रक्तमूत्रमेह: पर्वतीय क्षेत्र के गौवंशीय पशुयों की एक गंभीर बीमारी

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भारत में पशुपालन फसलों के अवशेषों और कृषि उपोत्पादों पर निर्भर है। परंतु पहाड़ी क्षेत्रों में अथक परिश्रम के बावजूद भी इन पशुयों के लिए आहार जुटा पाना कठिन होता है। इसलिए प्राय: पशुपालक अपने पशुयों को चरने के लिए गाँव के आस-पास के चरागाहों और जंगलों में छोड़ देते हैं। ये पशु घास के साथ क्या खाते हैं क्या नहीं, इस बात का पता तब लगता है जब ये या तो किसी गंभीर रोग के शिकार हो जाते हैं या फिर किसी विषैले पौधे के खाने के कारण बीमार पड़ते या मर जाते हैं।  ऐसा ही कुछ देश के अधिकांश पर्वतीय क्षेत्रों में देशी, विदेशी एवं संकर नस्ल के गौजातीय पशुयों के साथ हो रहा है। ये पशु एक असंक्रामक, किन्तु चिरकारी रोग जिसे ‘रक्तमूत्रमेह’ या ‘हिमेचूरिया’ कहते हैं, का शिकार हो रहे हैं। यह रोग 4-5 वर्ष से अधिक की आयु वाले वयस्क और वृद्ध गौवंशीय पशुयों को होता है। वास्तव में यह मूत्राशय की चिरकारी रसौलीय/ कैंसरीय अवस्था है जिसमें मूत्र में रक्त आता है तथा अरक्तता व दुर्बलता के कारण पशु अनुत्पादक और अंतत: कालग्रस्त हो जाता है।

भारत में रोग का आघटन हिमालय तथा दक्षिण में नीलगिरि पर्वतीय क्षेत्रों में होता है। यह रोग हिमाचल प्रदेश के कुल्लू, शिमला, चंबा, मंडी, किन्नौर, हमीरपुर, कांगड़ा एवं सोलन जिलों के पशुयों में बहुतायत में होता है। प्राय: उन उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में जहां अत्यधिक सर्दी, मध्यम से अत्यधिक वर्षा व नमी होती है, यह रोग वहाँ ज़्यादा होता है। वैज्ञानिकों के अनुसार इस रोग का किसी विशेष प्रकार की मिट्टी से संबंध नहीं है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार भारतीय पर्वतीय क्षेत्रों की पोटाशियम, फॉस्फोरस युक्त अम्लीय भूमि, विविध वनस्पतियों, कवकों, विभिन्न फ़र्नों एवं ह्यूमस से ढकी रहती है। ये कारक भी इस रोग के जनन में सहायक हो सकते हैं। चरागाहों में मौलिबिडीनम की अधिक मात्रा भी इस रोग का कारण मानी जाती है, क्योंकि जब चरागाहों को जिप्सम द्वारा उपचारित करते हैं तो इस रोग के प्रसार में कमी पाई गई है।

रक्तमूत्रमेह: पर्वतीय क्षेत्र के गौवंशीय पशुयों की एक गंभीर बीमारी

इस रोग का प्रभाव प्राय: 4-5 वर्ष से अधिक आयु वाली गायों और बैलों में देखा गया है। वयस्क और वृद्ध पशुयों में यह रोग अधिक होता है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार संकर तथा विदेशी नस्ल के पशुयों में यह रोग अधिक होता है पर कुछ, स्थानीय पशुयों में इस रोग की भयावहता अधिक मानते हैं।

रोग का कारण

रोग होने का अभी तक कोई सर्वमान्य विशिष्ट कारण नहीं तय हो पाया है। इस पर अभी भी शोध कार्य जारी हैं। परंतु अधिकतर प्रमाण इस बात के मिलते हैं कि चिरकारी ब्रैकन फर्न विषाक्तता और गौवंशीय मस्सा विषाणु का संक्रमण ही इस रोग का प्रमुख कारण हैं। ब्रैकन फर्न उगने वाले क्षेत्रों में रोग का अधिक होना तथा प्रयोगों द्वारा हरी या सूखी फर्न के राइज़ोम, तना या पत्ती खिलाकर रोग उत्पन्न करना इस बात के प्रमाण हैं। लेकिन दूसरी ओर विदेशों में रोग उन समुद्र तटीय स्थानों पर भी देखा गया है, जहां यह फर्न नहीं पायी जाती है। गौवंशीय पशु चरते समय या हरे चारे के साथ फर्न की कुछ पत्तियां दूषण के रूप में लंबे समय तक खाते रहते हैं।  इससे कुछ पशुयों में अलाक्षणिक या लाक्षणिक रक्तमूत्रमेह रोग पैदा हो जाता है।  फर्न की पत्तियों में कैंसर जनक पदार्थों का भी पता लगाया गया है। विदेशों में इस फर्न की पत्तियों को खिलाकर हीमेचूरिया रोग तथा मूत्राशय का कैंसर उत्पन्न किया गया है, जैसा कि हीमेचूरिया के प्राकृतिक रोगी गौवंशीय पशुयों में मिलता है।  रक्तमूत्रमेह ग्रसित गायों के मूत्र में अधिक मात्रा में ट्रीप्टोफेन उपापचयक, विशेषकर हाईड्रोक्सिल-काइन्यूरेनीन पाया जाता है।  यह मूत्राशय के कैंसर का जनक माना जाता था। संभवत: किन्ही विशिष्ट आहारों के साथ ट्रीप्टोफेन का असामान्य चयापचय भी रोग जनन में सहायक होता है। ज्ञात हुया है कि फर्न की पत्ती की तुलना में इसका तना और जड़ें अधिक विषैले रोगजनक पदार्थ युक्त होती है। अत: इसके विषय में अधिक जानकारी पाना आवश्यक है।

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1. ब्रेकन फर्न

यह टेरेडियम  प्रजाति का पादप है जो कि समस्त विश्व के पाँच प्राचीनतम पादपों में एक है। यह सम्पूर्ण गोलार्ध में अत्यधिक मात्रा में पाया जाता है तथा भारत में 2000 मी. से ऊचे पर्वतीय क्षेत्रों में अत्यधिक मात्रा में उगता है। यह पौधा अत्यधिक ठंडे, गरम एवं नमी रहित स्थानों में नहीं मिलता। पहाड़ों में ठंडे, नमी वाले बाग-बगीचों, जंगल के किनारे, चरागाहों आदि में बहुतायत से पाया जाता है। चारागाहों में यह फर्न खूब फैलती है तथा इसका नियंत्रण बहुत कठिन होता है।

ब्रेकन फर्न पालतू प्रक्षेत्र पशुयों में कई रोग या लक्षण उत्पन्न करती है। यह उच्च किस्म की प्रजाति का एकमात्र ऐसा पादप है जोकि पशुयों में प्राकृतिक रूप से कैंसर उत्पन्न करता पाया गया है। रोमन्थी पशुयों में यह स्थानिक लहूगौत, लहूमूतिया, रक्तमूत्रमेह या हीमेचूरिया उत्पन्न करता है जोकि मूत्राशय शोथ/कैंसर रोग का प्रमुख लक्षण है। लगभग 2-3 वर्ष तक ब्रेकन फर्न के प्रभाव के पश्चात चिरकालीन क्षरण रोग हीमेचूरिया उत्पन्न होता है जिससे प्राय: पशु मर जाते हैं अथवा निस्तारित कर दिये जाते हैं।  कई क्षेत्रों में कृषक ऐसे रोगी पशुयों को वनों में मुक्त छोड़ देते हैं। उपर्युक्त रोग के अतिरिक्त ब्रेकन फर्न ऊपरी पाचन तंत्र यथा ग्रहणी, आहार नली एवं पूर्वउदरों (रयुमन, रेटीकुलम व ओमेज़म) में भी कैंसर पैदा कर सकती है।  इस किस्म की अवस्थाएँ केन्या, ब्राज़ील व स्कॉटलैंड जैसे देशों में देखी गई है। भारत में भी ऐसे रोगी पशु यदाकदा पाये गए हैं।

ब्रेकन फर्न का प्रमुख कैंसरजन्य विष ‘टिक्यूलोसाइड (पी.टी.) कहलाता है। इसके अतिरिक्त ब्रेकन फर्न में मौजूद कई यौगिकों व अम्लों के कैंसर जनक होने की संभावना व्यक्त की गई है।

2. गौवंशीय मस्सा विषाणु-2

यह विषाणु मूत्राशय कैंसर के लगभग आधे मामलों में प्रदर्शित किया गया है।

लक्षण

रोग कम एवं अधिक तीव्र प्रकार का हो सकता है

कम तीव्र प्रकार में गौवंशीय पशुयों को कुछ समय के अंतराल पर हल्का या निरंतर अलाक्षणिक रक्तमूत्रमेह उत्पन्न हो जाता है। रोगी पशु कमर को धनुषाकार कर तथा कभी-कभी बूंद-बूंद मूत्र टपकाते हैं। ये बहुत धीमी आवाज़ भी निकालते हैं।  इन पशुयों में अनेक महीनों के पश्चात सामान्य अवस्था में गिरावट तथा अरक्तता उत्पन्न हो जाती है।  रोग चक्रीय प्रवृति का होता है।  ऐसे पशु अनुत्पादक व खेती के कार्य में उपयोगी नहीं होते हैं। अंतत: ये कालग्रस्त हो जाते हैं।

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इसके विपरीत तीव्र प्रकार की रुग्णता में मूत्र में अधिक मात्रा में रक्त के थक्के आते हैं, जिसके फलस्वरूप तीव्र रक्त्स्त्रावीय अरक्तता उत्पन्न हो जाती है। अरक्तता के कारण पशु दुर्बल होकर बैठ जाते हैं तथा गर्दन मोड़ लेते हैं।  मूत्र में रक्त के थक्के आना पशु की मृत्यु का पूर्व संकेत होता है।

उपचार तथा नियंत्रण

रोग की चिकित्सा तथा नियंत्रण के लिए तीव्र प्रकार के रक्तमूत्रमेह में रोगी पशु को रक्त प्रसारक द्रव चढ़ाना आवश्यक होता है तथा चिरकारी रोगी पशु को रुधिरवर्धक मिश्रण दिया जाता है। मूत्रीय क्षार जैसे सोडियम फ़ास्फेट डाइबेसिक, हेक्सामिन तथा टोनोफास्फेन या टोनरोसिन द्वारा चिकित्सा से रोगी पशु में सुधार हो सकता है। संतुलित दाना व रक्तवर्धक औषधियाँ देना भी लाभप्रद होता है। द्वितीय प्रकार के संक्रमणों को नियंत्रित करने हेतु जीवाणुनाशक तथा प्रति हिस्टामिनिक औषधियाँ भी दी जाती हैं।  होम्योपैथिक औषधियाँ जैसे थुजा, इपेकाक, क्रोटेलस आदि भी लाभप्रद पाई गई हैं।  परंतु इन चिकित्सायों से अस्थाई लाभ होता है क्योंकि मूत्राशय की कैंसर व्याधि को घटाने के लिए कुछ नहीं किया जा सकता है।  मूत्राशय कैंसर का उपचार व्यवहारिक नहीं है तथा यह पशु की कीमत से कई गुना मंहगा हो सकता है। अत: उत्तम यही होता है कि ऐसे रोगी पशु को बाड़े से अलग कर दिया जाए।

पशुयों के पोषण में सुधार से रोगी पशुयों की संख्या घट सकती है। जिप्सम की 225-335 कि.ग्रा. मात्रा प्रति हैक्टेयर चरागाहों में उर्वरक के रूप में डालने से रोग में कमी आ सकती है। यदि रोगी पशु को पशुशाला या उस स्थान से वर्ष में दो माह तक हटा दिया जाए तो पशु का जीवन लंबा व रोग नियंत्रण संभव हो सकता है। पर्वतीय क्षेत्रों में नए पशु खरीदते समय मूत्र परीक्षण अवश्य करवाना चाहिए। ब्रेकन फर्न को चरागाहों से नष्ट करके रोग नियंत्रण कर सकना दुष्कर कार्य है।

रोग के प्रति जनजागरूकता की आवश्यकता  

अभी तक की अधिकांश शोध परियोजनायों द्वारा निष्कर्षित जानकारियां मौलिक शोध/शैक्षणिक महत्व की रही हैं। अत: रोग के नियंत्रण तथा चिकित्सा संबंधी खोज में विशेष प्रगति नहीं हो सकी है। अभी तक ऐसे आंकड़े भी उपलब्ध नहीं है कि प्रतिवर्ष रक्तमूत्रमेह रोग कितने गौवंशीय पशुयों को होता है? कितने गौवंशीय पशुयों की उत्पादन/कार्यक्षमता में कितनी गिरावट उत्पन्न होती है तथा कितने पशुयों की इस रोग से मृत्यु होती है? इस रोग से होने वाली आर्थिक हानियों के आंकड़े भी ज्ञात नहीं हैं। पशु चिकित्सा वैज्ञानिकों को इन विषयों तथा रोग चिकित्सा नियंत्रण पर और अधिक शोध करके इस समस्या का समग्र समाधान करने की आवश्यकता है। वहीं दूसरी ओर, कृषकों व पशुपालकों को इस रोग के विषय में नवीनतम वैज्ञानिक जानकारी देकर उन्हें जागरूक बनाने की आवश्यकता है। अधिकांश पर्वतीय कृषकों को यह बात भी ज्ञात नहीं है कि ब्रेकन फर्न से रक्तमूत्रमेह रोग उत्पन्न होता है। प्राय: महिलाएं पशुयों के खाने के लिए घास एकत्रित करते समय उसके ढ़ेर पर 2-4 फर्न की टहनियाँ अवश्य रखकर लाती हैं। सूखी फर्न को बिछाली के साथ डाला जाता है। चरागाहों, वनों एवं फलों के बाग-बगीचों के आस-पास सूखी कटी फर्न में गाय/बैल चरते समय मुंह मार ही लेते हैं। फर्न नियंत्रण कार्यक्रम भी प्रारम्भ करने की आवश्यकता है।

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निष्कर्ष स्वरूप हीमेचूरिया ब्रेकन तथा अन्य फर्नों के विषों तथा गौवंशीय मस्सा विषाणु-2 द्वारा होने वाला रोग है। इसके उत्पन्न होने में पर्वतीय जलवायु एवं पर्यावरण का भी योगदान है। पशुयों को फर्नों के विषाक्त प्रभाव से बचाना होगा तथा उत्तम पोषण द्वारा उनकी प्रतिरक्षा अच्छी रखनी होगी। साथ ही रोग बचाव/उपचार हेतु गौवंशीय मस्सा विषाणुयों के विरुद्ध टीके का विकास करना होगा। तभी हम अपने गौवंश को रक्तमूत्रमेह के इस भयावह रोग से मुक्त रख सकेंगे।

इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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