फसल अवशेष जलाना: मानवता और पर्यावरण के लिए खतरा

4.6
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भारत कृषि प्रधान देश है। लगभग 60 प्रतिशत जनसंख्या कृषि व कृषि आधारित व्यवसायों से आजीविका अर्जित करती है। कुल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान लगभग 15 प्रतिशत है। एक किलोग्राम अनाज पैदा होने के साथ ही लगभग एक किलोग्राम से भी ज्यादा फसल अवशेष भी पैदा होते हैं (Dawson and Boopathy 2007)। भारत में वर्ष 2008-09 के दौरान 680 मीट्रीक टन फसल अवशेष उत्पन्न हुये थे जिस में से लगभग 15.9 प्रतिशत अवशेषों को खेतों में ही जला दिया गया था (Jain, Bhatia and Pathak 2014)। कृषि अवशेषों को बायोमास भी कहा जाता है। बायोमास दहन में फसल अवशेषों के साथ-साथ जंगल व खेतों में सूखे खरपतवार भी सम्मिलित होते हैं। विश्वभर में लगभग 10 करोड़ मीट्रीक टन बायोमास प्रति वर्ष जला दिया जाता है (Crutzen and Andreae 1990)।

फसल अवशेष उत्पादन
अनाज वर्गीय फसलों जैसे कि धान एवं गेहूँ से सबसे ज्यादा फसल अवशेष उत्पन्न होते हैं। विभिन्न फसलों, किस्मों, कटाई की विधि एवं पर्यायवरण के आधार पर प्रति टन धान उत्पादन से 1.33 -1.55 टन अवशेष पराली एवं भूसी के रूप में उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार 1.4 – 1.5 एवं 1.75 – 1.80 टन अवशेष क्रमशः प्रति टन गेहूँ एवं मक्का उत्पादन से होते हैं (Devi et al. 2017)। इस प्रकार एक एकड़ धान की फसल से 2.5 – 4.75 मीट्रिक टन तक फसल अवशेष उत्पन्न होते हैं इस प्रकार एक एकड़ गेहूँ की फसल से 1.25 से 2.25 टन तक फसल अवशेष उत्पन्न होते हैं (अमित कुमार एवं मुकेश कुमार 2018)।

भारत में प्रतिवर्ष 500 – 550 मिलियन मीट्रिक टन फसल अवशेष उत्पन्न होते हैं, जिस में से लगभग 15.9 प्रतिशत अवशेषों को खेतों में ही जला दिये जाते हैं (Devi et al. 2017, Jain, Bhatia and Pathak 2014)। धान, गेहूँ व गन्ना से क्रमशः लगभग 23.72, 21.35 व 27.32 प्रतिशत फसल अवशेष उत्पादित होते हैं। सांख्यिकी मंत्रालय और कार्यक्रम कार्यान्वयन कार्यालय, भारत सरकार के 2014-15 के आंकलन के अनुसार भारत में सबसे ज्यादा फसल अवशेष उत्पन्न करने वाले राज्यों में उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पंजाब, कर्नाटक, राजस्थान, आन्ध्र प्रदेश (तेलंगाना सहित), हरियाणा, हैं जिनमें क्रमशः 109.2, 52.7, 45.0, 36.9, 36.6, 35.1, 32.1 एवं 25.4 मिलियन मीट्रिक टन फसल अवशेष प्रति वर्ष पैदा हुये (Devi et al. 2017)।

फसल अवशेषों में विद्यमान पोषक तत्व
फसल लेने के बाद देश में प्राप्त अवशेष प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। इन अवशेषों में पोषक तत्व भी काफी मात्रा में विद्यमान रहते हैं। यदि इन अवशेषों का समुचित प्रयोग किया जाए और वापिस जमीन में मिला दिया जाए तो भूमि की उर्वरा शक्ति में काफी हद तक इजाफा किया जा सकता है।

विभिन्न फसल अवशेषों में विद्यमान पोषक तत्वों की मात्रा (प्रतिशत)

फसल अवशेष नाइट्रोजन फास्फोरस पोटाश
गेहूँ का भूसा 0.53 0.10 1.10
धान का पुआल 0.36 0.10 1.70
जौं का भूसा 0.57 0.26 1.20
गन्ने की पत्तियां 0.35 0.10 0.60
गन्ने की खोई 2.25 1.12
राई (सरसों का तना) 0.57 0.2 1.40
आलू 0.52 0.09 1.85
मूंगफली का छिलका 0.70 0.48 1.40
मक्का की कड़बी 0.47 0.50 1.65
बाजरे की कडबी 0.65 0.7 1.50
मटर की सूखी पतियां 0.35 0.12 1.36
स्त्रोत: सूरजभान एवं अन्य 2013

फसल अवशेष क्यों जलाये जाते हैं
फसल अवशेषों को हर रोज जलाया जा रहा है लेकिन वर्ष में दो बार, रब एवं खरीफ की फसल कटाई के बाद यह मुख्य रूप से देखने को मिलता है। दिन हो या रात फसल कटाई के बाद, बचे हुए अवशेषों में आग लगाना सामान्य घटना है। ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि सभी किसान फसल अवशेषों को जलाने से होने वाले नुकसान से अनभिज्ञ हैं लेकिन अगली फसल की बिजाई से पूर्व इनको खेत से हटाना भी आवश्यक होता है ताकि वह अगली फसल की बिजाई समय पर कर सके। खेत इन अवशेषों को हटाना एक चुनौतिपूर्ण कार्य है लेकिन इनको जला कर किसान इस चुनौति को आसानी से दूर कर लेते हैं। यह भी विधित होना चाहिए कि कोई किसान भी फसल अवशेषों को अपने खेत या खेत से बाहर भी जलाना नहीं चाहते हैं लेकिन खेत को खाली करना भी किसानों की मजबूरी है।

हालांकि, किसानों को उचित फसल अवशेष प्रबंधन के माध्यम से, नहीं जलाने के लिए जागरूक किया जाता रहा है और बहुत से किसान फसल अवशेष ना जलाने से सहमत भी हैं। लेकिन फसल कटाई के बाद अवशेषों को खेत से बाहर करने के लिए उनको अतिरिक्त धन खर्च करना पड़ता है और समय पर कोई ठोस हल ना होने के कारण अंततः उनको फसल अवशेष जलाना ही पड़ता है।

फसल अवशेषों के जलाने के नुकसान
खेतों से फसल काटने के बाद गर्मी-सर्दी सभी मौसमों में आग की घटनाएं देखी जा सकती है। लेकिन ग्रीष्म काल में खेतों व जंगलों में आग लगने-लगाने की घटनाएं कुछ ज्यादा ही देखने को मिलती हैं। फसल अवशेषों को जलाने से भूमि के साथ-साथ आम जन-जीवन पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। फसल अवशेषों के जलाने के निम्नलिखित नुकसान हैं:

  1. वायुमंडलीय रसायन शास्त्र और जलवायु: बायोमास के रूप में फसल अवशेषों के जलने से घातक रासायनिक एवं विकिरणीय गैसें और एयरोसोल होते हैं जो वैश्विक वायुमण्डलीय रासायानिक घटकों में गड़बड़ी उत्पन्न करते हैं (Crutzen and Andreae 1990)। किसी भी प्रकार का बायोमास जलना, कार्बनयुक्त एयरोसोल उत्पत्ति का महत्त्वपूर्ण स्त्रोत है जो वायुमंडलीय रसायन शास्त्र, वायु गुणवत्ता, पारिस्थितिक तंत्र, और मानव स्वास्थ्य में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है (Kaskaoutis et al. 2014)। एयरोसोल सूचकांक अनुपात (Aerosol Index gradient) एवं नाइट्रोजन डाइऑक्ससाइड (Nitrogen dioxide) की सांद्रता मापने वाले उपकारण फसल अवशेष जलने से धुएं से उत्पन्न एयरोसोल के प्रभुत्व के संकेत को दर्शाते हैं। इन उपकारणों के उपयोग से पता चलता है कि धुएं से उत्पन्न एयरोसोल बहुत ही छोटे कणों में परिवर्तित होते हैं जो वातावरण ज्यादा जगह में फैल जाते हैं और वातावरण को प्रभावित करते हैं (Kaskaoutis et al. 2014)। बायोमास के जलने से कार्बन मोनोऑक्ससाइड एवं मिथेन गैसें हाइड्रोक्साइल रेडिकल के साथ प्रतिक्रिया करके वातावरण की ऑक्सीकरण क्षमता को प्रभवित करती हैं जिससे नाइट्रिक ऑक्ससाइड एवं हाइड्रोकार्बन के बनने से उष्णकटीबन्धिय क्षेत्रों में सूखे के समय ओजोन गैस की सघनता को बढ़ाते हैं (Crutzen and Andreae 1990)।
  2. घातक तत्वों का उत्सर्जन: फसल अवशेष/बायोमास जलाने से हानिकारक गैसों का वायुमंडल में उत्सर्जन होता है। इनमें सबसे अधिक उत्सर्जन होने वाली गैस कार्बनडाई आक्साईड है। एक टन बायोमास जलाने से 1460 किग्रा कार्बन डाइऑक्साइड, 60 कार्बन मोनोऑक्साइड, 70 मिथेन, 3.83 नाइट्रस ऑक्साइड, 2.0 सल्फर डाइ ऑॅक्साइड गैसें और 3.0 किग्रा धूलकण उत्सर्जित होते हैं (अमित कुमार एवं मुकेश कुमार 2018)।
  3. बादल सघनन नाभिकरण (Cloud condensation nuclei): बड़ी मात्रा में धुएं के कण भी उत्पादित होते हैं जो वायुमण्डल में मौजूद बादलों में संघनन नाभिक के रूप में काम करते हैं। ये कण इस प्रकार बादलों के सूक्ष्मपर्यायवरण एवं उनके प्रकाशीय गुणों को प्रभावित करते हैं जिससे उष्णकटीबंधीय क्षेत्रों में निर्धारित विकिरण लक्ष्य (Radiation budget) एवं जलविद्युक चक्र भी प्रभावित होता है (Crutzen and Andreae 1990)।
  4. वायु प्रदूषण (Air pollution): फसल अवशेष/ बायोमास के जलने से घना धुंआ निकलता है जो आसमान में बादलनुमा बनकर वायु प्रदूषण उत्पन्न करते हैं। अधिक मात्रा में बना बादलनुमा धुंआ आसमपास के दूसरे क्षेत्रों में फैलकर वायु प्रदूषण के स्तर को बढ़ा देता है जिससे उन राज्यों में भी इसके प्रतिकूल प्रभाव देखने को मिलते हैं। अवशेष जलाने की अधिक समस्या विशेषकर उन क्षेत्रों में अधिक है जहां धान और गेहूँ की फसल ली जाती है। कम्बाईन मशीन से फसल की कटाई करने के बाद फानों में आग लगा दी जाती है।
  5. वैश्विक तापमान वृद्धि: फसल अवशेषों/बायोमास को जलाया जाना एक वैश्विक समस्या है जिससे वातावरण को लगातार खतरा बढ़ता जा रहा है। इसके जलाने से वातावरण में ग्रीम हाउस गैसें (Green house gases) जैसे कि कार्बन-डाईऑक्साइड, कार्बन-मोनो-ऑक्साइड, मिथेन, नाईट्रस ऑक्साइड, फ्लोरीनेट्ड गैसें (हाइड्रोफ्लोराकार्बन, परफ्लोरोकार्बन, सल्फर हेक्जाफ्लोराइड एवं नाइट्रोजन ट्राइफ्लोराइड आदि) उत्पन्न होती हैं। इन गैसों में सबसे अधिक उत्सर्जन कार्बन डाईक्साईड का होता है। यह अकेली गैस भूमण्डलीय तापमान बढ़ाने में 63 प्रतिशत योगदान करती है। इन गैसों का भूमण्डलीय स्तर पिछले काफी वर्षों से लगातार बढ़ रहा है जिससे पिछले 100 वर्षों में धरती की सतह पर 74 सैल्सियस की बढ़ोतरी हुई है। संभावना है कि सन् 2100 तक इस तापमान में 1.8 से 4.0 सैल्सियस की वृद्धि हो जाएगी जो मानवता के लिए खतरनाक हो सकता है। पृथ्वी पर ग्रीन हाऊस गैसों के स्तर में बढ़ोतरी का आंकलन इस प्रकार है:
और देखें :  डा प्रेम कुमार द्वारा वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से सभी जिलों के पशुपालन पदाधिकारियों के साथ समीक्षा बैठक गई
गैस औद्योगिक क्रांति (सन् 1750) से पूर्व वर्तमान स्तर
कार्बनडाईक्साईड (पी.पी.एम) 280 384
मिथेन (पी.पी.बी.) 700 1745
नाईट्रस आक्साईड (पी.पी.बी.) 270 314
सी.एफ.सी-12 (पी.पी.टी.) 533

इन गैसों के लगातार बढ़ते उत्पादन से सूर्य की विकिरणों से हमें बचाने वाली ऑजोन परत को लगातार खतरा बढ़ता जा रहा है। ऑजोन परत को नुकसान होने से वैश्विक तापमान वृद्धि हो रही है जिस कारण वातावरण में बदलाव के कारण असमय ही मौसम में परिवर्तन से प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं। पिछले 134 वर्षों के आंकलन में जो 10 वर्ष सबसे गर्म रहे हैं उनमें से 9 वर्ष 21वीं शताब्दी के पहले 14 वर्षों में से हैं।

  1. बढ़ता सामुद्रिक जल स्तर: भूमण्डलीय तापमान के बढ़ने का एक अन्य खतरा यह है कि इससे पहाड़ों के ऊपर की बर्फ पिघलेगी जिस कारण समुद्र के पानी का स्तर भी ऊपर आएगा। पिछले 110 वर्षों (1901-2010) में समुद्र तल का स्तर 19 मीटर बढ़ा है और संभावना है कि इस शताब्दी के अन्त तक यह जल स्तर 28-43 सेंटीमीटर बढ़ जाएगा। ऐसा होने से भारत के तटीय क्षेत्र, बाग्लादेश, जापान आदि देशों का कुछ हिस्सा जलमग्न हो सकता है।
  2. पर्यावरण को क्षति: खेत में फसल कटाई के बाद बचे अवशेषों को जलाने से कार्बन डाई ऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, मिथेन, सल्फर डाइ ऑक्साइड आदि तहरीली गैसें एवं कार्बन इत्यादि के सूक्ष्म कण हवा में मिल जाते हैं, जिस से वायु प्रदूषण और भूमि का तापमान बढ़ता है। इसके कारण मौसम में बदलाव से वर्षा में कमी आ सकती है, जिससे फसल पैदावार में कमी हो जाएगी (यादव 2010)।
  3. फसल पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव: एक आंकलन में पाया गया है कि गेहूँ में फूल व दाने बनने के समय यदि 0 डिग्री सैल्सियस तापमान में वृद्धि होती है तो देश में गेहूँ की पैदावार 4.5 मिलियन टन तक कम हो सकती है। विश्व स्तर पर आंकलन किया गया है कि जलवायु परिवर्तन से फसलों की पैदावार में 16 प्रतिशत तक गिरावट आ सकती है। इस गिरावट का स्तर एशिया में 19 प्रतिशत, अफ्रीका में 28 प्रतिशत, अविकसित देशों में 26 प्रतिशत एवं विकसित देशों में 6 प्रतिशत तक हो सकता है।
  4. मृदा में उपस्थित पोषक तत्वों की कमी: अनाज वाली फसलें अपनी बढ़वार के दौरान भूमि से जो पोषक तत्व ग्रहण करती है उसका 25 प्रतिशत नाइट्रोजन एवं फास्फोरस, 50 प्रतिशत सल्फर और 75 प्रतिषत पोटाशियम फसल के अवशेषों जैसे कि भूसा, पुआल आदि में मौजूद होता है (यादव 2010)। फसल अवशेषों को जलाने के कारण मृदा में उपस्थित मुख्य पोषक तत्व कार्बन, नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश एवं अन्य तत्वों की उपलब्धता में कमी आती है। फसल अवशेषों के जलाने से उत्पन्न उष्मा से भूमि का तापमान 8 – 42.2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाता है जिससे कार्बन तत्व जलने के साथ-साथ 27 – 73 प्रतिशत नाइट्रोजन का नुकसान होता है (Hobbs and Morris 1996)। फसल अवशेष जलाने से 25 प्रतिशत फास्फोरस और 21 प्रतिशत पोटाशियम का नुकसान होता है। जलने के बाद केवल सिलिका ही बचता है जो आग में तपने के बाद अघुलनशील हो जाता है।
    फसल अवशेष जलाने से उनमें विद्यमान पौषक तत्व तो जलते ही हैं साथ ही भूमि में विद्यमान पौषक तत्व भी जलने के साथ-साथ नष्ट हो जाते हैं एवं भूमि की उर्वरा शक्ति का ह्रास होता है। एक टन गेहूँ एवं धान के अवशेष जलाने से उपलब्ध पोषक तत्वों के नुकसान का आंकलन इस प्रकार है (अमित कुमार एवं मुकेश कुमार 2018):
तत्व एक टन फसल अवशेष जलाने से पोषक तत्वों को नुकसान (किलोग्राम में)
गेहूँ धान
नाईट्रोजन 4.0 -5.0 5.0 – 8.0
फास्फोरस 0.7 – 0.9 0.7 – 1.2
पोटाश 9.0 – 11.0 12 – 17
सल्फर 1.3 0.5 – 1.0
कैल्शियम 1.8 3.0 – 4.0
मैग्निशियम 0.8 1.0 – 3.0

उपरोक्त तत्वों के अलावा अन्य पोषक तत्व भी आग भेंट चढ़ जाते हैं जिनका खामियाजा किसान के साथ-साथ आमजन को भी भुगतना पड़ता है।

  1. मृदा के भौतिक गुणों पर प्रभाव: फसल अवशेषों को जलाने के कारण मृदा तापमान में वृद्धि होती है। जिसके फसलस्वरूप मृदा की ऊपरी सतह सख्त हो जाती है एवं मृदा की सघनता में वृद्धि होती है जिससे आगे चलकर बंजर होने का खतरा बढ़ जाता है।
  2. बढ़ती पी.एच.: फसल अवशेषों के जलाने से मृदा में उपलब्ध तत्व जैसे कि फास्फोरस, पोटाश आदि अघुलनशील हो जाते हैं जिससे भूमि की पी.एच. बढ़ जाने से उसकी उर्वरा शक्ति का ह्रास होता है।
  3. मृदा श्वसन तन्त्र पर प्रतिकूल प्रभाव: फसल अवशेषों के जलाने से उत्पन्न उष्मा से भूमि का तापमान 8 – 42.2 डीग्री सेल्सियस तक बढ़ जाने से मृदा की ऊपरी सतह सख्त हो जाती है जिससे मृदा की श्वसन प्रक्रिया कम (Hobbs and Morris 1996) होने से उसकी उर्वरा शक्ति का ह्रास होता है।
  4. भू-जल पुनर्भरण: फसल अवशेष जलने से मृदा का तापमान बढ़ता है जिससे भूमि की जल स्थिरीकरण की शक्ति कम होती है व साथ ही भूमिगत केंचुए जो भूमि में गहराई तक अन्नत छेद करते है, भी मर जाते हैं जिससे भूमि की जल पुनर्भरण शक्ति कम होने से भूमिगत जल में कमी होती है (Wuest et al. 2005)।
  5. कीटों पर प्रतिकूल प्रभाव: खेत में ऐसे बहुत से कीट-पतंगे, प्राणी, जीवाणु, फफूंद होते हैं जो फसल के लिए बहुत उपयोगी होते हैं। यह सभी किसान के मित्र प्राणी कहे जाते हैं (यादव 2010)। खेतों में फसल अवशेषों के जलाने से खेत की 0 ईंच की गहराई तक पाए जाने वाले न केवल शत्रु जीव बल्कि मित्र सूक्ष्म जीव जैसे कि जीवाणु, कवक, केंचुए, शैवाल आदि भी नष्ट हो जाते हैं जिससे फसल उत्पादकता में बाधा उत्पन्न हो जाती है। यह भी देखने में आ रहा है कि फसल में शत्रु-मित्र कीटों के अनुपात के डगमगाने से शत्रु कीटों की संख्या में बढ़ौतरी होने के साथ-साथ उनमें कीटनाशक दवाईओं के प्रति प्रतिरोध भी बढ़ रहा है।
  6. भू-सूक्ष्म पर्यायवरण पर प्रतिकूल प्रभाव: भूमि में आवश्यक सूक्ष्मजीव होते हैं जो उसकी उर्वरा शक्ति को बनाए रखने में सहायक होते हैं। फसल अवशेषों को जलाने से खेत की मिट्टी का दहन होने से ये सूक्ष्मजीव नष्ट हो जाते हैं जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति का भी ह्रास होता है व उपज की पैदावार कम होती है। पैदावार बढ़ाने के लिए इन सूक्ष्मजीवों की भरपाई बाजार में उपलब्ध पूरक जीवाणुओं को खरीदकर खेत में डालने से ही पूरी की जाती है। अतः कहा जा सकता है कि खेतों में आग लगाने से फसल उत्पादन लागत बढ़ती है जिसको नियन्त्रित करने के लिए यह आवश्यक है कि फसल अवशेषों को न जलाया जाए।
  7. प्राकृतिक भू-जैव-रासायनिक चक्र (Biogeochemical cycles): फसल के लिए महत्त्वपूर्ण विभिन्न प्राकृतिक चक्र जैसे कि कार्बन चक्र, नाइट्रोजन चक्र, फास्फोरस चक्र आदि भूमि में मौजूद सूक्ष्म जीवों पर निर्भर होते हैं। व्यापक स्तर पर बायोमास जलाने से सूक्ष्म जीवों के नष्ट हो जाने के कारण इन प्राकृतिक चक्रों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है (अमित कुमार एवं मुकेश कुमार 2018)। बायोमास ईंधन के जलाने से लगभग 50 प्रतिशत नाइट्रोजन आण्विक नाइट्रोजन में परिवर्तित हो जाती है। विश्वभर में उष्णकटिबंधीय पारिस्थितिक तन्त्र में बायोमास के जलाने से प्रतिवर्ष लगभग एक लाख मीट्रिक टन नाइट्रोजन का नुकसान होता है (Crutzen and Andreae 1990)।
  8. कम होता खरपतवारनाशक दवाओं का असर: फसल अवशेषों को खेतों में जलाने से उत्पन्न राख खरपतवारनाशक दवाओं को सोख लेती है जिससे उनकी दक्षता कम हो जाती है एवं खरपतवारों का उचित नियन्त्रण न होने के कारण फसल उपज कम हो जाती है (अमित कुमार एवं मुकेश कुमार 2018)।
  9. आग का विकराल रूप: कई बार खेतों में लगाई गई आग शुष्क मौसम, तेज हवाओं व आसपास खड़ी तैयार फसलों में भी अचानक आग लगने के कारण कई बार विकराल रूप धारण कर लेती है जिससे कई बार अमूल्य संपति, पशुधन, फसल व मनुष्यों को भी जान-माल का नुकसान उठाना पड़ता है।
  10. मानवीय स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव: फसल फसल अवशेष जलाना एक गंभीर पर्यावरणीय स्वास्थ्य खतरा है। जलते हुए बायोमास से उत्पन्न धुएं के फेफड़ों में जाने से सांस लेने में परेशानी होती है। बच्चे वायु प्रदूषण के प्रति अधिक संवेदनशील हैं। फुफ्फुसीय क्रिया परीक्षणों (Pulmonary function tests) से पता चलता फसल अवशेषों के जलाने से उत्पन्न धुंए से बच्चों में अपर्याप्य प्रभाव होते हैं (Awasthi et al. 2010)। फसल अवशेषों के जलाने से उत्पन्न कणों का परिमाप 10 माइक्रोन से भी कम होता है, जो फेफड़ों में अधिक गहराई तक जाते हैं जिससे स्वास्थ्य पर गहरा प्रतिकूल प्रभाव होता है। इन कणों के शरीर में प्रवेशोपरान्त फेफड़ों एवं हृदय रोग जैसी घातक समस्याएं होती हैं। जलते हुए बायोमास से पैदा हुए धुएं से गले में जलन होती है जिससे स्वरयन्त्रशोथ (Laryngitis), ग्रसनीशोथ (Pharyngitis) एवं श्वसनीशोथ (Tracheitis) इत्यादि अस्थायी रोग हो जाते हैं। धुएं से नासिका में नासिका प्रदाह (Rhinitis) होने से नासिका से स्त्राव बहने लगता है। दमा एवं अस्थमा के रोगियों के लिए किसी भी प्रकार के बायोमास से उत्पन्न धुआं बहुत ज्यादा प्रतिकूल प्रभाव डालता है। आँखें में धुएं से नेत्रश्लेष्मलाशोथ (Conjunctivitis) होने से पानी आंसू बहने लगते हैं जिससे कुछ समय के लिए अस्थायी आन्ध्रता उत्पन्न हो जाती है। धुएं के त्वचा पर चिपकने से जलन (Dermatitis) होने लगती है।
  11. सड़क दुर्घटनाएं: सड़क किनारें खेतों में फसल अवशेषों के जलाने से उत्पन्न धुआं दृश्यता को कम करता है जिससे सड़क दुर्घटना होने की संभावानाएं बढ़ जाती हैं। तेज रफ्तार राष्ट्रीय राज मार्गों पर इसका सबसे ज्यादा प्रतिकूल प्रभाव हो सकता है। राज मार्ग पर धुएं के कारण कम हुई दृश्यता के कारण अचानक ब्रेक लगाने से गाड़ी की गति अचानक धीमी हो जाती है और उसके पीछे आ रहे तेज गति या सामने से आने वाले वाहन उससे टकरा सकते हैं और घातक सड़क दुर्घटना होने की संभावना हो जाती है।
  12. पशुओं के लिए चारे की कमी: विश्व के पशुओं की कुल का आबादी का 6 प्रतिशत भारत में ही है जो भारत के सकल घरेलु उत्पादन में 4.1 प्रतिशत की भागीदारी करता है (Islam et al. 2016, Dinani et al. 2018)। 2015 – 16 के आंकलन के अनुसार फसल का कुल 28.7 प्रतिशत सकल घरेलु उत्पादन है, इस कुल सकल घरेलु उत्पादन का 18.1 प्रतिशत पशुधन से अर्जित हुआ (Dinani et al. 2018)। भारत का भूगोलिक क्षेत्र 24 प्रतिशत है जबकि कुल चारा के अधीन क्षेत्र 4.8 प्रतिशत ही है। हरे चारे के साथ-साथ सूखा चारा पशुओं के आहार का मुख्य अंश है जो अकाल या चारे की कमी के समय सूखा चारा उनके भरण-पोषण में मुख्य भूमिका निभाता है। सूखा चारा एक पूरक आहार के रूप में उपयोग किया जाता है। सूखा चारा रेशे वाले तन्तुओं से भरपूर होता है जो पशुओं की पाचन शक्ति बनाए रखने के लिए आवश्यक होता है। फसल अवशेषों को पशुओं के लिए सूखे चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है अतः फसल अवशेषों को जलाने से पशुओं को चारे की कमी का सामना करना पड़ता है। सूखे चारे के रूप में आमतौर पर गेहँ की तूड़ी, धान की पराली, मक्का की कड़बी या अन्य फसलीय अवशेषों को प्रयोग में लाया जाता है।
  13. आर्थिक हानि: फसल अवशेषों के जलाने से विभिन्न प्रकार के नुकसान होने के साथ-साथ बहुत अधिक मात्रा में आर्थिक हानि भी होती है। अर्ध-शुष्क उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के लिए अंतर्राष्ट्रीय फसल अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद के अनुसार पंजाब में फसल अवशेषों के जलने से किसानों को प्रतिवर्ष लगभग 18 मिलियन अमरीकी डालर के बराबर यूरिया का एवं 30-35 मिलियन अमरीकी डालर के बराबर सभी पोषक तत्वों का नुकसान होता है (Kang 2018)।
और देखें :  बकरी पालन की जानकारी

अपनी खेती, स्वास्थ्य एवं पर्यायवरण के,
हम खुद ही क्यों बन रहे हैं दुश्मन।। 

फसल अवशेषों को जलाओ नहीं,
बल्कि इनसे कुछ तो कमाओ धन।। 

जला कर करो न पर्यायवरण को प्रदूषित,
करो इनका उपयोग भूमाता के श्रृंगार में।।

कुछ तो कर दो भूमि माता को ,
वापिस काष्ठाच्छादन के रूप में।।

आग लगाकर अपने खेतों में,
जो कचरा नहीं जलाते हैं।।

मित्र कीट प्रदूषण बचाकर,
वे चतुर किसान कहलाते हैं।।

संदर्भ

  1. Awasthi A., et al., 2010, “Effects of agriculture crop residue burning on children and young on PFTs in North West India,” Science of the total environment; 408(20): 4440-4445. [Web Reference]
  2. Crutzen P.J. and Andreae M.O., 1990, “Biomass burning in the tropics: Impact on atmospheric chemistry and biogeochemical cycles,” Science; 250(4988): 1669-1678. [Web Reference]
  3. Dawson L. and Boopathy R., 2007, “Use of post-harvest sugarcane residue for ethanol production,” Bioresource technology; 98(9): 1695-1699. [Web Reference]
  4. Devi S., et al., 2017, “Crop residue recycling for economic and environmental sustainability: The case of India,” Open Agriculture; 2(1): 486-494. [Web Reference]
  5. Dinani, O. P., et al., 2018, “ROLE OF LIVESTOCK IN DOUBLING THE FARMERS INCOME–NATIONAL PERSPECTIVE AND THE WAY FORWARD,” International Journal of Science, Environment and Technology; 7(2) : 496 – 504. [Web Reference]
  6. Hobbs P.R. and Morris M.L., 1996, “Meeting South Asia’s future food requirements from rice-wheat cropping systems: priority issues facing researchers in the post-Green Revolution era,” NRG Paper 96-01. Mexico, D.F.: CIMMYT. [Web Reference]
  7. Islam M.M., et al., 2016, “Scenario of livestock and poultry in india and their contribution to national economy,” International Journal of Science, Environment and Technology; 5(3): 956-65. [Web Reference]
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और देखें :  भैंस पालन के लिए पाँच मुख्य बातें

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