मादा पशुओं में प्रसव के पहले होने वाले रोग एवं उससे बचाव

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मादा पशुओं में गर्भकाल के बाद बच्चों को जन्म देना प्रसव कहलाता है। प्रसव के समय मादा पशु का स्वास्थ्य सामान्य होना चाहिए तथा पशु को अधिक मोटा एवं दुर्बल नही होना चाहिए। प्रसव से 2-3 सप्ताह पूर्व पशु को अलग आरामदाक होता है। मादा पशु में प्रसव के प्रथम लक्षण दिखाई देने से बच्चे के जन्म तक मादा पशु की अत्यन्त देख रेख आवश्यक होती है क्योंकि प्रसव काल जीवन का सबसे खतरनाक समय होता है तथा थोडी सी असावधानी मादा पशु तथा बच्चे दोनो के लिए नुकसानदायक हो सकता है। मादा पशुओं मे प्रसव की तीन प्रमुख अवस्थायें होती है-

  1. प्रथम अवस्था: ग्रीवा का पूर्ण रुप से खुलना
  2. द्वितीय अवस्था: भ्रूण का बाहर निकला
  3. तृतीय अवस्था: अपरा का बाहर निकलना तथा गर्भाशय का प्रत्यावर्तन होना

मादा पशुओं में प्रसव के पहले एवं प्रसव के बाद कुछ घातक रोग हो जाते है जिसका समय पर उपचार नहीं करने पर मादा पशु की मृत्य भी हो सकती है मादा पशुओं में प्रसव के पहले तथा बाद में होने वाले रोग निम्नलिखित है-

मादा पशुओं में प्रसव के पहले होने वाले रोग

  1. गर्भपात
  2. प्रसव अवरोध
  3. योनि का बाहर आना

1. गर्भपात

पशुओं में गर्भावस्था के पूर्ण होने से पहले, जीवित अथवा मृत भ्रूण का मादा शरीर से बाहर निकलना गर्भपात कहलाता है। मादा पशुओ में गर्भपात के तीन प्रमुख कारण होते है:

  1. मादा पशुओं को गर्भावस्था के समय लगने वाली चोट या किसी प्रकार का आघात।
  2. पशुओं में होने वाले जीवाणु, विषाणु या परजीवी का संक्रमण।
  3. गर्भावस्था के समय हारमोन का असन्तुलन।

लक्षण

गर्भपात होने की दशा में पशु बेचैन होते हैं तथा ब्याने जैसे लक्षण प्रदर्शित करते हैं। प्रभावित पशु की योनि से तरल पदार्थ निकलने लगता है जो कि दुर्गन्धयुक्त तथा रक्त मिला हुआ हो सकता है। कभी-कभी पीव मिश्रित भी हो सकता है अल्प विकिसित भ्रूण जीवित या मृत्यु की अवस्था में बाहर आ जाता है। सामान्यत जेर अन्दर ही रूक जाती है।

उपचार

  1. मादा पशुओं में गर्भपात होने के बाद यदि जेर अन्दर रह गयी हो उसे बाहर निकलना चाहिए इसके बाद एंटीसेप्टिक औशधियों के घोल से जैसे- सेवलान, बीटाडीन या पोटैशियम परमैगनेट से गर्भाशय की अच्छी तरह से धुलाई करनी चाहिए।
  2. मादा पशुओं के गर्भाशय मे जीवाणुनाशक टिकिया या बोलस जैसे फ्यूरिया, स्टेक्लीन या टेरामाइसीन या आब्लेट-यूरोवेल्क्स डालना चाहिए तथा साथ ही साथ ऐन्टीबायोटिक जैसे डाइक्रिस्टीसीन, ऐम्पीसेलीन, क्लोक्सासीलीन, सेफट्राइक्जोन इत्यादि मे से किसी एक का पूरा कोर्स करना चाहिए।
  3. गर्भपात होने के बाद गर्भाशय में रुके हुऐ पदार्थों को बाहर निकालने के लिए तथा कभी-कभी गर्भपात कराने के लिए प्रोसालवीन या पी0जी0एफ0टू अल्फा की सूई मांस मे लगाना लाभदायक होता है आवश्कता  पड़ने पर 10-12 दिन में दुबारा सूई लगाई जा सकती है।
  4. एक बार गर्भपात हो जाने के बाद बार-बार गर्भपात की समस्या बनी रहती है अतः उचित उपचार के साथ-साथ गर्भपात की रोकथाम के लिए गर्भाधान के बाद से दो महीने तक लेप्टाडीन की 10 गोली रोज दिन मे दो बार देने से लाभ होता है।
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2. प्रसव अवरोध

मादा पशुओं में प्रसव के समय भ्रूण के बाहर निकलने मे अवरोध उत्पन्न हो जाता है। मादा पशु के द्वारा उत्याधिक जोर लगाने पर भी भ्रूण बाहर नही निकलता है। इस अवस्था में भ्रूण के सिर, पैर या शरीर का कुछ भाग कभी-कभी दिखाई पड़ता है।  मादा पशुओं में होने वाले प्रसव अवरोध दो प्रकार के होते हैं।

  1. मातृ-आगत प्रसवरोध
  2. भ्रूण-प्रसवरोध

मातृ-आगत प्रसवरोध: इस प्रकार के प्रसवरोध मादा पशु के गर्भाशय इत्यादि में उत्पन्न होने वाली बाधाओं के कारण होता है जो कि निम्न है:

  • हारमोन के असन्तुलन या कमी के कारण गर्भाशय की मांसपेशियों के संकुचन में कमी आ जाती है।
  • मादा पशुओं में खनिज तत्व या कैल्शियम की कमी के कारण गर्भाशय में शिथिलता आ जाती है। अधिक उम्र के मादा पशु में यह लक्षण अधिक पाया जाता है।
  • गर्भाशय का घूम जाना मातृ-आगत प्रसवरोध का कारण बनता है।

संरचनात्मक विकृतियाँ: संरचानात्मक विकृतियाँ जो कि मातृ-आगत प्रसवरोध का कारण बनती हैं, जो कि निम्न हैं:

  • गर्भाशय की ग्रीवा में कड़ापन आ जाता है जिसके फैलने में अवरोध उत्पन्न होता है
  • वस्ती-अस्थियों की बनावट में विकृति के आ जाने पर प्रसवरोध का कारण बनता है। कभी-कभी गर्भाशय योनि मार्ग में आ जाता है जो कि अवरोध का कारण बनता है ।

लक्षण: इससे प्रभवित मादा पशु अत्याधिक बेचैन रहती है। प्रसव के लिए बार बार जोर लगाती है तथा बार बार उठती बैठती रहती है। परन्तु बच्चा देने मे असमर्थ रहती है ।

निदान: मातृ-आगत प्रसवरोध का सही कारण जानने के लिए हाथ को अच्छी तरह साफ करके कीटाणुरहित कर लेना चाहिए। इसके बाद हाथ को चिकना कर योनि तथा गर्भाशय में डालकर सही स्थिति का पता लगाना चाहिए।

उपचार: इस अवस्था में प्रभावित मादा पशु के सही कारण के अनुसार उपचार करना चाहिए। हारमोन्स की कमी के कारण उपजी शिथिलता को दूर करने के लिए एपीडोसिन की 10-12 मिलीलीटर मात्रा देनें से लाभ मिलता है ।

संरचानात्मक विकृतियों द्वारा उत्पन्न अवरोधो में चिकनाई तथा ब्यानें के लिए रस्सी आदि का उपयोग कर प्रसव में सहयोग करने से लाभ मिलता है यदि मूत्राशय भरा हुआ है तो उसे कैनुला से खाली कर अवरोध को दूर किया जा सकता है प्रसव के बाद पशु अत्याधिक थक जाता है इस अवस्था में उसे कैल्शियम मेंग्निशियम बोरोग्लूकोनेट तथा डेक्स्ट्रोज देना लाभदायक रहता है।

भ्रूण-प्रसव अवरोध: मादा पशुओं में यह दो प्रकार से होता है:

  • भ्रूण को मादा पशु के जननेन्द्रीय मार्ग के अनुपात से अधिक बड़ा हो जाना।
  • भ्रूण को गर्भाशय में असामान्य स्थिति में पाया जाना ।

कारण: छोटी जाति के मादा पशु को बड़ी जाति के नर पशु से गाभिन करानें से छोटी उम्र में मादा पशु से बच्चे लेने से, कभी-कभी भ्रूण के गर्भाशय मे मर जाने के कारण भ्रूण मादा पशु के जननेन्द्रीय मार्ग से अधिक बड़ा हो जाता है। कभी-कभी जुड़वा बच्चे भी इस अवस्था का कारण बनते हैं।

भ्रूण गर्भाशय मे असामान्य स्थिति मे कुछ प्रमुख कारणों से पाया जाता है: गर्भाशय मे भ्रूण का असामान्य आसन भ्रूण के किसी भी हिलने डुलने या मुड़ने वाले अंग के अपने स्थान से हटने के कारण होती है जैसे सिर का एक तरफ मुड़ जाना, अगले एक अथवा दोनो पैरों का पीछे की तरफ मुड़ जाना, पिछले पैरों का घुटने पर मुड़ जाना, तथा सिर और गर्दन का अगले पैरों के बीच में आ जाना इत्यादि।

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भ्रूण की प्रस्तुति: सामान्य रुप में प्रसव के समय भ्रूण का मुख तथा अगली टाॅंगे मांदा पशु के योनि की तरफ रहती है इसे अग्र प्रस्तुति के नाम से जाना जाता है। इस स्थिति में भ्रूण बिना किसी सहयता के बाहर आ जाता है। इसके अतिरिक्त अन्य स्थितियों में भ्रूण असामान्य स्थिति में योनि के सामने आता है जिसके कारण उसे निकालने के लिए सहायता की आवश्यकता होती है। मादा पशु के शरीर में पायी जाने वाली भ्रूण की असामान्य स्थिति निम्नवत् है:

  • पश्च भ्रूण स्थिति- इस अवस्था में भ्रूण का मुख मादा पशु के मुख की तरफ होता है।
  • खड़ी भ्रूण स्थिति- इस स्थिति में भ्रूण गर्भ की अन्त रेखा पर लम्बवत् स्थित होता है।
  • अनुप्रस्थ पृष्ठ भ्रूण स्थिति- इसमें भ्रूण की पीठ मादा पशु के योनि मुख के सामने होती है।
  • अनुप्रस्थ उदर भ्रूण स्थिति- इस स्थिति में भ्रूण का उदर योनि के सामने होता है।

उपचार: सबसे पहले हाथ को अच्छी तरह से साफ कर लेना चाहिए इसके बाद हाथ को चिकना कर योनि मार्ग से गर्भाशय में डालकर, भ्रूण की सही स्थिति तथा उसकी प्रस्तुति का अनुमान लगाना चाहिए। भ्रूण के असामान्य स्थिति मे पाये जाने पर मादा पशु को 2 प्रतिशत जाइलोकेन का एपीडुयुरल ऐनेस्थीसिया की सूई लगानी चाहिए। जिससे मादा पशु जोर लगाना बन्द कर देती है। इसके बाद हाथ, रस्सी, तथा हुक की सहायता से भ्रूण को अग्र प्रस्तुति में लाकर बाहर खींचकर निकाला जा सकता हैं। मरे हुए भ्रूण को भ्रूण कटर चाकू द्वारा गर्भाशय में काट-काट कर निकाला जा सकता है। अधिक कठिनाई वाले केसों में जहाॅं पर भ्रूण के बाहरनिकालने के सारे प्रयास विफल हो जाये वहाॅं शल्य चिकित्सा विधि अपना कर भ्रूण को बाहर निकाला जा सकता है।

3. योनि का बाहर आना

मादा पशुओं में गर्भकाल के सातवें से नौवें महीने में प्रायः योनि का कुछ भाग उलटकर बाहर आ जाता है। कभी-कभी मादा पशु के अत्यधिक जोर लगाने के कारण प्रसव के बाद भी यह स्थिति दिखाई पड़ती है।
कारण- इसके प्रमुख कारण निम्न हैं:

  • गर्भकाल में मादा पशु का अत्यधिक दुर्बल होना।
  • मादा पशुओं में कैल्षियम की कमी।
  • उदर का अत्यधिक भरा होना।
  • योनि के लिगामेन्टस के कमजोर हो जाने के कारण तथा।
  • गर्भावस्था में पीछे की ओर अधिक ढालू तथा फर्श का नीचा होना।

अगर यह स्थिति प्रसव के बाद पायी जाती है तो इसका कारण जेर का अधिक देर तक रुकना, योनि मेे प्रसव के समय जख्म का होना तथा गर्भाशय में होने वाला अनियमित संकुचन है।

उपचार: सर्वप्रथम मादा पशु में 2 प्रतिशत जाइलोकेन का ऐपीडयरल ऐनेस्थीसिया का इन्जेक्षन लागाना चाहिए। इसके बाद बाहर निकले हुए भाग को जीवाणुनाषक घोल से साफ कर उस पर एन्टीसेप्टीक लोाशन अथवा मरहम लगाना चाहिए। इसके बाद हाथ से धीरे-धीरे ढकेल कर बन्द मुट्ठी की सहायता से उसे अन्दर बैठा देना चाहिए। प्रभावित मादा पशु को दर्द निवारक तथा एन्टीबायोटिक का पूरा कोर्स देना चाहिए। मादा पशु के अत्याधिक जोर लगाने पर सिक्विील की 3-5 मिलीलीटर मात्रा मांस मे देना लाभदायक होता है। प्रभावित मादा पशु को कैल्सियम बोरोग्लूकोनेट तथा डेक्सट्रोज शिरा में चढ़ाना लाभदायक होता है।

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बचाव: प्रसव से पूर्व गर्भावस्था में इसकी रोकथाम की जा सकती है। योनि में किसी प्रकार की चोट अथवा खरोच लगने पर उसे कीटाणुनाशक घोल से साफकर मलहम लगाना चाहिए। पशु के बैठने के स्थान को पीछे की तरफ कुछ ऊॅचा तथा आगे की तरफ कुछ नीचा रखना चाहिए। प्रभावित पशु को थोड़ा-थोड़ा चारा कई बार में खिलाना चाहिए जिससे पशु का पेट गर्भ पर दबाव न डाले।

इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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