तक भी किया जा रहा है। 1990 के दसक में इस औषधी का उपयोग एक रोगी पशु में एक ही दिन में प्रस्तावित मात्रा से कई गुणा ज्यादा मात्रा का उपयोग किया गया जिसके अवशेष मृत पशुओं में होने के कारण गिद्धों की संख्या पर बुरा असर पड़ा है। विश्व में अनेकों शोध यह बता चुके हैं कि यह औषधी पर्यायवरण के लिए बहुत ही घातक है फिर भी आज तक इसका उपयोग धड़ल्ले के किया जाता रहा है। डिक्लोफेनाक औषधी पक्षियों खासतौर से गिद्धों के लिए हानिकारक है जिसके पशुओं में उपयोग के कारण लगभग 99 प्रतिशत गिद्धों की संख्या में कमी आयी है (Ghosh-Harihar et al. 2019)।
डिक्लोफेनाक के अलावा अन्य दर्दनिवारक, सूजनहारी एवं ज्वरनाशी औषधयां जैसे कि एसीक्लोफेनिक, मेलोक्सिीकेम, किटोपरोफेन, निमेसुलाइड एवं फ्लुनिक्सिन इत्यादि के दुष्प्रभाव भी गिद्धों में जानलेवा साबित हो चुके हैं। इन सभी औषधीयों के कारण गिद्धों के महत्वपूर्ण अंगों में खराबी आ जाने से उनकी मृत्यु निश्चित हो जाती है (BirdLife International 2017)। अतः समय की आवश्यकता एवं भविष्य के खतरे का आंकलन करते हुए आधुनिक चिकित्सा में प्रयोग की जाने वाली औषधीयों को विवेकपूर्वक इस्तेमाल करें औ जहाँ तक संभव हो सके तो इन औषधीयों का उपयोग कुशल चिकित्सक की देखरेख में ही करने में भलाई है।
अतः आज विश्वभर में जैव विविधता को बचाए रखने के लिए जितना जोर दिया रहा है उतना ही बल इन घातक औषधीयों के ज्ञानपूर्वक उपयोग करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही यदि घर या आस-पड़ोस में उपलब्ध घरेलु औषधीयों का उपयोग किया जाता है तो इस समस्या से निपटा जा सकता है। हमें यह भी विधित होना चाहिए कि आधुनिक औषधी विज्ञान में उपयोग की जाने वाली लगभग 80 प्रतिशत से भी औषधीयां वनस्पतियों से प्राप्त की जाती हैं। अतः यह संभव सी बात है कि एथनोवेटरीनरी में उपयोग किये जाने वाले घरेलु नुस्खे इसमें सफल रहेंगे जो सफल भी हो रहे हैं। आधुनिक औषधी विज्ञान में उपयोगी ग्वारपाठा, हल्दी एवं हल्दी का उपयोग पशुओं में थनैला रोग में उत्पन्न होने वाली सूजन को ठीक करने के साथ-साथ रोगाणरोधी भी सिद्ध हो चुका है। इसी प्रकार, लेवटी में केवल सूजन होने पर सरसों या नारियल का तेल, लहसुन, हल्दी एवं तुलसी के पत्तों का कारगर प्रभाव मिलता है। जीरा, काली मिर्च, धनिया, लहुसन, तुलसी, प्याज, हल्दी एवं अन्य घरेलु सामग्रीयों का उपयोग पशु के बुखार होने पर किया जाता है।
पर्यायवरण को ध्यान में रखते हुए, यहाँ पर कुछ घरेलु नुस्खे दिये जा रहे हैं जिनका उपयोग पशुओं में शोथ, शोफ, बुखार होने पर किया जा सकता है ताकि बेवजह पशुओं को एंटीबायोटिक्स, ज्वरनाशक एवं दर्दनिवारक दवाओं के प्रकोप से बचाया सके। आशा की जाती है कि पशुचिकित्सक एवं पशुपालक इनका उपयोग कर लाभाविन्त अवश्य होंगे।
थनैला (सभी प्रकार का)
थनैला रोग दुग्ध ग्रन्थि का रोग है जिसमें दुग्ध ग्रन्थियों में सूजन जाती हैं। यह रोग दूधारू पशुओं में आम समस्या है। इसके कारण पशु पालकों को बहुत आर्थिक नुकसान होता है। इसको जड़ से समाप्त नहीं किया जा सकता है लेकिन इसके द्वारा होने वाले नुकसान को अच्छे प्रबन्धन द्वारा कम किया जा सकता है। थनैला रोग के कई कारणों में से सूक्ष्म जीवों द्वारा उत्पन्न थनैला रोग बहुत महत्त्वपूर्ण है। हालांकि कवक, खमीर व वायरस जनित थनैला रोग भी होता है लेकिन जीवाणु जनित थनैला रोग बहुतायत में नुकसान पहुँचाता हैं। जब थन, रोग जनकों के सम्पर्क में आते हैं तो रोग जनक दुग्ध वाहिनी में प्रवेश कर जाते हैं जिससे थनैला रोग उत्पन्न होता है।
थनैला रोग से ग्रसित दूधारू पशु का इलाज पशु पालकों को अत्याधिक मंहगा पड़ता है। ईलाज के बाद भी रोगी पशु से वांछित दुग्ध उत्पादन नहीं लिया जा सकता है। इसके साथ ही थनैला रोग से ग्रसित पशु का दूध प्रतिजैविक दवाओं के उपयोग के कारण पीने योग्य नहीं होता है जिस कारण पशु पालक को अतिरिक्त धन हानि भी उठानी पड़ती है। भारत में, थनैला रोग के कारण होने वाले कुल वार्षिक आर्थिक नुकसान की गणना 7165.51 करोड़ रुपये की गई है (Bansal and Gupta 2009)।
थनैला रोग के उत्पन्न होने में प्रबंधन संबंधी जोखिम कारकों की मुख्य भूमिका होती है। पक्के फर्श की तुलना में कच्चे फर्श पर बंधने वाले दूधारू पशुओं में इस रोग के होने का खतरा सबसे अधिक अधिक होता है। यदि पशु गृह की साफ-सफाई अच्छी नहीं है तो भी थनैला रोग होने की अत्याधिक संभावना रहती है। इसके अलावा, पशु का दूध दोहने वाले मनुष्य के स्वास्थ्य की स्थिति, प्राणीरूजा रोगों, गंदे कपड़े पहनकर, गंदे हाथों से दुग्ध दोहन करने से थनैला रोग होने की प्रबल संभावना रहती है। दुग्ध दोहन के संबंध, पूर्ण हस्त विधि अन्य तरीकों की तुलना में बेहतर है, जबकि अंगुठे एवं दो-तीन अंगुलियों की सहायता से या थनों के ऊपर अंगुठा मोड़कर थनों को दबाकर दुग्ध दोहन करने से थनों ऊतकों को अधिक नुकसान पहुंचता है, जिससे थनैला रोग होने का खतरा अधिक रहता है। आमतौर पर कटड़े/कटड़ीयों को दूध निकालने से पहले पसमाव के लिए चुंगाया जाता है और दुग्ध दोहन करने के बाद उनको दूध पीने के लिए मादा माँ के थनों को चूसने के लिए छोड़ दिया जाता है। लेकिन शोधों से यह भी पता चलता है कि उनके थनों को मुँह में डालने से थनैला रोग बढ़ने की संभावना ज्यादा रहती है। इसके अतिरिक्त, दुग्ध दोहन के बाद लेवटी में दूध कम रह जाता है जिससे बच्चा थनों को मुँह में दबाकर खींचता है और लेवटी में जोर से सिर मारता रहता है जिससे थनों एवं लेवटी के ऊत्तकों को हानि पहुंचती है। ऐसी प्रक्रिया के दौरान थन के माध्यम से लेवटी में प्रविष्ठ किये जीवाणु थनैला रोग के कारक बनते हैं (Rathod et al. 2017)। थनैला रोग से ग्रसित पशु के ईलाज के लिए योग्य पशु चिकित्सक से ही ईलाज करवाना चाहिए। थनैला रोग से प्रभावित पशु का घरेलु उपचार औषधीय पौधों की सहायता से इस प्रकार किया जा सकता है (Mekala et al. 2015, Hema Sayee et al. 2016, Punniamurthy, Nair and Kumar 2016, NRLM 2016, Nair et al. 2017, Punniamurthy 2017 Priya and Mohan 2018) :
सामग्री |
मात्रा |
1. ग्वापाठा के पत्ते (Aloe vera leaves) | 250 ग्राम |
2. हल्दी पाउडर (Turmeric powder) | 50 ग्राम |
3. चूना पाउडर (Lime) | 15 ग्राम |
4. नींबू (Lemon) | 2 फल |
5. कढ़ीपत्ता | दो मुट्ठी |
तैयार करने की विधि : सबसे पहले ग्वापाठा के पत्तों को पीस कर इसमें हल्दी पाउडर (Turmeric powder) मिला लें। अब इसमें चूना मिलाकर अच्छी तरह मिक्स करके मलहम बना कर भण्डारित कर लें।
उपयोग विधि:
1. थनों एवं लेवटी को साफ पानी से धो लें। तैयार मिश्रण में से मुट्ठीभर लेकर 150 से 200 मि.ली. पानी मिलाकर पतला कर लें। अब इसको दिन में 8-10 बार, 5 दिन तक या ठीक होने तक लेवटी एवं थनों के ऊपर लगाएं। पशु को दो नींबू काटकर भी प्रतिदिन खिलाएं।
2. सेवन की दूसरी विधि के अनुसार सबसे पहले चारों थनों का दूध निकाल लें। फिर तैयार मलहम का दसवां भाग 100 मि.ली. शुद्ध पानी में मिलाकर लेवटी पर लगाएं। दोबारा फिर एक घण्टे बाद लेवटी को साफ पानी से धोकर लगाएं। ऐसा दिन में 10 बार करें लगातार 5 दिन तक करें। दिन में एक बार दो नींबू काट कर भी प्रभावित पशु को खिलाएं।
दूध में खून आने पर उपरोक्त विधि के अतिरिक्त, दो मुट्ठी कढ़ीपत्ता को पीसकर गुड़ के साथ मिलाकर दिन में एक-दो बार ठीक होने तक भी खिलाएं। यदि थनैला रोग ज्यादा दिनों से है तो घृतकुमारी, हल्दी एवं चूना के साथ हाडजोड़ (Cissus quadrangularis) के 2 फल भी मिला लें व 21 दिनों तक इस औषधी को लेवटी पर लगाएं।
औषधीय निर्देश: मलहम लगाने से पहले लेवटी को उबले हुए पानी को ठण्डा होने के बाद लेवटी एवं थनों को अवश्य साफ करें।
अयन-थन शोफ
अयन शोफ लेवटी और थनों की सूजन है,जो कभी-कभी पशु के पेट के निचले भाग में भी हो जाती है। अयन शोफ के कारण पशु को दुग्धोहन के समय दर्द होता है। इस रोग में पशु की लेवटी, थनों एवं पेट के ऊत्तकों में पानी भर जाता है। कभी-कभी, सूजन इतनी गंभीर होती है कि पेट और पैरों के बीच की चमड़ी में घाव बन जाते हैं जिसमें संक्रमण भी हो जाता है। गंभीर रूप से प्रभावित गाय/भैंस में, जिनका समय पर उपचार नहीं हो पाता है, में लेवटी और थनों के ऊत्तकों में दीर्घकालिक क्षति हो सकती है और लेवटी लटकी हुई सी बन जाती है (MVM 1998)। ब्याने से पहले ज्यादा मात्रा में पशु को दी गई ऊर्जा या सोडियम या पोटेशियम भी शोफ की संभावना को बढ़ा सकते हैं (Vestweber and Al-Ani 1983)। आहार में अतिरिक्त रूप से दिया गया पोटेशियम एवं सोडियम, शरीर में पानी प्रतिधारण के साथ-साथ पोटाशियम उत्सर्जन को बढ़ाकर रेनिन-एंजियोटेंसिन तन्त्र के माध्यम से शोफ को बढ़ा सकता है (Sanders and Sanders 1981)। इस रोग प्रभावित पशु का उपचार औषधीय पौधों की सहायता से इस प्रकार किया जाता है (Balaji and Chakravarthi 2010, Punniamurthy, Nair and Kumar 2016) :
सामग्री |
मात्रा |
1. तिल/सरसों का तेल (Sesame/Mustard oil) | 200 मि.ली. |
2. हल्दी पाउडर (Turmeric powder) | 1 मुट्ठी |
3. कटा हुआ लहसुन (Sliced garlic) | 2 कलियाँ |
तैयार करने की विधि :
1. तेल को गर्म करें।
2. हल्दी पाउडर एवं कटी हुई लहसुन की कलियाँ डालकर अच्छी तरह मिला लें।
3. अब जैसे ही गर्म करते समय इसमें से गंध आने लगे तो आँच से नीचे उतार लें (उबालने की आवश्यकता नहीं है)।
4. इसे ठण्डा होने दें।
नोट : एक मुट्ठी तुलसी (Ocimum sanctum) के पत्तों को भी हल्दी एवं लहसुन के साथ तेल में डाल सकते हैं।
उपयोग विधि:
1. शोफ (Oedema) वाले अयन, थन या भाग पर थोड़ा बल के साथ गोलाकार तरीके से लगाएं।
2. इसे दिन में चार बार लगातार तीन दिन तक लगाएं।
औषधीय निर्देश : इस विधि का उपयोग करने से पहले थनैला रोग की अवश्य जाँच कर लें।
बुखार
किसी भी प्रकार के संक्रमण में पशुओं को ज्वर (Fever) होना रोगों से लड़ना शरीर सामान्य प्रक्रिया है जिसके लिए शरीर से विभिन्न प्रकार के तत्व बनते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान संक्रमित पशु को ज्वर हो जाता है जिसके लिए निम्नलिखित घरेलू किया जाता है: घर में उपलब्द्ध निम्नलिखित सामग्रीयों की सहायता से तैयार औषधी को बुखार से पीढ़ित व्यस्क पशु को दी जा सकती है (Punniamurthy, Nair and Kumar 2016)
सामग्री |
मात्रा |
1. जीरा (Cumin seeds) | 10 ग्राम |
2. काली मिर्च (Black pepper) | 10 ग्राम |
3. धनिया के बीज (Coriander seeds) | 10 ग्राम |
4. लहुसन (Garlic) | 2 कलियाँ |
5. तुलसी (Holy basil) के पत्ते | 1 मुट्ठी |
6. मरूआ तुलसी (Sweet basil) | 1 मुट्ठी |
7. दालचीनी (Cinnamon) के सूखे पत्ते | 10 ग्राम |
8. पान के पत्ते (Betel leaves) | 5 |
9. प्याज (Onions) | 2 |
10. हल्दी पाउडर (Turmeric powder) | 10 ग्राम |
11. चिरायता (Chirayita) के पत्तों का पाउडर | 20 ग्राम |
12. नीम के पत्ते (Neem leaves) | 1 मुट्ठी |
13. गुड़ (Jaggery) | 100 ग्राम |
तैयार करने की विधि :
1. जीरा, काली मिर्च और धनिये के बीजों को 15 मिनट के लिए पानी में भिगोकर रख दें।
2. 15 मिनट के बाद पानी में बीजों का निकालकर कूट लें और इसमें अन्य सारी बतायी गई सामग्री को मिलाकर कूट लें जिससे कि सारी सामग्री एक पेस्ट की तरह बन जाए।
उपयोग विधि: तैयार औषधी का आधा-आधा सुबह-शाम बुखार ग्रसित पशु को खिलाएं।
औषधीय निर्देश: बुखार होने के बहुत कारण हैं जिसका उपचार होना कई बार ही मुश्किल होता है। अत: उपरोक्त ऐथनोवेटरीनरी उपाय पशु किचकित्सक देख-रेख में करें।
Reference
- Balaji N. and Chakravarthi P.V., 2010, “Ethnoveterinary Practices in India-A Review,” Veterinary World; 3(22);
- Bansal B. and Gupta D.K., 2009, “Economic analysis of bovine mastitis in India and Punjab-A review,” Indian journal of dairy science; 62(5): 337-345.
- BirdLife International, 2017, “Gyps bengalensis. The IUCN Red List of Threatened Species: e.T22695194A118307773,” Assessed on September 12, 2019.
- Ghosh-Harihar M., Gurung N., Shukla H., Sinha I., Pandit A., Prakash V., Green R.E. and Ramakrishnan U., 2019, “Metabarcoding for parallel identification of species, sex and diet: an application to the conservation of globally-threatened Gyps vultures,” bioRxiv, p.756247.
- Hema Sayee R., Gayathri K., Femina Banu S., Kowsalya S., Kokila M., Nandhini S., Thirumalaisamy G. and Senthilkumar S., 2016, “ETHNOVETERINARY MEDICINE: A BOON FOR ANIMAL HEALTH,” International Journal of Science, Environment; 5(6): 4006–4012.
- Mekala P., Punniamurthy N., Nair M.N.B. and Yogeswari R., 2015, “Reverse Pharmacology: Ethnoveterinary Formulation for Mastitis,” Proceedings – Kerala Veterinary Science Congress 2015: 391-394.
- MVM, 1998, “Merck Veterinary Manual, 8th, p. 1029.
- Nair M.N.B., Punniamurthy N., Mekala P., Ramakrishnan N. and Kumar S.K., 2017, “Ethno-veterinary Formulation for Treatment of Bovine Mastitis,” Journal of Veterinary Sciences-S1: 25-29.
- Nair M.N.B., Punniamurthy N., Mekala P., Ramakrishnan N. and Kumar S.K., 2017, “Ethno-veterinary Formulation for Treatment of Bovine Mastitis,” Journal of Veterinary Sciences-S1: 25-29.
- NRLM, 2016, “Pashu Sakhi Hand book,” National Rural Livelihood Mission.
- Priya M.S. and Mohan B., 2018, “A front line demonstration on successful treatment of mastitis in dairy cows using ethno veterinary medicine,” The Pharma Innovation Journal; 7(1): 518-520.
- Punniamurthy N., 2017, “ETHNOVETERINARY HERBAL HEALTH CARE OF DAIRY CATTLE,” TANUVAS, Chennai; Propagation of Ethnoveterinary Herbal Knowledge: 95-99
- Punniamurthy N., Nair M.N.B. and Kumar S.K., 2016 “User guide on Ethno-Veterinary Practices,” ISBN978-93-84208-03-05, First Edition, TDU, Bengaluru.
- Rathod P., Shivamurty V. and Desai A.R., 2017, “Economic Losses due to Subclinical Mastitis in Dairy Animals: A Study in Bidar District of Karnataka,” The Indian Journal of Veterinary Sciences and Biotechnology; 13(01): 37-41.
- Vestweber J.G.E. and Al-Ani F., 1983, “Udder edema in cattle. Compendium on Continuing Education for the Practicing Veterinarian; 5(1): S5-S11.
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