भारत में हरियाणा का दुग्ध उत्पादन में एक महत्वपूर्ण स्थान है। वर्ष 2017–18 में 89.75 लाख टन वार्षिक दुग्ध उत्पादन के साथ, राज्य में प्रति व्यक्ति प्रति दिन की उपलब्धता 878 ग्राम थी जो पंजाब के बाद देश में दूसरी सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति प्रति दिन की उपलब्धता है (DAHD 2018) जबकि 2018–19 में बढ़कर यह 1087 ग्राम हो गई है (NDDB 2019)। पशुपालन कृषि सकल घरेलू उत्पाद के एक प्रमुख योगदानकर्ता के रूप में कृषि का एक अभिन्न अंग है जो स्वरोजगार के अवसरों की उच्च क्षमता के साथ संपन्न है। वर्तमान परिदृश्य में, जब कृषि उत्पादन में वृद्धि दर स्थिर हो रही है, तो यह पशुपालन क्षेत्र ही है जो राज्य सकल घरेलू उत्पाद में उच्च वृद्धि दर हासिल करने के साथ-साथ बेरोजगारों को रोजगार प्रदान करने के प्रति वचनबद्ध है।
इस योजना को गायों की स्वदेशी नस्लों के संरक्षण और विकास के उद्देश्य से राज्य में विभाग द्वारा कार्यान्वित किया जा रहा है। 2012 पशुधन गणना के अनुसार, राज्य में पशुधन की संख्या 89.98 लाख है, जिनमें से 18.08 लाख गौ-वंश हैं। कुल गौ-वंश संख्या में से 8.12 लाख स्वदेशी हैं और 9.96 लाख विदेशी संकर नस्ल का गौ-वंश है (DAHD 2018)। स्वदेशी पशु गौ-वंश की नस्लों के अनुवांशिक सुधार की दिशा में समेकित प्रयासों की कमी ने धीरे-धीरे उनकी संख्या में कमी करने में योगदान दिया है। स्वदेशी गौ-वंश की संख्या लगातार कम हो रही है, इसलिए इन स्वदेशी गौ-वंश की नस्लों के सरंक्षण एवं विकास के लिए तत्काल आवश्यक उपायों की आवश्यकता है।
हरियाणा में पशुधन गणना 2003, 2007 एवं 2012 के अनुसार विभिन्न श्रेणी के पशुओं की संख्या (हजार में) |
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2003 | 2007 | 2012 | 2007 व 2012 में बदलाव (%) | |
विदेशी एवं संकर गौवंश | 573 | 566.22 | 996.1 | 75.92 |
देशी गौवंश | 967 | 986.14 | 812.01 | -17.66 |
कुल गौवंश | 1540 | 1552.36 | 1808.11 | 16.48 |
कुल पशुधन | 8885 | 8858.69 | 8819.5 | -0.44 |
स्त्रोत: DAHDF 2012 |
किसी नस्ल विशेष की लुप्तप्राय स्थिति उसके प्रजनन पशुओं के आकार से निर्धारित की जाती है, जिसमें प्रजनन मादाओं एवं नरों की संख्या, उनके लिंगानुपात, नस्ल विशेष की मादाओं का उसी नस्ल के नरों से पैदा होने का प्रतिशत, उनकी जनसंख्या के आकार की प्रवृत्ति, प्रभावी संख्या का आकार इत्यादि को एक विशेष उत्पादन प्रणाली के अंतर्गत व्यक्त किया जाता है (Bhatia and Arora 2005)। खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार यदि किसी नस्ल की संख्या 10000 से अधिक है तो नस्ल सुरक्षित है जबकि इससे कम लेकिन 5000 से अधिक होने पर वह नस्ल असुरक्षित हो जाती है।
प्रजाति संख्या | 10000 से अधिक | 5000 – 10000 | 1000 – 5000 | 100 – 1000 | 100 से कम |
स्थिति | सामान्य (मध्यवर्ती) | असुरक्षित | अतिसंवेदनशील | लुप्तप्राय | गंभीर (दुर्लभ) |
यदि नस्ल विशेष की संख्या 1000 से 5000 रह जाती है तो वह अतिसंवेदनशील की श्रेणी में आ जाती है जबकि 100 – 1000 संख्या रह जाने पर वह नस्ल लुप्तप्राय हो जाती है। यदि नस्ल विशेष की संख्या 100 से भी कम रह जाती है तो गंभीर स्थिति हो जाती है जिसे दुर्लभ श्रेणी में रखा जाता है (Bhatia and Arora 2005, Singh 2006)। नस्ल की लुप्तप्राय स्थिति प्रजनन स्टॉक के आकार से निर्धारित की जा सकती है, जिससे प्रजनन देशी गौवंश की संख्या लगातार कम होने के निम्नलिखित कारण हैं (Joshi et al. 1995, Joshi et al. 1996, Singh 2006, Ramesh et al. 2009, ENVIS 2013-14):
- जागरूकता का अभाव: आमजन देशी गौवंश के गुणों से अनभिज्ञ होने के कारण इनको त्याग रहे हैं जिससे जलवायु अनुसार चयनित पशुओं के नुकसान होने के साथ-साथ विदेशी मूल के पशुओं का प्रचलन बढ़ रहा है जिससे अच्छा दुग्ध उत्पादन तो हो रहा है लेकिन इन विदेशी पशुओं में रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने के कारण मृत्यु होने से पशुपालकों को आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ता है।
- विकास के परिणाम (Development results): भारत में ज्यादातर गौवंश की दुग्धोत्पादन क्षमता है। इसलिए, व्यावसायिक हितों के कारण भारत जैसे विकासशील देशों में ज्यादा निवेश और ज्यादा-उत्पादन करने वाली नस्लों को वरीयता दिये जाने से देशी गौवंश की संख्या में लगातार कमी होती जा रही है।
- विशिष्टीकरण (Specialization): जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ दूध की मांग लगातार बढ़ती जा रही है जिस कारण एकल उत्पादक विशेषता जैसे कि डेयरी की ओर ध्यान दिया जा रहा है। दूध की आपूर्ति को पूरा करने के लिए विदेशी मूल की गायों व उनके संकर नस्ल के गौवंश को बढ़ावा मिलने के कारण भी गौवंश की संख्या में लगातार कमी हो रही है।
- आनुवंशिक अंतर्गमन (Genetic introgression): व्यवसायिक स्तर पर दूध की आपूर्ति को पूरा करने के लिए देशी मूल की नस्लों का लगातार संकरण हो रहा है अर्थात क्रॉसब्रीडिंग और आकस्मिक अंतर्गमन (जीन का एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति के जीन पूल में संचार) से स्वदेशी नस्लों की संख्या लगातार गिरावट देखने को मिल रही है।
- भूमि उपयोग का बदलता स्वरूप (Changing land use pattern): बढ़ते खाद्यान की मांग को पूरा करने के लिए चारागाहों की भूमि को कृषि योग्य भूमि में परिवर्तित किया जा रहा है। इसके साथ ही बढ़ती आबादी को आवासीय सुविधा देने के लिए भी कृषि भूमि के साथ-साथ चारागाहों की भूमि को भी आवासीय सुविधा एवं पार्क व औद्योगिक इकाईयों को स्थापित करने के लिए भूमि उपलब्द्ध करवाई जा रही है। अत: लगातार घटती कृषि एवं चारागाहों की भूमि के कारण पशुओं के लिए चारे की उपलबद्धता कम होने के कारण भी अन्य पशुओं के साथ-साथ गौवंश में कमी हो रही है।
- पर्यावरणीय परिवर्तन (Climatic change): समय के साथ-साथ प्राकृतिक जलवायु परिवर्तन के कारण एक विशेष वातावरण में रहने वाले पशुओं की विभिन्न प्रकार की नस्लों के उपभेदों (Strains) अन्तर हो जाता है। अत: जलवायु परिवर्तन के कारण भी अन्य पशुओं के साथ-साथ देशी गौवंश की संख्या में कमी हो सकती है।
- विचारों में बदलाव (Change in ideas): आधुनिक या आयातित सर्वोत्तम का विचार भी देशी गौवंश की संख्या में कमी का कारण है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आयातित गौवंश की दुग्ध उत्पादन क्षमता है अच्छी है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं होना चाहिए कि देशी गौवंश का दुग्ध उत्पादन अच्छा नहीं है। यदि देशी गौवंश में चयनात्मक प्रजनन प्रक्रिया अपनायी जाए तो इनसे भी अच्छा दुग्ध उत्पादन किया जा सकता है।
- तकनीकी बदलाव (Technical change): मशीनीकृत कृषि संचालन जैसे कि ट्रैक्टर, थ्रैसर, हार्वेस्टर, टयूबवैल इत्यादि गहन कृषि यन्त्रों के उपयोग के कारण परम्परागत बैलों का उपयोग कम हो गया है। अत: देशी गौवंश का कम दुग्ध उत्पादन होने के साथ-साथ उनके बछड़ों का उपयोग भी कम होने के कारण उनकी संखया में लगातार कमी हो रही है (Singh 2006)।
- आर्थिक परिवर्तन (Economic change): आयातित गौवंश की तुलना में भारतीय मूल की देशी गौवंश का दुग्ध उत्पादन कम है जिस कारण पशुपालक जयादा लाभ कमाने के कारण विदेशी मूल की गायों को रखना पसन्द करते हैं। अत: देशी गौवंश संख्या स्वभाविक कमी देखने को मिल रही है।
- मुर्राह भैंस पालन (Buffalo rearing): भारतीय मूल की भैंसों का दुग्ध उत्पादन गायों की अपेक्षा ज्यादा होने के साथ-साथ बहुत बड़े वर्ग द्वारा भैंसों के दूध का सेवन किया जाता है। हरियाणा में दूध-दही व घी का ज्यादा सेवन होने के कारण भी भैंस पालन में ज्यादा रूची रखी जाती है जिस कारण गायों की तुलना में भैंसों की संख्या में वृद्धि देखने को मिलती है।
- नीति का अभाव: देशी नस्ल की गायों के प्रजनन और सुधार पर एक ठोस एवं सुसंगत नीति का अभाव। संतान परीक्षण किये सांड एवं वीर्य की कमी है। इसके साथ ही पशुपालकों में देशी नस्ल के सांडों के वीर्य से कृत्रिम गर्भाधान सेवाओं ने ज्यादा प्रगति नहीं की है।
- प्रजनक संगठनों का अभाव: देशी नस्ल की गायों के नस्ल के विकास सुधार एवं सरंक्षण के लिए प्रजनकों के संगठनों का अभाव भी हरियाना नस्ल की गायों की संख्या में कमी का एक कारण है।
- नस्लों की पहचान का अभाव: वर्ष 2013 में राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार नस्ल के गलत कोड देने के कारण उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा में नीलगिरी भेड़ बतायी गई है जबकि यह नस्ल तमिलनाडु के नीलगिरी जिले की है। उत्तर प्रदेश व हरियाण की जलवायु इस नस्ल के लिए उपयुक्त नहीं है। जबकि नीलगिरी के मूल गृह स्थान में इसकी कुल संख्या 587 दर्शायी गई है (GOI 2015)। इसी प्रकार काली अटापडी भेड़ की नस्ल को बिहार में दर्ज किया गया है जिसका गृह स्थान वास्तव में केरल राज्य है (GOI 2015)। इस पशुधन गणना में यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि गणना करते समय नस्ल विशेष के गृह स्थान एवं जलवायु का विशेष आंकलन अवश्य करना चाहिए साथ ही राज्य विशेष की नस्लों के बारे में अवश्य जानकारी होनी चाहिए।
भारत में संकर नस्ल को बढ़ावा देने से देशी गौवंश की संख्या में कमी आ रही है जिसके कई नस्लों का अस्तित्व खतरे की ओर बढ़ रहा है लेकिन स्थानीय अर्थात देशी पशुओं के अस्तित्व को निम्नलिखित कारणों से बचाये रखना आवश्यक है:
- अस्तित्व: एक नस्ल विशेष, स्थानीय भूगौलिक वातावरण के अनुसार ही अस्तित्व में आती है और वह उस वातावरण में अपना अस्तित्व बनाये रखती है। यदि अलग वातावरण में विकसित हुए नस्ल के पशुओं के नए वातावरण में प्रतिस्थापित किया जाता तो न केवल प्रतिस्थापित नस्ल के पशुओं का अस्तित्व खतरे में होगा बल्कि पहले से रह रहे नस्ल विशेष के पशुओं के अस्तित्व पर प्रतिकूल पड़ता है।
- रूपात्मक विशेषताएं: किसी भी नस्ल विशेष का शारीरिक आकार स्थानीय परिवेश पर निर्भर करता है। भारत में केरल की वेचूर गाय सबसे छोटे आकार की गाय है तो गुजरात की कांकरेज गाय सबसे भारी है जिनका अस्तित्व स्थानीय भूगौलिक परिस्थितियों में हुआ है और उस वातावरण में अपने-आप को फलीभूत करने में सक्षम हैं।
- रोग प्रतिरोधकता: एक नस्ल विशेष स्थानीय भूगौलिक वातावरण के अनुसार ही अस्तित्व में आती है जो कि उस स्थानीय वातावरण में मौजूद रोगाणुओं के लिए प्रतिरोधी होती है जबकि प्रतिस्थापित नस्लों में रोगप्रतिरोधक क्षमता कम होने के साथ-साथ उस वातावरण विशेष में प्रतिस्थापित नस्लों के नये रोग का प्रवेश होने से स्थानीय नस्लों की रोग प्रतिरोधक क्षमता पर कुप्रभाव पड़ता है।
- भरण-पोषण: स्थानीय नस्ल के पशु अपने वातावरण में मौजूद प्राकृतिक संसाधनों पर ही जीवनयापन करते हैं जबकि प्रतिस्थापित नस्ल विशेष के पशुओं को अपने-आप को बचाये रखने के लिए न केवल समय ही लगता है। कई बार प्रतिस्थापित नस्ल विशेष के पशु अपने-आप को नए प्राकृतिक माहौल में असहज होने के कारण पूर्णतः अनुकूल नहीं होते हैं।
भारत में अन्य राज्यों सहित, पशुपालन एवं डेरी विभाग, हरियाणा ने देशी गौवंश सरंक्षण एवं विकास के लिए आवश्यक कदम उठाए हैं (DAHD 2018)। हरियाना, साहीवाल एवं बेलाही गौ-वंशों का गृह निवास होने के नाते हरियाणा राज्य का नैतिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय दायित्व है कि इन नस्लों के एकीकृत विकास के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएं। व्यवसायिक प्रबन्धन एवं उचित पोषण के माध्यम से स्वदेशी नस्लों का उत्पादन बढ़ाने की अपार क्षमता है। इसके लिए, स्वदेशी गौ-वंश नस्लों के संरक्षण और विकास को बढ़ावा देना आवश्यक है। एकीकृत फार्म प्रबन्धन में, खासतौर से छोटे एवं भूमिहीन किसानों के लिए, पशुधन क्षेत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसमें विकास की बड़ी सम्भावना है बशर्ते कि इसके लिए अति आवश्यक योजना होनी चाहिए जिसमें आनुवांशिक संसाधन संरक्षण, मूल्यवान स्वदेशी नस्लों में सुधार, उनके स्वास्थ्य, पोषण इत्यादि पर बल देना भी शामिल हो। गुणवत्तीय आनुवांशिक संसाधन होने के बावजूद, मुख्य रूप से अंधाधुंध प्रजनन, निम्न प्रबंधन स्थितियों और अवैज्ञानिक आहार पद्धतियों के कारण राज्य में स्वदेशी गायों की उत्पादकता वांछित स्तर तक बढ़ी नहीं है।
देशी गौवंश सरंक्षण एवं विकास योजना के अंतर्गत, पशुपालन एवं डेरी विभाग हरियाणा के निम्नलिखित दीर्घकालिक एवं मध्यम अवधि उद्देश्य और अपेक्षित प्रभाव इस प्रकार हैं:
- दीर्घकालिक उद्देश्य:
- दुग्ध उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि।
- राज्य में उपलब्ध जननद्रव्य के माध्यम से बहुमूल्य स्वदेशी गौ-पशुओं का उन्नयन चयनात्मक प्रजनन।
- मध्यम अवधि के उद्देश्य:
- टिकाऊ अनुवांशिक सुधार के लिए शीर्ष गुणवत्ता वाले गौजातीय जननद्रव्य की पहचान एवं गुणवत्तीय वीर्य के साथ गर्भाधान करना।
- अन्य राज्यों को आपूर्ति के लिए युवा स्वदेशी गाय सांडों (नर बछड़ों) की खरीद और उनको पालन-पोषण करना।
- पशुपालकों को अनुवांशिक योग्यता के उच्च उत्पादन वाले स्वदेशी पशुओं को पालने के लिए प्रोत्साहित करना।
- अपेक्षित प्रभाव:
- ‘स्वस्थानी’ जननद्रव्य बैंक उपलब्ध हो जाएगा जहाँ से अन्य राज्य और संगठन अपने पशुधन को उन्नयन करने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले आनुवंशिक द्रव्य की मांग को पूरा कर सकते हैं।
- वीर्य उत्पादन केंद्रों के साथ-साथ प्राकृतिक प्रजनन के लिए प्रमाणिक गुणवत्ता वाले युवा सांड भी उपलब्ध होंगे।
वर्ष 2018-19 में पशुपालन एवं डेरी विभाग हरियाणा द्वारा प्रस्तावित योजना के अनुसार (DAHD 2018), प्रत्येक चिन्हित की गई हरियाना, साहीवाल एवं बेलाही गायों की दुग्धोत्पादन काल की उत्पादन की गणना उच्च उत्पादन के आधार पर की जाएगी। इसके बाद, दुग्धोत्पादन काल की उत्पादन के अधिक परिशुद्ध मूल्यांकन के लिए संचयी मासिक दुग्ध रिकॉर्डिंग को भी ध्यान में रखा जाएगा। वर्तमान दुग्धोत्पादन काल में एक ही गाय को दोबारा रिकॉर्ड करने की संभावना से बचने के लिए, रिकॉर्ड की गई गायों की प्रोत्साहन राशि उनके उच्च दुग्ध उत्पादन रिकॉर्डिंग के चार महीने बाद जारी किया जाएगा। चार महीने के दुग्ध रिकॉर्डिंग के बाद रिकॉर्ड की गई गायों के मालिकों को विभिन्न स्लैब के तहत निम्नलिखित दरों पर नकद प्रोत्साहन प्रदान किया जाएगा (DAHD 2018):
गाय की नस्ल |
उच्च दुग्ध उत्पादन की स्लैब |
प्रोत्साहन राशि (रूपये) |
हरियाना गाय | 8 से 10 किलोग्राम | 10,000/- |
>10 से 12 किलोग्राम | 15,000/- | |
12 किलोग्राम से ऊपर | 20,000/- | |
साहीवाल गाय | 10 से 12 किलोग्राम | 10,000/- |
>12 से 15 किलोग्राम | 15,000/- | |
15 किलोग्राम से ऊपर | 20,000/- | |
बेलाही गाय | 5 से 8 किलोग्राम | 5,000/- |
8 से 10 किलोग्राम | 10,000/- | |
10 किलोग्राम से ऊपर | 15,000/- |
हरियाणा राज्य में गौसंवर्धन योजना के क्रियायवन्न के बाद पशुपालकों में स्वदेशी नस्ल खासतौर पर हरियाना एवं साहीवाल की गायें पालने में रूचि बढ़ी है। इसी प्रकार शिवालिक तलहटी के खेत-खलिहानों में विचरण करने वाली बेलाही नस्ल के पशुपालकों को भी लाभ मिलने लगा है। भविष्य में आशा की जाती है कि हरियाणा राज्य देशी गौवंश के सरंक्षण एवं विकास और भविष्य में स्वदेशी जर्मप्लाज्म के संवर्धन में अग्रणी भूमिका निभायेगा।
संदर्भ
- Bhatia S. and Arora R., 2005, “Biodiversity and conservation of Indian sheep genetic resources-an overview,” Asian Australasian Journal of Animal Sciences; 18(10): 29-37. [Web Reference]
- Cunningham E.P. and Syrstad O., 1987, “Types and breeds of tropical and temperate cattle. Crossbreeding Bos indicus and Bos taurus for milk production in the Tropics,” FOA, Rome. Paper, 68. [Web Reference]
- DAHD, 2018, “Scheme for the conservation and development of indigenous cattle (Gausamvardhan) for the year 2018-19,” Department of Animal Husbandry and Dairying, Haryana. Assessed on August 12, 2018. [Web Reference]
- DAHDF, “Chapter 14: Haryana Livestock Population,” excerpted from 19th Livestock Census District Wise Report 2012, Vol II; Department of Animal Husbandry, Dairying & Fisheries, India. Assessed on August 12, 2018. p.: 2-47. [Web Reference]
- ENVIS, 2013-14, INDIGENOUS DOMESTIC BREEDS OF PUNJAB, Punjab ENVIS Centre, NEWSLETTER; 11(2): 1-32. [Web Reference]
- GOI, 2015, “BASIC ANIMAL HUSBANDRY & FISHERIES STATISTICS,” Government of India, Ministry of Agriculture & Farmers Welfare, Department of Animal Husbandry and Fisheries, Krishi Bhawan, New Delhi. [Web Reference]
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- Joshi B.K., Tantia M.S, Kumar P., Neelam G., Vij P.K., Nivsarkar A.E., Sahai R., 1995, “Hariana cattle: a monograph on breed characteristics. Hariana cattle: a monograph on breed characteristics,” NBAGR RESEARCH BULLETIN NO. 3. [Web Reference]
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- NDDB, 2019. Per capita availability of Milk by States/UTs. National Dairy Development Board. Assessed on August 01, 2020. [Web Reference]
- Ramesh K., Satbir S., Malik P.K. and Prakash B., 2009, “Improvement and conservation of Hariana cows under Gaushala managemental system,” Indian Journal of Animal Sciences; 79(7): 732-4. [Web Reference]
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