पशु रोगों के घरेलु उपचार

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जब भी कभी पशुओं को थनैला रोग, बुखार, दर्द अथवा सूजन इत्यादि हो जाती है तो उनको एंटीबायोटिक, ज्वरनाशी, दर्दनिवारक और सूजनहारी दवाएं दी जाती हैं। यदि यही औषधीयाँ दुधारू, अण्डा मांस उत्पादन करने वाले पशुओं को दी जाती हैं तो इन औषधियों के अंश इन खाद्य पदार्थों में भी आते हैं। इन औषधियों के अवशेष मानवीय श्रृंखला में प्रवेश कर इसको दूषित करते हैं जिससे जनस्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ता ही है लेकिन इससे पर्यायवरण को भी खतरा उत्पन्न होता है।

रोगाणुरोधी औषधीयाँ

जनस्वास्थ्य की दृष्टि से रोगाणुरोधी दवाओं (एंटिबायोटिक्स) का उपयोग बहुत महत्तवपूर्ण है। थनैला रोग से ग्रसित दुधारू पशु को एंटिबायोटिक्स दी जाती हैं जो दूध के माध्यम से मानवीय शरीर में प्रवेश कर उसमें इनके प्रति प्रतिरोध उत्पन्न करती हैं अर्थात एक एंटिबायोटिक विशेष एक व्यक्ति विशेष में बेअसर हो जाती हैं। इसे रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एंटिबायोटिक्स रेजिस्टेंस) कहा जाता है।

विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 27 लाख बच्चे जन्म के पहले महीने में ही मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं जिन में से 4,21,000 बच्चे रोगाणुओं के संक्रमण के कारण ही दम तोड़ देते हैं। भारत में लगभग 10 लाख बच्चे जन्म के पहले माह में ही प्रतिवर्ष अकाल ही मर जाते हैं जिन में से 1,90,000 बच्चे केवल रोगाणुओं के संक्रमण के कारण ही दम तोड़ देते हैं और इनमें से 58319 बच्चे रोगाणुरोधी दवाओं के प्रतिरोध के कारण प्रतिवर्ष मर जाते हैं। इसका सीधा अर्थ है कि भारत में लगभग 30 प्रतिशत बच्चों की मृत्यु केवल रोगाणुरोधी दवाओं के बेअसर होने से ही होती हैं। विश्व में मातृत्व प्राप्त महिलाओं में प्रतिवर्ष होने वाली कुल मौतों में से लगभग 11 प्रतिशत मौतें केवल रोगाणु संक्रमण के कारण ही होती हैं। यदि कहा जाए कि बढ़ता संक्रमण एवं रोगाणुरोधी प्रतिरोध भविष्य के लिए एक मण्डराने वाला घातक खतरा है, इसमें कोई भी अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए।

रोगाणुरोधी प्रतिरोध तब होता है, जब रोगाणुओं में परिवर्तन हो जाता है और वे रोगाणुरोधी दवा के प्रतिरोधी बन जाते हैं। जो दवाएं प्रभावी रूप से पहले काम करती थीं लेकिन वे अब कम काम करती हैं या बेकार हो चुकी हैं। यह मानव स्वास्थ्य क्षेत्र में और पशु चिकित्सा स्वास्थ्य के लिए एक समस्या है। अत: इसमें विकास, लोगों की आजीविका और खाद्य सुरक्षा के व्यापक प्रभाव निहित हैं। जब रोगाणुरोधी दवाओं का दुरुपयोग या अति प्रयोग होता है तो उनका प्रभाव कम या बेअसर होने लगता है।

दूध, सबसे लोकप्रिय प्राकृतिक स्वास्थ्यर्द्धक आहार है, जिसका सेवन विश्व स्तर पर हर आयु वर्ग के मनुष्यों द्वारा किया जाता है। जब भी दुधारू पशु को लेवटी के रोग होते हैं तो उनको आमतौर पर रोगाणुनाशक औषधीयाँ दी जाती हैं। 2012 में, रोगाणुरोधी औषधियों की औसत खपत मनुष्यों एवं पशुओं में क्रमशः 116.4 और 144.0 मि.ग्रा. प्रति किलोग्राम अनुमानित थी जिसमें 2030 तक 67 प्रतिशत की बढ़ोतरी होने की संभावना है। खाद्य पशु उत्पादों (दूध एवं चिकन माँस) में रोगाणुरोधी औषधियों के अवशेषों की मौजूदगी व्यापक रोगाणुरोधी औषधियों के उपयोग की ओर संकेत देती है।

एंटीबायोटिक दवाओं का अति प्रयोग और दुरुपयोग एंटीबायोटिक प्रतिरोधी जीवाणुओं के विकास को बढ़ावा देता है। जब भी किसी व्यक्ति या पशु को एंटीबायोटिक्स दी जाती हैं, संवेदनशील जीवाणु तो मारे जाते हैं, लेकिन प्रतिरोधी जीवाणु गुणात्मक रूप से बढ़ते रहते हैं। इस तरह से एंटीबायोटिक दवाओं के बार बार उपयोग से औषधी प्रतिरोधी जीवाणुओं की संख्या बढ़ती है।

शोथहारी, पीड़ाहारी एवं ज्वरनाशक औषधीयाँ

जब भी हमें दर्द, ज्वर या सूजन (शोथ) होती है तो इनको हरने के लिए औषधी लेने में तनिक भी देरी नहीं करते हैं। इसी प्रकार जब भी पशु को रोग चाहे जो भी, लेकिन इन औषधियों का उपयोग धड़ल्ले से किया जाता है। पशु के मरणोपरान्त जब गिद्ध इनका भक्षण करते हैं तो उनकी जान को खतरा बढ़ जाता है। आज हालात यह हैं कि गिद्धों की संख्या में इतनी कमी आयी है कि उनको देख पाना भी मुश्किल हो रहा है। इतना ही नहीं अन्य पक्षी जैसे कि चिड़ियां जो घर आंगन में चहचहाती थीं, लगभग विलुप्तप्रायः हो चुकी हैं। आधुनिक दौर में उपयोग किये जाने वाले रसायनों के अत्याधिक उपयोग के कारण हर जीव को खतरा उत्पन्न हो चुका है जिसका सबसे ज्यादा कुप्रभाव हमारे पर्यायवरण में विचरण करने वाले गिद्धों पर पड़ा है और अंतः उनकी आबादी लगभग विलुप्ती के कगार पर है।

गिद्ध ऐसा पक्षी होता है जो मृत पशुओं के माँस का भक्षण करके पर्यायवरण को स्वच्छ रखने में मदद करता है और बाकि जो बचता है तो केवल उस पशु की अस्थियां ही बचती हैं जिनको आसानी से सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया जाता है। आज गिद्धों की संख्या में अत्याधिक कमी के कारण मृत पशुओं के शरीर ऐसे ही पड़े रहते हैं जो पर्यायवरण के लिए खतरे की ओर इशारा करते हैं। अतः यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए कि गिद्ध प्राकृतिक रूप से पर्यायवरण के सफाई कर्मी हैं जिनके अभाव में सफाई का अभाव भी निहित है।

गिद्धों की संख्या में कमी का सबसे बड़ा कारण पालतु पशुओं के बीमार होने पर उनको दी जाने वाली दर्द, ज्वर या सूजन को हरने वाली औषधयां हैं। इन औषधियों में सबसे ऊपर डिक्लोफेनाक का नाम आता है। डिक्लोफेनाक एक ऐसी औषधी है जिसका उपयोग सूजन को दूर करने के साथ-साथ बुखार, दर्द आदि को ठीक करने के लिए उपयोग किया जाता रहा है। प्रतिबंधित होने के बाद भी इस औषधी का उपयोग आज तक भी किया जा रहा है। 1990 के दशक में इस औषधी का उपयोग एक रोगी पशु में एक ही दिन में प्रस्तावित मात्रा से कई गुणा ज्यादा मात्रा का उपयोग किया गया जिसके अवशेष मृत पशुओं में होने के कारण गिद्धों की संख्या पर बुरा असर पड़ा है। विश्व में अनेकों शोध यह बता चुके हैं कि यह औषधी पर्यायवरण के लिए बहुत ही घातक है फिर भी आज तक इसका उपयोग धड़ल्ले के किया जाता रहा है। डिक्लोफेनाक औषधी पक्षियों खासतौर से गिद्धों के लिए हानिकारक है जिसके पशुओं में उपयोग के कारण लगभग 99 प्रतिशत गिद्धों की संख्या में कमी आयी है।

डिक्लोफेनाक के अलावा अन्य दर्दनिवारक, सूजनहारी एवं ज्वरनाशी औषधीयाँ जैसे कि एसीक्लोफेनिक, मेलोक्सिीकेम, केटोप्रोफेन, निमेसुलाइड एवं फ्लुनिक्सिन इत्यादि के दुष्प्रभाव भी गिद्धों में जानलेवा साबित हो चुके हैं। इन सभी औषधियों के कारण गिद्धों के महत्वपूर्ण अंगों में खराबी आ जाने से उनकी मृत्यु निश्चित हो जाती है। अतः समय की आवश्यकता एवं भविष्य के खतरे का आंकलन करते हुए आधुनिक चिकित्सा में प्रयोग की जाने वाली औषधियों को विवेकपूर्वक इस्तेमाल करें और जहाँ तक संभव हो सके तो इन औषधियों का उपयोग कुशल चिकित्सक की देखरेख में ही करने में भलाई है।

अतः आज विश्वभर में जैव विविधता को बचाए रखने के लिए जितना जोर दिया रहा है उतना ही बल इन घातक औषधियों के ज्ञानपूर्वक उपयोग करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही यदि घर या आस पड़ोस में उपलब्ध घरेलु औषधियों का उपयोग किया जाता है तो इस समस्या से निपटा जा सकता है। हमें यह भी विधित होना चाहिए कि आधुनिक औषधी विज्ञान में उपयोग की जाने वाली लगभग 80 प्रतिशत से भी औषधीयाँ वनस्पतियों से प्राप्त की जाती हैं। अतः यह संभव सी बात है कि एथनोवेटरीनरी में उपयोग किये जाने वाले घरेलु नुस्खे इसमें सफल हो रहे हैं। आधुनिक औषधी विज्ञान में उपयोगी ग्वारपाठा, हल्दी एवं हल्दी का उपयोग पशुओं में थनैला रोग में उत्पन्न होने वाली सूजन को ठीक करने के साथ-साथ रोगाणुरोधी भी सिद्ध हो चुका है। इसी प्रकार, लेवटी में केवल सूजन होने पर सरसों या नारियल का तेल, लहसुन, हल्दी एवं तुलसी के पत्तों का कारगर प्रभाव मिलता है। जीरा, काली मिर्च, धनिया, लहुसन, तुलसी, प्याज, हल्दी एवं अन्य घरेलु सामग्रियों का उपयोग पशु के बुखार होने पर किया जाता है।

जन एवं पशु स्वास्थ्य और रोगाणुरोधी पर्यायवरण को ध्यान में रखते हुए, यहाँ पर कुछ घरेलु नुस्खे दिये जा रहे हैं जिनका उपयोग पशुओं में शोथ, शोफ, बुखार होने पर किया जा सकता है ताकि बेवजह पशुओं को एंटीबायोटिक्स, दर्दनिवारक दवाओं के प्रकोप से बचाया सके। इन घरेलु उपयोग औशधीयों के उपयोग से न केवल रोगाणुरोधी दवाओं के बेअसर होने और सूजनहारी, दर्दनिवारक एवं ज्वरनाशी औषधियों से पर्यायवरण को कोई खतरा होगा बल्कि पशु पालकों का खर्च भी कम होगा। आशा की जाती है कि पशुचिकित्सक एवं पशुपालक इनका उपयोग कर लाभाविन्त अवश्य होंगे।

थनैला (सभी प्रकार का)

थनैला रोग दुग्ध ग्रन्थि का रोग है जिसमें दुग्ध ग्रन्थियों में सूजन जाती हैं। यह रोग दुधारू पशुओं में आम समस्या है। इसके कारण पशु पालकों को बहुत आर्थिक नुकसान होता है। इसको जड़ से समाप्त नहीं किया जा सकता है लेकिन इसके द्वारा होने वाले नुकसान को अच्छे प्रबन्धन द्वारा कम किया जा सकता है। थनैला रोग के कई कारणों में से सूक्ष्म जीवों द्वारा उत्पन्न थनैला रोग बहुत महत्त्वपूर्ण है। हालांकि कवक, खमीर व वायरस जनित थनैला रोग भी होता है लेकिन जीवाणु जनित थनैला रोग बहुतायत में नुकसान पहुँचाता हैं। जब थन, रोग जनकों के सम्पर्क में आते हैं तो रोग जनक दुग्ध वाहिनी में प्रवेश कर जाते हैं जिससे थनैला रोग उत्पन्न होता है।

और देखें :  प्रोटीन, खनिज तत्वों और विटामिन का पशु प्रजनन पर प्रभाव

थनैला रोग से ग्रसित दुधारू पशु का इलाज पशु पालकों को अत्याधिक मंहगा पड़ता है। ईलाज के बाद भी रोगी पशु से वांछित दुग्ध उत्पादन नहीं लिया जा सकता है। इसके साथ ही थनैला रोग से ग्रसित पशु का दूध प्रतिजैविक दवाओं के उपयोग के कारण पीने योग्य नहीं होता है जिस कारण पशुपालक को अतिरिक्त धन हानि भी उठानी पड़ती है। भारत में, थनैला रोग के कारण होने वाले कुल वार्षिक आर्थिक नुकसान की गणना 7165.51 करोड़ रुपये की गई है (Bansal and Gupta 2009)

थनैला रोग के उत्पन्न होने में प्रबंधन संबंधी जोखिम कारकों की मुख्य भूमिका होती है। पक्के फर्श की तुलना में कच्चे फर्श पर बंधने वाले दुधारू पशुओं में इस रोग के होने का खतरा सबसे अधिक अधिक होता है। यदि पशु गृह की साफ सफाई अच्छी नहीं है तो भी थनैला रोग होने की अत्याधिक संभावना रहती है। इसके अलावा, पशु का दूध दोहने वाले मनुष्य के स्वास्थ्य की स्थिति, प्राणीरूजा रोगों, गंदे कपड़े पहनकर, गंदे हाथों से दुग्ध दोहन करने से थनैला रोग होने की प्रबल संभावना रहती है। दुग्ध दोहन के समय, पूर्ण हस्त विधि अन्य तरीकों की तुलना में बेहतर है, जबकि अंगुठे एवं दो-तीन अंगुलियों की सहायता से या थनों के ऊपर अंगुठा मोड़कर थनों को दबाकर दुग्ध दोहन करने से थनों के ऊतकों को अधिक नुकसान पहुंचता है, जिससे थनैला रोग होने का खतरा अधिक रहता है। आमतौर पर कटड़े/कटड़ीयों को दूध निकालने से पहले पसमाव के लिए चुंगाया जाता है और दुग्ध दोहन करने के बाद उनको दूध पीने के लिए मादा माँ के थनों को चूसने के लिए छोड़ दिया जाता है। लेकिन शोधों से यह भी पता चलता है कि उनके थनों को मुँह में डालने से थनैला रोग बढ़ने की संभावना ज्यादा रहती है। इसके अतिरिक्त, दुग्ध दोहन के बाद लेवटी में दूध कम रह जाता है जिससे बच्चा थनों को मुँह में दबाकर खींचता है और लेवटी में जोर से सिर मारता रहता है जिससे थनों एवं लेवटी के ऊत्तकों को हानि पहुंचती है। ऐसी प्रक्रिया के दौरान थन के माध्यम से लेवटी में प्रविष्ठ किये जीवाणु थनैला रोग के कारक बनते हैं (Rathod et al. 2017)। थनैला रोग से ग्रसित पशु के ईलाज के लिए योग्य पशु चिकित्सक से ही ईलाज करवाना चाहिए। थनैला रोग से प्रभावित पशु का घरेलु उपचार औषधीय पौधों की सहायता से इस प्रकार किया जा सकता है (Mekala et al. 2015, Hema Sayee et al. 2016, Punniamurthy, Nair and Kumar 2016, NRLM 2016, Nair et al. 2017, Punniamurthy 2017 Priya and Mohan 2018):

सामग्री: 1. ग्वापाठा के पत्ते (Aloe vera leaves) : 250 ग्राम
2. हल्दी पाउडर (Turmeric powder) : 50 ग्राम
3. चूना पाउडर (Lime) : 15 ग्राम
4. नींबू (Lemon) : 2 फल
5. कढ़ीपत्ता : दो मुट्ठी

तैयार करने की विधि: सबसे पहले ग्वापाठा के पत्तों को पीस कर इसमें हल्दी पाउडर मिला लें। अब इसमें चूना मिलाकर अच्छी तरह मिक्स करके मलहम बना कर भण्डारित कर लें।

उपयोग विधि:

  • थनों एवं लेवटी को साफ पानी से धो लें। तैयार मिश्रण में से मुट्ठीभर लेकर 150 से 200 मि.ली. पानी मिलाकर पतला कर लें। अब इसको दिन में 8 10 बार, 5 दिन तक या ठीक होने तक लेवटी एवं थनों के ऊपर लगाएं। पशु को दो नींबू काटकर भी प्रतिदिन खिलाएं।
  • सेवन की दूसरी विधि के अनुसार सबसे पहले चारों थनों का दूध निकाल लें। फिर तैयार मलहम का दसवां भाग 100 मि.ली. शुद्ध पानी में मिलाकर लेवटी पर लगाएं। दोबारा फिर एक घण्टे बाद लेवटी को साफ पानी से धोकर लगाएं। ऐसा दिन में 10 बार करें लगातार 5 दिन तक करें। दिन में एक बार दो नींबू काट कर भी प्रभावित पशु को खिलाएं।
  • दूध में खून आने पर उपरोक्त विधि के अतिरिक्त, दो मुट्ठी कढ़ीपत्ता को पीसकर गुड़ के साथ मिलाकर दिन में एक दो, बार ठीक होने तक भी खिलाएं। यदि थनैला रोग ज्यादा दिनों से है तो घृतकुमारी, हल्दी एवं चूना के साथ हाडजोड़ (Cissus quadrangularis) के 2 फल भी मिला लें व 21 दिनों तक इस औषधी को लेवटी पर लगाएं।

औषधीय निर्देश: मलहम लगाने से पहले लेवटी को उबले हुए पानी को ठण्डा होने के बाद लेवटी एवं थनों को अवश्य साफ करें।

अयन थन शोफ

अयन शोफ लेवटी और थनों की सूजन है, जो कभी-कभी पशु के पेट के निचले भाग में भी हो जाती है। अयन शोफ के कारण पशु को दुग्धोहन के समय दर्द होता है। इस रोग में पशु की लेवटी, थनों एवं पेट के ऊत्तकों में पानी भर जाता है। कभी-कभी, सूजन इतनी गंभीर होती है कि पेट और पैरों के बीच की चमड़ी में घाव बन जाते हैं जिसमें संक्रमण भी हो जाता है। गंभीर रूप से प्रभावित गाय/भैंस में, जिनका समय पर उपचार नहीं हो पाता है, में लेवटी और थनों के ऊत्तकों में दीर्घकालिक क्षति हो सकती है और लेवटी लटकी हुई सी बन जाती है (MVM 1998)। ब्याने से पहले ज्यादा मात्रा में पशु को दी गई ऊर्जा या सोडियम या पोटेशियम भी शोफ की संभावना को बढ़ा सकते हैं (Vestweber and Al Ani 1983)। आहार में अतिरिक्त रूप से दिया गया पोटेशियम एवं सोडियम, शरीर में पानी प्रतिधारण के साथ-साथ पोटाशियम उत्सर्जन को बढ़ाकर रेनिन एंजियोटेंसिन तन्त्र के माध्यम से शोफ को बढ़ा सकता है (Sanders and Sanders 1981)। इस रोग से प्रभावित पशु का उपचार औषधीय पौधों की सहायता से इस प्रकार किया जाता है (Balaji and Chakravarthi 2010, Punniamurthy, Nair and Kumar 2016):

सामग्री: 1. तिल/सरसों का तेल (Sesame/Mustard oil) : 200 मि.ली.
2. हल्दी पाउडर (Turmeric powder) : 1 मुट्ठी
3. कटा हुआ लहसुन (Sliced garlic) : 2 कलियाँ

तैयार करने की विधि:

  • तेल को गर्म करें।
  • हल्दी पाउडर एवं कटी हुई लहसुन की कलियाँ डालकर अच्छी तरह मिला लें।
  • अब जैसे ही गर्म करते समय इसमें से गंध आने लगे तो आँच से नीचे उतार लें (उबालने की आवश्यकता नहीं है)।
  • इसे ठण्डा होने दें।

नोट: एक मुट्ठी तुलसी (Ocimum sanctum) के पत्तों को भी हल्दी एवं लहसुन के साथ तेल में डाल सकते हैं।

उपयोग विधि:

  • शोफ (Oedema) वाले अयन, थन या भाग पर थोड़ा बल के साथ गोलाकार तरीके से लगाएं।
  • इसे दिन में चार बार लगातार तीन दिन तक लगाएं।

औषधीय निर्देश: इस विधि का उपयोग करने से पहले थनैला रोग की अवश्य जाँच कर लें।

थन टूट कर गिरना (Teat sloughing)

आमतौर पर दुधारू पशुओं में थन अथवा लेवटी संबंधित समस्याएं देखने को मिलती रहती हैं जिन में से थनैला रोग सर्वविधित है लेकिन दुधारू पशुओं की लेवटी या थनों में अचानक ही सूजन आ जाती है। प्रसवपूर्व भी बहुत से प्रसवकालिन पशुओं में शोफ (Oedema) हो जाती है जिसका समय पर इलाज न होने के कारण स्थिति गम्भीर बन जाती है। कई बार थनों में सूजन अचानक ही दुग्ध दोहन करते समय ही देखने को मिल जाती है। थनों में अचानक ही सूजन आ जाना असाध्य रोग बन जाता है और अंत: थन सूज कर फट जाता है या टूट कर नीचे गिर जाता है (Teat sloughing) जिससे थन या लेवटी में घाव बन जाता है। प्रसवकालिन पशुओं में ज्यादा दिनों तक शोफ (Oedema) रहने से थनों में रक्त प्रवाह नहीं होने से थनों में गलन (Gangrene) की समस्या होने से थन टूट कर गिर जाते हैं। टूटे हुए थन के स्थान पर लेवटी में घाव बन जाता जाता है। ऐसे में असमय ही पशुपालक के धन का व्यय तो होता ही है साथ ही थन से दूध आना भी बंद हो जाता है। ऐसी स्थिति में यदि धैर्यपूर्वक उपचार करवाया जाता है तो जहाँ धन का अपव्यय तो बचता ही है लेकिन साथ ही लेवटी में बना घाव जल्दी ठीक हो जाता है। इसके लिए आधुनिक चिकित्सा के रूप में घर पर तैयार की जाने वाली निम्नलिखित औषधियों का उपयोग चमत्कारिक परिणाम दे सकता है।

उपचार न. 1.: दो चम्मच मक्खन में 5 ग्राम हल्दी पाउडर मिलाकर मलहम बना लें और इसे दिन में 3 4 बार प्रभावित अंग पर लगाने के बाद उस पर हल्छी पाउडर छिड़क दें। इस प्रक्रिया को जख्म ठीक होने तक दोहराते रहना चाहिए। (Prof. Punniamurthy N)

उपचार न. 2.: जख्म के उपचार के लिए घरेलु औषधियों (त्रिफला काढ़ा; नारीयल, तुलसी, कुप्पी, नीम, मेंहदी, हल्दी एवं लहसुन का तेल एवं सूखा हल्दी पाउडर) को तैयार करके पशु के प्रभावित भाग पर लगाया जाता है। त्रिफला काढ़ा एवं तेल इस प्रकार तैयार करें (Dr. Nair M.N.B)

और देखें :  बाढ़ की विभीषिका के बाद पशुओं में होने वाले रोग एवं उनसे बचाव

त्रिफला काढ़ा: त्रिफला बीज निकाले हुए तीन प्रकार के फलों का मिश्रण होता है जिसमें एक भाग हरड़, दो भाग बहेड़ा एवं तीन भाग आँवला के बीज रहित फलों को पीसकर मिलाया जाता है। यह बाजार में तैयार किया हुआ भी आसानी से मिल जाता है। त्रिफला का काढ़ा बनाने के लिए 100 ग्राम त्रिफला पाउडर को 400 मि.ली. पानी में डाल कर एक चौथाई रहने तक हल्की आँच पर पकाया जाता है। 100 मि.ली. रहने पर इसको सूती कपड़े के साथ छानकर लें। और इस काढ़े से घाव को धोएं।

नारीयल, तुलसी, कुप्पी, नीम, मेंहदी, हल्दी एवं लहसुन का तेल: अब एक बर्तन में 250 मि.ली. नारीयल (Cocos nucifera) का तेल डालें और इसमें एक एक मुट्ठी तुलसी (Ocimum sanctum), कुप्पी (Acalypha indica), नीम (Azadirachta indica) और मेंहदी के पत्तों को डाल दें। साथ ही 20 ग्राम हल्दी (Curcuma longa) पाउडर और 5 लहसुन (Allium sativum) की कटी हुई कलियाँ भी डाल दें। अब इनको हल्की आँच पर पकाएं लेकिन ध्यान रहे कि यह सामग्री पकाते समय यह सामग्री काली न पड़े और आँच से नीचे उतार कर ठण्डा होने के लिए रख लें। इस तेल का उपयोग सभी प्रकार के घावों के लिए किया जा सकता है।

सूखा हल्दी पाउडर: इसके लिए बाजार में उपलब्ध हल्दी पाउडर या घर पर ही सूखी हल्दी की गाँठ को बारीक पीसकर पाउडर बनाकर उपयोग किया जा सकता है।

उपयोग करने की विधि: सबसे पहले त्रिफला के काढ़ा से जख्म को धोएं और इसे सूखने दें। अब इस पर हल्दी पाउडर लगा कर, ऊपर से उपरोक्त तैयार तेल का लेप दिन में तीन बार, घाव के ठीक होने तक करें।

उपचार न. 3.: 100 ग्राम मक्खन में बाजार में उपलब्ध 20–25 ग्राम जिंक ऑक्साइड का पाउडर मिलाकर दिन में 3–4 बार, ठीक होने तक लगाने से भी अच्छे परिणाम देखने को मिलते हैं।

विशेष: थनों या लेवटी में अचानक सूजन आ जाने पर पशु की लेवटी पर लगभग एक घण्टा ठण्डा पानी डालने से आराम मिलता है और थन फटने या टूट कर गिरने से बच जाता है।

यदि लेवटी में शोफ (Oedema) है तो एक फ्राई पान में 200 मि.ली. तिल या सरसों का तेल लेकर गर्म करें (उबालने की आवश्यकता नहीं) और उसमें एक मुट्ठी हल्दी पाउडर और लहसुन की दो कटी हुई कलियों को भी डालकर अच्छी तरह मिला लें। खुशबुदार गंध आने पर इसे आँच से नीचे उतार कर ठण्डा कर लें। अब इस तेल को शोफ वाली लेवटी पर गोल गोल घुमाकर दिन में चार बार, तीन दिन तक मालिश करें।

थनैला रोग होने पर घृतकुमारी (Aloe vera) के 250 ग्राम पत्तों को छोटे छोटे टुकड़ों में काटकर मिक्सी में पीसकर इसमें 50 ग्राम हल्दी पाउडर एवं 10 ग्राम चूना अच्छी तरह मिला लें। अब इस में से थोड़ी सी पेस्ट हथेली में लेकर उसमें पानी मिलाकर लेवटी पर दिन में 8–10 बार, ठीक होने तक लगाएं। इससे अत्याधिक लाभ मिलता। इस पेस्ट को हर रोज तैयार करें।

थन में रूकावट

आमतौर पर थन के अग्रभाग में सूजन आने के कारण दुधारू पशु के थन में रूकावट के कारण दूध आना बंद हो जाता है। शुरूआती अवस्था में प्रभावित थन में से दूध की धार बारीक हो जाती है और दूध भी सख्ती से ही निकलता है। यदि इसी अवस्था में ही इसका उपचार नहीं किया जाता है तो सख्ती से थन को दबाने से उसके ऊत्तकों को नुकसान होता है और समस्या बढ़ती जाती है और एक दिन वह समय भी आता है जब थन में से न केवल दूध निकालना ही मुश्किल हो जाता है बल्कि वह बंद भी हो जाता है। थन के सुराख में रूकावट होने पर दूध निकालने के लिए ज्यादा सख्ती से दूध निकालने के कारण उस थन पर घाव भी हो जाते हैं। और, ऐसी अवस्था में थन के सुराख बन्द होने की इस समस्या को आमतौर मूसड़ी रोग कहा जाता है। दबाने से उसमें सख्त गाँठ महसूस होती है जिसे आमतौर पर काटकर ही निकाला जाता है। ज्यादातर ऐसे थनों में संक्रमण बढ़ने से थनैला रोग हो जाता है और लेवटी का वह भाग ही निष्क्रिय होकर दुग्ध उत्पादन बंद कर देता है। ऐसे थन, जिनमें दूध की रूकावट पैदा हो जाती है, पशु एवं उसके आवास की साफ सफाई के अलावा निम्नलिखित घरेलु उपाय किया जा सकता है (Punniamurthy, Nair and Kumar 2016):

सामग्री:

  • नीम की पत्ती का डंठल (Neem leafstalk)
  • हल्दी पाउडर (Turmeric powder)
  • मक्खन या घी (Butter or Ghee)

तैयार करने की विधि:

  • थन की लम्बाई के आधार पर नीम पत्ती के डण्ठल को आवश्यक लम्बाई तक काट लें।
  • अब इस डण्ठल पर, हल्दी पाउडर और मक्खन / घी के मिश्रण को अच्छी तरह लगा लें।

उपयोग विधि: अब इस लेपित नीम के पत्ते के डण्ठल को, घड़ी की सुई के विपरीत दिशा में घुमाते हुए अवरोधित थन के सुराख में अन्दर डालें।

औषधीय निर्देश: हर बार दूध निकालने के बाद, ताजी नीम की पत्ती की डण्ठल का ही उपयोग करें। ऐसा करते समय थन, लेवटी एवं हाथों की साफ सफाई होना आवश्यक है।

थनों पर बुवाईयाँ / चेचक / मस्से

चमड़ी की बाहरी परत वसीय अम्लों से ढकी होती है जो इसे रोगाणुओं से बचाने में सहायता करती है। लेकिन ठण्ड, नमी और वायु इत्यादि के प्रभाव से, मशीन से दूध निकालने पर थनों की चमड़ी अक्सर रूखी सी हो जाती है जो कई बार छिल भी जाती है और थन पर बुवाईयाँ पड़ जाती हैं। यदि समय पर थनों में बुवाईयों का उपचार नहीं किया जाता है तो इन्हीं में से रोगाणु आसानी से चमड़ी के माध्यम से लेवटी में प्रवेश कर थनैला रोग पैदा कर देते हैं। इसी प्रकार लेवटी पर चेचक या मस्से होने पर कई बार स्थिति और भी अधिक खराब हो जाती है। अतः थनों पर बुवाईयाँ पड़ने, चेचक या मस्से होने पर तुरन्त नजदीकी पशुचिकित्सक से ईलाज करवाना चाहिए। ऐथनोवेटरीनरी चिकित्सा के रूप में निम्नलिखित उपाय किया जाता है (Punniamurthy, Nair and Kumar 2016):

सामग्री: लहसुन (Garlic) : 5 कलियाँ
हल्दी पाउडर (Turmeric powder) : 10 ग्राम
जीरे के बीज (Cumin seeds) : 15 ग्राम
मरूआ तुलसी (Sweet basil) के पत्ते : 1 मुट्ठीभर
नीम (Neem) के पत्ते : 1 मुट्ठीभर
मक्खन (पसंदीदा) या घी (Butter or Ghee) : 50 ग्राम

तैयार करने की विधि:

  • जीरे के बीजों को 15 मिनट के लिए पानी में भिगोकर रख दें।
  • अब सभी सामग्रियों को पीसकर बारीक पेस्ट में बना लें।
  • पेस्ट बनाने के बाद इसमें मक्खन भी अच्छी तरह मिला लें।

उपयोग विधि:

  • पेस्ट लगाने से पहले प्रभावित भाग को साफ पानी धो कर सूखा लें।
  • तैयार पेस्ट को प्रभावित थनों या लेवटी पर लगाएं।

औषधीय निर्देश: प्रभावित भाग पर दिन में तीन बार, रोग के ठीक होने तक यह पेस्ट लगाते रहें।

दूध में खून आना

आमतौर पर कई बार दुधारू पशुओं के दूध में खून आने लगता है जिससे दूध का रंग लाल या गुलाबी हो जाता है जिसे अक्सर उपभोक्ताओं द्वारा अस्वीकार कर दिया जाता है और पशुपालकों को आर्थिक हानि उठानी पड़ती है। स्त्रावित रक्त के छोटे छोटे छिछड़े होते हैं जिनका दूध निकालते समय पता नहीं चलता है और दूध साफ दिखायी देता है लेकिन रखने के कुछ देर बाद दूध का रंग लाल या गुलाबी होने लगता है। इसके लिए निम्नलिखित घरेलु उपचार किये जा सकते हैं:

पारंपरिक उपचार:

  • चार चम्मच जीरा, 4 लौंग, एक बादाम एवं 1 कपूर की गोली को मिलाकर भूनकर पाउडर बना लें और इस मिश्रण में दो चेरी (Prunus puddum) को मिलाकर प्रतिदिन 5 दिन देने से रक्त धमनियाँ संकुचित होने से रक्तस्राव बंद हो जाता है (Naik et al. 2012)
  • पशु के थनों में रक्त रंजित दुग्ध आने पर एक केले (Musa paradisiaca) में एक गोली कपूर (4 ग्राम) की मिलाकर सुबह शाम दो दिन तक पशु को खिलाने से दूध में रक्त आना बन्द हो जाता है (साधना 2009)

बुखार

किसी भी प्रकार के संक्रमण में पशुओं को ज्वर (Fever) होना रोगों से लड़ना शरीर की सामान्य प्रक्रिया है जिसके लिए शरीर में विभिन्न प्रकार के तत्व बनते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान संक्रमित पशु को ज्वर हो जाता है जिसके लिए निम्नलिखित घरेलु उपचार किया जाता है:

घर में उपलब्द्ध निम्नलिखित सामग्रियों की सहायता से तैयार औषधी को बुखार से पीढ़ित व्यस्क पशु को दी जा सकती है (Punniamurthy, Nair and Kumar 2016):

सामग्री: (i)            जीरा (Cumin seeds) : 10 ग्राम
(ii)          काली मिर्च (Black pepper) : 10 ग्राम
(iii)        धनिया के बीज (Coriander seeds) : 10 ग्राम
(iv)        लहुसन (Garlic) : 2 कलियाँ
(v)           तुलसी (Holy basil) के पत्ते : 1 मुट्ठी
(vi)        मरूआ तुलसी (Sweet basil) : 1 मुट्ठी
(vii)      दालचीनी (Cinnamon) के सूखे पत्ते : 10 ग्राम
(viii)    पान के पत्ते (Betel leaves) : 5
(ix)        प्याज (Onions) : 2
(x)           हल्दी पाउडर (Turmeric powder) : 10 ग्राम
(xi)        चिरायता (Chirayita) के पत्तों का पाउडर : 20 ग्राम
(xii)      नीम के पत्ते (Neem leaves) : 1 मुट्ठी
(xiii)    गुड़ (Jaggery) : 100 ग्राम
और देखें :  नवजात शिशु (बछड़े) का संतुलित आहार

तैयार करने की विधि:

  • जीरा, काली मिर्च और धनिये के बीजों को 15 मिनट के लिए पानी में भिगोकर रख दें।
  • 15 मिनट के बाद पानी में से बीजों का निकालकर कूट लें और इसमें अन्य सारी बतायी गई सामग्री को मिलाकर कूट लें जिससे कि सारी सामग्री एक पेस्ट की तरह बन जाए।

उपयोग विधि: तैयार औषधी का आधा आधा भाग सुबह शाम बुखार से ग्रसित पशु को खिलाएं।

औषधीय निर्देश: बुखार होने के बहुत कारण हैं जिसका उपचार होना कई बार ही मुश्किल होता है। अत: उपरोक्त ऐथनोवेटरीनरी उपाय पशु चिकित्सक देख रेख में करें।

योनिभ्रंश

गाय भैंसों में गर्भाशय, ग्रीवा एवं योनि का भग के रास्ते बाहर से बार बार दिखायी देना अथवा सरक कर योनिद्वार के बाहर आ जाना पशु पालकों के लिए एक गम्भीर समस्या बन जाती है। कभी-कभी उसके साथ-साथ मलाशय भी बाहर निकल आता है और यदि समय रहते ध्यान न दिया जाए तो समस्या एक गम्भीर रूप ले लेती है। यह विकार प्रसव के बाद की अपेक्षा प्रसव पूर्व अधिक पाया जाता है। प्रथम प्रसविनि पशुओं की अपेक्षा बहु प्रसविनि पशुओं में यह दोष अधिक होता है। किसी पशु में यह व्याधि बार बार होती रहती है विशेषकर जबकि पशु ऋतुमय होते हैं और हर बार ऋतुमय होने पर यह व्याधि हो जाती है इस को पशुपालक अल्प कीमत में ही बेच देते हैं। यह व्याधि गायों की तुलना में भैंसों में अधिक होती है।

सामग्री (Punniamurthy, Nair and Kumar 2016):

  • ग्वारपाठा (Aloe vera) का गुद्दा          : एक पत्ती से निकाला हुआ
  • हल्दी पाउडर (Turmeric powder) : एक चुटकी
  • छुईमुई (Touch me not) के पत्ते : दो मुट्ठी

तैयार करने की विधि:

  • ग्वारपाठा के एक पत्ते से गृद्दा निकाल लें।
  • इसमें मौजूद चिपचिपापन दूर करने के लिए कई बार पानी से धोएं।
  • अब इसमें एक चुटकी हल्दी मिलाकर आधा रहने तक उबाल लें।
  • उबलने के बाद आँच से नीचे उतारकर ठण्डा होने के लिए रख दें।
  • छूईमुई के पत्तों को पीसकर पेस्ट बनाकर रख लें।

उपयोग विधि:

  • योनि के बाहर निकले हुए अंग को पानी की सहायता से अच्छी तरह साफ करे लें।
  • अब इस भाग पर ग्वारपाठा की जैल को लगाएं।
  • ग्वारपाठा की जैल सूख जाने पर छुईमुई के पत्तों की पेस्ट लगा दें।
  • जब तक बाहर निकली हुई योनि अन्दर नहीं चली जाए तब तक यह प्रयोग दोहराते रहें

इसके अतिरिक्त निम्नलिखित घरेलु उपाय भी कारगर सिद्ध हुआ है:

बरगद के पेड़ की 50–60 ग्राम दाढ़ी (Aerial roots of Banyan tree) को कूटकर पीढ़ित पशु को दिन में एक बार, 3–4 दिन देने से पशु ठीक होते हैं।

गुदाभ्रंश

पशुओं में गुदाभ्रंश आमतौर पर बहुत कम देखने को मिलता है। अग्रिम अवस्था पर इसका ईलाज हो पाना मुश्किल होता है। यदि पशुपालकों को परंपरागत औषधी का ज्ञान हो तो इस समस्या को नियन्त्रित करके असमय होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है। गुदाभ्रंश के लिए बरगद के पेड़ की 50–60 ग्राम दाढ़ी को कूटकर पीढ़ित पशु को दिन में एक बार, 3–4 दिन देने से लाभ मिलता है।

जेर अटकना

सामग्री: एक पत्ती से निकाला हुआ ग्वारपाठा का गुद्दा, एक चुटकी हल्दी पाउडर एवं दो मुट्ठी छुईमुई के पत्ते।

तैयार करने की विधि:

  • ग्वारपाठा के एक पत्ते से गृद्दा निकाल लें।
  • इसमें मौजूद चिपचिपापन दूर करने के लिए कई बार पानी से धोएं।
  • अब इसमें एक चुटकी हल्दी मिलाकर आधा रहने तक उबाल लें।
  • उबलने के बाद आँच से नीचे उतारकर ठण्डा होने के लिए रख दें।
  • छूईमुई के पत्तों को पीसकर पेस्ट बनाकर रख लें।

उपयोग विधि:

  • योनि के बाहर निकले हुए अंग को पानी की सहायता से अच्छी तरह साफ करे लें।
  • अ ब इस भाग पर ग्वारपाठा की जैल को लगाएं।
  • ग्वारपाठा की जैल सूख जाने पर छुईमुई के पत्तों की पेस्ट लगा दें।
  • जब तक बाहर निकली हुई योनि अन्दर नहीं चली जाए तब तक यह प्रयोग दोहराते रहें।

अफारा एवं अपच

सामग्री: 10 ग्राम काली मिर्च, 10 ग्राम जीरा के बीज, 100 ग्राम प्याज, 10 कलियाँ लहसुन, 2 सूखी मिर्च, 10 ग्राम हल्दी पाउडर, 100 ग्राम गुड़, 10 पान के पत्ते, 100 ग्राम अदरक।

तैयार करने की विधि:

  • सबसे पहले काली मिर्च एवं जीरे के बीजों को आधा घण्टे के लिए पानी में भिगो कर रख दें।
  • पानी से इन बीजों को निकालकर पीस लें।
  • अब इसमें अन्य सामग्रीयों को भी मिलाकर अच्छी तरह कूट लें।

उपयोग विधि: तैयार मिश्रण के छोटे-छोटे लड्डू बनाकर दिन में 3-4 बार, तीन दिन तक पशु को खिलाएं।

घाव (कीड़ेयुक्त)

घावों में कीड़े हो जाने पर आमतौर पर फेनाइल या तारपीन के तेल का उपयोग किया जाता है। लेकिन नीम के पत्तों की चटनी बनाकर घाव में भरने से कीड़े मरने सहित घाव भी ठीक होता है। नीम के पत्तों की चटनी घाव में लगाने से पहले उसे अच्छी तरह साफ कर लें और जितने कीड़े निकाल सकें तो निकाल दें अयन्था यह चटनी इनको साफ करने में लाभकारी है।

दस्त

पशुओं को दस्त लगने पर आमतौर पर सबसे पहले पेट के कीड़ों की दवाई दी जाती है। इससे से भी पशु को आराम नहीं मिलता है तो जीवाणुरोधी दवाएं दी जाती हैं जिनके देने से बहुत से पशुओं को आराम मिल जाता है लेकिन कुछ पशु ठीक होने के बाद दोबारा से पीढ़ित हो जाते हैं।

सामग्री: 10 ग्राम जीरा, 10 ग्राम मेथी दाना, 5 ग्राम खसखस के बीज, 10 ग्राम काली मिर्च, 10 ग्राम हल्दी पाउडर, 5 ग्राम हींग, 2 पीस प्याज, 2 कलियाँ लहसुन, 2 मुट्ठी-भर कढ़ी पत्ता, 100 ग्राम गुड़।

तैयार करने एवं सेवन की विधि: जीरा, मेथी, खसखस, काली मिर्च, हल्दी एवं हींग को एक कढ़ाही में लेकर आंच पर अच्छी तरह से भून लें। कढ़ाही को नीचे उतार कर सामग्री को बाहर निकाल कर पीस कर रख लें। प्याज, लहसुन एवं कढ़ी पत्ता को पीस कर चटनी बना लें एवं इसमें गुड़ भी मिला लें। अब दोनों प्रकार की तैयार सामग्री को अच्छी तरह मिला कर  उसके लड्डू बना लें। तैयार लड्डूओं को नमक लगा कर पशु को खिलायें (जीभ पर धीरे से रगड़ें)।

फील्ड में परंपरागत औषधी विज्ञान के रूप में तीन बैंगन (लगभग 500 ग्राम) को आँच पर भूरथा बनाने की तरह भून लें और 2–3 टुकड़ों में काटकर नमक (10–15 ग्राम) लगाकर, दिन में एक बार, 3–4 दिन तक खिलाने से पशु के दस्त ठीक होते हैं। (Punniamurthy N)

अंत:परजीवी

सामग्री: 10 ग्राम काली मिर्च, 10 ग्राम जीरा के बीज, 10 ग्राम सरसों के बीज, 1 प्याज, 5 कलियाँ लहसुन, 1 मुट्ठी नीम के पत्ते, 50 ग्राम करेला, 5 ग्राम हल्दी पाउडर, 100 ग्राम केले का तना, 1 मुट्ठी द्रोणपुष्पी एवं 100 ग्राम गुड़।

तैयार करने की विधि:

  • सबसे पहले काली मिर्च एवं जीरे के बीजों को आधा घण्टे के लिए पानी में भिगो कर रख दें।
  • पानी से इन बीजों को निकालकर पीस लें।
  • अब इसमें अन्य सामग्रीयों को भी मिलाकर अच्छी तरह कूट लें।

उपयोग विधि: तैयार मिश्रण के छोटे-छोटे लड्डू बनाकर दिन में एक बार, तीन दिन तक पशु को खिलाएं।

इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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