मादा पशुओं में बांझपन कारण एवं बचाव

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पशुओं में बच्चा ना पैदा होना या कम बच्चे पैदा होना ही बांझपन कहलाता है यानी प्रजनन शक्ति का ह्रास होना ही बांझपन कहलाता है। सामान्यत: प्रजनन अंगों में कोई बाधा या रूकावट होने से बांझपन की स्थिति पैदा हो जाती है। यह एक अकेली हमारी नहीं है बल्कि यह एक संयुक्त रोग है।  बांझपन के कारण दो बच्चों के बीच का अंतराल भी बढ़ जाता है। जिससे किसी भी डेरी फार्म में बहुत ही ज्यादा आर्थिक क्षति होती है। सामान्य रूप से दो बच्चों के बीच का अंतराल 12 से 13 माह होनी चाहिए जिससे कि ज्यादा से ज्यादा दूध का उत्पादन एवं अधिक से अधिक वछड़ों का उत्पादन हो सके।

 

यह देखा गया है कि बांझपन के रोग उत्पादक कारक मादा पशुओं में ही अधिकतर विद्यमान होते हैं।  बांझपन के कई कारण हैं यथा

  1. शरीर रचना में खराबी
  2. जननेंद्रिय रोग
  3. जननेंद्रिय नाली की चोट
  4. हार्मोनल असंतुलन
  5. वंशानुगत कारण
  6. कुपोषण
  7. दूषित वातावरण एवं कुप्रबंधन

अब इसकी चर्चा एक एक कर करेंगे

1. शरीर रचना की खराबी
ऐसी स्थिति सामान्यत: शरीर की रचना होने के समय ही होती है जिसका निदान शल्य क्रिया से की जा सकती है या तो इस कारण का निराकरण न होने से पशु को पशुशाला से स्थाई रूप से हटा दिया जाता है।

  • श्वेत ओसर रोग (White heifer disease)- इस रोग में वाछियों के जननेन्द्रियों के विकास में गड़बड़ी होती है एवं स्थाई हाईमेन (hyman) बन जाती है जिसे शल्य चिकित्सा के द्वारा दूर किया जा सकता है। निकट के पशु चिकित्सालय में इसकी इलाज कराई जा सकती है।
  • डिम्व कोषों का बहुत छोटा हो जाना।
  • गर्भाशय का विकसित ना होना।
  • एक हार्न का गर्भाशय।
  • अविकसित योनि।

उक्त रोगों का पशु शल्य चिकित्सा के द्वारा निदान में बहुत ही खर्च एवं कठिनाई है ऐसे पशुओं को डेयरी फार्म से हटा दिया जाना ही श्रेयस्कर है।

इसके अतिरिक्त जब नर-मादा एक साथ ही जन्म लेते हैं तब हार्मोन असंतुलन के कारण गर्भाशय में ही बछिया के जनन अंगों का भली प्रकार से विकास नहीं हो पाता है जिससे उन दोनों में बछिया बड़ी होने पर बांझ निकलती है। इस प्रकार की बछिया को फ्रीमार्टिन (freemartin) कहते हैं। इस प्रकार की बाछी को भी डेयरी फार्म से हटा देना ही उचित है।

2. जननेंद्रिय रोग (Genital disease):  इसे दो श्रेणी में बांटा गया है विशिष्ट एवं अविशिष्ट रोग

  • विशिष्ट रोग:  मादाओं में भैजानाईटिस, विब्रियोसिस, क्षय रोग, ब्रूसेलोसिस, ट्राइकोमोनियेसिस आदि विशिष्ट बीमारियां बांझपन के कारण बनती हैं। इन बीमारियों के परिणाम स्वरूप मादा जनन इंद्रियों में ऐसे विकार उत्पन्न हो जाते हैं जिसके कारण पशु गर्भित नहीं होती हैं या पूर्ण गर्भधारण की शक्ति का ह्रास हो जाता है और जिससे उनका गर्भपात हो जाता है। कभी-कभी मादा की योनि, गर्भाशय, डिंब प्रणाली तथा गर्भाशय ग्रीवा के अंदर झिल्ली पड़ जाती है जिससे रुकावट आकर मादा गर्भधारण करने में असमर्थ रहती है।
    विशिष्ट रोगों का उपचार विशिष्ट दवाओं से ही की जाती है अतः पशुपालकों को निकट के पशु चिकित्सालय से इन रोगों का इलाज करवाना चाहिए।
    ऐसे रोगों से बचने के लिए गायों को हीट (गर्मी) में आने पर कृत्रिम गर्भाधान का ही सहारा लेनी चाहिए।  कृत्रिम गर्भाधान कराने पर इन रोगों को फैलने का खतरा काफी कम हो जाता है। इन रोगों का संक्रमण प्रायः नर साढों से ही होता है।
  • अविशिष्ट रोगगो-पशुओं में  भैजानाइटिस, भल्भाईटिस, साल्पीनजाइटिस आदि अनेक ऐसे रोग हैं जिसे कारण गर्भाशय में निषेचन नहीं होता है या गाभिन होने के बाद भी गर्भपात होने की संभावना रहती है। इन रोगों का इलाज निकट के पशु चिकित्सक की सलाह पर ही की जा सकती है।
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3. जननेंद्रिय में चोट
मादा में पाल (संम्भोग) के समय या ब्याने (डिलीवरी) के समय जननेंद्रिय में चोट लगने से अस्थाई बांझपन उत्पन्न हो जाती है। साथ ही वल्भो- वेजाइनाइटिस, वेजाइनाइटिस, मेट्राइटिस एवं गर्भाशय का उलट जाना (prolapse of uterus) इत्यादि होने की भी संभावना रहती है। समय रहते पशु चिकित्सक की सलाह पर इसका उपचार कराया जाना आवश्यक है अन्यथा बच्चों की हानि हो सकती है।

इस तरह के चोटों से बचने के लिए गायों को पाल कृत्रिम गर्भाधान प्रणाली से ही प्रशिक्षित कर्मियों या पशु चिकित्सक से ही करानी चाहिए। प्राकृतिक गर्भाधान साढ़ों से पाल दिलाने में चोट एवं रोगों के फैलने की आशंका बनी रहती है।

4. हार्मोनल असंतुलन
शरीर में नलिका विहीन ग्रंथिओं से जो स्राव निकलता है एवं सीधा रक्त में जाता है उसे हारमोंस कहते हैं। एंटीरियर पिट्यूटरी द्वारा फॉलिकल स्टिम्युलेटिंग हॉरमोन, लुटेनाइजिंग हॉरमोन तथा प्रोलैक्टिन हार्मोन स्रावित होते हैं एवं पोस्टीरियर पिट्यूटरी द्वारा ऑक्सीटॉसिन और अंडाशय के द्वारा एस्ट्रोजन एवं प्रोजेस्ट्रोन हार्मोन का स्राव होता है। इन हार्मोंस के असंतुलन मात्रा में स्रावित होने पर जनन इंद्रियों में विकार उत्पन्न हो जाते हैं जिससे पशु बांझ हो जाते हैं एवं अनुत्पादक हो जाते हैं। हार्मोंस का असंतुलन अधिकतर मादा पशुओं में ही होता है। हार्मोंस पशुओं में ऋतु चक्र को भी व्यवस्थित रखते हैं। हार्मोन असंतुलन से मादा पशुओं में कई तरह के बांझपन रोग होते हैं जैसे निंफोमानिया, ओवेरियन सिस्ट, परसिस्टेंट कार्पस लुटियम इत्यादि।

निम्फोमेनिक पशु ज्यादातर समय गर्म रहती है एवं पाल देने पर भी गर्भधारण नहीं करती है। ऐसी परिस्थिति में लुटेनाइजिंग हार्मोन का स्राव नहीं होने पर होती है। ऐसे पशुओं को पशु चिकित्सक की सहायता से उपचार किया जा सकता है।

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ओवेरियन सिस्ट में मादा पशुओं के डिंब ग्रंथि में कई छोटे-छोटे शिष्ट एवं एक बड़ा शिष्ट होता है ऐसी परिस्थिति में पशु तो नियमित 21 दिनों के अंतराल पर गर्मी में आती है परंतु डिंब के ना टूटने के कारण निषेचित नहीं हो पाती है। इस रोग का इलाज पशु चिकित्सक के द्वारा सिस्ट तोड़कर या हार्मोंस के द्वारा किया जाता है। इस रोग में पशु चिकित्सक की सहायता अनिवार्य है।

परसिस्टेंट कॉर्पस लुटियम मादा पशुओं में बच्चा होने के बाद भी कभी-कभी उन्नत किस्म के माताओं में कार्पस लुटियम पूरी तरह से विलुप्त नहीं होता है एवं बना रहता है जिससे पशु पुनः कई माह तक गर्मी में नहीं आती है। इससे स्थाई बांझपन की समस्या हो जाती है। इससे दो बछड़ों का अंतराल काफी बढ़ जाता है। इसका उपचार पशु चिकित्सकों के द्वारा किया जा सकता है। इस तरह के कारको के निवारण पर पशुपालकों को नियमित ध्यान देने की आवश्यकता है।

5. बांझपन के वंशानुगत कारण
कुछ ऐसे घातक कारण हैं जो वंशानुगत होते हैं एवं जो भ्रूण को गर्भाशय में ही मार डालते हैं। जिससे पशु बांझ हो जाता है। इस तरह के कारक प्राय: एक ही नर से किसी क्षेत्र में बार-बार सभी पशुओं या ज्यादातर पशुओं को निषेचित कराने से होता है। इस तरह के प्रजनन को सम-प्रजनन (close breeding) कहां जाता है। अतः मादा पशुओं को पाल उन्नत किस्म के अलग-अलग साढों से कराया जाना चाहिए। इसके लिए कृत्रिम गर्भाधान की प्रक्रिया सबसे उपयोगी है।

6. कुपोषण (Malnutrition)
प्रजनन अंगों के विधिवत विकास एवं उनके कार्यों हेतु पौष्टिक आहार की आवश्यकता होती है। संतुलित आहार नहीं मिलने के कारण हमारे देश के 20 से 40% पशु प्रति वर्ष अस्थाई बांझपन के शिकार हो जाते हैं। आहार में पोषक तत्व जैसे प्रोटीन, विटामिन और खनिज पदार्थ की कमी से पशु बांझ हो जाते हैं। पशु आहार में विटामिन ‘ई’ एवं विटामिन ‘ए’ की कमी होने पर मादा की अंडाशय पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पाती है। जिससे वह गर्म ही नहीं होती है। कैल्शियम एवं फास्फोरस की कमी से उपजाऊपन समाप्त हो जाती है।

पौष्टिक आहार की कमी से पशुओं को अनेक रोग भी दबोच लेते हैं जिसके कारण पशु अधिक दुर्बल हो जाते हैं परिणाम स्वरूप मादा पशु गर्म नहीं हो पाती है एवं बांझ हो जाती है।

इस कमी को दूर करने के लिए पशुओं को पौष्टिक आहार देना चाहिए जिसमें प्रोटीन, विटामिंस और खनिज पदार्थ मिले हो। हरा चारा की प्रमुखता होनी चाहिए। हरा चारा में पर्याप्त मात्रा में विटामिन ए एवं कैल्शियम, फास्फोरस, आयरन इत्यादि होती है। हरा चारा नहीं मिलने की स्थिति में अतिरिक्त पूरक आहार, मिनरल पाउडर एवं अतिरिक्त विटामिन की खुराक पशु चिकित्सक की सलाह से देनी चाहिए पशुओं को 25 से 30 ग्राम नमक सुबह-शाम भी देनी चाहिए।

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इसके अतिरिक्त पशुओं को कृमि नाशक दवा की खुराक नियमित 3 माह के अंतराल पर देनी चाहिए ताकि कृमि इनके आहार की प्रक्रिया को नुकसान ना पहुंचाए।

यह भी देखने में आया है कि अधिक पौष्टिक आहार खिलाने एवं व्यायाम कम होने से पशु मोटे और अधिक चर्बी वाले हो जाते हैं। ऐसे पशु प्रायः बांझ हो जाते हैं इनके अंडाशय में चर्बी जमा होने से अंडाशय एवं फैलोपियन ट्यूब के कार्य में रुकावट आ जाती है। अतः पशुओं को नियमित व्यायाम एवं संतुलित आहार देना चाहिए।

7. दूषित वातावरण एवं कुप्रबंधन
यह हमेशा याद रखना चाहिए कि पर्याप्त तापक्रम, रोशनी और अच्छे प्रबंध का पशु प्रजनन पर काफी अच्छा प्रभाव पड़ता है। यदि पशु को गंदे, अंधेरे बिना रोशनदान की पशुशाला में रखा जाता है तो प्रजनन शक्ति प्रभावित होती है और स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है जिससे उनमें अनेक प्रकार के रोग भी पैदा हो जाते हैं।

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